1/30/2008

हम बुकर नोबेल ज्ञानपीठ के लाईन में हैं

बचपन में खूब पुरस्कार बटोरे ,इतना कि जीवन का कोटा ही पूरा हो गया । पिछले कई बरसों से कुछ नहीं । फिर तरकश सम्मान घोषित हुआ । बधाई की चिट्ठी । दस चिट्ठों में नाम । हमने सीरीयसली सोचा । स्त्री पुरुष क्लासिफिकेशन पर कुछ रचना जैसा विचार था । पुरस्कारों की दुनिया में अपने को मिसफिट पाने होने का ख्याल था । ये बड़े बड़ॆ विचार थे , छोटे तो खैर हम सोचते नहीं । फिर फुरसतियाजी ने सेफोलॉजी करते हुये प्री पोल रिज़ल्ट घोषित कर दिया , हमें फेल डिक्लेयर कर दिया । जमानत ज़ब्त हो ऐसी नौबत आये उसके पहले तरकश टीम को अनुरोध किया नाम हटा देने को ।डिगनिफाईड एक्ज़िट ! यू नो । अंतिम चरण है , ऐसा संजय जी ने बताया । आज रिज़ल्ट घोषित हुआ । विजेताओं को बधाई ! किन्हीं ने टिप्पणी में पूछा है कि मुझे कितने वोट मिले । संजय जी का मेल आया । वोट बताया और कहा कि आप चाहें तो सार्वजनिक कर दें ।

अब हमारी शर्मिन्दगी का आलम देखिये । भला फिसड्डी स्टूडेंट से उसके नम्बर पूछे जाते हैं ? कहाँ हम अपना चेहरा और ब्लॉग छुपायें ? पहले सोचा दो तीन दिन गड़क हो जाते हैं । वैसे भी ब्लॉग दुनिया इंस्टैंट दुनिया है । कल किसे याद रहेगा। एस एम एस जैसा कुछ उस दूसरे चलते बहस से , वही मंगलेश डबराल वाला बहस , जैसा कुछ लाईन पिक अप किया था जस्टीफाई करने को। फिर अपने ही शर्म में पानी पानी हों , (पानी संकट है ही , हरयाणा क्या भारत भी नहीं पूरी दुनिया में) , इसके पहले नाक वाक बन्द कर के डुबकी मारते हैं जैसा कुछ सोचा । फिर किसी शुभचिंतक ने चेताया , आर टी आई का ज़माना है । हम भड़के , ये आर टी आई वगैरह किसने ईज़ाद कर दिया ? क्यों बतायें भई । आप पूछें और हम बता दें ? अच्छी चीज़ हो तो बिना पूछे बतायें ..दस बार बतायें बार बार बतायें .. अपने दफ्तर के सुहाने मौसम का हाल बतायें ? कि घर के रंगीन नज़ारे दिखायें ? लम्बी गाड़ी में काला चश्मा लगाये फोटो खिंचायें और अपने नये खरीदे कैमरे की चकचक फोटो दिखायें ?

ये सब तो हम बिना पूछे बतायें । किस आसनसोल के लोकल अखबार में कैंवी पेज के कैंवी लाईन पर हमारा ज़िक्र है , किस पत्रिका ,अरे वही साहित्यिक फाहित्यिक झरिया झारखंड से छपने वाली, में कहानी छपी है , कितने फैंस ने मेल भेजे कितने आलोचकों के एस एम एस को सेव डीलीट किया ? ये सब पूछिये तो हम बतायें । लेकिन ये सब तो आप पूछेंगे नहीं । आप पूछेंगे कितने वोट मिले ? जाईये नहीं बतायेंगे । ये भी नहीं बतायेंगे कि सिर्फ चौंतीस वोट मिले और हमें फिसड्डी फेलियर घोषित किया गया । ऐसे ऐसे ऐंवें पुरस्कारों का हम बाईकॉट करते हैं । विरोध करते हैं । हम बडे पुरस्कारों के लाईन में हैं .. बुकर , नोबेल , ज्ञानपीठ तक चलेगा । मिल जायेगा तो दौड़ेगा ।

1/29/2008

सचमुच क्या फर्क पड़ता है ?

सारे मसले पर इतिश्री कह दिया था लेकिन फिर प्रियंकर जी की टिप्पणी आई , सुबह ज्ञानजी के ब्लॉग पर “अपने पक्ष” में द्विवेदी जी के पोस्ट का ज़िक्र देखा ,तो जो पत्र मेल कर रही थी उसे ही यहाँ डाल देने की इच्छा हुई । बारबार उसी हैकनीड मसले पर कितनी दोहरावन की जाय । इतनी उर्ज़ा किसके पास .......


प्रियंकर कहते हैं......


सिएटल स्पीच एक अनिवार्य पाठ है . धन्यवाद!

"चूँकि पढ़ते हैं ,लिखते हैं , नौकरी करते हैं , घर चलाते हैं , खाना पकाते हैं , सोचते हैं ...."

