अकॉर्डियन पर कोई धुन बजाता है , घूम जाता है , पुराने चिरमिखी बटुये से सोने की धूल छिटक पड़ती है , दिन बीतता है रात आती है , कुहासे में कोई महीन चीख कौंधती है , गुम होता है मन , छाती डूब डूब डूबती है , पूरे भरे तालाब में जैसे एक , सिर्फ एक कमल का फूल , गुम जाता है धुँध में , पानी से उठता है जाने क्या ?
चेहरे पर गर्म भाप की नमी का सुकून है , बेचैन दिल की राहत है , ठहरा हुआ मन तैरता है कागज़ के नाव सा डोलता है , उबडुब .. सपने की उड़ान में मुस्कुराता है , जी कहीं ठौर नहीं लगता ? ऐसा क्यों है भला ? का भोला प्रश्न हवा में टंगा है दीवार की कील सा , अकेला , खुला , अनुत्तरित .. बेआवाज़ ?
भीतर इतना शोर है , बाहर कैसी अबूझ शाँति । कोहरे के पार हाथों हाथ न सूझता संसार है , पीली कमज़ोर रौशनी है , मुँह से निकली , बात की जगह , भाप का गोला है , गर्म है नर्म है , चाँदी की महीन दीवार है । मन की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों के ठीक उलट कितना साफ , कितना फीका ..ये कैसा सरल संसार है । गज़ब !
ऐसा संसार जहाँ खुशी चहकती हो चिड़िया की चोंच से , धूप उतरता हो गर्माहट में , पीठ से , कँधों से , मन के भीतर , अंजोर फैलता हो आत्मा में , किसी बच्चे की खिलखिल हँसी सी तृप्ति में , चित्त लेटे धरती पर देखें आसमान को , नीले आसमान में फाहे आवारा बादल को और घर लौटने की जल्दी न हो , दिन बीतने की जल्दी न हो , धूप आँख को लगे तो बाँह रख लें चेहरे पर ओट में .. ऐसी दुनिया ऐसी ही दुनिया..
क्लोद मोने की फील्ड ऑफ पॉपीज़ ..खसखस के खेत में ..काश काश काश !
12/23/2008
बाघ की आँख
बाघ की आँख एक बार घूम जाती है अंदर
- यहाँ हँसना मना है , उसकी आवाज़ में संजीदगी है
- पर मुझे हँसे बिना रहा जाता नहीं
- देन आयम सॉरी
गर्म पानी के कुंड में घुसते ही कोई बर्फबारी कर दे , दूर खच्चरों की कतार बोझ से दबे, सर झुकाये , पहाड़ों के साये में चलती जाती है , बिना हरी घास के , उनके आभास के , यहाँ तक कि बिना उसकी आकांक्षा के ..
- मुझे ऐसे ही तुम बदल देना चाहते हो ?
आज मैंने पहनी है फूलों वाली रंगीन साड़ी ,इतने फूल कि हर कोई आ कर कह जाता है
आज धूप खिली है, तितलियों का मौसम है शायद ..
बाहर जब की कुहासा है और मैं तुमसे कुछ नहीं बोलना चाहती। जैसे हाईबरनेशन की कोई प्रक्रिया शुरु हो गई है । हलाँकि अमूमन सर्दियों में मैं बहुत अच्छा महसूस करती हूँ , बरसों से । लगता है जैसे जीवन की शुरुआत ही हुई है अभी , सफर पूरा बाकी है और रास्ते के सब अजूबे बाकी हैं देखने को अभी ।
गहरे कोहरे में, रात को गाड़ी चलाते , फॉगलाईट की रौशनी टकरा कर वापस विंडस्क्रीन तक लौट आती है । और हज़ार छोटे कणों में छिटक जाती है । गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी कर मैं साफ करती हूँ शीशा और किसी धुन में बना देती हूँ एक चेहरा , उसकी उठी भौंहों में जाने किस कौतुक का राज़ है । पानी और भाप की बून्दें मिलकर चेहरे को गडमड कर देती हैं , बनते बनाते मिटा देती हैं । सड़क के किनारे रद्दी कागज़ और कूट जलाते दो लोग लोई ओढ़े आग तापते देखते हैं मुझे । मेट्रो का काम चल रहा है । कुहासा थमे तो फिर शुरु होगा , वेल्डिंग से निकली चिंगारियाँ धूल में गिरकर विलीन होंगी , एक पल की नीली गर्मी का संकेत।
पर सर्दी इनको पसंद नहीं करती जैसे ये नहीं करते होंगे । गर्म कपड़े और साबुत घर जो रोक सके तेज़ बरछी ठंडी हवा को , हड्डियाँ जमती होंगी , बच्चों के नाक बहते होंगे , पैरों हाथों की उँगलियाँ अकड़ती होंगी । हमेशा ठिठुरता शरीर किधर खोजता होगा गर्मी ?
मौसम की पसंद भी स्थिति पर निर्भर करती है । ये बात अचानक मेरे दिमाग में धँसती मुझे ऐसा त्रास देती है । जो सहूलियतें सहज स्वाभाविक तरीके से मयस्सर होनी चाहियें वो कहाँ और क्यों गायब हो जाती हैं ?
तुम कुछ नहीं समझोगे । सिर्फ कहोगे , हँसना मना है और मैं कहूँगी , सुनो ये बाघ की आँख दिखती है तुम्हें ? मुझे दिखती है , क्यों दिखती है ?
( ये स्केच बहुत पहले बनाया था , कल कुछ आड़ी तिरछी लकीरें खींचते उन्हें इतना आड़ा तिरछा पाया कि अपने को रिमाईंड करने के लिये ये फिर से यहाँ चिपका रही हूँ )
- यहाँ हँसना मना है , उसकी आवाज़ में संजीदगी है
- पर मुझे हँसे बिना रहा जाता नहीं
- देन आयम सॉरी
गर्म पानी के कुंड में घुसते ही कोई बर्फबारी कर दे , दूर खच्चरों की कतार बोझ से दबे, सर झुकाये , पहाड़ों के साये में चलती जाती है , बिना हरी घास के , उनके आभास के , यहाँ तक कि बिना उसकी आकांक्षा के ..
- मुझे ऐसे ही तुम बदल देना चाहते हो ?
आज मैंने पहनी है फूलों वाली रंगीन साड़ी ,इतने फूल कि हर कोई आ कर कह जाता है
आज धूप खिली है, तितलियों का मौसम है शायद ..
बाहर जब की कुहासा है और मैं तुमसे कुछ नहीं बोलना चाहती। जैसे हाईबरनेशन की कोई प्रक्रिया शुरु हो गई है । हलाँकि अमूमन सर्दियों में मैं बहुत अच्छा महसूस करती हूँ , बरसों से । लगता है जैसे जीवन की शुरुआत ही हुई है अभी , सफर पूरा बाकी है और रास्ते के सब अजूबे बाकी हैं देखने को अभी ।
गहरे कोहरे में, रात को गाड़ी चलाते , फॉगलाईट की रौशनी टकरा कर वापस विंडस्क्रीन तक लौट आती है । और हज़ार छोटे कणों में छिटक जाती है । गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी कर मैं साफ करती हूँ शीशा और किसी धुन में बना देती हूँ एक चेहरा , उसकी उठी भौंहों में जाने किस कौतुक का राज़ है । पानी और भाप की बून्दें मिलकर चेहरे को गडमड कर देती हैं , बनते बनाते मिटा देती हैं । सड़क के किनारे रद्दी कागज़ और कूट जलाते दो लोग लोई ओढ़े आग तापते देखते हैं मुझे । मेट्रो का काम चल रहा है । कुहासा थमे तो फिर शुरु होगा , वेल्डिंग से निकली चिंगारियाँ धूल में गिरकर विलीन होंगी , एक पल की नीली गर्मी का संकेत।
पर सर्दी इनको पसंद नहीं करती जैसे ये नहीं करते होंगे । गर्म कपड़े और साबुत घर जो रोक सके तेज़ बरछी ठंडी हवा को , हड्डियाँ जमती होंगी , बच्चों के नाक बहते होंगे , पैरों हाथों की उँगलियाँ अकड़ती होंगी । हमेशा ठिठुरता शरीर किधर खोजता होगा गर्मी ?
मौसम की पसंद भी स्थिति पर निर्भर करती है । ये बात अचानक मेरे दिमाग में धँसती मुझे ऐसा त्रास देती है । जो सहूलियतें सहज स्वाभाविक तरीके से मयस्सर होनी चाहियें वो कहाँ और क्यों गायब हो जाती हैं ?
तुम कुछ नहीं समझोगे । सिर्फ कहोगे , हँसना मना है और मैं कहूँगी , सुनो ये बाघ की आँख दिखती है तुम्हें ? मुझे दिखती है , क्यों दिखती है ?
( ये स्केच बहुत पहले बनाया था , कल कुछ आड़ी तिरछी लकीरें खींचते उन्हें इतना आड़ा तिरछा पाया कि अपने को रिमाईंड करने के लिये ये फिर से यहाँ चिपका रही हूँ )
12/18/2008
खुश होना इतनी बड़ी बात है क्या ?
"To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It's a way of life."
वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं । तस्वीरों में नहीं ।
अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िंदगी जीने जैसा है दिल दिमाग और आँख सब एक सुर में..। वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं । हँसते हुये भी नहीं , उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर , शायद मुस्कुराते हुये भी नहीं ..
कुछ कुछ ऐसे जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरी गईं हो और टहनियाँ आसमान तक । कुछ खुरदुरे रूखे , सख्त दरख्त , फिर भी कहीं सेमल से हल्के जो उनको जाने कहाँ कहाँ उठा देता है , किस आसमान तक । उनकी ली हुई तस्वीरों को देखती हूँ। कुछ उजाले और अँधकार के खेल हैं , आँखों में किसी नम उदासी को पकड़ लेने के पल हैं , वीरानी है , भयानक उदासी है , खुशी के क्षणों में भी चीरने वाली उदासी , रौशनी के आगे सिलुयेट ..छाया !
सपने में भी मद्धम सुर में संगीत बजता है । मार्था अर्गरीच शुबर्ट बजाती हैं । वो कहते हैं मुझे समझ नहीं शुबर्ट की । मैं हँसती हूँ , मुझे भी नहीं फिर बहुत उदास होती हूँ , बहुत । कितनी चीज़ें रह जायेंगी बिना समझ के ? इस एक ज़िंदगी में।
मैं ज़िद करती हूँ , मेरी एक भी तस्वीर क्यों नहीं ली ?
इसलिये कि तुम्हारे दिल और दिमाग के बीच गहरी खाई है ।
मैं कहती हूँ , ठीक , और सपने से बाहर निकल आती हूँ ।
वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं । तस्वीरों में नहीं ।
मैं खुली नर्म घास पर चित्त लेटकर आसमान देखना चाहती हूँ । बड़ी चीज़ें छूट जायेंगी । छोटी चीज़ें पकड़ लेना चाहती हूँ । मैं तस्वीरों में भी मुस्कुराना चाहती हूँ । सचमुच भी , सचमुच भी । खुश होना इतनी बड़ी बात है क्या ?
(कार्तिये ब्रेसों की तस्वीर , उन्नीस सौ बत्तीस , मार्से )
12/13/2008
प्लेटफॉर्म पर
जाड़े की सर्द रात में खेस ओढ़े बूढ़ा नींद में चमक जाता है । सपसप हवा रात बहाती चलती है और रेल की सीटी कुहासा चीरती जाने कहाँ विलीन हो जाती है । मेरी नींद भी बीहड़ में भटकती कुनमुनाती है । कँधे पर कोई चिंता सवार है , क्या है ? नींद की बेहोशी में भूलता है सब फिर भी कहाँ छूटता है , किसी कसाईन स्वाद सा आत्मा में गहराता है । दिखता है सपने में खुद का कमज़ोर पड़ना , भीड़ में गुम होना ,चमकते शिखर पर अकेले खड़ा होना कहाँ दिखता है ?
कोई चील डैने फटकारती गोल गोल उड़ती है फिर अचानक झपट्टा मारती है । आँख खुलने पर दिखता है छाती पर कोई गोल सुराख , कोई उजली मुस्कान नहीं दिखती है ।
12/08/2008
इस समय का मैं नहीं..
सराय के आगे घुड़सवार रुकता है । घोड़े के मुँह से फेनिल झाग नीचे गिरे उसके पहले गर्द भरे चेहरे से उलटी हथेली थकान पोंछते, हारे गिरे कँधे को समेटता , अस्फुट बुदबुदाता है , इस समय का मैं नहीं , ये समय मेरा नहीं ..
भट्टी के आगे , सुलगते अंगारों पर कड़कड़ाते, हथेलियों से ताप उठाते , जोड़ती है , मन ही मन गुनती है , झुर्रियों के जाल में खोजती है सब सपने जो मर गये , अंगारों के फूल भरती छाती में , हुक्के के तल पर गुड़गाड़ाता है पानी , समय ? पीरागढ़ी का सराय इस वक्त भी खुला है , मुसाफिरों के लिये..
चौड़ी सड़क शहर का सीना चीरती है , बचपन में देखा कोई साई फी दृश्य हो । घुमावदार फ्लाईओवर्स , जगमगाती रौशनी के तले बंजरपने का गीत हो । घुड़सवार भौंचक है , देखता है , घोड़े की नाल बजती है , पीछे कोई गूबार नहीं छूटता ..
(नेकचन्द सैनी के रॉक गार्डेन में )
भट्टी के आगे , सुलगते अंगारों पर कड़कड़ाते, हथेलियों से ताप उठाते , जोड़ती है , मन ही मन गुनती है , झुर्रियों के जाल में खोजती है सब सपने जो मर गये , अंगारों के फूल भरती छाती में , हुक्के के तल पर गुड़गाड़ाता है पानी , समय ? पीरागढ़ी का सराय इस वक्त भी खुला है , मुसाफिरों के लिये..
चौड़ी सड़क शहर का सीना चीरती है , बचपन में देखा कोई साई फी दृश्य हो । घुमावदार फ्लाईओवर्स , जगमगाती रौशनी के तले बंजरपने का गीत हो । घुड़सवार भौंचक है , देखता है , घोड़े की नाल बजती है , पीछे कोई गूबार नहीं छूटता ..
(नेकचन्द सैनी के रॉक गार्डेन में )
12/03/2008
आज के समय में सब भारमुक्त हैं ..
इतना चौकन्ना रहें ? इतना जितना दो हज़ार साल पहले थे , गुफाओं में ? जंगली नरभक्षी जानवरों की गुपचुप मारक पदचाप से ? उफनते नदी के पानी से ? बेकाबू , बेलगाम आग़ से ? चौकन्ने चौकन्ने , आतंकित ? सहमे ? फिर हमने डर काबू किया , जैसे आग किया , पानी की , तूफानी थपेड़े और कबीलाई हमले किये , प्यार नफरत और मृत्यु की , बीमारी की । हम विकसित हुये । चार पैरों से दो पैर वाले हुये , बड़े माथे से सारिक मस्तिष्क वाले सोचने समझने तौलने वाले बुद्धिमान हुये । जंगल से शहर , देहाती से नागरीय ..क्या क्या नहीं हुये सिर्फ चौकन्ने नहीं हुये ।
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फिर बम फूटे , आगजनी हुई , गोली चली । लोग मरे , पुरुष नारी बच्चे । गलत समय में गलत जगह ? या सही समय में सही जगह । हम बचे , वो मरे ..गनीमत गनीमत । जब कल वो बचेंगे , हम मरेंगे तब उनकी गनीमत । मन ऐसा ही सुन्न हुआ । न गुस्सा , न दुख , न क्षोभ न आक्रोश । ऐसे समय में जीना भी कोई जीना है ? ईश्वर ने हमारी प्रार्थना सुन ली , हमें बख्शा ..या ईश्वर ने हमारी सुन ली ..ऐसी दुनिया से निज़ात दिला दी ..
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चारों ओर किसी प्रहसन का अंतिम भाग खेला जा रहा है ..देख भई खेल, नौटंकी ? तमाशा ..बोल बोल कर गर्दन की नस रस्सी बनी है , कोई न सुने ..क्यों सुने भला ? बस इतना की चौकन्ने रहो , मुड़ मुड़ कर पीछे देखो , अँधियारी रातों में डर सींचों , बिलों में रेंग जाओ , तूफान की आशंका में जहाज़ छोड़ चलो , भागो भागो ..फिर भी चौकन्ने रहो । पुरखों का चौकन्नापन उनकी कब्रगाहों की मिट्टी से उठा ताबीज़ बनाओ ..सातवीं इन्द्रीय विकसित करो ..उस बिल्ली की तरह जो शिकार पर घात लगाये , दबे पाँव , सतर्क चाल हमला करती है ..
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हमारे शब्दकोश से चुन चुन कर उन शब्दों को खारिज़ कर दो जो किसी अन्य भाव को दर्शाते हैं । फिर देखा कि शब्दकोश कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं का संकलन मात्र रह गया है ..किसी ने आदेश का पलन किया और सभी शब्दों पर सफेद रंग पोत दिया । अब गनीमत है ..किसी के पास कुछ भी व्यक्त करने को शब्द नहीं ..सब भारमुक्त है सब ..
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11/13/2008
फिर एक दरवाज़ा
बचपन से उस दरवाज़े को देखते आये थे ..कभी जागे में कभी सपने में । शीशे पर नीले , पीले , धानी रंगों के चौकोर बक्से जिनसे रंग बहकर एक दूसरे में समा जाते , लगता जैसे समन्दर भीतर बह रहा हो । तब सोचा करते कि घर होगा तो इसकी सब दीवारें रंगों से भरी होंगी , सब दरवाज़ों से दूसरे कमरे की बजाय दूसरी दुनिया का रास्ता होगा । कि सिर्फ उँगली से छूने भर से दीवारें रंगों से पिघल कर पेड़ पौधे , जानवर , दरिया , पर्वत , आँख ..जाने क्या क्या में बदल जायेंगी । फिर वो दरवाज़ा बदल गया । बदल गया उस काठ के गाँठों भरे , खुरदुरे , रुखड़े , फटे फट्टों से भरे दरवाज़े में ,जो खड़ा है किसी पुराने बरगद की तरह , ठीक घर से बाहर , कोई सरपरस्त !
उसकी मोटी साँकल लगाकर अंदर किसी आँधी तूफान के गुज़र जाने का सुरक्षित इंतज़ार किया जा सकता था । लेकिन किसी समुद्री जहाज़ पर पागलपन की धुन में , बिना आगा पीछा सोचे , किसी नशे की बहक में निकल जाने को नहीं उकसाता । मेरा दरवाज़ा मज़बूत था , पागल सनकी नहीं था । सनक मुट्ठी में बन्द एक पैसे का सिक्का था , जो अब चलता नहीं था ।
फिर एक दिन एक सपना आया । और बार बार आया । सुबह उस सपने को मैं मुट्ठी में बन्द करती । रात तक उँगलियाँ लाख कोशिश के बावज़ूद खुल जातीं और सपना उन खुली उँगलियों से बह जाता । फिर उस बहे हुये सपने ने अपना खेल शुरु किया । हर दिन उनका यों बह जाना थोड़ा थोड़ा टलता रहा ..इतना कि एक दिन फिर एक पूरी रात उसे लगी बह जाने में । उस रात के बाद की सुबह में उसने रंग उठाये और एक दीवार रंगनी शुरु की । दीवार पर सबसे पहले उसने एक दरवाज़ा बनाया ...
उस एक दरवाज़े में
कई कई दरवाज़ों का
खुलना
तय था
जैसे
जीवन भर
जीना तय था
(पिछले दिन के.. धूप के असर में ऊपर की पेंटिंग)
11/09/2008
सपने का कमरा उर्फ रात में कभी कभी दिन भी होता है , साईत !
रात के सपने में दिखा था और ठीक ठीक दिखने के पहले गायब भी हो गया था । सुबह , फिर सारे दिन एक बेबस बेचैनी में छटपटाते मन के पीछे पार्श्व संगीत सा बजता रहा था । पतझड़ के उदास दिन थे । पीले झरे पत्ते की खड़खड़ाहट में सारंगी पर कोई एक महीन रुलाई बजाता था । और मेरे शरीर के अंदर जो एक और काया थी , वो लगातार उस धुन पर बल खाती पछाड़ती थी । जैसे लहरों के ऊपर फेन की महीन परत ।
फिर उस दिन काम के हज़ार झँझटों के बीच किसी ने एक वाक्य कहा था .. जंगल में इतना अँधेरा था , सिर्फ जुगनू रास्ता दिखाते थे ... मैं चौंक कर मुड़ी थी । किसने कहा था ये ? लेकिन आसपास नेसकफे कॉफी के भूरे कप में झागदार कॉफी के घूँट भरते सब झुके थे बड़ी मेज़ पर ..कागज़ , डॉक्यूमेंटस , फोल्डर्स , फाईल्स , मोटे स्पाईरल बाईंड किये हुये । सब कागज़ों की ऑथेंटिसिटी की पुष्टि में जुटे लगातार बहस कर रहे थे । एक आवाज़ बार बार किसी रीफ्रेन की तरह हर बहस पर विराम लगाती ..लेकिन हम कोई विजिलेंस वाली अजेंसी नहीं और सब अचकचाकर राहत में कुर्सी पर पीठ टिकाकर मुस्कुराते और कॉफी का एक और घूँट भरते । जैसे हमारे किये की एक वाजिब सीमा तय कर दी गई और इसके आगे जाने की जद्दोज़हद से हमने अपने आप को मुक्त किया ।
तो , ऐसी बहसों के बीच किसने जुगनू से रास्ते का आभास दिला दिया ? मैं शायद बहक रही हूँ ..इसलिये कि इन दो दुनिया के बीच कोई सम्पर्क सूत्र बाहरी तौर पर नहीं है । लेकिन भीतरी तौर पर कोई ऐसा हिस्सा है जो एक दूसरे की भीतर पैठता है ..कुछ कुछ वेंस डायाग्राम जैसा । रात में सपने में जैसे मुझे मेरे ही घर में एक ऐसे कमरे के होने की खबर मिलती है जिसका अतापता मुझे अबतक न था । एक लम्बोतरा साफ रौशनी भरा कमरा । सपने में इस चीज़ को मैं जितनी आसानी से स्वीकार कर रही थी उतना ही चकित भी हो रही थी कि गज़ब ..इतनी जगह और मुझे पता तक नहीं था , कैसे और स्पेस के लिये मैं लगातार चख चख करती थी ..अब देखो ..इतनी जगह , इतनी रौशनी भरी । बस इसके दरवाज़े को पहचान कर रखनी होगी ताकि दिन में जागे हुये में फिर से खोज पाऊँ । कमरे की चीज़ों को लगातार प्यार से छूते कैसे बच्चे सी कौतुक से खुश होती घूम रही थी फिर भी सब याद रखूँ की एक छोटी सी घँटी भी बज रही थी , जैसे घूमते हुये भी हर वक्त एक चौकन्नेपन से मैं कोई तीसरी आँख दरवाज़े पर रखे हुये थी ।
दिन में जागे हुये मैं गैलरी के दीवार पर हथेली फेरते चलती हूँ , यहीं तो था वो दरवाज़ा फिर दुखी देखती हूँ कि मेरे इस घर में तो कोई गैलरी तक नहीं । मुझे तंग संकरी जगहों से सख्त नफरत है । मेरे घर में कोई गैलरी नहीं । मुझे बहुत सारी रौशनी चाहिये.. हमेशा । लेकिन अँधेरा छोटी छोटी पोटलियों में साथ चलता है और बिना किसी पूर्वानुमान के जाने कब किस पल . किस होने से ट्रिगर होकर पूरी की पूरी पोटली किसी नौगज़ी साड़ी की तरह फट से खुल कर फैलती भी जाती है ।
इस लगातार के जंगली बनैले खेल से , दिन और रात की आँखमिचौनी से , दुनियावी माया और वास्तविकता से परे कोई तीसरा संसार भी है ? मैं जब सपना देखती हूँ तब जागी नहीं होती । जब जागी होती हूँ तब सपने का कमरा बिला जाता है । जब कहती हूँ इस मुद्दे पर मैं ये , ये और ये सोचती हूँ तब सामने खड़ा दूसरा टेढ़ी नज़रों से टोकता है , लेकिन तुम ये सोचती हो , गलत सोचती हो क्योंकि मैं वो सोचता हूँ , सही सोचता हूँ । हमेशा हम आमने सामने ही होते हैं , साथ साथ नहीं । फिर इस आमने सामने के साथ .. साथ साथ होने वाली दुनिया कौन इज़ाद करेगा ? कब मैं जागे होने पर ही मन मर्जी उस सपने वाले कमरे में भी जा सकूँगी । जंगल का रास्ता जुगनू ही दिखायेंगे शायद । हँसती हुई फूलमनी के ठुड्डी पर के तीन गुदने कहते हैं , रात में कभी कभी दिन भी होता है साईत !
