तो उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई । अँधेरा झरता रहा अंदर बाहर । उसने कहा था चित्त लेटो सब शांत हो जायेगा पर रात की रीतती रुलाई लगातार गोल घूमती रही , जाने कौन से चक्रव्यूह बनाती भेदती । कुछ खो गया था । और चाभी उस संदूक की मिलती न थी । हरबार आँख बन्द करते हथेलियों में उसका ठंडा स्पर्श और आँख खोलते गायब । खो गया ,क्या अब कभी नहीं मिलेगा ? की हूक उठती थी । कोई पतली लकीर नहीं थी , रेशे में खरोंचा निशान नहीं था । बस विध्वंस था । सब चुक जाने का प्रलयंकारी विलाप ।
फूल लेकिन अब भी गमक रहे थे । लतरों पर कनबलियाँ लटकी थीं , हवा में नाचते घुँघरू । और शीशे पर मातम मनाती एक तितली । अँधेरे में काली । दिन में रही होगी सफेद । मैं अब देखती क्या थी । उस रात में ? जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
बाहर कोई बजाता था कोई धुन बहका हुआ , सुरों के बाहर डोलता लड़खड़ाता हुआ , जीवन से चूर , खुशी से भरपूर , जैसे अंतिम संगीत हो और फिर इसके बाद कुछ नहीं । ऐसी तोड़ देने वाली बहक कि बदन अपने आप झूम उठे , जैसे ये नृत्य भी अंतिम था , ये बात भी अंतिम थी , इसके बाद कोई आवाज़ नहीं । तो , उस रात अंतिम रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
उसका खो जाना भी उतना ही नियत था जितना मिल जाना । फिर इस दुनिया की भीड़ में , इस शहर की भीड़ में , इस गली मोहल्ले की भीड़ में ,अपने अंदर की भीड़ में ... अभी था , अभी नहीं । बढ़े हाथ की सबसे लम्बी उँगली के अंतिम छोर पर स्पर्श टिका था अब भी जैसे नब्ज़ धड़कती थी अब भी । बावज़ूद इसके कि उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
सपना अब भी सुबह तक याद नहीं रहता । किसी वक्त पूरे डीटेल्स में रहता था । अब नहीं । अब , गनीमत कि कुछ देखा था का भास याद रहता है । और बहुत बातें याद रहती हैं , जो नहीं रहनी चाहिये वही याद रहती हैं , अपने सम्पूर्ण बेवकूफियों में याद रहती हैं । कोई कील दिमाग में लटका छोड़ी है जहाँ इन फिज़ूल बेकार बातों को टाँग कर भूल जाते हैं , भूल जाते हैं पर कील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती । और जो जो इतना जितना नहीं भूलना था उसे फिर उस रात याद किया जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।
फिर रात लम्बी होती गई । इसलिये कि उसके बाद सुबह की कोई गुँजाईश नहीं थी । इसलिये कि पता था कि अब सुबह नहीं होनी । इसलिये कि जान लेना ही सब कुछ था । इसलिये कि जितना खोना सच था उतना ही पाना । फिर उस रात के बाद कभी सुबह नहीं हुई । फिर उस बात के बाद कोई बात नहीं हुई ।
प्रत्यक्षाजी, आपके शब्दों के चयन की क्षमता बेमिसाल है।
ReplyDeleteकील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती .... ओह... हां... सही तो है. नहीं भूलती
ReplyDeletejaise im ye nritya bhi ant tha,ye baat bhi antim thi,suder bahut sunder
ReplyDelete'इस रात की कोई सुबह न हो' सरीखे कामोद्दीपक विज्ञापनों का आभास लिए आपकी यह पोस्ट भी बहुत कुछ अमूर्त अनकहा सा छोड़ जाती है -कोई दुःस्वप्न रूपायित हो रहा है या श्रृंगारिक अभिसार समझ के परे रह जाता है -शायद इसी को साहित्य कहते हैं .अप्रतिम विशिषट शैली !!
ReplyDeleteहम उनसे अक्सर उब जाते है जिनसे उबने की छूट नही रहती ओर वहां उम्मीदे तलाशते है ..जहाँ हम ग्रांटेड हो जाते है......एक बार फ़िर आपके रहस्मयी अंदाज का जादू.....
ReplyDeleteजीवन की कुछ बाँतें ऐसे याद रहती हैं जैसे अभी कल की ही घटना है। ये वो बातें हैं जिनका हमारे दिल की गहराइयों से नाता जुड़ा होता है। वहीं ये बसेरा जो बना लेती हैं। ये बातें वैसी ही हैं जैसी उस रात के बाद फिर सुबह नहीं हुई।
ReplyDeleteआप कहा से लाती है इतने जीवन को झझकोरते शब्द . लगता है समय जैसे ठहर गया हो .
ReplyDeleteno words to des`ribe the kind of images your writings paint...amazing style
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