8/26/2008

धत्त ! ये तो बालूशाही है

काले बड़े लकड़ी के कमानी से लैस अजदहे छाते के पीछे उसकी आधी काया छिपी हुई थी । गाड़ी फर्राटे से पार हुई और एकदम पार हो जाते जाते देखा उसका चौंका चेहरा , एक पल को काले चेहरे में खिली दूध के कोये सी झक्क आँखें । फिर बरसाती सड़क पर दो दो तीन के गुच्छे में नीली कमीज़ और गाढ़े नीले लम्बे कम घेर वाले स्कर्ट में लड़कियाँ , सिकुड़ती बारिश से बचती बचाती हँसती खिलखिलाती , उसी सीलेपन में बेपरवाही खोजती पातीं लड़कियाँ ।

सड़क के दोनों ओर पेड़ों का कनात तना है । काले अलकतरे की सपाट सड़क आगे घूम कर विलीन होती जाती है हर बार सड़क को निगलते गाड़ी के मुँह से आगे तेज़ भागती । लाल मिट्टी और हरे पेड़ और उसके पार हरे खेत । गाड़ी का एसी तेज़ हवा धौंक रहा है । धूप में साईकिल रोके मुड़ कर देखता आदमी पसीने से तर है । औरत के पीठ पर गठरी सा बँधा बच्चा ढुलक कर सोया है । ठीक से दिखने के पहले पीछे छूटता हुआ । सड़क के दोनों ओर कस्बई दुकान में गाँव का सजा चेहरा दिखता है । मर्तबान के कतार और दीवार पर परमहंस की तस्वीर पर सूखे फूलों की माला , उसके बगल में किसी सफेद मूछों वाले भद्र स्वरूप बुज़ुर्गवार की फोटो और दीवार के पिछले हिस्से में पूजा के रैक से उठता लोबान अगरबत्ती का धूँआ । गाड़ी रुकी है । खिड़की के पार दुकान में बैठा आदमी निर्विकार भाव से मुझे देखता है । उसकी खुली बाँह पर एक मक्खी चलती है । बताशे के मर्तबान के अंदर एक चूँटा लगातार गोल घूमता है । इस दुनिया का प्राणी ।


भागते दौड़ते विलीन होते पीछे छूटे घरों , लोगों को देखते मैं सोचती हूँ , ये नहीं कि कैसे रहते होंगे ये लोग बल्कि ये कि ऐसे रहते क्या सोचते होंगे ये लोग ? सब लोग ?


ड्राईवर बोलता है , रास्ता एक किलोमीटर पीछे छूट गया । वहीं से जहाँ से बंगाल की सरहद शुरु हुई थी । बस जैसे एक लाईन खींची हो , इस पार आदिवासी चेहरे , लाल मिट्टी और उस पार बंगाली साड़ी , खुले तेल लगे बाल , सिंदूर का टीका । मैं सोचती हूँ कैसे तय हुआ होगा कि इस पार ऐसे रहेंगे और उस पार वैसे । और लाईन कहाँ तय हुई होगी ? किसने फरमान ज़ारी किया होगा या सब खुद ब खुद जान गये होंगे कि इधर ऐसे रहना बोलना है उधर वैसे ? जैसे दूसरे देशों के बीच , समुद्र के बीच , धरती पर कितने कितने लोग खड़े हैं लाईन के आमने सामने बताते कहते कि हम तुमसे अलग हैं ।


मज़े की बात है लाईन के इस पार भी पेड़ हरे हैं , उस पार भी । उन्हें किसी ने नहीं बताया इस पार उस पार के रीति को । सड़कों को अलबता बताया गया है । इस पार अच्छे और उस पार उबड़ खाबड़ । छोटे दुकान , संकरे रास्ते , बजबजाती नालियाँ , यूनियन का दफ्तर , मकानों के सामने तार पर सूखते छापेदार रंगीन साड़ियाँ , इधर उधर होते, सुस्त फुर्तीले दिखते जवान , जम्हाई लेते बुज़ुर्ग , घुटने पर हाथ धरे सड़क के किनारे बैठीं औरतें , खाट पर सूखता उबला पीला चावल । स्कूल जाते बच्चे , बिजली के तार और रेल की पटरी । खेत खेत खेत छोटे टुकड़े और कितने पोखर ।


गोसाईं कहता है यहाँ का गाजा मशहूर है । पुरुलिया में और क्या ? मुड़ी डुलाकर हँसता है दाँत टूटी हँसी , बस गाजा और क्या ? दफ्तर में बैठे चीनी मिट्टी के फूलदार कप तश्तरी में कड़क चाय पीते , नमकीन बिस्कुट का एक टुकड़ा तोड़ते , फाईल्स देखते उठ खड़े होते हैं । छोटे से दफ्तर में लोग हैरानी से झाँकते हैं , बाहर से आये हैं लगता है ।


लौटते खूब झमाझम बारिश । नक्सलाईट एरिया है , जरा जल्दी निकल जायें की ताकीदगी याद रहती है पर अँधेरा भी वैसे ही झमाझम बरस रहा है । झालदा के पास हिन्दू बादशाह होटल में खटिया पर बैठे चाय पीने का मज़ा अब निकलेगा शायद । मोटे विकराल मच्छर उठा कर न ले गये , नक्सली क्या ले जायेंगे । पानी शीशे को पीट रही है । अंधेरे में आँख फाड़े याद करती हूँ जगहों के नाम .. टाटी सिल्वे , सिल्ली , नवाडीह , तेतला , मुरी , झालदा , टोपशिला , पलपल , अहरारा .... जैसे एक स्वाद घुलता है मन में , किसी बिसरी हुई स्मृति का ? उस स्मृति का जो है नहीं , उन जगहों की याद जहाँ कभी गये नहीं , वो समय जो अपना था नहीं कभी ।