(पॉल गोगां की लैंड स्केप विद पीकॉक्स )
11/04/2008
यादें खोल में बन्द कछुआ हैं
उस वक्त रात भी ठीक से नहीं थी । कोई समय था दिन और रात के बीच बीच का अनक्लेम्ड हिस्सा .. बेरंग और अकेला और कैसी पागलपने सी चाह हो रही थी कि बस तुरत रात घिर आये । और ऐसे में जब सब इन्द्रियाँ इंतज़ार में चौकन्नी बैठी थीं , उसी वक्त थोड़े से बसियाये आलू के पराठे जिसके कोने नमी से सफेद हो जाते हैं , भिंडी के भुजिये और आम के अचार की ऐसी तेज़ भभक उड़ी कि मन एकदम बौरा गया । किसी सफर में , ट्रेन में , पीले बत्ती के गर्माये रौशनी में ..कोई साथ के बर्थ पर बैठा जोड़ा अपने खाने का टिफिन निकालता ..सलीके से स्टील के गोल गोल चार डब्बों से पूड़ी , आलू की सूखी तरकारी , लाल मिर्च का भरवां अचार और बून्दी का लड्डू ऐसे भूख की मरोड़ उठाता कि अपने बेसलीके से पैक किया गया खाना हड़बड़ाहट में बेशउरी से निकलता .. अखबार में लपेटा खाना । भुजिये से तेल की परत पूरे अखबार को पीला तेलाईन कर चुकी होती , इतना कि रुमाल निकाल कर पैकेट खोलते हाथ पोछना पड़ता .. अखबार खोल लेने पर चार बड़े मोटे , आलू से ठसाठस भरे पराठे के बिस्तर पर महीन कटे भिंडी के भुजिये की जान मारू सुगंध ..और ठीक एक कोने में सौंफ झलकता मोटे फाँक का आम का अचार । पूरा कम्पार्टमेंट ऐसे मनोयोग और तल्लीनता से सर झुका कौर गटकता जैसे इसी हरेक कौर में प्राण बसे हों , जैसे सारी इन्द्रियाँ एकत्रित हो गई हों बस स्वाद को अनुभव करने के लिये
दूसरी साँस ली और महक गायब । उफ्फ ! करवट लिया , साँस ली और एकबार फिर वही सुगंध
सुनो , तुम्हें बताना चाहती हूँ , पूछना चाहती हूँ , आती है तुम्हें भी खुशबू ..उस बीते बचपन की , उस बीते समय की , लौकी के बचके और साग के पत्ते की पकौड़ी की , मुँगौड़ी और बैंगन बड़ी की , मूली के पत्ते के साग की , तिल तिलौड़ी की , गरम गरम भात और राहड़ के दाल पर माँ का कलछुल में ताज़ा करकराया शुद्ध घी ऊपर से गिराने की , लौंगलत्ता और खाजा की , धूप में बैठ मूग़फली टूँगने की , कोयले के चूल्हे के उठते भरते धूँये की , किसी बीती स्मृति में बूढ़ी नानी के हुक्के की , मसहरी के भीतर घुस कर चन्द्रकाँता और भूत नाथ पढ़ने की, बारिश के दिनों में सीले कपड़ों की महक और छुअन के बीच कुर्सी पर गोलमोल कज़ाक और नाना पढ़ने की ..
धीरे धीरे स्मृतियों की महक भारी होने लगती है ..वो दिन सब विलुप्त हुये ..शायद कहीं किसी गाँव कस्बे में बचे हों ..शायद या क्या पता वहाँ भी आलू के पराठे की जगह पैटीज़ और पफ्स की सुगंध उडती हो । हमारे जीवन से ऐसी सब चीज़ें अब सिर्फ स्मृतियों में शेष हों , कि हमारे बच्चे भौंचक आँखों से ऐसे किस्से सुनते अचानक उकता कर खेलने भाग जायें , कि उनके बच्चे ऐसे शब्दों , ऐसी खुशबू , ऐसे कोमल महीन एहसास को बाहरी तौर पर भी न समझ पायें ... एक पूरी दुनिया , एक पूरा समय विलुप्त हुआ , अपने साथ साथ चलता किसी कछुये की खोल सा ..अब था ..अब नहीं ..!
ऐसी बेकार तकलीफ की चादर ओढ़े मैं इंतज़ार करती हूँ रात का .. टीवी पर ‘लिटल वोमन’ देख रही हूँ और याद कर रही हूँ कि जब पहली बार पढ़ा था बचपन में तब उन मार्च बहनों की कहानी पढ़कर कैसी धूप धूली उदासी और खुशी मिली थी ..फिर सोचती हूँ ..यादें भी एक किस्म का ट्रैप हैं , टखने में पड़ी बेड़ी है , उन बेड़ियों की स्मृति हैं , रगड़ खाती है हर वक्त .. चोट देती हैं हर वक्त । फिर भक्क से रात के अँधेरे में धूप का जगमागाता टुकड़ा भी जला देती हैं कई बार । कई कई बार ।
दूसरी साँस ली और महक गायब । उफ्फ ! करवट लिया , साँस ली और एकबार फिर वही सुगंध
सुनो , तुम्हें बताना चाहती हूँ , पूछना चाहती हूँ , आती है तुम्हें भी खुशबू ..उस बीते बचपन की , उस बीते समय की , लौकी के बचके और साग के पत्ते की पकौड़ी की , मुँगौड़ी और बैंगन बड़ी की , मूली के पत्ते के साग की , तिल तिलौड़ी की , गरम गरम भात और राहड़ के दाल पर माँ का कलछुल में ताज़ा करकराया शुद्ध घी ऊपर से गिराने की , लौंगलत्ता और खाजा की , धूप में बैठ मूग़फली टूँगने की , कोयले के चूल्हे के उठते भरते धूँये की , किसी बीती स्मृति में बूढ़ी नानी के हुक्के की , मसहरी के भीतर घुस कर चन्द्रकाँता और भूत नाथ पढ़ने की, बारिश के दिनों में सीले कपड़ों की महक और छुअन के बीच कुर्सी पर गोलमोल कज़ाक और नाना पढ़ने की ..
धीरे धीरे स्मृतियों की महक भारी होने लगती है ..वो दिन सब विलुप्त हुये ..शायद कहीं किसी गाँव कस्बे में बचे हों ..शायद या क्या पता वहाँ भी आलू के पराठे की जगह पैटीज़ और पफ्स की सुगंध उडती हो । हमारे जीवन से ऐसी सब चीज़ें अब सिर्फ स्मृतियों में शेष हों , कि हमारे बच्चे भौंचक आँखों से ऐसे किस्से सुनते अचानक उकता कर खेलने भाग जायें , कि उनके बच्चे ऐसे शब्दों , ऐसी खुशबू , ऐसे कोमल महीन एहसास को बाहरी तौर पर भी न समझ पायें ... एक पूरी दुनिया , एक पूरा समय विलुप्त हुआ , अपने साथ साथ चलता किसी कछुये की खोल सा ..अब था ..अब नहीं ..!
ऐसी बेकार तकलीफ की चादर ओढ़े मैं इंतज़ार करती हूँ रात का .. टीवी पर ‘लिटल वोमन’ देख रही हूँ और याद कर रही हूँ कि जब पहली बार पढ़ा था बचपन में तब उन मार्च बहनों की कहानी पढ़कर कैसी धूप धूली उदासी और खुशी मिली थी ..फिर सोचती हूँ ..यादें भी एक किस्म का ट्रैप हैं , टखने में पड़ी बेड़ी है , उन बेड़ियों की स्मृति हैं , रगड़ खाती है हर वक्त .. चोट देती हैं हर वक्त । फिर भक्क से रात के अँधेरे में धूप का जगमागाता टुकड़ा भी जला देती हैं कई बार । कई कई बार ।
10/31/2008
इवॉल्यूशन
ज़मीन पर ठीक अपने पाँव जितने या ज़रा ज्यादा लकड़ी के तिनके से लकीर खींचते सोचती हूँ .. ये है मेरी सरहद , बस इतनी , इससे ज़्यादा और कितनी चाहिये , फिर आहिस्ते से एहतियात से अपने पाँव हटाती हूँ .. बुद्ध के पाँव के निशान जैसे , महायान बौद्ध , इतनी भर भी क्यों चाहिये जब बुद्ध गये फिर क्या बचा ? कमल मुद्रा ? कमल सूत्र ? महाज्ञान ?
फिर हमारा ज्ञान किधर है ? विस्तार पाते पाते , सीमाओं की सीमा तक भी खत्म होते , घर से शहर प्रांत देश पृथ्वी ब्रह्माँड से अचानक किसी रिवर्स गियर में चलते वापस उसी क्रम में घर को लौटते ,उसी नवीन ज्ञान पर खुश होते यूरेका कहते , उलटे पाँव पर पैर रखते फिर से नियनडर्थल मानव बन जाते । यही ईवोल्यूशन है , सामने बैठा चतुर चतुरानन मुझे समझाता है , फिज़िक्स के नियम और आईंस्टाईन की रिलेटेविटी थ्योरी , डीएन ए कोड का लहरदार रिबन जैसे तर्क लहराता है ।
देखो , उसकी मुद्रा गंभीर गुरु है ,
तुम क्या हो ? तुम जो हो उसका वास्ता किससे ? तुमसे ही न , फिर ? तुम्हारा परिवार .. फिर .. ?
मुझे रिटार्डेड बच्चे सा उकसाता है, हाँ बोलो बोलो ...
मैं अपने उसी एक तर्क पर अटकी हूँ ..लेकिन वृहत मनुष्यता का क्या ? सब अलग हैं तो फिर एक कौन है ? हम एक स्पीशीज़ हैं कि नहीं ? हमारे बीच कॉमन क्या है ? अब तुम कहो ? मैं विजयी भाव से पूछती हूँ
लॉस्ट कॉज़ की तरह मुझे देखता कहता है .. हमारी सीमा अब हम तक है , मेरी मुझ तक और तुम्हारी तुम तक । आरपार जाने के लिये , तुम तक भी पहुँचने के लिये पारपत्र बनाना होगा ।
तुम्हें पता है उन दिनों के कम्यूनिस्ट देशों में , पूर्वी जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड में पत्नी पति के खिलाफ और बच्चे माता पिता के खिलाफ सूचनायें सरकारी तंत्र तक पहुँचाते थे । तुम चाह्ते हो हम वहीं रिग्रेस कर जायें ? अपने तर्क के समर्थन में मैं ऑरवेल को याद करती हूँ , उँगलियों पर सोल्झेनित्सिन के गुलाग को जपती हूँ , ऑशवित्ज़ और सॉबीबोर त्रेब्लिंका बोलती हूँ ..और वहीं मुझे फिर वो पटकनी दे देता है ..
वही वही .. ऑशवित्ज़ और बेर्गेन बेल्सेन रिपीट न हो उसके लिये ज़रूरी है यहाँ काँटों की बाड़ खींच दी जाये , उँगली से एक काल्पनिक बाड़ खींचता है हमारे बीच , फिर अपने माथे पर , और यहाँ ताकि मैं सुरक्षित रहूँ , हम सब सुरक्षित रहें .. एक दूसरे की घृणा , एक दूसरे की नफरत , एक दूसरे से अलगाव ..इन सब से ..द फाईनल सॉल्यूशन ..
तुम्हारे हिसाब से हर आदमी ..
वो बीच में लपक लेता है ..और हर औरत एक देश हो , मुकम्मल अपने आप में
अब मैं लोकती हूँ और हम फिर बार्टर सिस्टम में लौट आयें या अपनी ज़रूरतें खत्म कर लें ?
जो तुम चाहो और मैं दे सकूँ ऐसा एकदम बराबर कर लेनदेन अगर सँभव हो तभी हो वरना न हो
तो जिन ज़रूरतों का देन अगर किसी के पास न हो तो ?
तो उन ज़रूरतों को खत्म कर दो ..ऐसा करते करते एक दिन ज़रूरतें सिकुड़ती सिकुड़ती खत्म हो जायेंगी
मैं बुद्ध पर लौटती हूँ .. सुनो द तिबेतन बुक ऑफ द डेड पढ़ा है ? मार्गदर्शन पुस्तिका है मृत्यु से पुनर्जन्म तक के सफर का..
किसी ऐयार सा फिर वो कमंद फेंक मेरे शब्दों को लपेट अपने तर्क के दायरे में खींच लेता है , उसकी आवाज़ एक लय एक खास स्वरोच्चारण् में उठती डूबती है ..
दुख ..दुख जो उपजा जन्म से , बुढ़ापे से , बीमारी से मृत्यु से , पीड़ा और अवसाद से , लालसा से , अप्रीतीकर के जुड़ाव से , आनन्द के अलगाव से , जो चाहा उसके न मिलने से...
उसने अब दूसरी उँगली गिराई समुदाय .. या दुख का मूल क्या है ? लालसा
अब तीसरी...
और दुख का निवारण ? निरोध और ?
अब चौथी...
उसका मार्ग ?
द नोबल ऐटफोल्ड पाथ
मुझे लगता है वो किसी आईसलैंडिक भाषा में मुझसे बात कर रहा है । उसके स्वर और व्यंजन मेरी समझ के परे की चीज़ है । वो किसी भी भाषा में बात करे , मेरी समझ के हद वाली भी , तो उसके तर्क अजीबोगरीब खिलवाड़ करते हैं , कभी बंदर की तरह कूद कर पेड़ की डाल पर उचक लेते हैं , कभी किसी सील मछली की तरह पानी में डुब्ब डुब्ब बुलबुले छोड़ते हैं ।
मैं सिर्फ ये जनना चाहती हूँ कि आज के समय में मैं क्या हूँ ? इंसान हूँ ? नागरिक हूँ ? देशभक्त हूँ ? मेरी वफादारी किसके प्रति है , मेरे अपने , मेरे राज्य , मेरे प्राँत , मेरे देश के लिये , मेरी एकमात्र जीवों को पालने वाले पृथ्वी के लिये ? मेरे प्रजाति के लिये ? होमो सेपियंस ? सभी जीवों के लिये या किसी के लिये भी नहीं ..
तुम्हारी ज़िम्मेदारी , सुनो ध्यान से , वफादारी नहीं ज़िम्मेदारी , सिर्फ अमूर्त भावों के प्रति हैं ..उन्हें जिन्हें तुम छू न सको , तुम्हारी सरहद ..ये शब्द पंगु हैं भावों को सम्प्रेषित करने के लिये ..हमें नये शब्द ढूँढने होंगे , नये नियम गढ़ने होंगे ..उसकी अवाज़ यांत्रिक होती जा रही है , और जब तुम्हारे मन का विस्तार इतना हो कि छोर खत्म हो जाये तब ये शब्द इतना फैल जायेंगे कि तुम कहोगी तो एक अक्षर को कहा जाना एक सदी जैसा होगा ..
मैं चिढ़कर कहती हूँ , तब तक दुनिया खत्म हो जायेगी ।
उसके चेहरे पर आत्मिक आभा है , हम अब उसी समय में हैं , वो तब ..अब है ।
आईने में मेरा चेहरा कुछ कुछ होंठों के पास टेढ़ा लग रहा है कुछ उस आदमी जैसा जो कल परसों , पिछले दिनों , पिछले महीने मरता रहा , कभी किसी ब्लास्ट में , कभी किसी दंगे में , कभी भगदड़ में , किसी हेट क्राईम में , किसी कॉंसनट्रेशन कैम्प में , किसी और के लिये चलाई गोली में या बस ऐसे ही ..जिसकी तस्वीरें दिखाई जा रही हैं , ब्रेकिंग न्यूज़ के स्ट्रिप पर , गूगल के खोजे गये साईट्स में , अखबार के पिछले और चमकदार पत्रिका के चौथे पन्ने में । वो किसका चेहरा था ? एक उभरते दहशत से देखती हूँ कि वो चेहरा मेरा ही चेहरा था । हमारा चेहरा । और उसको मारने वाले हाथ ? मेरे ही थे , मेरे , हमारे .. मानव जाति के विकास का एक पूरा क्रम । फुल सर्किल ।
10/24/2008
बाजूबन्द खुल खुल जाये...
रही होगी कोई बात जिसका सिरा पकड़ कर तुम बढ़ गये आगे कहीं ..वहाँ जहाँ लाड़ दुलार की गुनगुनी ताप नहाये बैठे थे हम ... बावज़ूद , किसी खालीपन के शून्य में हाथ पसारे मैं खड़ी थी ..तुम्हें खोजती हूँ , तुम्हें खोजती हूँ .. कहती , आँख पर जाने कैसी काली पट्टी बाँधें हाथ बढ़ाये किसी बचकाने खेल को माईम करती ..खोजती थी ..
तुम आँख मून्दे बोलते , जानती हो उस मायन संस्कृति में , मिथ के अनुसार वीत्सीलोपोचत्ली ने घुमंतुओं को निर्देश दिया एक शहर बसाने को , वहाँ जहाँ वो देख सकते थे नोपल कैक्टस के ऊपर पड़े अलसाये साँप को बाज़ का शिकार होते हुये । मिथक के अनुसार मेक्सिका लोगों ने अपना मुख्य शहर बनाया टेनोशटीटलैन में ..
और मैं कहती आदमी के अंदर नैसर्गिक प्रेम नहीं होता ..नैसर्गिक घृणा होती है , प्रेम हम सीखते हैं .. प्रेम सीखने और फिर याद करते रहने की चीज़ है .. न .. जैसे बचपन में झूम झूम कर पहाड़ा रटते थे , है न .. देखो अब तक याद है मुझे पंद्रह का पहाड़ा .. पंन्द्रह का पंद्रह , दूनी तीस , तिया पैंतालिस , चौके साठ ..यहाँ भी मैं शातिर होती हूँ , एकमात्र पहाड़ा जो याद रहा कि क्या मज़े की राईम थी ..ये शातिरपना भी नैसर्गिक है , कितना चाहे छुपाओ , जब तब कंबल से मुँह निकाले शरारती बच्चे सा अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराता रहता है ..
तुम संजीदगी से देखते हो , बिना मेरी चालाकी से विचलित , जैसे बच्चे को शरारत करने की छूट दी गई हो , फिर किसी गुरु गँभीर वाणी में कहते हो , हाँ तो मैं मायन सभ्यता की बाबत तुम्हें बता रहा था ..
मैं देखती हूँ , बाहर हवा से फर्न के पत्ते हिल रहे हैं , एक कबूतर अपने जोड़े को देख रहा है , कहीं बगल से छन्न्न से तरकारी छौंकने की आवाज़ आ रही है , पिछली रात तुम्हारे पीये गये सिगरेट की टोंटी झूले के पास गिरी है , तुम्हारी आवाज़ का खुरदुरापन मेरे हाथों को सहला रहा है , मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर गड़ी हैं , मेरा चेहरा मेरी हथेलियों पर टिका है ...
मैं तुम्हें नहीं बताती कि मायन सभ्यता पर जितनी बातें तुम मुझे कह रह हो , वो सब मैं जानती हूँ , बहुत पहले से..
कहीं दूर से 'बाजूबन्द खुल खुल जाये' हवा में तिरता है मेरे आसपास....
तुम आँख मून्दे बोलते , जानती हो उस मायन संस्कृति में , मिथ के अनुसार वीत्सीलोपोचत्ली ने घुमंतुओं को निर्देश दिया एक शहर बसाने को , वहाँ जहाँ वो देख सकते थे नोपल कैक्टस के ऊपर पड़े अलसाये साँप को बाज़ का शिकार होते हुये । मिथक के अनुसार मेक्सिका लोगों ने अपना मुख्य शहर बनाया टेनोशटीटलैन में ..
और मैं कहती आदमी के अंदर नैसर्गिक प्रेम नहीं होता ..नैसर्गिक घृणा होती है , प्रेम हम सीखते हैं .. प्रेम सीखने और फिर याद करते रहने की चीज़ है .. न .. जैसे बचपन में झूम झूम कर पहाड़ा रटते थे , है न .. देखो अब तक याद है मुझे पंद्रह का पहाड़ा .. पंन्द्रह का पंद्रह , दूनी तीस , तिया पैंतालिस , चौके साठ ..यहाँ भी मैं शातिर होती हूँ , एकमात्र पहाड़ा जो याद रहा कि क्या मज़े की राईम थी ..ये शातिरपना भी नैसर्गिक है , कितना चाहे छुपाओ , जब तब कंबल से मुँह निकाले शरारती बच्चे सा अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराता रहता है ..
तुम संजीदगी से देखते हो , बिना मेरी चालाकी से विचलित , जैसे बच्चे को शरारत करने की छूट दी गई हो , फिर किसी गुरु गँभीर वाणी में कहते हो , हाँ तो मैं मायन सभ्यता की बाबत तुम्हें बता रहा था ..
मैं देखती हूँ , बाहर हवा से फर्न के पत्ते हिल रहे हैं , एक कबूतर अपने जोड़े को देख रहा है , कहीं बगल से छन्न्न से तरकारी छौंकने की आवाज़ आ रही है , पिछली रात तुम्हारे पीये गये सिगरेट की टोंटी झूले के पास गिरी है , तुम्हारी आवाज़ का खुरदुरापन मेरे हाथों को सहला रहा है , मेरी आँखें तुम्हारे चेहरे पर गड़ी हैं , मेरा चेहरा मेरी हथेलियों पर टिका है ...
