7/02/2008

जीवन में प्यार ज़्यादा ? नहीं ही है

कुछ है जो अटकता है, खटकता है, शायद खाने में नमक ज़्यादा ? या जीवन में प्यार ज़्यादा
पर कहाँ मन भरता है और और माँगता है
क्या जाने क्या माँगता है, कई बार कोशिश की
कहा अरे अब तो संभल ,रुक , देख ना
खिड़की से जो नीला आसमान दिखता है ज़रा सा
जो एक सिल पर रखा पौधा जिसमें अचक्के खिला था एक दिन बस एक फूल या फिर सड़क पर मिट्टी में मिला
किसी का , जाने कब का
बदरंग कंचा
ओठंगे देखता है मन नीले पानी में
हल्का बदन
खुद हाथ लगाओ तो चकित होता है मन, रेशम सब जैसे बिल्ली फँस गई थी उस दिन ऊन के गोले में
कबूतर का बच्चा
मुँह बाये फकफक करता था
अझल दोपहरी में
या फिर बर्फ का गोला पिघलता , भरी गर्मी में
मुँह में या फिर रात
सफेद चादर पर सुकून सोता
सर ढक के और पीछे से बजता
वायलिन का कोई दुखी स्वर
कोई चिड़िया चहचहाती
कोई हिरण कुलाँचे भरते भरते ठिठक जाता
कभी घुल जाता मुँह में
बिन्नी की फुआ की बालूशाही
देख लेते धुनते रूई किसी धुनिया को
बजा जाता सड़क की रेडलाईट पर
इकतारा कोई सन से सफेद बाल वाला
बूढ़ा , तकता किसी गहरी काली बिटर
आँखों से
उफ्फ
उफ्फ
जाने कहाँ कहाँ
भागते समय में
दौड़ते ज़मीन पर, छाती फाड़ कर
डूबते शहर में, कच्ची गलियों में , टूटी सड़कों पर
कोने के मिसराईन की चूड़ी और बिन्दी पर
कहाँ कहाँ कहाँ

पर इन सबके बीच मन कहाँ मानता
जाने क्या अटकता है
जाने क्या ?
और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
इस विस्तार से उस छोर का खेला है, चौपड़ की बिसात है, कोई छे वाली लकी गोटी है
ओह ! जाने क्या है क्या क्या है ? पर इतना तो है कि ज़्यादा प्यार नहीं है ?

13 comments:

  1. पहली बार आपके व्लाग पर आया उम्दा कविता है ..प्यार की परिभाषा को गढने की कोशिश बहुतों ने है ..आप ने भी अपने अंदाज में खूबसुरती से किया ..शुक्रिया...

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  2. वो मिला तो याद आया
    वो इक खवाब पुराना था.....

    यही जिंदगी है प्रत्यक्षा जी.....baki pyar ka ye andaj bhi khoob hai.

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  3. Anonymous7:11 pm

    bhut acche. likhati rhe.

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  4. अनौपचारिक स्टाईल की यह कविता अच्छी लगी -सुगम और उतना ही अगम भी .

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  5. एक सुंदर एहसास लिए हुए है ये पंक्तिया.. बहुत सुंदर रचना

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  6. एक सुंदर एहसास लिए हुए है ये पंक्तिया.. बहुत सुंदर रचना

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  7. "और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
    इस विस्तार से उस छोर का खेला है".....
    .....तो क्या अभी मैं जिस प्रवाह में बह रहा था वो भी, मन अचानक किशोरवय की स्मृतियों में बह चला था भरी दोपहरी में पेड़ों के कोटरों में हरियाले तोते के बच्चों को तलाश रहा था, प्यारी गिलहरी खिड़की के रास्ते कमरे में दाखिल हो लगातार निहारे जा रही थी क्या ये सब माया ही था। ...जो भी हो कम से कम इस बात से तो नहीं ही इनकार कर सकता कि इन स्मृतियों की वजह कविता का रसास्वादन ही था।

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  8. Anonymous8:17 pm

    jevan hai kabhi miyha kabhi namkin,bahut achhi lagi ye rachana aapki aur sarthak bhi.

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  9. खूब्सुरत खयाल, रोज के जीवन से जुडे हुए फिर भी अलग से,
    -लावण्या

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  10. कम हो तो शिकायत, ज्यादा हो तो शिकायत, नियर परफेक्ट हो तो बोरिंग...एकदम परफेक्ट होता नहीं है कुछ, क्या करें...
    यह संसार काँट की बाड़ी उलझि पुलझि मरि जाना है...

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  11. शब्दों की बेमिसाल जादूगरी से सजी आप की ये रचना बहुत पसंद आयी. बधाई.
    नीरज

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  12. मन का मांगना यह रुक जाए तो ............और प्यार जितना ज्यादा उतना कम . बहुत सुंदर हमेशा की तरह .

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  13. शबाना आज़मी की गायी एक ग़ज़ल
    याद आ गई- शायर का नाम भूल रहा हूं-

    मैं राह कब से नई ज़िंदगी की तकती हूं
    हर इक क़दम पे , हर इक मोड़ पे संभलती हूं

    कभी फ़लक पे चमकती हूं नूर की सूरत
    कभी ज़मीं पे गुल की तरह महकती हूं
    ...
    उम्दा नज्म आपकी भी....

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