उस याद की याद कैसे आ सकती है जो याद कभी की गई नहीं ।


रात को कैपिटल के रेस्तरां मेलांश में बैठे मेक्सिन प्रॉन सूप पीते उस आदिवासी लड़के को कड़क यूनिफॉर्म में मुस्तैद मुस्कुराते देखती हूँ जो किसी गेस्ट के मेलांजे को सही करता अदब से मुस्कुराता है । कमरे में आकर पैकेट खोलती हूँ । रेस्तरां में डेज़र्ट को दरकिनार किया था । अब पुरुलिया का गाज़ा मुँह में घुलेगा । कूट का डब्बा तुड़ मुड़ गया है । बाहर तक देसी घी की चिकनाई फैल गई है । ढक्कन खोल कर निराशा होती है । धत्त ये गाजा कहाँ ये तो बालूशाही है । जरा निराश , एक टुकड़ा मुँह में डालती हूँ । तृप्ति से आँख मुन्द जाती है । आत्मा तक मिठास फैलती है ..घी में डूबी सोंधी , फट से कुरमुरा कर खस्ता टूट कर घुलती हुई ।

लगातार तीन खा लेने के बाद थकान में शरीर गिरता है । गिरता है नीन्द में ।

20 comments:

  1. प्रत्यक्षा जी एक फोटू तो लगायी होती :(

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  2. बहुत खूब...
    गाज़ा पहली बार सुना। कुछ इसके बारे में बताइये। क्या मैदे से निर्मित मिष्ठान्न है ? हो सके तो चित्र भी बताइये और नहीं तो वर्णन करिये :)

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  3. उस याद की याद कैसे आ सकती है जो याद कभी की गई नहीं ।
    DEJA VU..........

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  4. Anonymous5:23 pm

    फोटो किसकी ? बालूशाही की ?

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  5. सिर्फ़ तीन खायी ?....
    दिलचस्प अंदाजेबयां .....सूखे रास्ते ओर आदिवासियों को भी आपने अपने रंग में रंग डाला ......

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  6. गाजा या गांजा

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  7. मैं सोचती हूँ कैसे तय हुआ होगा कि इस पार ऐसे रहेंगे और उस पार वैसे । और लाईन कहाँ तय हुई होगी ? yahaan tak aakar lagaa thaa ki aap puruliya ki baat kar rahi hain...aagey padha to sach nikla...hum udher jaatey hain to deewaron pe likha dekh kar kahtey hain...ab bengal shuru hua...vaisey aap kab aayin idher?

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  8. बेहतरीन..

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  9. बढिया प्रस्तुति रही हमेँ तो परुलिया नाम ही बहुत भा गया ! :)

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  10. Anonymous7:27 am

    आगे के किस्सों का इंतजार है!

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  11. आपने तो शब्दों से ही वहाँ का चित्र खींच दिया। बेहतरीन लिखती हैं आप।

    इधर हिन्दी क्षेत्र की “बालूशाही” पूरब बिहार और बंगाल में जाकर “गाजा” हो जाती है। मेटीरियल वही होता है, आकार और गुण थोड़ा बदला हो सकता है।

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  12. .









    आज टिप्पणी अवकाश है !

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  13. रोहित ... शुक्रिया

    मिश्रा जी .. सिर्फ बिजली के खँभों की तस्वीर क्या लगाती

    अजित जी .. गाजा और बालूशाही .. बताया नहीं जाता , खाया खिलाया जाता है ..इस तरफ आईये कभी ..फिर खिलाते हैं आपको

    अरविन्द जी .. कितने देज़ा वू

    प्रियंकर .. आजकल फोटो पर आपका ध्यान ज़्यादा जाता है :-)

    विपिन ..शुक्रिया

    अनुराग ..घी के तीन ..कम हैं क्या ?

    तरुण .. अहा आपका दिमाग किधर गया :-) गाजा ही है

    पारुल ..पिछले हफ्ते थी पुरुलिया , बड़ा आनंद आया । आप किधर ?

    समीर जी ..आभार

    लावण्या दी .. पुरुलिया सच कितना मीठा है न

    अनूप जी ..आगे का कौन सा किस्सा ?

    सिद्धार्थ .. क्या भई , गाजा और बालूशाही दो अलग मिठाई है


    अमर जी ..टिप्पणी छुट्टी , ब्लैंक स्पेस जिन्दाबाद

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  14. खूब.

    खूब. खूब. खूब.

    किसी भी, कहीं की भी, अच्‍छी मिठाई-सा मीठा.. और मन के भावलोक सा अंतर में गहरे उमगता, उमड़ता..

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  15. पेडों का कनात जैसा प्रयोग !
    बहुत अच्छा लगा.
    आप सचमुच हवा में
    टंगे शब्दों को ज़मीन पर
    उतार लाती हैं....विषय,
    विवरण और शैली का सुंदर
    संगम आकर्षित करता है.
    ======================
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  16. ये टोपशिला कहीं कोटशिला तो नहीं...

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  17. घाटशिला , कोट शिला टोपशिला ... पता नहीं मनीष

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  18. mai bokaro me huun aapsey 20km kii duuri pe....aapney bataya hota to ..liva le jaati aapko:)

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