कभी कभी अच्छा लगता है
होकर मौन रहे बैठें हम
पानी में कंकर को फेंके
गिनते रहे तरंगों को हम
और कभी छत पर लेटॆ हों
जगमग तारों को देखें हम
छाती पर हाथों को बाँधे
सुनते दिल की धडकन को हम
आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम
शुरु की दो पंक्तियाँ राकेश खंडेलवाल जी कि रचना की हैं....आगे कोशिश की है उन्हे बढाने की....
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
3 comments:
आँख मूंदकर मन ही मन में
मौन की बोली बोलें तब हम
ये लाईनें बहुत अच्छी लगीं।
शुक्रिया अनूप जी...
आपने पसंद किया....
क्या बात है...धंंजय जी
ऐसी काव्यमय प्रतिक्रिया पर तो लिखना कोई कैसे बंद करे.....
हम तो वही लिख रहे हैं जो मन में डोल रहा है
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