मैं तुम्हें नहीं बताती कि मायन सभ्यता पर जितनी बातें तुम मुझे कह रह हो , वो सब मैं जानती हूँ , बहुत पहले से..
कहीं दूर से 'बाजूबन्द खुल खुल जाये' हवा में तिरता है मेरे आसपास....
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10/07/2008
सचमुच सचमुच !
भोर के धुँधलाये कुहासे में आशायें उमगती हैं .. उँगलियाँ अकुलाती हैं , पत्तों सी काँपती सिहरती खिलती हैं । दिन मुँह बाये खड़ा हँसता है .. आओ संग संग खेलें , खिलता है खेल किसी सुलगते फूल सा , धधकता है दिन , सर के ऊपर दहकता है कुछ होने को बेचैन ..कहाँ थिरता है मन , रस गँध में क्यों डूबता है मन ?
गुनते गिनते बीतता है , बीत चुके तूफान सा चक्रवात के बीच सा , छूटता है ..छूटता है कोई , मिलता है कोई किसी बेहतरीन संगीत सा ..
सुबह की न्यारी संगतों के बीच सचमुच सचमुच !
(ऐंड्र्रू वाईएथ की पेंटिंग )
10/01/2008
बोतल में बन्द चिट्ठी ..
उन फुदकती चिड़ियाँ
जिनके पैरों में बँधे थे
छोटे छोटे संदेसे
किसी मंदिर के कँगूरे से
बजती घँटियाँ
आवाज़ जो टकरातीं थी
सामने की पहाड़ी से
उन कविताओं को सुनते
गिरते हैं शब्द
किसी तालाब में
सतह पर फैलता है वृत
अर्थ गायब हो जाते हैं
कभी तल पर बालू में
कभी गोल चमकीले पत्थर में
कभी तैरती मछली के पेट में
बात हमेशा अपना सिरा खोजती है
चाहे कितना फेंको उसे
मछुआरे जाल में
बँधेगी आखिर
आखिर
फँसेगी आखिर आखिर
कोई कागज़ की नाव तो नहीं
या कोई बोतल में बन्द
चिट्ठी भी नहीं
जो मिलेगी
सदियों बाद
किसी बच्चे को
समन्दर के किनारे
रेत का घर बनाते
या फिर कौन जाने
किसी टाईमवार्प में
किसी अतीत के समय में
अपने पूरे रहस्य से भरपूर ?और
तुम कहोगे
अरे ! ये तो मेरे ही शब्द हैं जिन्हें कहा था
मैंने सदियों पहले किसी भविष्य में ..
जिनके पैरों में बँधे थे
छोटे छोटे संदेसे
किसी मंदिर के कँगूरे से
बजती घँटियाँ
आवाज़ जो टकरातीं थी
सामने की पहाड़ी से
उन कविताओं को सुनते
गिरते हैं शब्द
किसी तालाब में
सतह पर फैलता है वृत
अर्थ गायब हो जाते हैं
कभी तल पर बालू में
कभी गोल चमकीले पत्थर में
कभी तैरती मछली के पेट में
बात हमेशा अपना सिरा खोजती है
चाहे कितना फेंको उसे
मछुआरे जाल में
बँधेगी आखिर
आखिर
फँसेगी आखिर आखिर
कोई कागज़ की नाव तो नहीं
या कोई बोतल में बन्द
चिट्ठी भी नहीं
जो मिलेगी
सदियों बाद
किसी बच्चे को
समन्दर के किनारे
रेत का घर बनाते
या फिर कौन जाने
किसी टाईमवार्प में
किसी अतीत के समय में
अपने पूरे रहस्य से भरपूर ?और
तुम कहोगे
अरे ! ये तो मेरे ही शब्द हैं जिन्हें कहा था
मैंने सदियों पहले किसी भविष्य में ..
9/29/2008
उफ्फ ये लड़की !
पुराने अखबार के ठोंगे से मोटे मोटे दालमोठ टूँगते लड़का कनखिया कर ताकता है । लड़की गुलाबी सलवार समीज में , बाल की एक लट कान के आगे गिराये शरमाती है । लड़की की मुटल्ली माँ अपने फैले कमर के गिर्द एहतियात से आँचल लपेटती है । गिद्ध दृष्टि से बारी बारी से लड़के फिर लड़की को ताकती है , मुँह पर आई मक्खी को भगाती है , हाथ वाला पँखा झलती है । गुमसाईन गर्मी से सब बेदम हैं । प्लैटफॉर्म पर लम्बे डंडे से लटका काला पँखा अपने डैने बेजारी से हिलाता गर्म हवा धीरे से फेंकता है । लड़का अपने नकली अरिस्ट्रोकैट सूटकेस पर अड़ंगे बैठा है । सामने बेंच पर लड़की और उसकी माँ हैं । माँ रह रह कर सामान टटोलती है । कभी ज़िप खोलकर कपड़े के बैग से कोई चार पॉलीथीन में कैद किसी कागज़ की जाँच करती है , कभी बटुआ खोलकर टिकट चेक करती है , कभी निमकी मठरी का छोटा स्टील का डब्बा निकाल लड़की को पूछती है , खायेगी निमिया ? निमिया अपने निर्मला नाम के अपभ्रंश पर सकुचा कर झल्लाती , क्या मम्मी तुम भी ? कहते एक बार लड़के की तरफ देखती है । लड़का इस बार आराम से मुस्कुराता है ।
लड़की के होंठों के ऊपर पसीने की बून्दों की रेखा है । ज़रा मचल कर कहती है , मम्मी एक लिमका पी लें ?
मम्मी बड़े बैग से छोटा बटुआ सात तहों के अंदर से निकाल कर लड़की को तुड़ा मुड़ा नोट पकड़ाती हैं । हमारे लिये एक पेपरमिंट लेती आना । लड़की सामने स्टॉल से लिमका पेपरमिंट खरीदती है । लड़का विल्स का एक पैकेट खरीदता उसके बगल में खड़ा हो जाता है । इस गरम दोपहरिया में ट्रेन का तीन घँटे चौआलिस मिनट लेट होना नहीं सालता है । लड़की की नुकीली नाक और कान के लाल बुन्दे कुछ मीठा मीठा उमगता है । सब हल्का हल्का । बीसवें इनटरवियु से नाकाम लौटना , नौकरी वाले दोस्तों के बीच एकमात्र बेरोज़गार रहना , बड़ी बहन के शादी न होने के दुख में माँ का दिनरात बुड़बुड़ाना , बाबूजी के सैंडो गंजी से झाँकते सफेद छाती के बाल सी आँखों में स्याह उदासी देखना , सब कहीं पीछे छूट जाता है । जब घर पहुँचेंगे तब फिर सब सोचेंगे देखेंगे । फिलहाल लड़की को देखेंगे के भाव से लड़का कश लेता है । लड़की समझ रही है कि देखी जा रही है । धीमे धीमे मुस्कुराती गुनगुनाती है साँस के भीतर से । उसे क्या पता किसी गोलमटोल गुलथुल से ब्याही जायेगी साल दो साल में । फिलहाल देखा जाना अच्छा लगता है उसे । इस मध्यमवर्गीय जीवन में रस के कुछ क्षण ।
सन उन्नीस सौ पैंसठ में जॉन लेनन अपना गाना गर्ल लिख रहा था । चिलम में मारिजुआना पीते गहरी साँस भरते वे गाना गा रहे थे , प्रेम के बारे में , किसी पीले पनडुब्बी के बारे में , बारिश के बारे में , मिशेल और किसी नॉरवेजियन जंगल के बारे में । संसार के बारे में ..कुछ ऐसे भोलेपन और विश्वास से , ऐसे सहज सरलता से .. धूप में खड़े होकर बरसात के गाने , तारों भरे आकाश की बातें , एल एस डी और वालरस वाज़ पॉल । धूप सने बिम्ब , आशा के चित्र , इमैजिन और स्ट्रौबेरी फील्ड्स । किसी पालतू कछुये की पीठ पर रंगा खरगोश ? कैसी साँस भर लेने की मासूम उकताहट थी । कैसा रंगीन धूँआ धूँआ जीवन था ।
ओह कैसी तुलना ? इस अलस दोपहरी में निमिया लिमका का बोतल मुँह से सटाती है । ठंडा तक नहीं । लड़का देखता है , सिगरेट का धूँआ , लडकी का गुलाबी कुर्ता , किसी और आती रेल की सीटी । माँ पैर मोड़ती है , पँजे फैलाती है , उफ्फ सो गया पैर ! किसी जैसे पिछले जनम में ऐसी ही गुलाबी सलवार समीज में जाने कहाँ कहाँ आती जाती रहीं । जाने कौन देखता रहा था , न देखता था बिना इल्म हुये । किसी ज़माने में , किसी और ज़माने में ।
लड़का लड़की को ताकते सोचता है ... उफ्फ ये लड़की ! जॉन लेनन नेपथ्य से गाता है ..शीज़ द काईंड ऑफ गर्ल यू वॉंट सो मच इट मेक्स यू सॉरी ...
लड़की के होंठों के ऊपर पसीने की बून्दों की रेखा है । ज़रा मचल कर कहती है , मम्मी एक लिमका पी लें ?
मम्मी बड़े बैग से छोटा बटुआ सात तहों के अंदर से निकाल कर लड़की को तुड़ा मुड़ा नोट पकड़ाती हैं । हमारे लिये एक पेपरमिंट लेती आना । लड़की सामने स्टॉल से लिमका पेपरमिंट खरीदती है । लड़का विल्स का एक पैकेट खरीदता उसके बगल में खड़ा हो जाता है । इस गरम दोपहरिया में ट्रेन का तीन घँटे चौआलिस मिनट लेट होना नहीं सालता है । लड़की की नुकीली नाक और कान के लाल बुन्दे कुछ मीठा मीठा उमगता है । सब हल्का हल्का । बीसवें इनटरवियु से नाकाम लौटना , नौकरी वाले दोस्तों के बीच एकमात्र बेरोज़गार रहना , बड़ी बहन के शादी न होने के दुख में माँ का दिनरात बुड़बुड़ाना , बाबूजी के सैंडो गंजी से झाँकते सफेद छाती के बाल सी आँखों में स्याह उदासी देखना , सब कहीं पीछे छूट जाता है । जब घर पहुँचेंगे तब फिर सब सोचेंगे देखेंगे । फिलहाल लड़की को देखेंगे के भाव से लड़का कश लेता है । लड़की समझ रही है कि देखी जा रही है । धीमे धीमे मुस्कुराती गुनगुनाती है साँस के भीतर से । उसे क्या पता किसी गोलमटोल गुलथुल से ब्याही जायेगी साल दो साल में । फिलहाल देखा जाना अच्छा लगता है उसे । इस मध्यमवर्गीय जीवन में रस के कुछ क्षण ।
सन उन्नीस सौ पैंसठ में जॉन लेनन अपना गाना गर्ल लिख रहा था । चिलम में मारिजुआना पीते गहरी साँस भरते वे गाना गा रहे थे , प्रेम के बारे में , किसी पीले पनडुब्बी के बारे में , बारिश के बारे में , मिशेल और किसी नॉरवेजियन जंगल के बारे में । संसार के बारे में ..कुछ ऐसे भोलेपन और विश्वास से , ऐसे सहज सरलता से .. धूप में खड़े होकर बरसात के गाने , तारों भरे आकाश की बातें , एल एस डी और वालरस वाज़ पॉल । धूप सने बिम्ब , आशा के चित्र , इमैजिन और स्ट्रौबेरी फील्ड्स । किसी पालतू कछुये की पीठ पर रंगा खरगोश ? कैसी साँस भर लेने की मासूम उकताहट थी । कैसा रंगीन धूँआ धूँआ जीवन था ।
ओह कैसी तुलना ? इस अलस दोपहरी में निमिया लिमका का बोतल मुँह से सटाती है । ठंडा तक नहीं । लड़का देखता है , सिगरेट का धूँआ , लडकी का गुलाबी कुर्ता , किसी और आती रेल की सीटी । माँ पैर मोड़ती है , पँजे फैलाती है , उफ्फ सो गया पैर ! किसी जैसे पिछले जनम में ऐसी ही गुलाबी सलवार समीज में जाने कहाँ कहाँ आती जाती रहीं । जाने कौन देखता रहा था , न देखता था बिना इल्म हुये । किसी ज़माने में , किसी और ज़माने में ।
लड़का लड़की को ताकते सोचता है ... उफ्फ ये लड़की ! जॉन लेनन नेपथ्य से गाता है ..शीज़ द काईंड ऑफ गर्ल यू वॉंट सो मच इट मेक्स यू सॉरी ...
9/25/2008
पीले अँधेरे में
बर्कोज़ में रौशनी धूँये से भरी है , फुसफुसाती मादक नीली । दो वाले मेज़ पर वो बैठा चुप सिगरेट पीता है । कोई गोल्डफिश बोल में नहीं ला देता उसके अकेलेपन को बाँटने के लिये । दूसरी तरफ कोने में बैठी लड़की की नीली कमीज़ का एक कोना दिखता है , उसकी कुहनी दिखती है और जी में आता है एक बार उँगली से उसकी कोहनी सहला लें । लड़की अचानक उठती उसकी ओर आती है । एक मिनट की हकबकाहट के बाद समझ आता है कि उसके मेज़ के बगल से वॉशरूम का रास्ता है । लड़की के बाल इतने सीधे चमकीले हैं ,उसके गाल की हड्डियाँ इतनी चौड़ी , उसे योको याद आती है । अलबम के कवर पर योको । उँगलियों से उस लड़की के कँधे और बाँह कैनवस पर पेंट करना याद आता है जिसका चेहरा किसी धुँध में घुल मिल जाता है । सिर्फ सफेद कोये वाली आँख याद रहती है । जैसे नीली रात में सूरजमुखी के फूलों का बगीचा ।
वेटर सूप रख गया है । सूप की तरह ही मेज़ पर रौशनी पतली हल्की है । मेज़ की सतह पर पहुँचने के पहले ही खत्म होती हुई । उसके होंठ धीमे बुदबुदाते हैं
I walked on the banks of the tincan banana dock and
sat down under the huge shade of a Southern
Pacific locomotive to look at the sunset over the
box house hills and cry.
Jack Kerouac sat beside me on a busted rusty iron
pole, companion, we thought the same thoughts
of the soul, bleak and blue and sad-eyed,
surrounded by the gnarled steel roots of trees of
machinery.
लड़की अपने मेज़ तक लौटने के दौरान मुड़ कर उसकी तरफ देखती है । उसके गाल की उभरी हड्डियों पर रौशनी खेलती है कोई खेल ..ऐसा कि उसे लगता है उसकी तरफ देख कर मुस्कुरा रही है । वो अपनी नज़रें हटा लेता है । सामने काले ब्लाउज़ और काले स्लैक्स में बैठी लड़की सिगरेट पीती है और उठते धूँये में आँख मिचमिचाकर सामने देखती है । उसके साथ बैठा आदमी लगातार फोन पर धीमी आवाज़ में बतिया रहा है । उसकी इच्छा होती है कि अगर होस्टेस गोल्डफिश लाये तो उठाकर उस काले ब्लाउज़ वाली लड़की के मेज़ पर रख दे ..लो तुम्हारा अकेलापन बाँटने.. और फिर उसे गिंज़बर्ग सुना दे ..अपनी धीमी खरखराती आवाज़ में .. उसके अंदर कोई रौशनी जगा दे ..
So I grabbed up the skeleton thick sunflower and stuck
it at my side like a scepter,
and deliver my sermon to my soul, and Jack's soul
too, and anyone who'll listen,
--We're not our skin of grime, we're not our dread
bleak dusty imageless locomotive, we're all
beautiful golden sunflowers inside, we're blessed
by our own seed & golden hairy naked
accomplishment-bodies growing into mad black
formal sunflowers in the sunset, spied on by our
eyes under the shadow of the mad locomotive riverbank sunset Frisco hilly tincan evening
sitdown vision.
पीले अँधेरे में उसके अंदर एक सूरजमुखी खिलता है । अचानक एक बेचैन हरहराहट बाँध तोड़ती है । वेटर के ऑडर के लिये पूछने पर मुस्कुराता है , बस और कुछ नहीं , बिल .. द सूप वज़ नॉट गुड ? के जवाब में सिर्फ एक बार और मुस्कुराता है , मेरे अंदर संगीत अच्छा नहीं था , तुम्हारा सूप ज़ायकेदार था , लेकिन अब बिल .. अचानक ऐसी हड़बड़ी .. कुछ शब्द कुछ वाक्य एक बेचैन अफरातफरी में कदमताल कर रहे हैं , कभी दे ब्रेक इंटू अ जिग .. वो समेटता है सब ,सेलफोन , गिंज़बर्ग की किताब , चाभी , वॉलेट सारे के सारे शब्द और भाव , गले तक आते शब्द , कंठ में फँसते अटकते ..
देर रात तक किसी अनजाने बाउल गीत को सुनते लिखता है एक ऐसी कहानी जो कभी लिखी नहीं गई थी आजतक
(ऊपर अंग्रेज़ी में गिंज़बर्ग की कविता सनफ्लावर सूत्रा की पंक्तियाँ )
वेटर सूप रख गया है । सूप की तरह ही मेज़ पर रौशनी पतली हल्की है । मेज़ की सतह पर पहुँचने के पहले ही खत्म होती हुई । उसके होंठ धीमे बुदबुदाते हैं
I walked on the banks of the tincan banana dock and
sat down under the huge shade of a Southern
Pacific locomotive to look at the sunset over the
box house hills and cry.
Jack Kerouac sat beside me on a busted rusty iron
pole, companion, we thought the same thoughts
of the soul, bleak and blue and sad-eyed,
surrounded by the gnarled steel roots of trees of
machinery.
लड़की अपने मेज़ तक लौटने के दौरान मुड़ कर उसकी तरफ देखती है । उसके गाल की उभरी हड्डियों पर रौशनी खेलती है कोई खेल ..ऐसा कि उसे लगता है उसकी तरफ देख कर मुस्कुरा रही है । वो अपनी नज़रें हटा लेता है । सामने काले ब्लाउज़ और काले स्लैक्स में बैठी लड़की सिगरेट पीती है और उठते धूँये में आँख मिचमिचाकर सामने देखती है । उसके साथ बैठा आदमी लगातार फोन पर धीमी आवाज़ में बतिया रहा है । उसकी इच्छा होती है कि अगर होस्टेस गोल्डफिश लाये तो उठाकर उस काले ब्लाउज़ वाली लड़की के मेज़ पर रख दे ..लो तुम्हारा अकेलापन बाँटने.. और फिर उसे गिंज़बर्ग सुना दे ..अपनी धीमी खरखराती आवाज़ में .. उसके अंदर कोई रौशनी जगा दे ..
So I grabbed up the skeleton thick sunflower and stuck
it at my side like a scepter,
and deliver my sermon to my soul, and Jack's soul
too, and anyone who'll listen,
--We're not our skin of grime, we're not our dread
bleak dusty imageless locomotive, we're all
beautiful golden sunflowers inside, we're blessed
by our own seed & golden hairy naked
accomplishment-bodies growing into mad black
formal sunflowers in the sunset, spied on by our
eyes under the shadow of the mad locomotive riverbank sunset Frisco hilly tincan evening
sitdown vision.
पीले अँधेरे में उसके अंदर एक सूरजमुखी खिलता है । अचानक एक बेचैन हरहराहट बाँध तोड़ती है । वेटर के ऑडर के लिये पूछने पर मुस्कुराता है , बस और कुछ नहीं , बिल .. द सूप वज़ नॉट गुड ? के जवाब में सिर्फ एक बार और मुस्कुराता है , मेरे अंदर संगीत अच्छा नहीं था , तुम्हारा सूप ज़ायकेदार था , लेकिन अब बिल .. अचानक ऐसी हड़बड़ी .. कुछ शब्द कुछ वाक्य एक बेचैन अफरातफरी में कदमताल कर रहे हैं , कभी दे ब्रेक इंटू अ जिग .. वो समेटता है सब ,सेलफोन , गिंज़बर्ग की किताब , चाभी , वॉलेट सारे के सारे शब्द और भाव , गले तक आते शब्द , कंठ में फँसते अटकते ..
देर रात तक किसी अनजाने बाउल गीत को सुनते लिखता है एक ऐसी कहानी जो कभी लिखी नहीं गई थी आजतक
(ऊपर अंग्रेज़ी में गिंज़बर्ग की कविता सनफ्लावर सूत्रा की पंक्तियाँ )
9/18/2008
खेल खेल में
बच्चा अकेला खड़ा है । सामने मैदान में दूसरे बच्चे खेल रहे हैं । बच्चा शामिल होना चाहता है खेल में । पर पहल करने की हिम्मत नहीं है । किनारे खड़ा ललक भरी आँखों से देखता है कोई बुला ले । दूसरे बच्चे मगन हैं । कोई एक बार इसकी ओर देखता भी है तो थोड़ी जिज्ञासा से एक उड़ती नज़र से । सब अपने गुट में सुरक्षित हैं ।
ऊपर बॉलकनी से माँ देखती है बच्चे को । बुदबुदाती है , दोस्ती क्यों नहीं कर लेता ये जल्दी से । वो नये आये हैं यहाँ । बस दो तीन दिन ही तो । दो दिनों से बच्चा शाम को बॉलकनी में लटक जाता था । नीचे खेलते बच्चों के शोर शराबे वाले हुल्लड़ को जी मसोस कर देखता था । माँ के कहने पर कि नीचे चले जाओ ना , के जवाब में बॉर्नविटा पीता अच्छे बच्चों सा मुंडी डुलाकर बोलता , आज नहीं कल ।
आज हिम्मत बाँध कर नीचे गया है । माँ ऊपर से देखती है । छोटा सा , पतली गर्दन वाला , नन्ही पर उतरी चिड़िया हो जैसे । निकर के नीचे पतली टाँग । दुबला पतला पर ओह कितना प्यारा । माँ का दिल भर जाता है । लगता है कैसे इसका अकेलापन दूर कर दें । पिता आ कर माँ को बाँहों के घेरे में भरकर अंदर ले जाते हैं । चलो चाय पीयें । माँ चाय पीती है , पिता की बात पर हँसती भी है पर जी अटका है बाहर मैदान में ।
कुछ देर बाद मौका पाकर , पिता की आँख बचाकर झाँकती है । शाम के धुँधलके में कुछ नहीं दिखता । किनारे खड़ी कोई छाया भी नहीं । साँस भरकर अंदर आ जाती है । पिता जानकार आँखों से भाँपकर देखते हैं , कुछ कहते नहीं । आधे घँटे बाद घँटी बजती है । दरवाज़े पर बच्चा खड़ा है । उसकी एक आँख काली पड़ गई है । टीशर्ट की बाँह फट कर नीचे झूल रही है । मोज़े गिरे हुये हैं । घुटने छिले हुये हैं । बच्चा माँ की भौंचक परेशान निगाह को बरजता अंदर विजयी भाव से घुसता है , आज मैंने बहुत से दोस्त बना लिये ....
