सुबह से आज पी नहीं चाय तभी ज़ुबान पर कसा सा स्वाद
रात के दर्द का
छुप के बैठा है
मैं मुस्कुराती हूँ , हाथों से बाल समेटती हूँ , सामने शीशे पर फुर्र से
उड़ जाती है तितली
तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर, मेरे कँधों पर दर्द किसी घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता है
अँधाधुन्द
दो बून्द टपक गया, कह दिया , बस ऐसी बे-इंतहाई
किसी भी चीज़ की अब सुहाती नहीं
याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , मेरी त्वचा पर खिलते हैं कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार
मैं अब भी हँसती हूँ, तुम अवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा ली थी मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक
कोई सहलाने वाला हो तो दर्द का भी अपना ही एक मजा है, अन्यथा दर्द केवल दर्द है, रंगविहीन, पूरी चेतना पर छाया हुआ!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर..
ReplyDeleteकमाल की सोच है.. बहुत उम्दा
bhut sundar rachana.likhati rhe.
ReplyDeleteaap to dard ko bhi khubsoorat bana deti hain.Aapki kavitayen bhi aaphi ki tarah khubsoorat hain.
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeletethe poem coinsides with the deep thoughts of expectations
ReplyDeletevery beutifull
बहुत ही नाज़ुक ख़्यालात !
ReplyDeleteदर्द बड़ा उलझन भरा है…
ReplyDeleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteलगता है इस आत्मकथ्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति का फासला नही रह गया है -यद्यपि मुझमें महीन भावों की समझ कम है ,विज्ञान के निरंतर सानिध्य ने मेरे मस्तिष्क के उस क्षेत्र को जहाँ से ऐसी अनुभूतियाँ उपजती हैं को लगता है कुंद बना दिया है .
ReplyDeleteबहरहाल आपकी रचनाएं जब भी पढता हूँ आप की शब्द शिल्पता से अभिभूत हो जाता हूँ !
wah..baat neeley phuulon ki...kya baat hai!!!
ReplyDeleteचाय भी पी ली है लेकिन मुझे भी दर्द सा हो रहा है। तितलियाँ कहाँ उड़ती हैं? कई दिन से नहीं देखी..
ReplyDeleteगजब!!
ReplyDeleteयाद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार
ReplyDeleteमैं अब भी हँसती हूँ, तुम आवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा लिया था मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक
ek bar fir vahi jadu ....
रेशमी एहसास जगाती रचना...बेहद खूबसूरत.
ReplyDeleteनीरज
शब्द शिल्प रुप रँग रस गँध सभी कुछ है तुम्हारे लेखन मेँ प्रत्यक्षा !
ReplyDelete- लावण्या
प्रत्यक्षा,
ReplyDeleteमुझे आपका लिखा पसंद आता है या नहीं यह एक अलग सवाल है, लेकिन भाषा पर आपकी पकड़, वाकई प्रभावित करती है....
विज्ञान वर्ग का छत्र हूँ , जरा इसके मायने समझा दीजिये ताकि समझ सकूँ कि जो मैने समझा वह सही ही समझा .…………
ReplyDeleteपता नही आप लोग इतनी गहरी सोच कैसे पा लेते हैं
:)
:)