इन सभी में 'नौकरी करते हैं'(यानी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं),यह तथ्य बहुत मार्के का है क्योंकि बाकी चीज़ें इससे जुड़ी हुई हैं और इससे बल-समर्थन पाती हैं. जो आपके केस में है और रीता जी के मामले में नहीं है . रीता जी ने अपने को उसी पारम्परिक रूप में ढाला है और ज्ञान जी ने उसे उसी संरचना में स्वीकार किया है .मैं इसमें हड़बड़ी में सिद्धांत ठेलने से बचना चाहूंगा . यह जानते हुए भी कि अगर रीता जी आपकी स्थिति में होतीं तो बहुत सम्भव है ज्ञान जी अपनी खिचड़ी के अलावा न केवल उनकी पसंद की कॉफ़ी बनाना जानते होते, वरन बना कर पिला भी रहे होते और तब कॉफ़ी के साथ नेरुदा-फेलूदा(सत्यजित रे वाले) पर बहस भी हो रही होती जो अगर करनी हो तो शायद खिचड़ी के साथ भी सम्भव है . और बकलम ज्ञान जी होती है .

फिलहाल जो है सामने हैं . और ज्ञान जी के बताने पर ही सामने है किसी तहलका का रहस्योद्घाटन नहीं है . पर छिटपुट उदाहरणों से सिद्धांत गढने,सोच बनाने और उतावले होकर सिद्धांतों की ठसक के चलते एकांगी उदाहरणों के आधार पर 'वैल्यू जजमेंट' देने के अपने खतरे हैं . एक अबाबील के आने से इतनी गर्मी नहीं पड़ने लगती कि सबको खस-खस की टट्टी लगाने का फरमान जारी कर दिया जाए,और न लगाने पर बिरादरीबाहर और द्रोही मान लिया जाए .

लगता है गुस्सा अच्छे लिक्खाड़ों की नाक पर धरा रहता है. उधर प्रमोद पंचलैट की माफ़िक सन्ना रहे हैं,इधर आप . और अभय हैं कि 'जेंटलमैनी' के सर्टीफ़िकेट की चौतरफा बौछार में भीगे-दबे जा रहे हैं .
आलोचना-समालोचना अच्छी चीज़ है पर अगर उससे ऐसा संदेश जाने लगे कि तेली का तेल जल रहा है और मशालची का दिल तो बहस व्यर्थता की कीच में फंस कर रह जाती है और ऐसे में इच्छित संदेश भोथरा हो जाता है .

क्या प्रमोद का,अभय का,ज्ञानजी का या आपका लिखा पढते समय और उस पर मुग्ध होते समय आपका ज़ेंडर मेरे माथे में होता है ? है ।






मेरा कहा......


प्रियंकरजी

आपकी टिप्पणी का सार्वजनिक जवाब न दे कर मेल कर रही हूँ इसलिये कि इस मसले पर अननेसेसरिली बहुत कुछ कहा गया । खेद इस बात की हुई कि जो महीन सट्ल बात थी कोर पर, उसका अनदेखा करना कई लोगों द्वारा आश्चर्य पैदा नहीं करता लेकिन आप भी ? सच बात है कि ज्ञानजी के पोस्ट पर जितना क्षोभ मुझे आपके कमेंट से हुआ उतना ज्ञानजी के पोस्ट से भी नहीं । ब्लॉगजगत में ऐसे लोग बहुत कम संख्या में हैं जिनके विचारों का मैं सम्मान करती हूँ और जब किसी ऐसे क्वाटर से आपकी अपेक्षा पूरी न उतरती हो तब तकलीफ होती है ।

उस पोस्ट में , जैसा कि मैंने पहले भी कहा ज्ञानजी और रीताजी का जाति मामला है कि वे कितनी भागीदारी और बराबरी से जीवन चला रहे हैं । लेकिन जब वो यह कहते हैं कि किसी स्त्री के नेरूदा पढ़ने से उन्हें भय होता , जो उनकी समझ अनुसार बेसिक संरचना है परिवार की , और जो स्त्री की जगह है उनकी निगाह में , और पढ़ लिखकर स्त्री अपने बेसिक ड्यूटी ( खाना बनाना) भूल जाये ... मुझे उससे आपत्ति थी । पहले भी उनके ऐसे ही रवैये वाले किसी पोस्ट के विरोध में मैंने लिखा था । तो कोई एक अबाबील तो नहीं ही है । और फिर बिरादरी के बाहर और द्रोही किसे करार दिया जा रहा ?