समाजीकरण का एक और अहम पाठ बच्चा सीख आया है । माँ को खुश होना चाहिये पर जाने क्यों दुखी हो जाती है ।
ऊपर बॉलकनी से माँ देखती है बच्चे को । बुदबुदाती है , दोस्ती क्यों नहीं कर लेता ये जल्दी से । वो नये आये हैं यहाँ । बस दो तीन दिन ही तो । दो दिनों से बच्चा शाम को बॉलकनी में लटक जाता था । नीचे खेलते बच्चों के शोर शराबे वाले हुल्लड़ को जी मसोस कर देखता था । माँ के कहने पर कि नीचे चले जाओ ना , के जवाब में बॉर्नविटा पीता अच्छे बच्चों सा मुंडी डुलाकर बोलता , आज नहीं कल ।
आज हिम्मत बाँध कर नीचे गया है । माँ ऊपर से देखती है । छोटा सा , पतली गर्दन वाला , नन्ही पर उतरी चिड़िया हो जैसे । निकर के नीचे पतली टाँग । दुबला पतला पर ओह कितना प्यारा । माँ का दिल भर जाता है । लगता है कैसे इसका अकेलापन दूर कर दें । पिता आ कर माँ को बाँहों के घेरे में भरकर अंदर ले जाते हैं । चलो चाय पीयें । माँ चाय पीती है , पिता की बात पर हँसती भी है पर जी अटका है बाहर मैदान में ।
कुछ देर बाद मौका पाकर , पिता की आँख बचाकर झाँकती है । शाम के धुँधलके में कुछ नहीं दिखता । किनारे खड़ी कोई छाया भी नहीं । साँस भरकर अंदर आ जाती है । पिता जानकार आँखों से भाँपकर देखते हैं , कुछ कहते नहीं । आधे घँटे बाद घँटी बजती है । दरवाज़े पर बच्चा खड़ा है । उसकी एक आँख काली पड़ गई है । टीशर्ट की बाँह फट कर नीचे झूल रही है । मोज़े गिरे हुये हैं । घुटने छिले हुये हैं । बच्चा माँ की भौंचक परेशान निगाह को बरजता अंदर विजयी भाव से घुसता है , आज मैंने बहुत से दोस्त बना लिये ....
समाजीकरण का एक और अहम पाठ बच्चा सीख आया है । माँ को खुश होना चाहिये पर जाने क्यों दुखी हो जाती है ।
9/15/2008
किसी सिन्दबाद के कँधों पर जबरजस्ती सवार शैतान बूढ़ा है , लिखना
भाषा माँगती है अपने अधिकार अपने सरोकार । हम लिखते हैं किसी भोली आकाँक्षाओं के सपने पाले कि जो जो जितना जितना सोचते हैं उतना उतना ही लिखते हैं ..उन्हीं भावों कल्पनाओं को हाथ बढ़ाकर लपक लेते हैं और फिर गर्म साँस फूँक कर कोई जादू ज़िन्दा कर देते हैं ..करने की कोशिश करते हैं । उसमें कितनी बात पाठक के पकड़ में आती है उसकी परवाह नहीं कहना भी उतना ही बेमानी है जितना ये कि सिर्फ अपने लिये लिखते हैं । ये सही है कि सबसे पहले लिखते हैं अपने लिये , उन खोये पाये पल को स्मृति से बाहर की चेतन दुनिया में इसलिये लाने , कि एक बार फिर उनका स्वाद ज़बान पर , त्वचा पर महसूस किया जा सके , और ये करते ही उसे बाँटने की इच्छा , उस उमगती रौशनी को दिखाने की इच्छा ऐसी बलवती होती है ..और इसलिये फिर हम लिखते हैं औरों के लिये ।
लिखते रहना एक तरीके का कदमताल है , शब्दों भावों को पकड़ने का कुशल कला कौशल है , संगीत का रियाज़ है । सुर कितने सही लगे ये अपने कानों को सबसे पहले सुनाई देता है । तब सिर्फ एक बहाना बचता है ..ईमानदारी और सच्चाई से लिखते रहने की कोशिश होती रहनी चाहिये , अपने आप को निरंतर नई पहचान देने की , अपने अंदर की बीहड़ महीन परतों को पहचानने की , अपने बाहर की दुनिया से सम्बन्ध स्थापित करते रहने की , लिखते बस लिखते रहने की ।
लिखना एक तरह का डीटैचमेंट है । सब भोगते हुये भी उसके बाहर रह कर दृष्टा बन जाने का । इसी रुटीन रोज़मर्रा के जीवन में एक फंतासी रच लेने का और फिर किसी निर्बाद्ध खुशी से उस फंतासी में नये नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का । लिखना जितना बड़ा सुख है उतनी ही गहरी पीड़ा भी है , जितना अमूर्त है उतना ही मूर्त भी , जितना वायवीय उतना ही ठोस और वास्तविक भी । और सबके ऊपर , लिखना खुद से सतत संवाद कायम रखने की ज़िद्दी जद्दोज़हद की बदमाश ठान है । किसी सिन्दबाद के कँधों पर जबरजस्ती सवार शैतान बूढ़ा है , लिखना ।
लिखते रहना एक तरीके का कदमताल है , शब्दों भावों को पकड़ने का कुशल कला कौशल है , संगीत का रियाज़ है । सुर कितने सही लगे ये अपने कानों को सबसे पहले सुनाई देता है । तब सिर्फ एक बहाना बचता है ..ईमानदारी और सच्चाई से लिखते रहने की कोशिश होती रहनी चाहिये , अपने आप को निरंतर नई पहचान देने की , अपने अंदर की बीहड़ महीन परतों को पहचानने की , अपने बाहर की दुनिया से सम्बन्ध स्थापित करते रहने की , लिखते बस लिखते रहने की ।
लिखना एक तरह का डीटैचमेंट है । सब भोगते हुये भी उसके बाहर रह कर दृष्टा बन जाने का । इसी रुटीन रोज़मर्रा के जीवन में एक फंतासी रच लेने का और फिर किसी निर्बाद्ध खुशी से उस फंतासी में नये नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का । लिखना जितना बड़ा सुख है उतनी ही गहरी पीड़ा भी है , जितना अमूर्त है उतना ही मूर्त भी , जितना वायवीय उतना ही ठोस और वास्तविक भी । और सबके ऊपर , लिखना खुद से सतत संवाद कायम रखने की ज़िद्दी जद्दोज़हद की बदमाश ठान है । किसी सिन्दबाद के कँधों पर जबरजस्ती सवार शैतान बूढ़ा है , लिखना ।
9/12/2008
मछली की आँख
कुछ उमगता है
फिर बैठता है मन के तल पर,
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर ,
उसके नाम अपनी नमी ,
उसके नाम अपनी फसल और उसके नाम
अपनी ज़मीन ।
...................................................
किसी रात उन सीढियों पर
पाँव रखकर
उतर जाती हूँ
जंगल में
पेट में
खिल जाती है बीचोबीच
कोई मणि
.............................................................
बारिश का पानी
पेड़ की शाख पर छोड़ता है , क्या ?
जाने क्या क्या
उँगली से पसार दिया था क्यों
तुमने सिंदूर को ,
धो दिया न अपने आँसू ,
.....................................
छाती के तल पर पैठती है मछली ,
खोलती है अपनी मछली आँख
बिंध जाती है फिर
हर बार हर बार
टपकता है पानी
आँख से , मन से
कितना सारा
देखते नहीं ? कितना तो हरा है
भरा है
काई में फिर खिलता है
साफ पानी का एक अंजुर
मछली की आँख फिर
आहत क्यों ? देखती मेरी तरफ
...................................
(ऊपर के शब्द मेरे हैं , रविन्द्र व्यास की पेंटिंग है । )
रविन्द्र (हरा कोना ) कहते हैं.... (चित्र और शब्द के संयोजन के विषय में)
....हां, शब्द चित्र अपने में आजाद हैं, उनके साथ लगा चित्र अपने में आजाद होता है। दोनों की सत्ता अलग अलग है। वे भले ही एक साथ लगने पर दोनों के पूरक लगें, लेकिन दोनों अपने अपने माध्यमों में एकदम अलग। हम शायद उन्हें न दिखने वाले लेकिन महसूस होने वाले महीन धागे से जोड़ते भर हैं।
9/10/2008
द रेन सॉन्ग
उसकी आवाज़ फुसफुसाती आ रही थी । मैंने पूछा था ,
क्या ? फिर से बताना
रेन , उसने दोहराया , रेन , फिर बच्चों को समझाते हैं जैसे आवाज़ में कहा , आर ए आई एन ..रेन
बारिश ?
उसने इंसिस्ट किया , नहीं रेन । पर इस बार आवाज़ में एक छिपी हँसी थी ।
अँधेरा था और बाहर बारिश गिर रही थी । और ये लड़की मुझे पागल कर रही थी । दुनिया के किस छोर में बैठी मुझे पागल कर रही थी ।
तुम हो ? उसकी आवाज़ तैरती आ रही थी नीले अँधेरे में । मुझे लगा छू लूँ उसकी आवाज़ को , हाथों से सहला लूँ फिर गप्प से मुँह में भर लूँ । उसकी आवाज़ फिर अंदर गूँजे और हरेक टिम्बर में उसको पहचान लूँ ।
मैं कुछ जवाब देता उसके पहले फोन डिसकनेक्ट हो गया ।
अँधेरे में अँधेरे को देखते मैं सोचता हूँ क्या किसी का नाम रेन हो सकता है ? बाहर अब भी बारिश हो रही है । अकेले में ये रॉंग नम्बर कोई नियति का फेंका हुआ पासा है शायद । सिगरेट की जलती हुई टोंटी से उठता धूँआ मेरे जीभ पर उसकी आवाज़ का धूँआ धूँआ स्वाद है ।
उसकी आवाज़ टूटी टूटी सी खराशदार है , जैसे टोबैको मेरी जीभ पर , जैसे बचपन में देखी वियुमास्टर पर जैंज़ीबार , ( और जैंज़ीबार कहते ही मेरे शरीर में एक सिहरन होती है और मैं इस शब्द को बार बार दोहराता हूँ ) का एक दृश्य गाँव का , उस आदमी का जो नीचे बिछी मिर्चों को या फिर शायद कॉफी बींस ? अब याद नहीं , हाथ से फैलाता मगन है । पीछे घर के बगल में छाया में टिकी साईकिल जो शायद साईकिल ही नहीं थी , बस कल्पना में साईकिल थी , ऐसी उसकी आवाज़ थी , शायद सिर्फ कल्पना में ।
रात के अँधेरे में मैं पुकारता हूँ ज़ोर से
रेन ! रेन !
फिर अपनी आवाज़ को थामता हूँ और स्वाद लेकर कहता हूँ
रेन
तीन बार और कहूँगा तो घँटी बजेगी और उसकी आवाज़ धीमे से फुसफुसा कर कहेगी
तुम हो ?
तीन बार कहने पर भी फोन नहीं बजता । मैं नीन्द में खर्राटे भरता सपने देखता हूँ फिर बारिश की । फिर हड़बड़ा कर आधी रात उठ बैठता हूँ । पता नहीं क्यों , पर मुझे फे वॉन्ग की याद आती है । शायद सब एक सपना है ।
मैं किसी आवाज़ को थाम कर रेगिस्तान पार कर जाना चाहता हूँ । उस आवाज़ में माँ की आवाज़ की प्रतिध्वनि है , किसी मैदान में खेलते दूर से अचानक हवा में माँ की आवाज़ तिरती आती थी , धीमी बुलाती हुई , जिसमें घर की गर्मी होती थी , चूल्हे के पास ताज़ा सिंकती रोटी पर गर्म चुपड़े घी की महक होती थी , माँ के पसीने और टैल्कम पाउडर की मिली जुली प्यारी खुशबू होती थी और कैसे मैं अचानक अधीर खेल बीच में छोड़ कर भाग आता , पीछे दोस्तों की सम्मिलित गुहार दरवाज़े तक मेरे साथ आती , साथ हाँफते दौड़ते । दरवाज़े के अंदर आते ही सब झटक देता । अंदर के पीले नहाये रौशनी में माँ मुड़कर देखतीं , मुस्कुरातीं , इशारा करतीं , हाथ मुँह धो आने की , फिर आँख मून्द कर तानपुरा सँभालतीं ।
रात के अँधेरे में तानपुरे की टुनटुन सुनाई देती है । माँ को गये कितना अरसा हुआ । हल्के नीले छोटे फूलों वाले खोल से मढ़ा तानपुरा अब भी घर पर माँ के कमरे में सजा है । कई बार वहाँ होने पर , जब माँ की कमी महसूस होती है , मैं तानपुरे के तार पर उँगलियाँ चलाता हूँ , जैसे बचपन में माँ रहम खा कर कभी मुझे गोद में बिठाकर तानपुरा बजवा लेतीं , या कभी सिलाई मशीन की हैंडल चलवा लेतीं । जैंज़ीबार वाला वियुमास्टर अगली बार जब घर जाउँगा , खोजूँगा पर तब तक कॉफीबींस आदमी को मैं बखूबी देख सकता हूँ । उस फे वॉन्ग लड़की को भी जिसका पक्का शर्तिया नाम रेन नहीं है ।
मैं अँधेरे को देखता फोन की घँटी का इंतज़ार करता हूँ ।
क्या ? फिर से बताना
रेन , उसने दोहराया , रेन , फिर बच्चों को समझाते हैं जैसे आवाज़ में कहा , आर ए आई एन ..रेन
बारिश ?
उसने इंसिस्ट किया , नहीं रेन । पर इस बार आवाज़ में एक छिपी हँसी थी ।
अँधेरा था और बाहर बारिश गिर रही थी । और ये लड़की मुझे पागल कर रही थी । दुनिया के किस छोर में बैठी मुझे पागल कर रही थी ।
तुम हो ? उसकी आवाज़ तैरती आ रही थी नीले अँधेरे में । मुझे लगा छू लूँ उसकी आवाज़ को , हाथों से सहला लूँ फिर गप्प से मुँह में भर लूँ । उसकी आवाज़ फिर अंदर गूँजे और हरेक टिम्बर में उसको पहचान लूँ ।
मैं कुछ जवाब देता उसके पहले फोन डिसकनेक्ट हो गया ।
अँधेरे में अँधेरे को देखते मैं सोचता हूँ क्या किसी का नाम रेन हो सकता है ? बाहर अब भी बारिश हो रही है । अकेले में ये रॉंग नम्बर कोई नियति का फेंका हुआ पासा है शायद । सिगरेट की जलती हुई टोंटी से उठता धूँआ मेरे जीभ पर उसकी आवाज़ का धूँआ धूँआ स्वाद है ।
उसकी आवाज़ टूटी टूटी सी खराशदार है , जैसे टोबैको मेरी जीभ पर , जैसे बचपन में देखी वियुमास्टर पर जैंज़ीबार , ( और जैंज़ीबार कहते ही मेरे शरीर में एक सिहरन होती है और मैं इस शब्द को बार बार दोहराता हूँ ) का एक दृश्य गाँव का , उस आदमी का जो नीचे बिछी मिर्चों को या फिर शायद कॉफी बींस ? अब याद नहीं , हाथ से फैलाता मगन है । पीछे घर के बगल में छाया में टिकी साईकिल जो शायद साईकिल ही नहीं थी , बस कल्पना में साईकिल थी , ऐसी उसकी आवाज़ थी , शायद सिर्फ कल्पना में ।
रात के अँधेरे में मैं पुकारता हूँ ज़ोर से
रेन ! रेन !
फिर अपनी आवाज़ को थामता हूँ और स्वाद लेकर कहता हूँ
रेन
तीन बार और कहूँगा तो घँटी बजेगी और उसकी आवाज़ धीमे से फुसफुसा कर कहेगी
तुम हो ?
तीन बार कहने पर भी फोन नहीं बजता । मैं नीन्द में खर्राटे भरता सपने देखता हूँ फिर बारिश की । फिर हड़बड़ा कर आधी रात उठ बैठता हूँ । पता नहीं क्यों , पर मुझे फे वॉन्ग की याद आती है । शायद सब एक सपना है ।
मैं किसी आवाज़ को थाम कर रेगिस्तान पार कर जाना चाहता हूँ । उस आवाज़ में माँ की आवाज़ की प्रतिध्वनि है , किसी मैदान में खेलते दूर से अचानक हवा में माँ की आवाज़ तिरती आती थी , धीमी बुलाती हुई , जिसमें घर की गर्मी होती थी , चूल्हे के पास ताज़ा सिंकती रोटी पर गर्म चुपड़े घी की महक होती थी , माँ के पसीने और टैल्कम पाउडर की मिली जुली प्यारी खुशबू होती थी और कैसे मैं अचानक अधीर खेल बीच में छोड़ कर भाग आता , पीछे दोस्तों की सम्मिलित गुहार दरवाज़े तक मेरे साथ आती , साथ हाँफते दौड़ते । दरवाज़े के अंदर आते ही सब झटक देता । अंदर के पीले नहाये रौशनी में माँ मुड़कर देखतीं , मुस्कुरातीं , इशारा करतीं , हाथ मुँह धो आने की , फिर आँख मून्द कर तानपुरा सँभालतीं ।
रात के अँधेरे में तानपुरे की टुनटुन सुनाई देती है । माँ को गये कितना अरसा हुआ । हल्के नीले छोटे फूलों वाले खोल से मढ़ा तानपुरा अब भी घर पर माँ के कमरे में सजा है । कई बार वहाँ होने पर , जब माँ की कमी महसूस होती है , मैं तानपुरे के तार पर उँगलियाँ चलाता हूँ , जैसे बचपन में माँ रहम खा कर कभी मुझे गोद में बिठाकर तानपुरा बजवा लेतीं , या कभी सिलाई मशीन की हैंडल चलवा लेतीं । जैंज़ीबार वाला वियुमास्टर अगली बार जब घर जाउँगा , खोजूँगा पर तब तक कॉफीबींस आदमी को मैं बखूबी देख सकता हूँ । उस फे वॉन्ग लड़की को भी जिसका पक्का शर्तिया नाम रेन नहीं है ।
मैं अँधेरे को देखता फोन की घँटी का इंतज़ार करता हूँ ।
9/04/2008
इस दुनिया में कुछ भी वर्जित नहीं
मैं नींद में अचकचाकर बुदबुदाती हूँ कुछ अस्फुट शब्द जो चेतन नहीं हैं , उन अचेतन शब्दों की धरती इन्हीं
जागे सोये दुनिया के बीच की कोई खोयी दुनिया है , दो साँस के बीच का समतल पठार जहाँ पलती है इच्छायें
वो जो कही नहीं जाती , जनमती हैं उसी पल और फिर लटकी रहती हैं हवा में
उलटे
चाँदनी रात में दो लोग देखते हैं आसमान , हाथ साथ बढ़ाकर लोकते हैं इच्छायें , अंदर फिर खिलता नहीं क्यों कोई फूल
होते हैं हैरान , कहते हैं , अब हम बच्चे तो नहीं कि फर्क न कर पायें मिलने और चाहने के बीच
बैलून ग्लास में पीते हैं फेनी समझ कर कोई महंगी शराब उसी अदा से जैसे देखी थी कभी
किसी पुरानी अंग्रेज़ी फिल्म में , पीते हुये मद्धिम संगीत के साथ कुछ घूँट , बेहद मादक
जीते हैं किसी बिलकुल गैरज़रूरी इच्छा को ऐसे और ऐसे
और
रख देते हैं ताक पर लपेट कर लाल गठरी में महफूज़
उन खतरनाक इच्छाओं को जो लटकी हैं उलटी उस दुनिया में , जिनका अस्तित्व नहीं है इस दुनिया में
पर जिसकी गँध तिरती है यहाँ यहाँ और यहाँ
तुम हँसकर बढ़ाते हो ग्लास और कहते हो .... अब , इस दुनिया में कुछ भी वर्जित नहीं
(शगाल की पेंटिंग़ amoureux de vence)
8/30/2008
औरत हैट और तैमूर
शायद तैमूर लंग या चंगेज़ खान ऐसे ही दिखते होंगे । तीखी नाक और मंगोल आँखें । नाक से होंठों तक की रेखा में निर्मम क्रूरता दिखती होगी । फिर वो हँस देता है । सफेद दाँतों की चमक और मुन्दे आँखों में ऐसा भोला सरल हास्य कि धूप खिल जाती है चेहरे पर । उसकी कहानियाँ अनवरत चल रही हैं । मैं खिडकी के बाहर नदी के साथ साथ चलती सड़क पर चल रही हूँ । मुझे पता था कि चाय बागान ढलानों पर होते हैं , पानी न जमे इसलिये । फैरो की जॉगरफी याद आती है । पर यहाँ तो सपाट ज़मीन पर चाय बागान है । महाशय फैरो , दोबारा लिख डालिये मैं स्मगली सोच कर मुस्कुराती हूँ । एक वक्त फैरो की मोटी किताब से कितनी चिढ़ होती थी । जॉगरफी मेरा पसंदीदा विषय नहीं था । अब लगता है खूब हो सकता है । इतिहास को भूगोल से जोड़ कर और इकानॉमिक्स को सोश्याऑलजी और अंथ्रोपॉलजी से जोड़ कर सब समझ जाने का मजा ।
चाय के कप के तल पर पत्तियाँ तैरती हैं । कोई पढ़ देता मेरा भविष्य । मैं देखती हूँ , पत्तियों में कोई इमेज खोजती हूँ , कोई संकेत आगत का , अच्छा इस दिन का ही सही । बन्द और लैंड स्लाईड के बीहड़ खतरों से सुरक्षित निकाल लाने का । उसकी ओर देखकर मैं अविश्वास को पल भर पीछे कपाटों में बन्द कर देती हूँ । गाड़ी के स्टियरिंग पर उसकी उँगलियाँ हल्के आश्वस्तता से पड़ी हैं । गोआ में ऐंटिकेरिया में नाश्ता करते वो जोड़ा याद आता है । शायद पहले दिन कोई लड़ाई हुई थी । लड़की चुप सर्दीली थी । लड़का हर तरफ देखता उसे नहीं देखता था । मैं उन दोनों को देखती थी । लड़की के समेटे बाल के नीचे शफ्फाक दुबली गर्दन पर मुझे प्यार उमड़ा था । पता नहीं इस वक्त मुझे वो लड़की क्यों याद आई । या फिर वो छोटी सी दुकान जहाँ शगाल की वायलनिस्ट का रीप्रिंट उस फेक फायरप्लेस के ऊपर । मैंने दुकान की मालकिन से हँसकर कहा था , शगाल पसंद है ? उसने मुस्कुरा कर पीछे वाली दीवार पर टंगा साल्वादोर दाली का लैंडस्केप विद बटरफ्लाईज़ , शीशे में मढ़ा दिखाया था । मेरा बेटा सिल्वियो जाने क्या क्या लगाता फिरता है । मैं सिल्वियो से नहीं मिली पर मुझे उसकी याद आती है । और मज़े की बात ..जब जब उस दुबली गर्दन बेनाम लड़की की याद आती है , पता नहीं उस न देखे सिल्वियो की याद भी जाने कौन से अजाने तार से आ जाती है । मेरी स्मृति में प्यारा सिल्वियो और दुलारी लड़की ।
सिल्वियो रॉड्रीगेस के गीत याद आते हैं । अब शगाल से याद आता है कि सिल्वियो से ..पता नहीं । मेरी मुकुराहट देखकर तैमूर जवाबी मुस्कान देता पूछता है , यू आर एंजोयिंग ? मेरी एड़ियों का कोना किसी पके ज़ख्म की तरह टभक रहा है । कल कामख्या देवी के दर्शन का प्रसाद है । शक्तिपीठ है , जाईयेगा ज़रूर । दर्शन और पूजा कराने के बाद बुज़ुर्ग पंडा महाशय गेरुआ धोती और गंजी में शक्तिपीठ की कहानी सुनाते हैं । कितना पुराना मंदिर है , कैसे पहले गर्भगृह में कितना पानी आता था , सती और शिव की कथा । मेरे तलुये गर्म फर्श पर जल रहे हैं । बाकियों को फर्क नहीं पड़ रहा । शायद मुझमें भक्तिभाव कम है । बाद में उनका विज़िटिंग कार्ड और मोबाईल नम्बर लेते मुझे हँसी आती है । किसी को भी दर्शन कराना हो मुझे फोन करियेगा । मैं टीका लगाये सर को समुचित आदर में नवाती हूँ । मुझे ये बुज़ुर्ग पंडा पसंद आये । सीढ़ीयों से उतरते पिता की याद आती रही । बेतरह ।
