6/29/2008
जी में आता है यहीं मर जाईये
वो जगह अँधेरे की जगह थी । गाढ़ा अँधेरा । हाथ बढ़ाओ तो पोरों को छूकर साफ निकल जाये । फिर हम आँखें बन्द कर लेते और उँगलियों से देखते और देखते कि हमारे शरीर पर ऐसे पँख उग आये हैं जो अँधेरा चीर कर कहीं उड़ा ले जा सकते हैं । और हम बाज़ बन जाते । हमारे डैने हवा को चीरते , अँधेरे को चीरते और हम आज़ाद हो जाते , आज़ाद परिन्दे । हमारे बदन पर हवा सट सट फटकार मारती , हमारे चेहरे पर हवा चाबुक चलाती , हमारी आँखों से आँसू बरछी की तरह तेज़ निकल कनपटी तक फैल जाती , हमारी छाती तेज़ तेज़ धड़कती , हमारी नब्ज़ से एक जुनून बिजली सा कौंध जाता , हमारे पैर के कानी उँगली का नाखून खिंच जाता और हम ऐसी शिद्दत से ज़िन्दा होते ऐसी शिद्दत से ... कि बस !
पर ऐसा कभी कभी होता । ज़्यादातर हम पड़े रहते , चित्त और अँधेरा हमें ओढ़ लेता । हम आँखें फाड़ फाड़ देखते और हमें कुछ भी न दिखता । फिर हम थक कर आँखें बन्द कर लेते । तब ये अँधेरा कूँये के अतल गहराई का अँधेरा होता । कुछ कुछ भयानक , कुछ ज़हरीला , काई से भरा जहाँ रौशनी का एक कतरा भी साँस न लेता । उँगली वहाँ डुबाओ तो पानी के साथ लसलसा अँधेरा भी चिपक जाये और घबरा कर हाथ चाहे लाख झटको छूटे ही ना । और ऐसी नीम घबड़ाहट में आँखें खुल जातीं ..खुल जातीं और अँधेरा तब भी न छूटता । हम छटपटा कर रह जाते पर तब भी न छूटता । हम अँधेरे के कैदी .. ताउम्र कैदी ..किससे गुहार करते ? किससे कैफियत माँगते ?
फिर किसी दिन या शायद किसी रात कोई लड़की एक जुगनू छोड़ देती । बच्चों की हँसी भरी चुलबुलाहट उस जुगनू की पीठ पर बैठ कर अँधेरों में धीरे धीरे उतर आती । हम साँस रोके , दम साधे महसूस करते ..रौशनी के आभास को , उसकी गर्मी को । हमारी त्वचा , अँधेरे से पीली पड़ी त्वचा , सिहर जाती किसी आगत के उत्साह में , आकुल..बेकल । एक साथ हँसी और एक साथ रुलाई होड़ लगाती , उफनती , धक्कमपेल ...सब एक साथ । और हम एक साथ जी जाना चाहते .. एक साथ मर जाना चाहते ...सब एक साथ ..सब एक साथ ।
बहुत खूब।
ReplyDeleteमैं उस दीये की लौ पर जिया जो मीलों का अंधेरा सिर्फ़ मेरे लिये चीरकर आती थी…
ReplyDeleteशुभम।
bhut sundar lekha. likhati rhe.
ReplyDeletenayaa prayog....bahut acchhaa lagaa...aur bhi aanaa chahiye:)
ReplyDeleteआपकी आवाज़ बेहद अच्छी लगी। पर पूरी पोस्ट को आपने जिस स्पीड से पढ़ा वो सही नहीं लगा। आपके गद्य में ठहराव की गुंजाइश थी। सुनने वाले को भी कुछ समय लगता है बातों को आत्मसात करने के लिए। आशा है आगे भी पॉडकॉस्ट सुनने को मिलेंगे।
ReplyDeleteऔर भी पॉडकास्ट क्यों नहीं करतीं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपको सुनकर, बहुत प्रभावशाली आवाज़ है आपकी,आशा है आगे भी सुनने को मिलेगी,लेख भी बहुत अच्छा लगा...thanks
ReplyDeleteयह बहुत बढ़िया प्रयास रहा. मनीष जी की बात से सहमत.
ReplyDeleteआपका लेखन ही क्या कम मोहक था..फिर आप को खुदा ने आवाज़ भी ऐसी बख्श रखी है..क्या कहे कोई !
ReplyDeleteप्रत्यक्षा ,
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी तुम्हारी आवाज़ मेँ तुम्हारी लिखी हुई रचना -
और भी इसी तरह सुनवाओ -
स्नेह,
-लावण्या
आवाज़ में एक कशिश है .. बस आगे हर पोस्ट को इसी तरह से अपनी जादुई आवाज़ देती रहिए... ठहराव अपने आप ही आ जाएगा.
ReplyDeleteआपके लिखे को कई बार पढ़ा हु आज पहली मर्तबा सुना... आपकी आवाज अच्छी लगी लेकिन आवाज में जो वैरिअशन होनी चाहिए उसकी कमी दिखी... आप एक लय में इसे पढ़ गई... जबकि कई ठहराव होने चाहिए... मुमकिन है जाते जाते जाएगा...आप जारी रखे अपना पॉडकास्ट
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा। आवाज तो आपकी बहुत बार सुनी। बार-बार सुनने का मन भी करता है। दुआ है आवाज हमेशा इत्ती ही अच्छी बनी रहे। पाडकास्ट बहुत अच्छा लगा। बस जैसा लोगों ने कहा थोड़ा आराम से पढ़ती तो और अच्छा लगता। फ़िर-फ़िर करती रहें पाडकास्ट!
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