5/10/2005

एक चिट्ठा मेरा भी.....

हिन्दी में लिखना लगभग छूट सा गया था....स्कूल और कालेज के बाद हिन्दी में सिर्फ पढ ही रही थी........पत्र वगैरह भी लिखना कम हो गया था .....फोन से सब काम चल रहे थे...
फिर नेट का ज़माना शुरु हुआ..तब रोमन में हिन्दी लिख कर मन बहला लिया करते थे.......
पढने का जो कीडा कुलबुलाया करता उसने मज़बूर किया गूगल के शरण में जाकर हिन्दी पत्रिका खोजने के लिये.......
सफलता मिली साथ में अभिव्यक्ति और अनुभूति को पढने का चस्का भी.......
फिर गाहे बगाहे पढते रहे......पहली कहानी अभिव्यक्ति के "माटी के गंध " मे चुनी गई और छपी.....फिर अनुभूति पर समस्यापूर्ति में कवितायें लिखना शुरु किया.....और जैसा सब जानते हैं..ये छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं.....
तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......
चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे.........
शेष फिर

4 comments:

विजय ठाकुर said...

काफिले मे सबके कदम लडखडाते ही पहुँचते है प्रत्यक्षाजी पर चिट्ठाकार समूह तो एक परिवार सा है अब मुझे ही देखिए कम्प्यूटर पर हिन्दी लिखना तो क्या किसी तरह ई-मेल और वर्ड प्रोसेसिग किया करता था और ऊँगली धर कर चलते चलते आज सबके साथ कदमताल कर रहा हूँ. कोई समस्या होने पर जीतेन्द्रजी, स्वामीजी, रमण साहब, अतुल, पँकज कितने दिग्गज़ बैठे है, सिर्फ एक ई-मेल भेजने भारत की देरी है.

Pratyaksha said...

दिग्गजों की कतार में कुछ stragglers (मेरे जैसे)को, अनुमति है या नहीं...:-)
एक बात बिलकुल सही कहा आपने....मदद की कमी नहीं है
और सबसे बडी बात की जवाब/हल तुरत आता है..किसी भी समस्या का....
यहाँ देव नागरी लिखने में बहुत तुष्टि मिल रही है...
एक बार फिर शुक्रिया

अनूप शुक्ल said...

अरे कोई दिग्गज-फिग्गज नहीं है.सब साथी हैं. लिखिये जमकर ,पढ़िये मनभरकर.शुरुआत अनुगूंज से करिये.लिख डालिये एक पत्र धांसू सा.जो होगा देखा जायेगा.

Deepak said...

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