ठंडे फर्श पर पट लेटे गाल सटाये आँखें मून्दे मैं सिल्वियो को सुनती हूँ । अविश्वास को पल भर के लिये दूर हटाना चाहती हूँ । भरोसा करना चाहती हूँ । पता नहीं किस पर ? शायद खुद पर । सबसे ज़्यादा तकलीफ हम खुद को देते हैं। दूसरा कोई नहीं देता । ऑयल वोमन विद हैट । क्या गाता है स्पैनिश में । मुझे स्पैनिश नहीं आती पर अभी इस गीत को समझने के लिये स्पैनिश सीख लेने की गहरी अदम्य इच्छा होती है ।
लौटकर तस्वीरें देखती हूँ । नदी की , पहाड़ के , लोगों के । ओह ये कब लिया ? तैमूर का खिड़की के शीशे के पार हँसते हुये ? उसकी तस्वीर मेल करती हूँ उसे एक शुक्रिया के साथ । उस दिन सही सलामत निकाल लाने के लिये ।
(oil woman with hat ..oleo de una mujer con sombrero ) सिल्वियो रॉड्रीगेस
चाय के कप के तल पर पत्तियाँ तैरती हैं । कोई पढ़ देता मेरा भविष्य । मैं देखती हूँ , पत्तियों में कोई इमेज खोजती हूँ , कोई संकेत आगत का , अच्छा इस दिन का ही सही । बन्द और लैंड स्लाईड के बीहड़ खतरों से सुरक्षित निकाल लाने का । उसकी ओर देखकर मैं अविश्वास को पल भर पीछे कपाटों में बन्द कर देती हूँ । गाड़ी के स्टियरिंग पर उसकी उँगलियाँ हल्के आश्वस्तता से पड़ी हैं । गोआ में ऐंटिकेरिया में नाश्ता करते वो जोड़ा याद आता है । शायद पहले दिन कोई लड़ाई हुई थी । लड़की चुप सर्दीली थी । लड़का हर तरफ देखता उसे नहीं देखता था । मैं उन दोनों को देखती थी । लड़की के समेटे बाल के नीचे शफ्फाक दुबली गर्दन पर मुझे प्यार उमड़ा था । पता नहीं इस वक्त मुझे वो लड़की क्यों याद आई । या फिर वो छोटी सी दुकान जहाँ शगाल की वायलनिस्ट का रीप्रिंट उस फेक फायरप्लेस के ऊपर । मैंने दुकान की मालकिन से हँसकर कहा था , शगाल पसंद है ? उसने मुस्कुरा कर पीछे वाली दीवार पर टंगा साल्वादोर दाली का लैंडस्केप विद बटरफ्लाईज़ , शीशे में मढ़ा दिखाया था । मेरा बेटा सिल्वियो जाने क्या क्या लगाता फिरता है । मैं सिल्वियो से नहीं मिली पर मुझे उसकी याद आती है । और मज़े की बात ..जब जब उस दुबली गर्दन बेनाम लड़की की याद आती है , पता नहीं उस न देखे सिल्वियो की याद भी जाने कौन से अजाने तार से आ जाती है । मेरी स्मृति में प्यारा सिल्वियो और दुलारी लड़की ।
सिल्वियो रॉड्रीगेस के गीत याद आते हैं । अब शगाल से याद आता है कि सिल्वियो से ..पता नहीं । मेरी मुकुराहट देखकर तैमूर जवाबी मुस्कान देता पूछता है , यू आर एंजोयिंग ? मेरी एड़ियों का कोना किसी पके ज़ख्म की तरह टभक रहा है । कल कामख्या देवी के दर्शन का प्रसाद है । शक्तिपीठ है , जाईयेगा ज़रूर । दर्शन और पूजा कराने के बाद बुज़ुर्ग पंडा महाशय गेरुआ धोती और गंजी में शक्तिपीठ की कहानी सुनाते हैं । कितना पुराना मंदिर है , कैसे पहले गर्भगृह में कितना पानी आता था , सती और शिव की कथा । मेरे तलुये गर्म फर्श पर जल रहे हैं । बाकियों को फर्क नहीं पड़ रहा । शायद मुझमें भक्तिभाव कम है । बाद में उनका विज़िटिंग कार्ड और मोबाईल नम्बर लेते मुझे हँसी आती है । किसी को भी दर्शन कराना हो मुझे फोन करियेगा । मैं टीका लगाये सर को समुचित आदर में नवाती हूँ । मुझे ये बुज़ुर्ग पंडा पसंद आये । सीढ़ीयों से उतरते पिता की याद आती रही । बेतरह ।
ठंडे फर्श पर पट लेटे गाल सटाये आँखें मून्दे मैं सिल्वियो को सुनती हूँ । अविश्वास को पल भर के लिये दूर हटाना चाहती हूँ । भरोसा करना चाहती हूँ । पता नहीं किस पर ? शायद खुद पर । सबसे ज़्यादा तकलीफ हम खुद को देते हैं। दूसरा कोई नहीं देता । ऑयल वोमन विद हैट । क्या गाता है स्पैनिश में । मुझे स्पैनिश नहीं आती पर अभी इस गीत को समझने के लिये स्पैनिश सीख लेने की गहरी अदम्य इच्छा होती है ।
लौटकर तस्वीरें देखती हूँ । नदी की , पहाड़ के , लोगों के । ओह ये कब लिया ? तैमूर का खिड़की के शीशे के पार हँसते हुये ? उसकी तस्वीर मेल करती हूँ उसे एक शुक्रिया के साथ । उस दिन सही सलामत निकाल लाने के लिये ।
(oil woman with hat ..oleo de una mujer con sombrero ) सिल्वियो रॉड्रीगेस
8/26/2008
धत्त ! ये तो बालूशाही है
काले बड़े लकड़ी के कमानी से लैस अजदहे छाते के पीछे उसकी आधी काया छिपी हुई थी । गाड़ी फर्राटे से पार हुई और एकदम पार हो जाते जाते देखा उसका चौंका चेहरा , एक पल को काले चेहरे में खिली दूध के कोये सी झक्क आँखें । फिर बरसाती सड़क पर दो दो तीन के गुच्छे में नीली कमीज़ और गाढ़े नीले लम्बे कम घेर वाले स्कर्ट में लड़कियाँ , सिकुड़ती बारिश से बचती बचाती हँसती खिलखिलाती , उसी सीलेपन में बेपरवाही खोजती पातीं लड़कियाँ ।
सड़क के दोनों ओर पेड़ों का कनात तना है । काले अलकतरे की सपाट सड़क आगे घूम कर विलीन होती जाती है हर बार सड़क को निगलते गाड़ी के मुँह से आगे तेज़ भागती । लाल मिट्टी और हरे पेड़ और उसके पार हरे खेत । गाड़ी का एसी तेज़ हवा धौंक रहा है । धूप में साईकिल रोके मुड़ कर देखता आदमी पसीने से तर है । औरत के पीठ पर गठरी सा बँधा बच्चा ढुलक कर सोया है । ठीक से दिखने के पहले पीछे छूटता हुआ । सड़क के दोनों ओर कस्बई दुकान में गाँव का सजा चेहरा दिखता है । मर्तबान के कतार और दीवार पर परमहंस की तस्वीर पर सूखे फूलों की माला , उसके बगल में किसी सफेद मूछों वाले भद्र स्वरूप बुज़ुर्गवार की फोटो और दीवार के पिछले हिस्से में पूजा के रैक से उठता लोबान अगरबत्ती का धूँआ । गाड़ी रुकी है । खिड़की के पार दुकान में बैठा आदमी निर्विकार भाव से मुझे देखता है । उसकी खुली बाँह पर एक मक्खी चलती है । बताशे के मर्तबान के अंदर एक चूँटा लगातार गोल घूमता है । इस दुनिया का प्राणी ।
भागते दौड़ते विलीन होते पीछे छूटे घरों , लोगों को देखते मैं सोचती हूँ , ये नहीं कि कैसे रहते होंगे ये लोग बल्कि ये कि ऐसे रहते क्या सोचते होंगे ये लोग ? सब लोग ?
ड्राईवर बोलता है , रास्ता एक किलोमीटर पीछे छूट गया । वहीं से जहाँ से बंगाल की सरहद शुरु हुई थी । बस जैसे एक लाईन खींची हो , इस पार आदिवासी चेहरे , लाल मिट्टी और उस पार बंगाली साड़ी , खुले तेल लगे बाल , सिंदूर का टीका । मैं सोचती हूँ कैसे तय हुआ होगा कि इस पार ऐसे रहेंगे और उस पार वैसे । और लाईन कहाँ तय हुई होगी ? किसने फरमान ज़ारी किया होगा या सब खुद ब खुद जान गये होंगे कि इधर ऐसे रहना बोलना है उधर वैसे ? जैसे दूसरे देशों के बीच , समुद्र के बीच , धरती पर कितने कितने लोग खड़े हैं लाईन के आमने सामने बताते कहते कि हम तुमसे अलग हैं ।
मज़े की बात है लाईन के इस पार भी पेड़ हरे हैं , उस पार भी । उन्हें किसी ने नहीं बताया इस पार उस पार के रीति को । सड़कों को अलबता बताया गया है । इस पार अच्छे और उस पार उबड़ खाबड़ । छोटे दुकान , संकरे रास्ते , बजबजाती नालियाँ , यूनियन का दफ्तर , मकानों के सामने तार पर सूखते छापेदार रंगीन साड़ियाँ , इधर उधर होते, सुस्त फुर्तीले दिखते जवान , जम्हाई लेते बुज़ुर्ग , घुटने पर हाथ धरे सड़क के किनारे बैठीं औरतें , खाट पर सूखता उबला पीला चावल । स्कूल जाते बच्चे , बिजली के तार और रेल की पटरी । खेत खेत खेत छोटे टुकड़े और कितने पोखर ।
गोसाईं कहता है यहाँ का गाजा मशहूर है । पुरुलिया में और क्या ? मुड़ी डुलाकर हँसता है दाँत टूटी हँसी , बस गाजा और क्या ? दफ्तर में बैठे चीनी मिट्टी के फूलदार कप तश्तरी में कड़क चाय पीते , नमकीन बिस्कुट का एक टुकड़ा तोड़ते , फाईल्स देखते उठ खड़े होते हैं । छोटे से दफ्तर में लोग हैरानी से झाँकते हैं , बाहर से आये हैं लगता है ।
लौटते खूब झमाझम बारिश । नक्सलाईट एरिया है , जरा जल्दी निकल जायें की ताकीदगी याद रहती है पर अँधेरा भी वैसे ही झमाझम बरस रहा है । झालदा के पास हिन्दू बादशाह होटल में खटिया पर बैठे चाय पीने का मज़ा अब निकलेगा शायद । मोटे विकराल मच्छर उठा कर न ले गये , नक्सली क्या ले जायेंगे । पानी शीशे को पीट रही है । अंधेरे में आँख फाड़े याद करती हूँ जगहों के नाम .. टाटी सिल्वे , सिल्ली , नवाडीह , तेतला , मुरी , झालदा , टोपशिला , पलपल , अहरारा .... जैसे एक स्वाद घुलता है मन में , किसी बिसरी हुई स्मृति का ? उस स्मृति का जो है नहीं , उन जगहों की याद जहाँ कभी गये नहीं , वो समय जो अपना था नहीं कभी ।
उस याद की याद कैसे आ सकती है जो याद कभी की गई नहीं ।
रात को कैपिटल के रेस्तरां मेलांश में बैठे मेक्सिन प्रॉन सूप पीते उस आदिवासी लड़के को कड़क यूनिफॉर्म में मुस्तैद मुस्कुराते देखती हूँ जो किसी गेस्ट के मेलांजे को सही करता अदब से मुस्कुराता है । कमरे में आकर पैकेट खोलती हूँ । रेस्तरां में डेज़र्ट को दरकिनार किया था । अब पुरुलिया का गाज़ा मुँह में घुलेगा । कूट का डब्बा तुड़ मुड़ गया है । बाहर तक देसी घी की चिकनाई फैल गई है । ढक्कन खोल कर निराशा होती है । धत्त ये गाजा कहाँ ये तो बालूशाही है । जरा निराश , एक टुकड़ा मुँह में डालती हूँ । तृप्ति से आँख मुन्द जाती है । आत्मा तक मिठास फैलती है ..घी में डूबी सोंधी , फट से कुरमुरा कर खस्ता टूट कर घुलती हुई ।
लगातार तीन खा लेने के बाद थकान में शरीर गिरता है । गिरता है नीन्द में ।
सड़क के दोनों ओर पेड़ों का कनात तना है । काले अलकतरे की सपाट सड़क आगे घूम कर विलीन होती जाती है हर बार सड़क को निगलते गाड़ी के मुँह से आगे तेज़ भागती । लाल मिट्टी और हरे पेड़ और उसके पार हरे खेत । गाड़ी का एसी तेज़ हवा धौंक रहा है । धूप में साईकिल रोके मुड़ कर देखता आदमी पसीने से तर है । औरत के पीठ पर गठरी सा बँधा बच्चा ढुलक कर सोया है । ठीक से दिखने के पहले पीछे छूटता हुआ । सड़क के दोनों ओर कस्बई दुकान में गाँव का सजा चेहरा दिखता है । मर्तबान के कतार और दीवार पर परमहंस की तस्वीर पर सूखे फूलों की माला , उसके बगल में किसी सफेद मूछों वाले भद्र स्वरूप बुज़ुर्गवार की फोटो और दीवार के पिछले हिस्से में पूजा के रैक से उठता लोबान अगरबत्ती का धूँआ । गाड़ी रुकी है । खिड़की के पार दुकान में बैठा आदमी निर्विकार भाव से मुझे देखता है । उसकी खुली बाँह पर एक मक्खी चलती है । बताशे के मर्तबान के अंदर एक चूँटा लगातार गोल घूमता है । इस दुनिया का प्राणी ।
भागते दौड़ते विलीन होते पीछे छूटे घरों , लोगों को देखते मैं सोचती हूँ , ये नहीं कि कैसे रहते होंगे ये लोग बल्कि ये कि ऐसे रहते क्या सोचते होंगे ये लोग ? सब लोग ?
ड्राईवर बोलता है , रास्ता एक किलोमीटर पीछे छूट गया । वहीं से जहाँ से बंगाल की सरहद शुरु हुई थी । बस जैसे एक लाईन खींची हो , इस पार आदिवासी चेहरे , लाल मिट्टी और उस पार बंगाली साड़ी , खुले तेल लगे बाल , सिंदूर का टीका । मैं सोचती हूँ कैसे तय हुआ होगा कि इस पार ऐसे रहेंगे और उस पार वैसे । और लाईन कहाँ तय हुई होगी ? किसने फरमान ज़ारी किया होगा या सब खुद ब खुद जान गये होंगे कि इधर ऐसे रहना बोलना है उधर वैसे ? जैसे दूसरे देशों के बीच , समुद्र के बीच , धरती पर कितने कितने लोग खड़े हैं लाईन के आमने सामने बताते कहते कि हम तुमसे अलग हैं ।
मज़े की बात है लाईन के इस पार भी पेड़ हरे हैं , उस पार भी । उन्हें किसी ने नहीं बताया इस पार उस पार के रीति को । सड़कों को अलबता बताया गया है । इस पार अच्छे और उस पार उबड़ खाबड़ । छोटे दुकान , संकरे रास्ते , बजबजाती नालियाँ , यूनियन का दफ्तर , मकानों के सामने तार पर सूखते छापेदार रंगीन साड़ियाँ , इधर उधर होते, सुस्त फुर्तीले दिखते जवान , जम्हाई लेते बुज़ुर्ग , घुटने पर हाथ धरे सड़क के किनारे बैठीं औरतें , खाट पर सूखता उबला पीला चावल । स्कूल जाते बच्चे , बिजली के तार और रेल की पटरी । खेत खेत खेत छोटे टुकड़े और कितने पोखर ।
गोसाईं कहता है यहाँ का गाजा मशहूर है । पुरुलिया में और क्या ? मुड़ी डुलाकर हँसता है दाँत टूटी हँसी , बस गाजा और क्या ? दफ्तर में बैठे चीनी मिट्टी के फूलदार कप तश्तरी में कड़क चाय पीते , नमकीन बिस्कुट का एक टुकड़ा तोड़ते , फाईल्स देखते उठ खड़े होते हैं । छोटे से दफ्तर में लोग हैरानी से झाँकते हैं , बाहर से आये हैं लगता है ।
लौटते खूब झमाझम बारिश । नक्सलाईट एरिया है , जरा जल्दी निकल जायें की ताकीदगी याद रहती है पर अँधेरा भी वैसे ही झमाझम बरस रहा है । झालदा के पास हिन्दू बादशाह होटल में खटिया पर बैठे चाय पीने का मज़ा अब निकलेगा शायद । मोटे विकराल मच्छर उठा कर न ले गये , नक्सली क्या ले जायेंगे । पानी शीशे को पीट रही है । अंधेरे में आँख फाड़े याद करती हूँ जगहों के नाम .. टाटी सिल्वे , सिल्ली , नवाडीह , तेतला , मुरी , झालदा , टोपशिला , पलपल , अहरारा .... जैसे एक स्वाद घुलता है मन में , किसी बिसरी हुई स्मृति का ? उस स्मृति का जो है नहीं , उन जगहों की याद जहाँ कभी गये नहीं , वो समय जो अपना था नहीं कभी ।
उस याद की याद कैसे आ सकती है जो याद कभी की गई नहीं ।
रात को कैपिटल के रेस्तरां मेलांश में बैठे मेक्सिन प्रॉन सूप पीते उस आदिवासी लड़के को कड़क यूनिफॉर्म में मुस्तैद मुस्कुराते देखती हूँ जो किसी गेस्ट के मेलांजे को सही करता अदब से मुस्कुराता है । कमरे में आकर पैकेट खोलती हूँ । रेस्तरां में डेज़र्ट को दरकिनार किया था । अब पुरुलिया का गाज़ा मुँह में घुलेगा । कूट का डब्बा तुड़ मुड़ गया है । बाहर तक देसी घी की चिकनाई फैल गई है । ढक्कन खोल कर निराशा होती है । धत्त ये गाजा कहाँ ये तो बालूशाही है । जरा निराश , एक टुकड़ा मुँह में डालती हूँ । तृप्ति से आँख मुन्द जाती है । आत्मा तक मिठास फैलती है ..घी में डूबी सोंधी , फट से कुरमुरा कर खस्ता टूट कर घुलती हुई ।
लगातार तीन खा लेने के बाद थकान में शरीर गिरता है । गिरता है नीन्द में ।
8/17/2008
ब्लॉगरों में क्या सुर्खाब के पर लगे होते हैं ?
ये सवाल मेरा नहीं प्रियंकर का है । अब कितने पर हैं और कितने सुर्खाब ये तस्वीरें देखिये और बताईये । और चूँकि पर गिनने का मामला था , हमने हिकमत करके अपनी शकल फ्रेम से बाहर रखी ।
ऐट्रियम कॉफे , पार्क में
सूरजमुखी के अकेले फूल से बतियाते
आह! ब्लॉग पुराण के रस
तो ऐसा था कि बात अभी खत्म नहीं हुई
ब्लॉगरों की जमात । एक बार भी नहीं कहा कि आईये आपकी भी तस्वीर खींचते हैं । तो इस तरह मेरा पहला ब्लॉगर मीट बिना सनद के रह गया । खैर , घँटे भर समय में जितनी ब्लॉग चर्चा हो सकती थी हुई , पंगों की बात हुई और हम तीनों ने सूरजमुखी के फूल को हाज़िर नाज़िर जान कर अपने पहले और उसके बाद सारे पंगों को याद किया । प्रियंकर जी और शिव जी से जितने मेरे पंगे हुये उसका तफ्सील से हिसाब किया । कुछ लोगों को गालियाँ दी और कुछ की तारीफ की । फोटो खींची और ब्लॉगर मीट के विधि विधान का पालन किया ।
प्रियंकर अपनी पत्रिका 'समकालीन सृजन' लाये थे । अभी सरसरी तौर पर पन्ने पलटे हैं । दो ब्लॉगर दिखे अनुसूचि में ..सुनील दीपक और प्रमोद । ये दो लेख पहले पढ़े । बाकी खरामा खरामा । शानदार पत्रिका (पत्रिका कम किताब ज़्यादा)लग रही है । अफसोस कि किताबों की बात ज़्यादा न हो पाई । अगली बार सही ।
शिवजी मेरे बनाये परसेप्शन से कहीं ज़्यादा जेंटलमैन लगे , हैं । फिर फिर साबित हुआ कि पहला इम्प्रेशन हमेशा सही नहीं होता । और लोगों से मिलने के बाद का कम्फर्ट लेवेल अलग ही होता है । इस लिहाज़ से भी ये मिलना बेहद ज़रूरी रहा ।
अपने व्यस्त रूटीन से समय निकाल कर दोनों मुझसे मिलने पार्क आये और मेरे काम के फसान में उनके पहुँचने के बाद के मेरे पहुँचने को ऐसा सहज बनाया कि उस वक्त देर के लिये माफी माँगना सुपरफ्लुअस हो गया । ये हमेशा बेहद ओवरव्हेल्मिंग होता है जब इतनी सौजन्यता और आत्मीयता से लोग मिलें । शिवजी , प्रियंकर जी .... आप दोनों से मिलना बेहद अच्छा लगा ।
ऐट्रियम कॉफे , पार्क में
सूरजमुखी के अकेले फूल से बतियाते
आह! ब्लॉग पुराण के रस
तो ऐसा था कि बात अभी खत्म नहीं हुई
ब्लॉगरों की जमात । एक बार भी नहीं कहा कि आईये आपकी भी तस्वीर खींचते हैं । तो इस तरह मेरा पहला ब्लॉगर मीट बिना सनद के रह गया । खैर , घँटे भर समय में जितनी ब्लॉग चर्चा हो सकती थी हुई , पंगों की बात हुई और हम तीनों ने सूरजमुखी के फूल को हाज़िर नाज़िर जान कर अपने पहले और उसके बाद सारे पंगों को याद किया । प्रियंकर जी और शिव जी से जितने मेरे पंगे हुये उसका तफ्सील से हिसाब किया । कुछ लोगों को गालियाँ दी और कुछ की तारीफ की । फोटो खींची और ब्लॉगर मीट के विधि विधान का पालन किया ।
प्रियंकर अपनी पत्रिका 'समकालीन सृजन' लाये थे । अभी सरसरी तौर पर पन्ने पलटे हैं । दो ब्लॉगर दिखे अनुसूचि में ..सुनील दीपक और प्रमोद । ये दो लेख पहले पढ़े । बाकी खरामा खरामा । शानदार पत्रिका (पत्रिका कम किताब ज़्यादा)लग रही है । अफसोस कि किताबों की बात ज़्यादा न हो पाई । अगली बार सही ।
शिवजी मेरे बनाये परसेप्शन से कहीं ज़्यादा जेंटलमैन लगे , हैं । फिर फिर साबित हुआ कि पहला इम्प्रेशन हमेशा सही नहीं होता । और लोगों से मिलने के बाद का कम्फर्ट लेवेल अलग ही होता है । इस लिहाज़ से भी ये मिलना बेहद ज़रूरी रहा ।
अपने व्यस्त रूटीन से समय निकाल कर दोनों मुझसे मिलने पार्क आये और मेरे काम के फसान में उनके पहुँचने के बाद के मेरे पहुँचने को ऐसा सहज बनाया कि उस वक्त देर के लिये माफी माँगना सुपरफ्लुअस हो गया । ये हमेशा बेहद ओवरव्हेल्मिंग होता है जब इतनी सौजन्यता और आत्मीयता से लोग मिलें । शिवजी , प्रियंकर जी .... आप दोनों से मिलना बेहद अच्छा लगा ।
8/16/2008
नदी का गीत .. ब्रह्मपुत्र के साथ साथ
जैसे संगीत के नोटेशन वैसे ही नदी का गीत । सुर में बहता लचकता गाता । धरती के बदन पर धड़कता जीता , शिराओं में दौड़ता खींचता जीवन । किसी आदिम समय से पुरखों के जीवन को पोसता देखता जीना मरना बीतना , सब का बीतना । सिर्फ नदी का न बीतना । तब से अब तक .. न बीतना , बस होना , बहना , रहना । आसपास की धरती बदली । पहाड़ पेड़ हरियाली जीवन । सबके सब बदले । तट पर छूती पछाड़ती लहर वही रही । उतनी ही शीतल उतनी ही उष्म । धरती पर किसने लिखी सुर की कहानी उसने रचा ऋचाओं का गीत । उसने ही बनाये नदी के सूत्र और देखा फिर तृप्त ऊपर से , पढ़ा नदी के लचक में , उसके मोड़ और उतार चढ़ाव में उस रचना के गुप्त संकेत । बादल के पार से जब रौशनी पड़ती है तब पढ़ सकते हो लहरों पर गीत नदी का , गा सकते हो गीत नदी का और सबके ऊपर ..आँखें मून्दे सुन सकते हो गीत नदी का ।
ऊपर से
दुनिया दिखती ऐसी
और शायद नीचे से
आसमान
उलटा लटका
गोल तश्तरी ?
