12/23/2008

बाघ की आँख

बाघ की आँख एक बार घूम जाती है अंदर

- यहाँ हँसना मना है , उसकी आवाज़ में संजीदगी है
- पर मुझे हँसे बिना रहा जाता नहीं
- देन आयम सॉरी

गर्म पानी के कुंड में घुसते ही कोई बर्फबारी कर दे , दूर खच्चरों की कतार बोझ से दबे, सर झुकाये , पहाड़ों के साये में चलती जाती है , बिना हरी घास के , उनके आभास के , यहाँ तक कि बिना उसकी आकांक्षा के ..

- मुझे ऐसे ही तुम बदल देना चाहते हो ?

आज मैंने पहनी है फूलों वाली रंगीन साड़ी ,इतने फूल कि हर कोई आ कर कह जाता है
आज धूप खिली है, तितलियों का मौसम है शायद ..

बाहर जब की कुहासा है और मैं तुमसे कुछ नहीं बोलना चाहती। जैसे हाईबरनेशन की कोई प्रक्रिया शुरु हो गई है । हलाँकि अमूमन सर्दियों में मैं बहुत अच्छा महसूस करती हूँ , बरसों से । लगता है जैसे जीवन की शुरुआत ही हुई है अभी , सफर पूरा बाकी है और रास्ते के सब अजूबे बाकी हैं देखने को अभी ।

गहरे कोहरे में, रात को गाड़ी चलाते , फॉगलाईट की रौशनी टकरा कर वापस विंडस्क्रीन तक लौट आती है । और हज़ार छोटे कणों में छिटक जाती है । गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी कर मैं साफ करती हूँ शीशा और किसी धुन में बना देती हूँ एक चेहरा , उसकी उठी भौंहों में जाने किस कौतुक का राज़ है । पानी और भाप की बून्दें मिलकर चेहरे को गडमड कर देती हैं , बनते बनाते मिटा देती हैं । सड़क के किनारे रद्दी कागज़ और कूट जलाते दो लोग लोई ओढ़े आग तापते देखते हैं मुझे । मेट्रो का काम चल रहा है । कुहासा थमे तो फिर शुरु होगा , वेल्डिंग से निकली चिंगारियाँ धूल में गिरकर विलीन होंगी , एक पल की नीली गर्मी का संकेत।

पर सर्दी इनको पसंद नहीं करती जैसे ये नहीं करते होंगे । गर्म कपड़े और साबुत घर जो रोक सके तेज़ बरछी ठंडी हवा को , हड्डियाँ जमती होंगी , बच्चों के नाक बहते होंगे , पैरों हाथों की उँगलियाँ अकड़ती होंगी । हमेशा ठिठुरता शरीर किधर खोजता होगा गर्मी ?

मौसम की पसंद भी स्थिति पर निर्भर करती है । ये बात अचानक मेरे दिमाग में धँसती मुझे ऐसा त्रास देती है । जो सहूलियतें सहज स्वाभाविक तरीके से मयस्सर होनी चाहियें वो कहाँ और क्यों गायब हो जाती हैं ?


तुम कुछ नहीं समझोगे । सिर्फ कहोगे , हँसना मना है और मैं कहूँगी , सुनो ये बाघ की आँख दिखती है तुम्हें ? मुझे दिखती है , क्यों दिखती है ?


( ये स्केच बहुत पहले बनाया था , कल कुछ आड़ी तिरछी लकीरें खींचते उन्हें इतना आड़ा तिरछा पाया कि अपने को रिमाईंड करने के लिये ये फिर से यहाँ चिपका रही हूँ )

8 comments:

  1. पूरी रचना अपने आप में एक वातावरण सृजित करती ! यही बहुत अच्छा लगता है ! शब्दों के बीच से भाप सा कुछ निकलता है और आसपास फैल जाता है. .....हर शब्द अपने साथ शब्द बनते बनते रह गयी एक चीज को भी हर बार धीरे से कह देता है .....!

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  2. आपका स्कैच नहीं देख पा रहा हूं।

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  3. लगा जैसे उस रास्ते से गुजर रहा हूँ....कोहरे के बीच नीली आग के आस पास....वेल्डिंग करती मशीनों के शोर में ....बेमिसाल शब्द .....
    ओर हाँ गोया की टेड़े मेडे स्केच भी खूब है........पर इस पूरे शब्द शिल्प में किसी खाने से जुड़ी चीज का जिक्र नही हुआ .प्रत्यक्षा स्टाइल ....बोले तो

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  4. सुंदर शब्द चित्र खींचा है सर्दी का, पहले तो में भी जमी ठंडी हवा में, कुहासे में, फ़िर आपकी फूलों वाली साड़ी और उन पर मंडराती तितलियों की कल्पना कर हंस दी :-)

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  5. नया ग्यानोदय में आपके ब्लौग की चर्चा पढ़ी और खिंचा चला आया...देखा-गुना और खुद को चार बातें सुनायीं की अब तक ये ब्लौग अछूता कैसे था मेरे नजरों से...

    सुंदर !

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  6. phir wahee kahoongi, kaise itna accha likhti hain aap?

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  7. good sketch and good article badhai

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  8. स्केच सुन्दर लगा।
    आपके चिठ्ठे के लिये मेरा कमेन्ट है.......

    ***FANTASTIC


    PLEASE VISIT MY BLOG...........

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