7/13/2008

न बीतते हुये ..बीतता हुआ समय


फिर अँधेरे में खिलता है सूरजमुखी
शुरु होती है यात्रा , चलती हैं
मेरी आँखें , पैर होते हैं महफूज़ , बिस्तरे पर
रेत के बगूले उठते हैं
काले नकाबपोश घुड़सवार और ऊँटसवार
फिर सीन डिसॉल्व हो जाता है नींद खुल जाती है
सफर खत्म हो जाता है
पर मज़ा ये कि हर सुबह पैरों पर छाले होते हैं
तलवे घायल
लहुलुहान

दिन का कितना वक्त बीतता है
उन छालों को फोड़ने में
खून सने जूतों को साफ करने में
सफर की अगली तैयारी में
इतना
कि कोई कहता है चलो
गली के बाद वाले नुक्कड़ तक
या गेट के सामने फूलों की दुकान तक भी
कॉफे टर्टल की किताबों और कॉफी तक
या नई लगी कोई च्यूईंग गम सिनेमा तक या
फिर लास्ट टैंगो इन पेरिस भी
मैं मना करती हूँ
खोलनी है मुझे आखिर अपनी कोई तीसरी आँख
कोई सातवीं आठवीं नवीं इन्द्रीय
देखना है मुझे अनंत का रंग
रात हो गई है चलना है मुझे
पाँव पाँव
शून्य के सफर में

रात हँसता है ठठाकर कर
खोलता है मुँह, मार्लन ब्रांदो झुकता है कहता है
मैं पेरिस कभी गया नहीं
बुंडू झुमरी तिलैया बरकाकाना
कहीं भी तो नहीं

डूबता है सपना नींद में तैरता है कुछ पल
फिर बैठ जाता है
तल में

मैगज़ीन के सेंटर स्प्रेड पर अब भी देखता खड़ा है
मार्लन ब्रांदो या क्या पता कोई और
पुरानी ग्रेनी ब्लैक एंड व्हाईट
तस्वीर , किसी और और समय की

समय बीतता है , न बीतते हुये भी बीतता है

मेरी उँगली अब भी फँसी है उसकी उँगलियों में
और अँगूठे से खींचता है वो मेरे पाँव के तिल पर अपने निशान

समय बीतता है...

13 comments:

  1. Anonymous4:39 pm

    Prtyaksha ji, bhut sundar likh rhi hai. or bhi sundar likhe iske liye meri shubhakamnaye.

    ReplyDelete
  2. समय बीतता है , न बीतते हुये भी बीतता है।

    सुंदरतम रचना। कही-अनकही जैसी। साधुवाद।

    ReplyDelete
  3. यही तो है आईन्सटीन का सापेक्षता सिद्धांत -न बीतते हुए बीतता समय !अच्छे मनोचित्र !!

    ReplyDelete
  4. एक आपका ही ब्लॉग है जो मुझे खामोश रहकर सिर्फ़ महसूस करने पर मजबूर कर देता है।

    ReplyDelete
  5. समय बीतता है
    और बीत जाती हैं छालों की यादें भी.
    रीत जाती हैं पहली पाँच इंद्रियाँ भी.
    पलामू एक्सप्रेस के साधारण डब्बे में
    मूँगफ़ली बेचता हुआ
    अचानक से आसमान की ओर देख चिल्लाता है -
    वो देखो 'पीलेन'
    पेरिस जाने वाली वो फ्लाइट भी
    दो क्षण में बीत जाती है.
    समय बीतता है.
    समय जीतता है.

    ReplyDelete
  6. खोलनी है मुझे आखिर अपनी कोई तीसरी आँख
    कोई सातवीं आठवीं नवीं इन्द्रीय
    देखना है मुझे अनंत का रंग
    रात हो गई है चलना है मुझे
    पाँव पाँव
    शून्य के सफर में
    प्रत्यक्षा जी, इस ऊँची उड़ान पर जाने से पहले हमारी शुभकामनाएं स्वीकार करें। अच्छी कविता…

    ReplyDelete
  7. खोलनी है मुझे आखिर अपनी कोई तीसरी आँख
    कोई सातवीं आठवीं नवीं इन्द्रीय
    देखना है मुझे अनंत का रंग
    रात हो गई है चलना है मुझे
    पाँव पाँव
    शून्य के सफर में
    प्रत्यक्षा जी, इस ऊँची उड़ान पर जाने से पहले हमारी शुभकामनाएं स्वीकार करें। अच्छी कविता…

    ReplyDelete
  8. "मेरी उँगली अब भी फँसी है उसकी उँगलियों में
    और अँगूठे से खींचता है वो मेरे पाँव के तिल पर अपने निशान"

    सारी कविता का निचोड, बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  9. मय बीतता है , न बीतते हुये भी बीतता है

    मेरी उँगली अब भी फँसी है उसकी उँगलियों में
    और अँगूठे से खींचता है वो मेरे पाँव के तिल पर अपने निशान

    समय बीतता है...

    खूबसूरत.......बेहद खूबसूरत....

    ReplyDelete
  10. चलते चलते थक गया सपने का बाईस्कोप - एक साँस ले कर जब उठा तो लहरा के उठा ईस्टमैनकलर में

    ReplyDelete
  11. Very imaginative, P. Thank you for linking it up.

    ReplyDelete