ब्रह्मपुत्र के साथ साथ
किसने खींची ऐसी रेखा
सभी उँगलियाँ रंग डुबाकर ?
इन तस्वीरों को डालने का मोह ... कितनी और थीं पर सब्र करना पड़ा
हेलिकॉप्टर से : पहली यात्रा गुवाहाटी से नाहरलगन , ईटानगर
समय : एक घँटा दस मिनट
किया क्या : बस खिड़की से क्लिक क्लिक क्लिक
ऊपर से
दुनिया दिखती ऐसी
और शायद नीचे से
आसमान
उलटा लटका
गोल तश्तरी ?
ब्रह्मपुत्र के साथ साथ
किसने खींची ऐसी रेखा
सभी उँगलियाँ रंग डुबाकर ?
इन तस्वीरों को डालने का मोह ... कितनी और थीं पर सब्र करना पड़ा
हेलिकॉप्टर से : पहली यात्रा गुवाहाटी से नाहरलगन , ईटानगर
समय : एक घँटा दस मिनट
किया क्या : बस खिड़की से क्लिक क्लिक क्लिक
8/10/2008
8/09/2008
फोटो के बाहर ज़िंदगी
अकेलेपन का स्वाद भीगा सा है, चाय के ग्लास के रिम पर
ठिठकता है मुड़ता है बैठता है, दो पल फिर उदास भारी साँस लिये
कँधे सिकोड़े उठ बैठता है, निकोटीन से पीली पड़ी उँगलियों को
फूँकता है बारी बारी से, सरियाता है ऐशट्रे में
दो सिगरेट की टोंटियाँ आमने सामने, जैसे दो लोग बैठे करते हों बात
शीशे पर चोंच ठोकती चिड़िया मुस्कुराती है उसके बचकाने खेल पर
फड़फड़ा कर सुखाती है पँख
उलटे लटके छाते से गिरता है अनवरत पानी
फिर एक बून्द और एक !
रॉकिंग चेयर की छाया हिलती है । लम्बी होती है फिर बरामदे के अँधेरे से सटती । एक दबी हँसी गुम विलीन हो जाती है । कहीं से बासमती चावल के पकने की खुशबू तैरती आती है बेहिचक अंदर । कांसे के बर्तन में बढ़ता हरा बेल बनाता है कंट्रास्ट और खट से कैद हो जाता है फोटोफ्रेम में । दिन तारीख ईसवी सब दर्ज़ फोटो के पीछे । जैसे उसका खूबसूरत चेहरा डिफ्यूज़ होता है पीछे के बैकगाउंड में ।
काले स्लैक्स और ढीले सफेद टीशर्ट में घूमती दबे पाँव बिल्ली खींचती है तस्वीरें । चीज़ों को ज़रा इस ऐंगल , थोड़ा उधर । खट खट खट । अब हँसो , अब मुस्कुराओ , अब ज़रा संजीदा । बीच बीच मे चाय का प्याला , एक घूँट तेज़ ।
उसने ग्लास में दो उँगलियाँ नाप कर डाली थी कोन्याक । उसके पहले कुछ और भी । हल्का नशा था । मन डोलता था । उसकी चाय की चुस्की के जवाब में उमगता हुआ एक घूँट । बाद में आया था पैकेट । वो नहीं आई थी । उसने हैरान नाराज़गी से सोचा था । तो सिर्फ ऐसे ही कह दिया था कि खुद ले कर आऊँगी । मक्कार मक्कार । उसके भोले चेहरे के पीछे छुपी मक्कारी नहीं दिखी थी तब ?
पैकेट फिर कभी गुस्से में खुला नहीं । फिर जब इतना समय बीता कि गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया तब उत्कंठा नहीं बची । उस न बचने वाली उत्कंठा का स्वाद भी कसा है , अकेलेपन के स्वाद जैसा । उसके छोटे बालों की फुनगी पर टिका एक दूब का टुकड़ा जैसे ।
कुर्सी हिलती है । बाहर कितनी बारिश है । खिड़की के सिलपर दुबकी गौरैया कैद होती है फोटोफ्रेम में । कल के अखबार में छपेगी तस्वीर रंगीन छतरी लिये हँसते भीगते बच्चों के बगल में बारिश से बची दुबकी गौरैया की ।
ठिठकता है मुड़ता है बैठता है, दो पल फिर उदास भारी साँस लिये
कँधे सिकोड़े उठ बैठता है, निकोटीन से पीली पड़ी उँगलियों को
फूँकता है बारी बारी से, सरियाता है ऐशट्रे में
दो सिगरेट की टोंटियाँ आमने सामने, जैसे दो लोग बैठे करते हों बात
शीशे पर चोंच ठोकती चिड़िया मुस्कुराती है उसके बचकाने खेल पर
फड़फड़ा कर सुखाती है पँख
उलटे लटके छाते से गिरता है अनवरत पानी
फिर एक बून्द और एक !
रॉकिंग चेयर की छाया हिलती है । लम्बी होती है फिर बरामदे के अँधेरे से सटती । एक दबी हँसी गुम विलीन हो जाती है । कहीं से बासमती चावल के पकने की खुशबू तैरती आती है बेहिचक अंदर । कांसे के बर्तन में बढ़ता हरा बेल बनाता है कंट्रास्ट और खट से कैद हो जाता है फोटोफ्रेम में । दिन तारीख ईसवी सब दर्ज़ फोटो के पीछे । जैसे उसका खूबसूरत चेहरा डिफ्यूज़ होता है पीछे के बैकगाउंड में ।
काले स्लैक्स और ढीले सफेद टीशर्ट में घूमती दबे पाँव बिल्ली खींचती है तस्वीरें । चीज़ों को ज़रा इस ऐंगल , थोड़ा उधर । खट खट खट । अब हँसो , अब मुस्कुराओ , अब ज़रा संजीदा । बीच बीच मे चाय का प्याला , एक घूँट तेज़ ।
उसने ग्लास में दो उँगलियाँ नाप कर डाली थी कोन्याक । उसके पहले कुछ और भी । हल्का नशा था । मन डोलता था । उसकी चाय की चुस्की के जवाब में उमगता हुआ एक घूँट । बाद में आया था पैकेट । वो नहीं आई थी । उसने हैरान नाराज़गी से सोचा था । तो सिर्फ ऐसे ही कह दिया था कि खुद ले कर आऊँगी । मक्कार मक्कार । उसके भोले चेहरे के पीछे छुपी मक्कारी नहीं दिखी थी तब ?
पैकेट फिर कभी गुस्से में खुला नहीं । फिर जब इतना समय बीता कि गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया तब उत्कंठा नहीं बची । उस न बचने वाली उत्कंठा का स्वाद भी कसा है , अकेलेपन के स्वाद जैसा । उसके छोटे बालों की फुनगी पर टिका एक दूब का टुकड़ा जैसे ।
कुर्सी हिलती है । बाहर कितनी बारिश है । खिड़की के सिलपर दुबकी गौरैया कैद होती है फोटोफ्रेम में । कल के अखबार में छपेगी तस्वीर रंगीन छतरी लिये हँसते भीगते बच्चों के बगल में बारिश से बची दुबकी गौरैया की ।
7/18/2008
चिलकती धूप में
मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी , खुद को झुठला रही थी , फिर भी बार बार फरेब खा रही थी । तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे , आईने में खुद को देखते खड़े थे । तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी , लाचारी में खुद को गला रही थी , अपनी तकलीफ का हार बना रही थी । तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी । भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी , देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ...
मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..
किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?
कल पढ़ा था साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजती रही कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी सोचती हूँ ..इतना क्यों सोचती हूँ पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?
मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..
किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?
कल पढ़ा था साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजती रही कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी सोचती हूँ ..इतना क्यों सोचती हूँ पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?
7/17/2008
उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई
तो उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई । अँधेरा झरता रहा अंदर बाहर । उसने कहा था चित्त लेटो सब शांत हो जायेगा पर रात की रीतती रुलाई लगातार गोल घूमती रही , जाने कौन से चक्रव्यूह बनाती भेदती । कुछ खो गया था । और चाभी उस संदूक की मिलती न थी । हरबार आँख बन्द करते हथेलियों में उसका ठंडा स्पर्श और आँख खोलते गायब । खो गया ,क्या अब कभी नहीं मिलेगा ? की हूक उठती थी । कोई पतली लकीर नहीं थी , रेशे में खरोंचा निशान नहीं था । बस विध्वंस था । सब चुक जाने का प्रलयंकारी विलाप ।
फूल लेकिन अब भी गमक रहे थे । लतरों पर कनबलियाँ लटकी थीं , हवा में नाचते घुँघरू । और शीशे पर मातम मनाती एक तितली । अँधेरे में काली । दिन में रही होगी सफेद । मैं अब देखती क्या थी । उस रात में ? जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
बाहर कोई बजाता था कोई धुन बहका हुआ , सुरों के बाहर डोलता लड़खड़ाता हुआ , जीवन से चूर , खुशी से भरपूर , जैसे अंतिम संगीत हो और फिर इसके बाद कुछ नहीं । ऐसी तोड़ देने वाली बहक कि बदन अपने आप झूम उठे , जैसे ये नृत्य भी अंतिम था , ये बात भी अंतिम थी , इसके बाद कोई आवाज़ नहीं । तो , उस रात अंतिम रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
उसका खो जाना भी उतना ही नियत था जितना मिल जाना । फिर इस दुनिया की भीड़ में , इस शहर की भीड़ में , इस गली मोहल्ले की भीड़ में ,अपने अंदर की भीड़ में ... अभी था , अभी नहीं । बढ़े हाथ की सबसे लम्बी उँगली के अंतिम छोर पर स्पर्श टिका था अब भी जैसे नब्ज़ धड़कती थी अब भी । बावज़ूद इसके कि उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
सपना अब भी सुबह तक याद नहीं रहता । किसी वक्त पूरे डीटेल्स में रहता था । अब नहीं । अब , गनीमत कि कुछ देखा था का भास याद रहता है । और बहुत बातें याद रहती हैं , जो नहीं रहनी चाहिये वही याद रहती हैं , अपने सम्पूर्ण बेवकूफियों में याद रहती हैं । कोई कील दिमाग में लटका छोड़ी है जहाँ इन फिज़ूल बेकार बातों को टाँग कर भूल जाते हैं , भूल जाते हैं पर कील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती । और जो जो इतना जितना नहीं भूलना था उसे फिर उस रात याद किया जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
फिर रात लम्बी होती गई । इसलिये कि उसके बाद सुबह की कोई गुँजाईश नहीं थी । इसलिये कि पता था कि अब सुबह नहीं होनी । इसलिये कि जान लेना ही सब कुछ था । इसलिये कि जितना खोना सच था उतना ही पाना । फिर उस रात के बाद कभी सुबह नहीं हुई । फिर उस बात के बाद कोई बात नहीं हुई ।
फूल लेकिन अब भी गमक रहे थे । लतरों पर कनबलियाँ लटकी थीं , हवा में नाचते घुँघरू । और शीशे पर मातम मनाती एक तितली । अँधेरे में काली । दिन में रही होगी सफेद । मैं अब देखती क्या थी । उस रात में ? जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
बाहर कोई बजाता था कोई धुन बहका हुआ , सुरों के बाहर डोलता लड़खड़ाता हुआ , जीवन से चूर , खुशी से भरपूर , जैसे अंतिम संगीत हो और फिर इसके बाद कुछ नहीं । ऐसी तोड़ देने वाली बहक कि बदन अपने आप झूम उठे , जैसे ये नृत्य भी अंतिम था , ये बात भी अंतिम थी , इसके बाद कोई आवाज़ नहीं । तो , उस रात अंतिम रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
उसका खो जाना भी उतना ही नियत था जितना मिल जाना । फिर इस दुनिया की भीड़ में , इस शहर की भीड़ में , इस गली मोहल्ले की भीड़ में ,अपने अंदर की भीड़ में ... अभी था , अभी नहीं । बढ़े हाथ की सबसे लम्बी उँगली के अंतिम छोर पर स्पर्श टिका था अब भी जैसे नब्ज़ धड़कती थी अब भी । बावज़ूद इसके कि उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
सपना अब भी सुबह तक याद नहीं रहता । किसी वक्त पूरे डीटेल्स में रहता था । अब नहीं । अब , गनीमत कि कुछ देखा था का भास याद रहता है । और बहुत बातें याद रहती हैं , जो नहीं रहनी चाहिये वही याद रहती हैं , अपने सम्पूर्ण बेवकूफियों में याद रहती हैं । कोई कील दिमाग में लटका छोड़ी है जहाँ इन फिज़ूल बेकार बातों को टाँग कर भूल जाते हैं , भूल जाते हैं पर कील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती । और जो जो इतना जितना नहीं भूलना था उसे फिर उस रात याद किया जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
फिर रात लम्बी होती गई । इसलिये कि उसके बाद सुबह की कोई गुँजाईश नहीं थी । इसलिये कि पता था कि अब सुबह नहीं होनी । इसलिये कि जान लेना ही सब कुछ था । इसलिये कि जितना खोना सच था उतना ही पाना । फिर उस रात के बाद कभी सुबह नहीं हुई । फिर उस बात के बाद कोई बात नहीं हुई ।
7/13/2008
न बीतते हुये ..बीतता हुआ समय
फिर अँधेरे में खिलता है सूरजमुखी
शुरु होती है यात्रा , चलती हैं
मेरी आँखें , पैर होते हैं महफूज़ , बिस्तरे पर
रेत के बगूले उठते हैं
काले नकाबपोश घुड़सवार और ऊँटसवार
फिर सीन डिसॉल्व हो जाता है नींद खुल जाती है
सफर खत्म हो जाता है
पर मज़ा ये कि हर सुबह पैरों पर छाले होते हैं
तलवे घायल
लहुलुहान
दिन का कितना वक्त बीतता है
उन छालों को फोड़ने में
खून सने जूतों को साफ करने में
सफर की अगली तैयारी में
इतना
कि कोई कहता है चलो
गली के बाद वाले नुक्कड़ तक
या गेट के सामने फूलों की दुकान तक भी
कॉफे टर्टल की किताबों और कॉफी तक
या नई लगी कोई च्यूईंग गम सिनेमा तक या
फिर लास्ट टैंगो इन पेरिस भी
मैं मना करती हूँ
खोलनी है मुझे आखिर अपनी कोई तीसरी आँख
कोई सातवीं आठवीं नवीं इन्द्रीय
देखना है मुझे अनंत का रंग
रात हो गई है चलना है मुझे
पाँव पाँव
शून्य के सफर में
रात हँसता है ठठाकर कर
खोलता है मुँह, मार्लन ब्रांदो झुकता है कहता है
मैं पेरिस कभी गया नहीं
बुंडू झुमरी तिलैया बरकाकाना
कहीं भी तो नहीं
डूबता है सपना नींद में तैरता है कुछ पल
फिर बैठ जाता है
तल में
मैगज़ीन के सेंटर स्प्रेड पर अब भी देखता खड़ा है
मार्लन ब्रांदो या क्या पता कोई और
पुरानी ग्रेनी ब्लैक एंड व्हाईट
तस्वीर , किसी और और समय की
समय बीतता है , न बीतते हुये भी बीतता है
मेरी उँगली अब भी फँसी है उसकी उँगलियों में
और अँगूठे से खींचता है वो मेरे पाँव के तिल पर अपने निशान
समय बीतता है...
7/12/2008
एक और प्रेमकथा ..रीप्ले ?
औरत कहती है , अगर मैं सब पेड़ पर्वत नदी मैदान लांघ लूँ , और मेरे पैर ऐसा करते पत्थर के हो जायें फिर ? फिर भी तुम .... आदमी जो ऐसे ललक से देखता था उसे , जैसे उसके शब्दों को बोलने के पहले ही सुन लेगा । भाँप लेगा , अपने अंदर पी जायेगा उनको फिर बेमत्त खुशी के नशे में चूर हो जायेगा , ऐसा सुनकर उसके अंदर उसका मन भसकने लगा । उसकी आत्मा निचुड़ने लगी । जैसे एक पल में सब राख हो गया ..सदी बीत गई । उसके कँधे हताश झुक गये । ज़रा आश्चर्य से उसने अपने अंदर झाँका और शर्मिन्दगी की लहर उसके अंदर उभचुभ होने लगी ।
औरत की आँखें सयानी हो गईं । उसने बहुत कोमलता से अपनी उँगलियाँ आदमी के चेहरे पर फिराई । उसके चेहरे की शर्मिन्दगी पोछी । औरत इस एक पल में आदमी से बहुत बड़ी हो गई । अपने दुख में आदमी से ऊपर हो गई । उसे आश्चर्य नहीं हुआ । इस आदमी का चेहरा जो हर वक्त उससे माँग करता था .. इस पेड़ पर्वत नदी मैदान को लाँघ आओ,उस आदमी का चेहरा अब भी वही था । बस उसके नक्श किसी और के उधार को वापस करते से लगने लगे ।
औरत जहाँ जाना चहती थी अपने हर धड़कन के सम पर , वहाँ पहुँचने के पहले ही ऐसी हूक रुलाई की वापस लौट आने की ,जैसे कलेजे पर चोट की तीखी लकीर खींचता हो जाने कौन । और जाने के पहले ही लौट आने की ऐसी उद्दाम कामना । औरत के अंदर बहुत सारी दुनिया वास करती है कुछ एक के बाद एक , कुछ साथ साथ , कुछ जो बीत चुकीं , कुछ जो रीत चुकी , कुछ आगत कुछ अनागत । उसका सफर हर रोज़ शुरु होता है । पर हर रोज़ इतनी दुनिया पैदल चलते , गुनते , फिर भी कितनी खाली जगह है जहाँ रंग भरा जा सकता है । औरत सोचती है , खूब सोचती है , कौन से रंग , कहाँ कहाँ क्या क्या , पत्ते पेड़ खरगोश हाथी । और आदमी ? पर आदमी तो उसके पत्थर पाँव से सहम गया । उसका सहमा रंग मेरी दुनिया को बदरंग करेगा । औरत कँधे सीधे किये , बिना कुछ कहे लौट पड़ती है ।
उसका लौटना आदमी चुप देखता है । उसकी उँगलियाँ हथेली में कैद हो जाती हैं । वो उँगलियाँ जो औरत को वापस बुला सकती थीं । ऐसा करके आदमी ने तयशुदा रास्ते में से एक से मुँह मोड़ लिया । पर उसका दिल अवसाद से धड़कता रहा बहुत देर तक । इतनी देर कि उसे लगने लगा कि छाती जम रही है और उसका शरीर बिखर रहा है । उसे औरत का मीठा चुंबन याद आता है ,उसकी उँगलियों का प्यार याद आता है , उसकी हँसी याद आती है , उसके बाँह के नीले निशान याद आते हैं , अपनी उँगलियों से उन्हें छूना याद आता है , अपनी उँगलियों से उन्हें बनाना याद आता है । बिना साथ हुये साथ होना याद आता है । और उसे लगता है इस साथ होने में ज़रूरी सिर्फ पेड़ पर्वत नदी मैदान लाँघना था , पत्थर के पाँव नहीं थे । अपने इस खोज पर उसे ऐसी बेतरह खुशी मिलती है , जैसे औचक उसने कोई चमकती चीज़ मुट्ठी में कैद की हो , आँखें चौंधिया जाय ऐसी खुशी । जैसे पूरा शरीर किसी सफेद रौशनी से नहा गया हो ।
औरत अब तक दूर रास्ते में जाती एक धब्बा, एक परछाई का अभास रह गई है । आदमी की आँखें उसे देखने के लिये अँधेरे से लड़ती हैं ।
कोई बच्चा अपने चोटिल घुटने को दाबे सुबकता घर जाता मुड़ कर , एक पल खून नहाये घुटने को भूलता , जिज्ञासा से अँधेरे में खड़े आदमी को देखता है । फिर आसमान देखता है । आसमान में कोई टूटा तारा या क्या पता कोई रात का उड़ता हवाई जहाज किन अनजान लोगों को किस अजाने लोक में ले जा रहा है ।
फिल्म देखता आदमी सिगरेट की अंतिम सुलगती टोंटी राखदानी में कुचलता है और एकबार फिर बटन दाबता है ..रीप्ले ..
