भाषा माँगती है अपने अधिकार अपने सरोकार । हम लिखते हैं किसी भोली आकाँक्षाओं के सपने पाले कि जो जो जितना जितना सोचते हैं उतना उतना ही लिखते हैं ..उन्हीं भावों कल्पनाओं को हाथ बढ़ाकर लपक लेते हैं और फिर गर्म साँस फूँक कर कोई जादू ज़िन्दा कर देते हैं ..करने की कोशिश करते हैं । उसमें कितनी बात पाठक के पकड़ में आती है उसकी परवाह नहीं कहना भी उतना ही बेमानी है जितना ये कि सिर्फ अपने लिये लिखते हैं । ये सही है कि सबसे पहले लिखते हैं अपने लिये , उन खोये पाये पल को स्मृति से बाहर की चेतन दुनिया में इसलिये लाने , कि एक बार फिर उनका स्वाद ज़बान पर , त्वचा पर महसूस किया जा सके , और ये करते ही उसे बाँटने की इच्छा , उस उमगती रौशनी को दिखाने की इच्छा ऐसी बलवती होती है ..और इसलिये फिर हम लिखते हैं औरों के लिये ।
लिखते रहना एक तरीके का कदमताल है , शब्दों भावों को पकड़ने का कुशल कला कौशल है , संगीत का रियाज़ है । सुर कितने सही लगे ये अपने कानों को सबसे पहले सुनाई देता है । तब सिर्फ एक बहाना बचता है ..ईमानदारी और सच्चाई से लिखते रहने की कोशिश होती रहनी चाहिये , अपने आप को निरंतर नई पहचान देने की , अपने अंदर की बीहड़ महीन परतों को पहचानने की , अपने बाहर की दुनिया से सम्बन्ध स्थापित करते रहने की , लिखते बस लिखते रहने की ।
लिखना एक तरह का डीटैचमेंट है । सब भोगते हुये भी उसके बाहर रह कर दृष्टा बन जाने का । इसी रुटीन रोज़मर्रा के जीवन में एक फंतासी रच लेने का और फिर किसी निर्बाद्ध खुशी से उस फंतासी में नये नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का । लिखना जितना बड़ा सुख है उतनी ही गहरी पीड़ा भी है , जितना अमूर्त है उतना ही मूर्त भी , जितना वायवीय उतना ही ठोस और वास्तविक भी । और सबके ऊपर , लिखना खुद से सतत संवाद कायम रखने की ज़िद्दी जद्दोज़हद की बदमाश ठान है । किसी सिन्दबाद के कँधों पर जबरजस्ती सवार शैतान बूढ़ा है , लिखना ।
प्रत्यक्षा कथाक्रम में कहानी मेटिंग रिचुअल्स पढ़ी अच्छी लगी । जीवन वही सूखा मुर्झाया निचुड़ा बैंगन । अच्छा कहा है ये ।
ReplyDeleteपंकज सुबीर
alekh bahut joradaar laga . bahut sundar vichar lage. abhaar.
ReplyDeleteआप ने लेखन के कई रूप यहां पर दिखाये । कहीं न कहीं ये बात सही है। सबसे सुन्दर यह की आप की भाषा पर पकड़ बहुत अच्ची है। धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने.प्रभावी लेख है.
ReplyDeleteBahut accha likha hai.
ReplyDeleteएक स्थ्रिति बार-बार आती है- 'पता नहीं' या 'मैं नहीं जानता', इसी स्थिति का शायद समर्थन, प्रतिरोध, लगाव या विलगाव है लिखना.
ReplyDelete(शिंबोर्स्का को थोड़ा तोड़कर बोलें, तो) ये चंट बूढ़ा जब तक कंधासीन रहेगा, तब तक लिखने वालों के पास वे काम होंगे, जो ख़ास उन्हीं के लिए बने हैं.
जबरजस्त
ReplyDeleteaapkey vichar aur bhav achchey hai. prabhavshali abhivyakti hai. bhasha per ek post mainey bhi dali hai.
ReplyDeleteलिखना बारिश की धुन है। धीरे-धीरे भीगते हुए, गुनगुनाते हुए...कभी जलते हुए...धुंआ धुंआ...
ReplyDeleteलिखना उन स्मृतियों से दोबारा गुजरना है .....लिखना उन्हें दोबारा भोगना ...फ़िर अपनी आँख से उन्हें देखना है.....लिखना अपने आस पास को कागज पर उकेरना भी है.......लिखना कुछ कहना भी है......
ReplyDeleteदूसरों के लिखते हुये अपने भाव न विसर्जित हो जायें, ख़याल रहे हमें। पहला पैराग्राफ़ बहुत ही अच्छा लगा आपका।
ReplyDeleteकिसी सिन्दबाद के कँधों पर जबरजस्ती सवार शैतान बूढ़ा है , लिखना ।
ReplyDeleteये शैतान बूढ़ा लदा रहे जब तक सिन्दबाद है।
शीर्षक में वर्तनी सुधार ले .भाषा पर अभी भी पकड़ ढीली ही है . शेष ठीक है .प्रयास करती रहेंगी तो लेखन और निखरकर बाहर आएगा .आप में एक संभावना को देखती हूँ .मेरी ओर से शुभकामनाये
ReplyDeleteनैना जी आपकी शुभकामनाओं का बहुत आभार । उम्मीद है मेरी वर्तनी और भाषा पर अपनी पैनी नज़र जमाये रखेंगी । सुधार की कोशिश जारी रहेगी । शुक्रिया ।
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