6/26/2008

तभी उड़ती हैं तितलियाँ

सुबह से आज पी नहीं चाय तभी ज़ुबान पर कसा सा स्वाद
रात के दर्द का
छुप के बैठा है
मैं मुस्कुराती हूँ , हाथों से बाल समेटती हूँ , सामने शीशे पर फुर्र से
उड़ जाती है तितली


तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर, मेरे कँधों पर दर्द किसी घोड़े पर सवार सरपट दौड़ता है
अँधाधुन्द

दो बून्द टपक गया, कह दिया , बस ऐसी बे-इंतहाई
किसी भी चीज़ की अब सुहाती नहीं

याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , मेरी त्वचा पर खिलते हैं कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार

मैं अब भी हँसती हूँ, तुम अवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
खा ली थी मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
एक के बाद एक

18 comments:

  1. कोई सहलाने वाला हो तो दर्द का भी अपना ही एक मजा है, अन्यथा दर्द केवल दर्द है, रंगविहीन, पूरी चेतना पर छाया हुआ!
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  2. तुम उँगलियों से चलते हो मेरी गर्दन की नसों पर..

    कमाल की सोच है.. बहुत उम्दा

    ReplyDelete
  3. Anonymous4:54 pm

    bhut sundar rachana.likhati rhe.

    ReplyDelete
  4. Anonymous5:10 pm

    aap to dard ko bhi khubsoorat bana deti hain.Aapki kavitayen bhi aaphi ki tarah khubsoorat hain.

    ReplyDelete
  5. Anonymous6:04 pm

    the poem coinsides with the deep thoughts of expectations

    very beutifull

    ReplyDelete
  6. बहुत ही नाज़ुक ख़्यालात !

    ReplyDelete
  7. दर्द बड़ा उलझन भरा है…

    ReplyDelete
  8. बहुत उम्दा

    ReplyDelete
  9. लगता है इस आत्मकथ्य में अनुभूति और अभिव्यक्ति का फासला नही रह गया है -यद्यपि मुझमें महीन भावों की समझ कम है ,विज्ञान के निरंतर सानिध्य ने मेरे मस्तिष्क के उस क्षेत्र को जहाँ से ऐसी अनुभूतियाँ उपजती हैं को लगता है कुंद बना दिया है .
    बहरहाल आपकी रचनाएं जब भी पढता हूँ आप की शब्द शिल्पता से अभिभूत हो जाता हूँ !

    ReplyDelete
  10. wah..baat neeley phuulon ki...kya baat hai!!!

    ReplyDelete
  11. चाय भी पी ली है लेकिन मुझे भी दर्द सा हो रहा है। तितलियाँ कहाँ उड़ती हैं? कई दिन से नहीं देखी..

    ReplyDelete
  12. याद है तुम्हे कहा था एक बार दर्द में दिखता है मुझे कोई तीसरा रंग, कोई और खिड़की खुलती है वहाँ जहाँ दीवार तक नहीं , कुछ नीले फूल जिन्हें अगर छूओगे नहीं फट से मुर्झा जायेंगे, दरकिनार

    मैं अब भी हँसती हूँ, तुम आवाक देखते हो ये कैसा दर्द, मैं कहती हूँ
    खा लिया था मैंने तुम्हें बताने के पहले ही कोई लाल पीली गोली तभी उड़ती हैं तितलियाँ सामने शीशे में
    एक के बाद एक


    ek bar fir vahi jadu ....

    ReplyDelete
  13. रेशमी एहसास जगाती रचना...बेहद खूबसूरत.
    नीरज

    ReplyDelete
  14. शब्द शिल्प रुप रँग रस गँध सभी कुछ है तुम्हारे लेखन मेँ प्रत्यक्षा !
    - लावण्या

    ReplyDelete
  15. प्रत्‍यक्षा,
    मुझे आपका लिखा पसंद आता है या नहीं यह एक अलग सवाल है, लेकिन भाषा पर आपकी पकड़, वाकई प्रभावित करती है....

    ReplyDelete
  16. Anonymous11:52 pm

    विज्ञान वर्ग का छत्र हूँ , जरा इसके मायने समझा दीजिये ताकि समझ सकूँ कि जो मैने समझा वह सही ही समझा .…………

    पता नही आप लोग इतनी गहरी सोच कैसे पा लेते हैं
    :)
    :)

    ReplyDelete