औरत की आँखें सयानी हो गईं । उसने बहुत कोमलता से अपनी उँगलियाँ आदमी के चेहरे पर फिराई । उसके चेहरे की शर्मिन्दगी पोछी । औरत इस एक पल में आदमी से बहुत बड़ी हो गई । अपने दुख में आदमी से ऊपर हो गई । उसे आश्चर्य नहीं हुआ । इस आदमी का चेहरा जो हर वक्त उससे माँग करता था .. इस पेड़ पर्वत नदी मैदान को लाँघ आओ,उस आदमी का चेहरा अब भी वही था । बस उसके नक्श किसी और के उधार को वापस करते से लगने लगे ।
औरत जहाँ जाना चहती थी अपने हर धड़कन के सम पर , वहाँ पहुँचने के पहले ही ऐसी हूक रुलाई की वापस लौट आने की ,जैसे कलेजे पर चोट की तीखी लकीर खींचता हो जाने कौन । और जाने के पहले ही लौट आने की ऐसी उद्दाम कामना । औरत के अंदर बहुत सारी दुनिया वास करती है कुछ एक के बाद एक , कुछ साथ साथ , कुछ जो बीत चुकीं , कुछ जो रीत चुकी , कुछ आगत कुछ अनागत । उसका सफर हर रोज़ शुरु होता है । पर हर रोज़ इतनी दुनिया पैदल चलते , गुनते , फिर भी कितनी खाली जगह है जहाँ रंग भरा जा सकता है । औरत सोचती है , खूब सोचती है , कौन से रंग , कहाँ कहाँ क्या क्या , पत्ते पेड़ खरगोश हाथी । और आदमी ? पर आदमी तो उसके पत्थर पाँव से सहम गया । उसका सहमा रंग मेरी दुनिया को बदरंग करेगा । औरत कँधे सीधे किये , बिना कुछ कहे लौट पड़ती है ।
उसका लौटना आदमी चुप देखता है । उसकी उँगलियाँ हथेली में कैद हो जाती हैं । वो उँगलियाँ जो औरत को वापस बुला सकती थीं । ऐसा करके आदमी ने तयशुदा रास्ते में से एक से मुँह मोड़ लिया । पर उसका दिल अवसाद से धड़कता रहा बहुत देर तक । इतनी देर कि उसे लगने लगा कि छाती जम रही है और उसका शरीर बिखर रहा है । उसे औरत का मीठा चुंबन याद आता है ,उसकी उँगलियों का प्यार याद आता है , उसकी हँसी याद आती है , उसके बाँह के नीले निशान याद आते हैं , अपनी उँगलियों से उन्हें छूना याद आता है , अपनी उँगलियों से उन्हें बनाना याद आता है । बिना साथ हुये साथ होना याद आता है । और उसे लगता है इस साथ होने में ज़रूरी सिर्फ पेड़ पर्वत नदी मैदान लाँघना था , पत्थर के पाँव नहीं थे । अपने इस खोज पर उसे ऐसी बेतरह खुशी मिलती है , जैसे औचक उसने कोई चमकती चीज़ मुट्ठी में कैद की हो , आँखें चौंधिया जाय ऐसी खुशी । जैसे पूरा शरीर किसी सफेद रौशनी से नहा गया हो ।
औरत अब तक दूर रास्ते में जाती एक धब्बा, एक परछाई का अभास रह गई है । आदमी की आँखें उसे देखने के लिये अँधेरे से लड़ती हैं ।
कोई बच्चा अपने चोटिल घुटने को दाबे सुबकता घर जाता मुड़ कर , एक पल खून नहाये घुटने को भूलता , जिज्ञासा से अँधेरे में खड़े आदमी को देखता है । फिर आसमान देखता है । आसमान में कोई टूटा तारा या क्या पता कोई रात का उड़ता हवाई जहाज किन अनजान लोगों को किस अजाने लोक में ले जा रहा है ।
फिल्म देखता आदमी सिगरेट की अंतिम सुलगती टोंटी राखदानी में कुचलता है और एकबार फिर बटन दाबता है ..रीप्ले ..
7/07/2008
बारिश में भीगी गौरैया
बारिश है । हर रोज़ तो नहीं लेकिन बारिश है । कभी ऐसे झटास से दरवाज़ा पीटती है , कभी बस झीसी फुहार । लेकिन एक शिकायत रही । मिट्टी का विंडचाईम जो सुखराली से खरीदा था , पता नहीं क्यों कभी बजता नहीं । उस बूढ़ी राजस्थानी औरत से जब लिया था तब खूब मीठा बज रहा था । मैं उस औरत को देख रही थी । एक आँख मोतियाबिन्द से धुँधली पर दूसरी नीली पुतली में चमक और चेहरा पके पीच सा ।
“मिट्टी का गुन है बेटा कि ऐसे मीठा बजता है” , उसने हँस कर कहा था ।
मैंने पूछा था “कहाँ की मिट्टी का बना है ? “
“बँगाल “, उसने मुस्करा कर कहा था ।
पर कोई बंगला टुनटान बजा नहीं । इस बारिश प्याज़ के पकौड़े भी नहीं खाये । अलबत्ता भुट्टे ज़रूर खाये । आग पर पके हुये नहीं , माईक्रोवेव्ड एक मिनट वाले पर खूब मीठे । चलो तसल्ली हुई ये तो मीठे रहे । दगा नहीं किया । आसपास पेड़ पौधों को देखा । ये भी कायम रहे अपनी प्रकृति पर । मतलब हरे भरे , और ऐसे टूट के बढ़े कि दिल जुड़ा जाये । गरमी की धूसर बदहाली के बाद मिट्टी का गीलापन , स्याह बादल आसमान और हर किस्म का हरापन एक अद्भुत कोलाज़ बनाते हैं । कुछ कुछ बचपन में बनाये वाटर कलर की तरह । तब आसमान को बरसाती बनाने के लिये ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी । फिर बाद में ज़्यादा मेहनत पानी से गीले शीट को सुखाने में वक्त लगता । पँखा चलाया जाता और डाँट पड़ती कि बन्द करो इतनी गर्मी नहीं ।
बरसात में घुटने भर पानी में हिम्मत बाँध निकलना , बरामदे में बैठे शर्त लगाना कि ये स्कूटर बाईक सवार सड़क के ठीक उस मोड़ पर जहाँ पीपल का पेड़ है वहाँ अटकेगा कि नहीं और अटक जाने पर बेतहाशा निर्मम हँसी । फिर अगले शिकार का इंतज़ार । कीचड़ कीचड़ सब तरफ , पिछवाड़े जमे पानी में रेंगता हरा पानीवाला साँप , रात को टर्राते मेंढक , काला लकड़ी की कमानी वाला छाता जो भीगा होने पर उलट कर सूखने को बरामदे में छोड़ा जाता , भीगे जूतों की बिसाईन महक , जुगाड़ लगाकर पिछले बरामदे में और कभी कभी ज़्यादा होने पर कोने वाले कमरे में रस्सी टेम्पररी तान कर सुखाये जाते गीले कपड़ों की आते जाते चेहरे पर गीली छुअन , सब तरफ सीली सीली बू , छत के पाईप से तेज़ मूसलाधार में हरहराता पानी , नाली में गिरकर उफन उफन कर आँगन तक फैलता , गीली मिट्टी में धीरे धीरे रेंगते चेरों की जमात और कभी कभार कोई घोंघा दिखता तो मौज़ आ जाती ।
बगल वाले मैदान में जो हर बरसात पोखर बन जाता , उसमें आउटहाउस में रहने वाले सकलदेव के बच्चे केवई मछली मार लाते और हम उनसे मिन्नत करके एक या दो, माँ से ज़िद करके जुटाये गये अचार के मर्तबान में खूब मनोयोग से पालते । कितने भी जतन से उन्हें पोसा जाता फिर भी हफ्ते दस दिन में घोर उदासी के आलम में उनका सामने ठीक गेट के पास वाले मालती लता झाड़ के नीचे अंतिम संस्कार होता। पता नहीं कितनी अनाथ बेचारी मछलियों का कब्रगाह अब भी होगा वहाँ । कोई अड़ोस पड़ोस के चाचा , भाई दिल्लगी करते कि यहाँ अब झाड़ में फूलों की बजाय मछलियाँ उगेंगी । और हमारे भोले मन का इस पर तुरत फुरत विश्वास कर लेना , बचपन की अनेक गाथाओं में से एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा आज तक बना रहा ।
बरसाती किस्से और भी हैं पर आज बारिश में चाय की चुस्की के बीच अपने हरे कोने को देख कर बचपन की स्वछन्द , जंगली बरसाती दिन याद आये । बच्चों का एक हुजूम रंगीन छाते और बरसाती में स्कूल के लिये निकल पड़ा है । सामने छत के मुंडेर पर एक भीगी गौरैया बदन सिकोड़ बैठी अचानक फट से उड़ जाती है ।
तस्वीरें मेरे बॉलकनी कोने की हैं , बरसात उनपर भी खिली है , मेहरबान है
7/05/2008
मन अटकेगा जायेगा कहाँ ?
मन है क्या ? पिंजरे में बन्द मैना , हर पल फुर्र , कभी दाना कभी चोगा , कभी हरियाली विस्तार , कभी सरपट भागा बेलगाम घोड़ा कभी अलस्त पलस्त भरा पेट अजगर , कभी कानी आँख से तकता भालू , कभी गुपचुप गुपचुप गप्पी गोली ।
पर इतना ही होता मन ? कुकुरमुत्ता होता मन ? बारिश में हरियाला तोता होता मन , अगरबत्ती का धूँआ होता मन , उलझे बाल और सुलझे मन वाली भोली लड़की के मुँह में घुलता अनारदाना होता मन ? कोई चीन की दीवार क्यों नहीं होता मन , जिसपर चलते जायें चलते चले जायें , वो तिब्बाती लामा लेह की सड़कों पर , वो खोजी दस्ता अमेज़न की जंगल में , वो नागा साधू ब्रह्मापुत्र के तट पर , श्मशान घाट का तांत्रिक कापालिक ..ओम फट स्वाहा स्वाहा .. चलें जाय , चले जाय जहाँ अंत न हो , बस ओर छोर विस्तार हो , भूली हुई सड़क हो , बाँस का झुरमुट हो , दबोचा हुआ सीने से लगाया हुआ प्यार हो |
कहाँ है मन और कहाँ है दीवार , चीन की ? कहीं की जिससके बराबर बराबर चलते हुये पहुँचा जायेगा , इस समय से उस समय में , इस दीवार से उस दीवार में , नापेंगे हम अपने चील डैनों से उसकी लम्बाई , तौलेंगे समय को हर पँख की झटकार से , छाती के कोटर में बिठायेंगे ? आसमान तब नीला कहाँ होगा ? होगा हरा , होगा भरा । और धरती फिर धरती नहीं गोल तश्तरी उलटी सी और पानी ? पानी बहेगा नीचे से ऊपर और हम सुनेंगे मन से , देखेंगे मन से , महसूसेंगे मन से , आलाप के आ पर और सरगम के सा पर लचक जायेगा बदमाश। हँसी फूटेगी , फूटेगी , तिब्बती लामा हँसेगा अपनी नासमझ या सब समझ हँसी । और चीन की दीवार टूटेगी ईंट ईंट , गर्द उठेगा , गूबार थमेगा । मन किसी चौकन्ने पंछी सा तिर जायेगा ऊपर ऊपर , चक्रवात के सिरे पर , फुनगी पर , नोक पर , साँस पर , कोर पर ..अखिर मन ही तो है । कमरे के उखड़ते पलस्तर पर आँख गड़ाये , नींद भर आये तो टेढ़ी मेढ़ी रेखा की धूपछाँह कारीगरी पर मन अटकेगा न , जायेगा कहाँ ? वहाँ जहाँ सब है , सब और जहाँ कुछ भी नहीं ।
इसे सुनिये यहाँ और अज़दकी ग्रामोफोन का मज़ा लीजिये...
पर इतना ही होता मन ? कुकुरमुत्ता होता मन ? बारिश में हरियाला तोता होता मन , अगरबत्ती का धूँआ होता मन , उलझे बाल और सुलझे मन वाली भोली लड़की के मुँह में घुलता अनारदाना होता मन ? कोई चीन की दीवार क्यों नहीं होता मन , जिसपर चलते जायें चलते चले जायें , वो तिब्बाती लामा लेह की सड़कों पर , वो खोजी दस्ता अमेज़न की जंगल में , वो नागा साधू ब्रह्मापुत्र के तट पर , श्मशान घाट का तांत्रिक कापालिक ..ओम फट स्वाहा स्वाहा .. चलें जाय , चले जाय जहाँ अंत न हो , बस ओर छोर विस्तार हो , भूली हुई सड़क हो , बाँस का झुरमुट हो , दबोचा हुआ सीने से लगाया हुआ प्यार हो |
कहाँ है मन और कहाँ है दीवार , चीन की ? कहीं की जिससके बराबर बराबर चलते हुये पहुँचा जायेगा , इस समय से उस समय में , इस दीवार से उस दीवार में , नापेंगे हम अपने चील डैनों से उसकी लम्बाई , तौलेंगे समय को हर पँख की झटकार से , छाती के कोटर में बिठायेंगे ? आसमान तब नीला कहाँ होगा ? होगा हरा , होगा भरा । और धरती फिर धरती नहीं गोल तश्तरी उलटी सी और पानी ? पानी बहेगा नीचे से ऊपर और हम सुनेंगे मन से , देखेंगे मन से , महसूसेंगे मन से , आलाप के आ पर और सरगम के सा पर लचक जायेगा बदमाश। हँसी फूटेगी , फूटेगी , तिब्बती लामा हँसेगा अपनी नासमझ या सब समझ हँसी । और चीन की दीवार टूटेगी ईंट ईंट , गर्द उठेगा , गूबार थमेगा । मन किसी चौकन्ने पंछी सा तिर जायेगा ऊपर ऊपर , चक्रवात के सिरे पर , फुनगी पर , नोक पर , साँस पर , कोर पर ..अखिर मन ही तो है । कमरे के उखड़ते पलस्तर पर आँख गड़ाये , नींद भर आये तो टेढ़ी मेढ़ी रेखा की धूपछाँह कारीगरी पर मन अटकेगा न , जायेगा कहाँ ? वहाँ जहाँ सब है , सब और जहाँ कुछ भी नहीं ।
इसे सुनिये यहाँ और अज़दकी ग्रामोफोन का मज़ा लीजिये...
7/02/2008
जीवन में प्यार ज़्यादा ? नहीं ही है
कुछ है जो अटकता है, खटकता है, शायद खाने में नमक ज़्यादा ? या जीवन में प्यार ज़्यादा
पर कहाँ मन भरता है और और माँगता है
क्या जाने क्या माँगता है, कई बार कोशिश की
कहा अरे अब तो संभल ,रुक , देख ना
खिड़की से जो नीला आसमान दिखता है ज़रा सा
जो एक सिल पर रखा पौधा जिसमें अचक्के खिला था एक दिन बस एक फूल या फिर सड़क पर मिट्टी में मिला
किसी का , जाने कब का
बदरंग कंचा
ओठंगे देखता है मन नीले पानी में
हल्का बदन
खुद हाथ लगाओ तो चकित होता है मन, रेशम सब जैसे बिल्ली फँस गई थी उस दिन ऊन के गोले में
कबूतर का बच्चा
मुँह बाये फकफक करता था
अझल दोपहरी में
या फिर बर्फ का गोला पिघलता , भरी गर्मी में
मुँह में या फिर रात
सफेद चादर पर सुकून सोता
सर ढक के और पीछे से बजता
वायलिन का कोई दुखी स्वर
कोई चिड़िया चहचहाती
कोई हिरण कुलाँचे भरते भरते ठिठक जाता
कभी घुल जाता मुँह में
बिन्नी की फुआ की बालूशाही
देख लेते धुनते रूई किसी धुनिया को
बजा जाता सड़क की रेडलाईट पर
इकतारा कोई सन से सफेद बाल वाला
बूढ़ा , तकता किसी गहरी काली बिटर
आँखों से
उफ्फ
उफ्फ
जाने कहाँ कहाँ
भागते समय में
दौड़ते ज़मीन पर, छाती फाड़ कर
डूबते शहर में, कच्ची गलियों में , टूटी सड़कों पर
कोने के मिसराईन की चूड़ी और बिन्दी पर
कहाँ कहाँ कहाँ
पर इन सबके बीच मन कहाँ मानता
जाने क्या अटकता है
जाने क्या ?
और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
इस विस्तार से उस छोर का खेला है, चौपड़ की बिसात है, कोई छे वाली लकी गोटी है
ओह ! जाने क्या है क्या क्या है ? पर इतना तो है कि ज़्यादा प्यार नहीं है ?
पर कहाँ मन भरता है और और माँगता है
क्या जाने क्या माँगता है, कई बार कोशिश की
कहा अरे अब तो संभल ,रुक , देख ना
खिड़की से जो नीला आसमान दिखता है ज़रा सा
जो एक सिल पर रखा पौधा जिसमें अचक्के खिला था एक दिन बस एक फूल या फिर सड़क पर मिट्टी में मिला
किसी का , जाने कब का
बदरंग कंचा
ओठंगे देखता है मन नीले पानी में
हल्का बदन
खुद हाथ लगाओ तो चकित होता है मन, रेशम सब जैसे बिल्ली फँस गई थी उस दिन ऊन के गोले में
कबूतर का बच्चा
मुँह बाये फकफक करता था
अझल दोपहरी में
या फिर बर्फ का गोला पिघलता , भरी गर्मी में
मुँह में या फिर रात
सफेद चादर पर सुकून सोता
सर ढक के और पीछे से बजता
वायलिन का कोई दुखी स्वर
कोई चिड़िया चहचहाती
कोई हिरण कुलाँचे भरते भरते ठिठक जाता
कभी घुल जाता मुँह में
बिन्नी की फुआ की बालूशाही
देख लेते धुनते रूई किसी धुनिया को
बजा जाता सड़क की रेडलाईट पर
इकतारा कोई सन से सफेद बाल वाला
बूढ़ा , तकता किसी गहरी काली बिटर
आँखों से
उफ्फ
उफ्फ
जाने कहाँ कहाँ
भागते समय में
दौड़ते ज़मीन पर, छाती फाड़ कर
डूबते शहर में, कच्ची गलियों में , टूटी सड़कों पर
कोने के मिसराईन की चूड़ी और बिन्दी पर
कहाँ कहाँ कहाँ
पर इन सबके बीच मन कहाँ मानता
जाने क्या अटकता है
जाने क्या ?
और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
इस विस्तार से उस छोर का खेला है, चौपड़ की बिसात है, कोई छे वाली लकी गोटी है
ओह ! जाने क्या है क्या क्या है ? पर इतना तो है कि ज़्यादा प्यार नहीं है ?
6/30/2008
कोई अंत कहाँ था
घोड़ा सरपट दौड़ता , बेसुध , उसके फैले नथुनों से गरम भाप निकलती , महीन छोटे बुलबुले थकान के , लगाम से कसे जबड़े पर माँसपेशियाँ तिड़क जातीं । उसके अयाल हवा में लहराते , उसके खुर कब धरती पर पड़ते कब उठ जाते , धूल गर्द गुबार के चादर के पीछे घोड़ा दौड़ता सरपट । जान लगाये , छाती धौंके । बदन के रेशे पानी में उठते लहर से लहराते । और सवार ? सवार को होश कहाँ था ?
दर्द से चूर , थकान से मदहोश गाफिल , किस बात की खबर । बस इतनी भर की एक साँस बाद दूसरी आ जाये और छाती धड़कती रहे , सँभाल ले इन वहशी साँसों को । अब उसे इतना तक पता न था कि ऐसी धड़धड़ाती धड़कन उसकी थी कि गाल घोड़े के गर्दन से सटाये घोड़े के बेतहाशा हाँफ की खबर उस तक पहुँचाता था । जैसे अब जाकर उसके और घोड़े के शरीर का सुर एक था । थकन की डोर से बँधा , एक लय के साथ उपर उठता नीचे गिरता । सवार का शरीर नम था । घोड़े का शरीर और ज़्यादा नम था । डर एक धड़कन थी , पसीने में मिली जुली , खट्टी , तीखी । सवार घोड़े पर सवार था । डर सवार पर सवार था । पीछे बगूला उठता था । पीछे हाहाकार मचता था । आगे न जाने क्या था । इस घमासान युद्ध का कोई अंत ? कहाँ था ?
दर्द से चूर , थकान से मदहोश गाफिल , किस बात की खबर । बस इतनी भर की एक साँस बाद दूसरी आ जाये और छाती धड़कती रहे , सँभाल ले इन वहशी साँसों को । अब उसे इतना तक पता न था कि ऐसी धड़धड़ाती धड़कन उसकी थी कि गाल घोड़े के गर्दन से सटाये घोड़े के बेतहाशा हाँफ की खबर उस तक पहुँचाता था । जैसे अब जाकर उसके और घोड़े के शरीर का सुर एक था । थकन की डोर से बँधा , एक लय के साथ उपर उठता नीचे गिरता । सवार का शरीर नम था । घोड़े का शरीर और ज़्यादा नम था । डर एक धड़कन थी , पसीने में मिली जुली , खट्टी , तीखी । सवार घोड़े पर सवार था । डर सवार पर सवार था । पीछे बगूला उठता था । पीछे हाहाकार मचता था । आगे न जाने क्या था । इस घमासान युद्ध का कोई अंत ? कहाँ था ?
6/29/2008
जी में आता है यहीं मर जाईये
वो जगह अँधेरे की जगह थी । गाढ़ा अँधेरा । हाथ बढ़ाओ तो पोरों को छूकर साफ निकल जाये । फिर हम आँखें बन्द कर लेते और उँगलियों से देखते और देखते कि हमारे शरीर पर ऐसे पँख उग आये हैं जो अँधेरा चीर कर कहीं उड़ा ले जा सकते हैं । और हम बाज़ बन जाते । हमारे डैने हवा को चीरते , अँधेरे को चीरते और हम आज़ाद हो जाते , आज़ाद परिन्दे । हमारे बदन पर हवा सट सट फटकार मारती , हमारे चेहरे पर हवा चाबुक चलाती , हमारी आँखों से आँसू बरछी की तरह तेज़ निकल कनपटी तक फैल जाती , हमारी छाती तेज़ तेज़ धड़कती , हमारी नब्ज़ से एक जुनून बिजली सा कौंध जाता , हमारे पैर के कानी उँगली का नाखून खिंच जाता और हम ऐसी शिद्दत से ज़िन्दा होते ऐसी शिद्दत से ... कि बस !
पर ऐसा कभी कभी होता । ज़्यादातर हम पड़े रहते , चित्त और अँधेरा हमें ओढ़ लेता । हम आँखें फाड़ फाड़ देखते और हमें कुछ भी न दिखता । फिर हम थक कर आँखें बन्द कर लेते । तब ये अँधेरा कूँये के अतल गहराई का अँधेरा होता । कुछ कुछ भयानक , कुछ ज़हरीला , काई से भरा जहाँ रौशनी का एक कतरा भी साँस न लेता । उँगली वहाँ डुबाओ तो पानी के साथ लसलसा अँधेरा भी चिपक जाये और घबरा कर हाथ चाहे लाख झटको छूटे ही ना । और ऐसी नीम घबड़ाहट में आँखें खुल जातीं ..खुल जातीं और अँधेरा तब भी न छूटता । हम छटपटा कर रह जाते पर तब भी न छूटता । हम अँधेरे के कैदी .. ताउम्र कैदी ..किससे गुहार करते ? किससे कैफियत माँगते ?
फिर किसी दिन या शायद किसी रात कोई लड़की एक जुगनू छोड़ देती । बच्चों की हँसी भरी चुलबुलाहट उस जुगनू की पीठ पर बैठ कर अँधेरों में धीरे धीरे उतर आती । हम साँस रोके , दम साधे महसूस करते ..रौशनी के आभास को , उसकी गर्मी को । हमारी त्वचा , अँधेरे से पीली पड़ी त्वचा , सिहर जाती किसी आगत के उत्साह में , आकुल..बेकल । एक साथ हँसी और एक साथ रुलाई होड़ लगाती , उफनती , धक्कमपेल ...सब एक साथ । और हम एक साथ जी जाना चाहते .. एक साथ मर जाना चाहते ...सब एक साथ ..सब एक साथ ।
6/26/2008
तभी उड़ती हैं तितलियाँ
सुबह से आज पी नहीं चाय तभी ज़ुबान पर कसा सा स्वाद
रात के दर्द का
छुप के बैठा है
मैं मुस्कुराती हूँ , हाथों से बाल समेटती हूँ , सामने शीशे पर फुर्र से
उड़ जाती है तितली
तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर, मेरे कँधों पर दर्द किसी घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता है
अँधाधुन्द
दो बून्द टपक गया, कह दिया , बस ऐसी बे-इंतहाई
किसी भी चीज़ की अब सुहाती नहीं
याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , मेरी त्वचा पर खिलते हैं कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार
मैं अब भी हँसती हूँ, तुम अवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा ली थी मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक
रात के दर्द का
छुप के बैठा है
मैं मुस्कुराती हूँ , हाथों से बाल समेटती हूँ , सामने शीशे पर फुर्र से
उड़ जाती है तितली
तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर, मेरे कँधों पर दर्द किसी घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता है
अँधाधुन्द
दो बून्द टपक गया, कह दिया , बस ऐसी बे-इंतहाई
किसी भी चीज़ की अब सुहाती नहीं
याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , मेरी त्वचा पर खिलते हैं कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार
मैं अब भी हँसती हूँ, तुम अवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा ली थी मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक
6/21/2008
तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन
मेरे हाथ की लकीरों से भाप निकलती थी । मैंने रात का अँधेरा अपनी आँखों में सजाया और सूरज माथे पर खुद ब खुद सज गया । बारिश ने मेरी त्वचा में एक गीली महक भर दी और शरीर से फसल उगने लगी । उसकी गमक ऐसी बेसुध गमक थी कि जिसके पँखों पर चलकर वो मेरे पास आया । हमने हाथ बढ़ाये और समय को पकड़ लिया । उसने मेरे पैर के नीचे अपनी हथेली रखी और मैं आसमान में उड़ चली । धुँध में छिपे झील के नीले हरे पानी में कोई नाव बेआवाज़ चली जाती थी । चप्पुओं की आवाज़ किनारे झुक आये हरियाले घास को छूकर फिर सतह पर लौटती । उसी दिन तय हुआ था कि दो लोगों के बीच न रात होगा न दिन , न स्पर्श होगा न साँस की छुअन ,न देह की तपन ।
धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...
उस दिन जंगल में घूमते समूह ने देखा आसमान में दो सफेद पँखों वाले परिन्दे उड़ते हैं । उन्होंने घुटनों के बल झुककर उनका अभिवादन किया । बुज़ुर्ग ने कहा इस रुत में हमारे शरीर भरे पूरे रहेंगे । सोंधा अन्न और मीठा पानी मिलेगा ।
उस समय में भाले और तीर लिये कबीले घूमते थे । खच्चरों पर असबाब बाँधे , पीठ पर बच्चों को थामे औरतें और बिन बच्चों वाली औरतें सर बोझा लिये चलती जातीं चलती जातीं । कहीं बहती नदी के किनारे तम्बू गड़ता । अलाव जलता । कुछ दिन को थिर जीवन स्थिर जीवन । चाँद बढ़ता घट जाता । रात चाँदनी होती फिर अमावस । आदमी औरत ऊपर आसमान देखते और गोल चाँद को काले आसमान में जड़ा देख घुटनों के बल बालू पर सर नवाये गिर पड़ते , हे देवता कृपा करो ! देवता की कृपा से शिकार होता , अन्न उगता , मीठा पानी मिलता । मोटे गदबद शिशु मिट्टी में खेलते , लड़कियाँ औरतों की नकल में मोती की माला पिरोतीं , सजतीं , पानी में छाया देखतीं । बच्चे बड़े होते , उनके होठों पर देवता लकीरें खींचते , उनकी छाती को बलिष्ठ बनाते , उनके बाल किसी सिंह के आयाल जैसे उनके कँधों तक झूलते । सजीले जवान लड़के शिकार को जाते , ऊपर आसमान को देख जीवन देखते । जन्म मृत्यु का रास रचता । कभी देवता हारी बीमारी भेजते । झुंड के झुंड साफ हो जाते । एक दो तीन से फिर कबीला बनता बढ़ता । ऐसी कितनी जद्दोज़हद के बीच कोई पुरुष किसी स्त्री को अपना आसमान अपनी धरती दाँव धरता । स्त्री उसका दिया फूल अपने कमर में खोंस लेती । दोनों नदी पार कर लेते । फूल वहीं किसी मछली के पेट से किसी सीप का मोती बन जाता । पुरुष अपने हाथों से माला गूँथता और स्त्री उसे अपने हाथों से गले में पहनती । और कबीले के लोग देखते आसमानी सफेद परिन्दे फिर से सूरज की रौशनी में नीले आसमान में एक चमकीली रेखा बनाते विलीन हो जाते । उस रुत फिर खूब अन्न उगता , पानी मीठा होता , शिकार इफरात होता ।
फिर एकदिन बिजली कड़कती , नदी उफनती , कोई बाघ चौकन्ना चमकीली आँखों से बस्ती के पिछवाड़े दबे पाँव गुज़र जाता । बुझे आलाव के राख के पास हड्डियाँ दिखती अगली सुबह । अगली सुबह बस्ती उखड़ जाती , कबीला घुमंतू हो जाता । रास्ते में , नदी नाले चट्टान पत्थर सुनते नये शिशु का रुदन , सुनते नये जीवन का उत्सव , सुनते मौत का क्रन्दन । किसी बुज़ुर्गवार को किसी अजानी जगह जहाँ कोई कभी वापस नहीं आयेगा , वहाँ किसी पेड़ की छाया में तने से बिठाकर बढ़ जाते आगे । ये समय लौट कर आने का समय नहीं था । लौटकर आने का समय आयेगा कभी भविष्य में , पर अभी वो समय नहीं था । समय था आगे और आगे जाने का ..सिर्फ धरती पर नहीं , सिर्फ दूरी में नहीं , सिर्फ समय से नहीं , सिर्फ रात तारों को देखते दिशा तय करने का नहीं , सिर्फ समन्दर के किनारे किनारे आगे बढ़ते रहने का नहीं बल्कि जीवन का , उत्थान का , सभ्यता का । ऐसे समय में निर्ममता समय की देन थी । झुर्रीदार चेहरे की अथक पीड़ा और अथक थकान में अकेले छोड़ जाने की , नये जीवन को पोसने की , आगे शक्ति और ताकत की , जवानी की जोश की । ये मानव थे , ये इतिहास था , ये सीखना था । उस सीख को आत्मसात करना था । गेहूँ से रोटी और माँस में नमक की खोज थी , चमकते चकमक पत्थर का आग था , बुनकारी थी , खेती की आजमाईश थी और इन सब के बीच , जीवन मरण के बीच जो अंतराल था , उसका महा उत्सव था ।
तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन ..फिर एक दिन ..
धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...
उस दिन जंगल में घूमते समूह ने देखा आसमान में दो सफेद पँखों वाले परिन्दे उड़ते हैं । उन्होंने घुटनों के बल झुककर उनका अभिवादन किया । बुज़ुर्ग ने कहा इस रुत में हमारे शरीर भरे पूरे रहेंगे । सोंधा अन्न और मीठा पानी मिलेगा ।
उस समय में भाले और तीर लिये कबीले घूमते थे । खच्चरों पर असबाब बाँधे , पीठ पर बच्चों को थामे औरतें और बिन बच्चों वाली औरतें सर बोझा लिये चलती जातीं चलती जातीं । कहीं बहती नदी के किनारे तम्बू गड़ता । अलाव जलता । कुछ दिन को थिर जीवन स्थिर जीवन । चाँद बढ़ता घट जाता । रात चाँदनी होती फिर अमावस । आदमी औरत ऊपर आसमान देखते और गोल चाँद को काले आसमान में जड़ा देख घुटनों के बल बालू पर सर नवाये गिर पड़ते , हे देवता कृपा करो ! देवता की कृपा से शिकार होता , अन्न उगता , मीठा पानी मिलता । मोटे गदबद शिशु मिट्टी में खेलते , लड़कियाँ औरतों की नकल में मोती की माला पिरोतीं , सजतीं , पानी में छाया देखतीं । बच्चे बड़े होते , उनके होठों पर देवता लकीरें खींचते , उनकी छाती को बलिष्ठ बनाते , उनके बाल किसी सिंह के आयाल जैसे उनके कँधों तक झूलते । सजीले जवान लड़के शिकार को जाते , ऊपर आसमान को देख जीवन देखते । जन्म मृत्यु का रास रचता । कभी देवता हारी बीमारी भेजते । झुंड के झुंड साफ हो जाते । एक दो तीन से फिर कबीला बनता बढ़ता । ऐसी कितनी जद्दोज़हद के बीच कोई पुरुष किसी स्त्री को अपना आसमान अपनी धरती दाँव धरता । स्त्री उसका दिया फूल अपने कमर में खोंस लेती । दोनों नदी पार कर लेते । फूल वहीं किसी मछली के पेट से किसी सीप का मोती बन जाता । पुरुष अपने हाथों से माला गूँथता और स्त्री उसे अपने हाथों से गले में पहनती । और कबीले के लोग देखते आसमानी सफेद परिन्दे फिर से सूरज की रौशनी में नीले आसमान में एक चमकीली रेखा बनाते विलीन हो जाते । उस रुत फिर खूब अन्न उगता , पानी मीठा होता , शिकार इफरात होता ।
फिर एकदिन बिजली कड़कती , नदी उफनती , कोई बाघ चौकन्ना चमकीली आँखों से बस्ती के पिछवाड़े दबे पाँव गुज़र जाता । बुझे आलाव के राख के पास हड्डियाँ दिखती अगली सुबह । अगली सुबह बस्ती उखड़ जाती , कबीला घुमंतू हो जाता । रास्ते में , नदी नाले चट्टान पत्थर सुनते नये शिशु का रुदन , सुनते नये जीवन का उत्सव , सुनते मौत का क्रन्दन । किसी बुज़ुर्गवार को किसी अजानी जगह जहाँ कोई कभी वापस नहीं आयेगा , वहाँ किसी पेड़ की छाया में तने से बिठाकर बढ़ जाते आगे । ये समय लौट कर आने का समय नहीं था । लौटकर आने का समय आयेगा कभी भविष्य में , पर अभी वो समय नहीं था । समय था आगे और आगे जाने का ..सिर्फ धरती पर नहीं , सिर्फ दूरी में नहीं , सिर्फ समय से नहीं , सिर्फ रात तारों को देखते दिशा तय करने का नहीं , सिर्फ समन्दर के किनारे किनारे आगे बढ़ते रहने का नहीं बल्कि जीवन का , उत्थान का , सभ्यता का । ऐसे समय में निर्ममता समय की देन थी । झुर्रीदार चेहरे की अथक पीड़ा और अथक थकान में अकेले छोड़ जाने की , नये जीवन को पोसने की , आगे शक्ति और ताकत की , जवानी की जोश की । ये मानव थे , ये इतिहास था , ये सीखना था । उस सीख को आत्मसात करना था । गेहूँ से रोटी और माँस में नमक की खोज थी , चमकते चकमक पत्थर का आग था , बुनकारी थी , खेती की आजमाईश थी और इन सब के बीच , जीवन मरण के बीच जो अंतराल था , उसका महा उत्सव था ।
तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन ..फिर एक दिन ..
6/18/2008
तुम्हारी शिकायतों की फेहरिस्त इतनी लम्बी क्यों है , हाँ ?
आईरिश कॉफी में डाला नहीं
ठीक से व्हिस्की ,देखो उस शीशे की दीवार के परे कितने बरसाती फतिंगे हैं उफ्फ
और
और ये फर्न और पाम
सबके सब नकली
तुम्हारे शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? हाँ ?
सिगरेट के धूँये के पार उसने मिचमिचाती आँखों से देखा सामने बैठी उस लड़की को जिसने लम्बे बालों में
अप्रत्याशित खोंस रखा था कोई सफेद ढलका हुआ फूल
वो अभी अभी लौटा था
किसी देहात से
जहाँ पानी नहीं था, कोई डैम था
जो वर्षों से बन रहा था, ठेकेदार थे जो
बिना काम पैसा बना रहे थे
परिवार थे जो तैयार थे
विस्थापित होने को , चीज़ें थीं जो होनी चाहियें थी आसान, सही सीधी चीज़ें
लेकिन जो होती नहीं थी शायद कभी नहीं होंगी , थके निढाल चेहरे थे, मरी आशायें
कोई इतिहास नहीं था कोई सौन्दर्य नहीं था कोई सभ्यता नहीं थी मिट्टी में खींचा एक वृत था
धूल में चोट खाया मन था, कुछ न कर सकने की विरुदावली थी , थकान थी , मरण था
और एक ही जीवन था
बस एक ..
तुम्हारी शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? पूछती है वो , हाँ ?
वो कहता है कहाँ लम्बी है ? सिर्फ ये कि कॉफी में व्हिस्की कम है और बाहर कीड़े बहुत ज़्यादा और ये पाम फर्न सब नकली ..
ठीक से व्हिस्की ,देखो उस शीशे की दीवार के परे कितने बरसाती फतिंगे हैं उफ्फ
और
और ये फर्न और पाम
सबके सब नकली
तुम्हारे शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? हाँ ?
सिगरेट के धूँये के पार उसने मिचमिचाती आँखों से देखा सामने बैठी उस लड़की को जिसने लम्बे बालों में
अप्रत्याशित खोंस रखा था कोई सफेद ढलका हुआ फूल
वो अभी अभी लौटा था
किसी देहात से
जहाँ पानी नहीं था, कोई डैम था
जो वर्षों से बन रहा था, ठेकेदार थे जो
बिना काम पैसा बना रहे थे
परिवार थे जो तैयार थे
विस्थापित होने को , चीज़ें थीं जो होनी चाहियें थी आसान, सही सीधी चीज़ें
लेकिन जो होती नहीं थी शायद कभी नहीं होंगी , थके निढाल चेहरे थे, मरी आशायें
कोई इतिहास नहीं था कोई सौन्दर्य नहीं था कोई सभ्यता नहीं थी मिट्टी में खींचा एक वृत था
धूल में चोट खाया मन था, कुछ न कर सकने की विरुदावली थी , थकान थी , मरण था
और एक ही जीवन था
बस एक ..
तुम्हारी शिकायतों की फेहरिस्त
इतनी लम्बी क्यों है ? पूछती है वो , हाँ ?
वो कहता है कहाँ लम्बी है ? सिर्फ ये कि कॉफी में व्हिस्की कम है और बाहर कीड़े बहुत ज़्यादा और ये पाम फर्न सब नकली ..
6/14/2008
साँप सेब और प्यार
उसके मेरे बीच प्यार शब्द कभी आया ही नहीं
हम शिकारियों के चौकन्ने पन से
पैंतरे बाँधते
कुशल फेंसर्स जैसे
चेहरे को ढके तलवार भाँजते
शब्दों को काटते
कभी गलती से भी
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते
हमने आपस के नये शब्द इजाद किये
सब ऐसे जो प्यार से कोसो दूर थे
जब हमारी उँगलियाँ तरसतीं
प्यार को
हमारा मन सुराखों के पार के आसमान को
ललक कर देखता
और उँगलियाँ शाँत हो जातीं
लेकिन इन सब के बीच
हमारी हज़ारों किस्से कहानियों के बीच
हम कई बार
बेवजह ठिठक जाते
जैसे कोई भूला शब्द
ज़ुबान पर आते आते फिसल जाता
हम बहुधा चौंक कर देखते एक पल को
एक दूसरे को
गो कि हमने कितने दिन साथ गुज़ारे
कितनी रात बतकहियाँ की
कितनी बारिश साथ भीगे
कितने मौसमों को एक खिड़की से
बदलते देखा
फिर भी हमने
ताउम्र कोशिश की
कि प्यार जैसा
कोई शब्द हमारे बीच
बिलकुल न आये
और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये
और जब हमारे बच्चे
हमारे पास आये
पूछा
तुम्हारे पास
हमारे लिये क्या है
हमने तब कहना चाहा
प्यार
हमारी जीभ इस शब्द के पहले अक्षर पर ही
लटपटाने लगी
हमारा दम फूलने लगा
गले की नसें भूली हुई कोशिश में टूटने लगीं
और हमारे सामने हमारे बच्चे हवा में धूँये की तरह
विलीन होने लगे
हम उजबकों की तरह उनको देखते रहे
देखते रहे क्योंकि हमारे बीच प्यार शब्द
कभी आया ही नहीं
उसने तब कहा
दोबारा शुरुआत करो
और हमने खुद को उस बगीचे में पाया
जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था
( स्केच मूल मिशेल मार्शंड पर कॉपी यहाँ मेरे द्वारा )
6/12/2008
उसके जाने के बाद कोई धूप नहीं है
बंदरगाह से जहाजों के छूटने का साईरन बजता था , मोटा भारी कर्कश बुलंद , रात की पनियायी मटमैली रौशनी को एक पल को तोड़ता हुआ । जैसे ऐतिहासिक फिल्मों में किले की दीवार को तोड़ने के लिये कोई भारी बड़ा लौहखंभ । एक कतार से लंगर लगे जहाजों की गोल खिड़कियों से रौशनी छन कर नीचे पानी के छोटे छोटे लहरों में रेखा बनाती हिलती डुलती विलीन होती थी । कुछ हिस्सा तट पर , मोटे रस्सियों और लोहे के जंग खाये लंगरों से फिसलता धीमे से एक सर्द गीली आह लिये बैठ जाता । सब तरफ पानी की सीली महक , एक अजीब खास सी महक , जैसे सबकुछ ठहरा रुका जड़ हो। बीच समन्दर के पानी के महक से एकदम अलहदा । कुछ कुछ खून के महक जैसा , थोड़ा लोहराईन । इस तरफ एक अलग गमक की दुनिया थी । छोटी जगहों में कई आदमियों के रहने की , उनके पसीने की , उनके साँसों की खट्टी महक , उबले आलू और माँस की महक , जो जहाजों की रसोई में बड़े कड़ाहों में जहाजियों के लिये पकता , तट तक आ पहुँचता । कुछेक भूखे पेट अधनंगे भिखमंगे आह से पानी में हिलते उन रौशन खिड़कियों की तरफ उदास आँखों से देखते । पिछली गलियों में बजबजाता कूड़ेदान कुछ और तरीके की बू फेंकता , ऐसा कि पास आने पर दिमाग चकरा जाये ।
बंदरगाह की पिछली भूलभुलैया गलियों से संगीत की लहरी हवा के साथ पानी तक आ पहुँचती । पियक्कड़ जहाजियों का कान फोड़ू उधम , किसी बेलीडांसर की कमर की बलखाती बिजलियाँ , बार की रंगीन रौशनी ..सब के पीछे सबके परे ,किसी और गली में , किसी तंगहाल कोठरी में कोई औरत बैठी तस्बीह के मनके उँगलियों से गिनती बुदबुदाती है । कोई जवान औरत रंगीन फूलदार कपड़े पहने एक पल को ठठाकर हँसती फिर अचक्के गुम हो जाती है । आँख के कोरों पर एक बून्द आँसू झलमला जाता है । सामने पपड़ियाये पीले दीवार पर तस्वीर में सजा नौजवान सेलर कैप पहने हँसता है । गली के बाहर अचानक कुत्ते बेतहाशा भूँकते हैं । अफीम के पिनक में ढुलका आदमी ज़रा चौंक कर कुत्तों को देखता है फिर आस्तीन से मुँह पोछता गुनगुनाता है कोई गीत अपनी प्रेमिका के याद में । दुख से उसकी छाती दरकती है ..बट ऐंट नो सनशाईन व्हेन शी इज़ गॉन ...
भोर होने के ठीक पहले जहाज , इंजिन की तेज़ गड़गड़ाती आवाज़ के शोर के साथ खुले समन्दर की तरफ बढ़ निकलता है । लाल टमाटरी गाल वाले दढ़ियल कप्तान को बोसन बताता है , हाजिरी रजिस्टर बढ़ाते ..एक आदमी कम है ।
बंदरगाह की पिछली भूलभुलैया गलियों से संगीत की लहरी हवा के साथ पानी तक आ पहुँचती । पियक्कड़ जहाजियों का कान फोड़ू उधम , किसी बेलीडांसर की कमर की बलखाती बिजलियाँ , बार की रंगीन रौशनी ..सब के पीछे सबके परे ,किसी और गली में , किसी तंगहाल कोठरी में कोई औरत बैठी तस्बीह के मनके उँगलियों से गिनती बुदबुदाती है । कोई जवान औरत रंगीन फूलदार कपड़े पहने एक पल को ठठाकर हँसती फिर अचक्के गुम हो जाती है । आँख के कोरों पर एक बून्द आँसू झलमला जाता है । सामने पपड़ियाये पीले दीवार पर तस्वीर में सजा नौजवान सेलर कैप पहने हँसता है । गली के बाहर अचानक कुत्ते बेतहाशा भूँकते हैं । अफीम के पिनक में ढुलका आदमी ज़रा चौंक कर कुत्तों को देखता है फिर आस्तीन से मुँह पोछता गुनगुनाता है कोई गीत अपनी प्रेमिका के याद में । दुख से उसकी छाती दरकती है ..बट ऐंट नो सनशाईन व्हेन शी इज़ गॉन ...
भोर होने के ठीक पहले जहाज , इंजिन की तेज़ गड़गड़ाती आवाज़ के शोर के साथ खुले समन्दर की तरफ बढ़ निकलता है । लाल टमाटरी गाल वाले दढ़ियल कप्तान को बोसन बताता है , हाजिरी रजिस्टर बढ़ाते ..एक आदमी कम है ।