किसी के परिवारिक निजी जीवन से मुझे क्या मतलब । लेकिन औरत की जगह सिर्फ रसोई में है ऐसा कहने वालों के खिलाफ प्रोटेस्ट दर्ज़ करना मुझे ज़रूरी लगा । आर्थिक आत्मनिर्भरता औरतों के समान आधिकारों को सुगम करता है लेकिन सेफ पैसेज एंश्योर करे ऐसा अमूमन नहीं होता , इतना आप भी वाकिफ होंगे (इसके बारे में विस्तार से अगली बार , बहुत उलझा हुआ मसला है)। सदियों से पितृसत्तात्मक समाज में चलता आया पुरुष वर्चस्व सिर्फ मेरे एक पोस्ट लिखने से क्या बदल देगा लेकिन अगर कोई पैराडाईम शिफ्ट होना है कभी तो छोटे छोटे अनगिनत कदमों की ज़रूरत पड़ेगी । वैसे मानसिकता में कितना बदलाव आया है ये उस पोस्ट और उस पर आये स्त्री पुरुष टिप्पणियों से साफ ज़ाहिर होता है ।उसमें आप मेरे एक विरोध के स्वर तक को खारिज़ कर रहे हैं ? अभय ने तो बेमतलब और हास्यास्पद साबित किया ही है ।इस कोरस गान में एक बेसुरा सुर मात्र ?

आपने सही कहा जो है सामने है ,कोई तहलका रहस्योदघाटन नहीं और इतना साफ सामने इस लिये भी रखा गया क्योंकि ज्ञानजी शायद अपने को उदार सहिष्णु पुरुष समझते हैं (शायद रीताजी भी)। कोई बेजा बात कह रहे हैं इसका भान भी नहीं । तब भी नहीं जब उनकी अपेक्षा तनु से पढ़ाई की बजाय अच्छी खिचड़ी के अभय गुणगान की उम्मीदों से है और इस बात का भय कि अगर वो पढ़ती है तो खाना कौन बनाता है ? ऐसा उन्होंने कहा तो क्या गलत कहा । फॉरगिव हिम फॉर ही नोज़ नॉट वाट ही सेज़ ? लेकिन आप और अभय ? जो शायद सब जानते और समझते हैं ? ऐसी बातों पर मेल फ्रटरनिटी वाली सहोदरता काम आती है ? या अपनी पारिवारिक सहूलियतों की पक्षधरता ? आखिर कौन नहीं चाहता कि पत्नी कामकाजी या होममेकर , आपको घरेलू जंजालों से मुक्त रखे ताकि आप नेरूदा फेलूदा पढ़ते रहें ? आपकी इच्छायें ? और स्त्री की इच्छायें ? मैं ये चाहती हूँ ..तक भी कहने न दें ? आप कहेंगे मैं उदार हूँ , मैंने पत्नी को समान अधिकार दिया है । इस “दिया” शब्द से कभी परेशानी होती है ? नहीं होती क्योंकि आप आत्ममुग्धता में नहाये हैं कि मैं कितना प्रोग्रेसिव हूँ .. न सिर्फ बोलता हूँ , करता भी हूँ ।

माफ करें ... इस विषय पर सोचा था ठंडे दिमाग से अपनी बात कहूँगी । वो होता नहीं दीख रहा । शायद संभव भी नहीं । पुरुषों की भी गलती नहीं । जो इज़ीली अवेलेबल है उसे क्यों छोडें और जो स्त्रियाँ कभी अपनी उदारता में और कभी घुट्टी में पिलाये संस्कारों के दबाव में (कामकाजी होने न होने के बावज़ूद) दे रही हैं उस ऐपल कार्ट को क्यों हिलायें।यहाँ प्यार , स्नेह, कंसर्न में एक दूसरे के लिये किये गये बातों के परे उन इशूज़ की बात कर रही हूँ जो अंडर प्रेशर , अपने को तकलीफ में डाल कर दूसरे के लिये किया जाता है । मैं भी कोई तहलका नहीं कर रही सिर्फ जो है , जिसकी जानकारी आपको ,ज्ञानजी को या द्विवेदी जी को (अभी उनका पोस्ट पढ़ा जहाँ उन्होंने भी वही गलती दोहराई है कि मुझे रीताजी के चाय बनाने पर आपत्ति है । आश्चर्य होता है सचमुच कि कोर इशू को किस तरह ट्विस्ट किया गया , समझ को तो मैं क्वेश्चन नहीं करती ) है , उसे सामने एक बार फिर ला रही हूँ ।

आप बड़े मुद्दों पर सार्थक बहस छेड़ें । ये तो खैर मुद्दा तक भी नहीं कि उर्ज़ा नष्ट की जाये । आप मेरा लिखा पढ़ते हैं बिना जेंडर देखे....शुक्रिया । लेकिन मुझे अब डर होता है कि कोई ये प्रश्न न उठाये कि आप लिखती हैं फिर खाना कौन बनाता है ?

ब्लॉग दुनिया हमारे समाज का ही एक माईक्रोकोस्म है ।जो समाज में व्याप्त है वही न सिर्फ दिखा रहा है बल्कि करतल ध्वनि के साथ ग्लोरीफाई भी कर रहा है । ब्लॉगजगत से मेरी किसी भी दूसरी अपेक्षायें कितनी निरर्थक हैं इसका प्रमाण खोजने का भोंडा प्रयास न करूँ सो ही सही है । मेरी बातों को अन्यथा न लेंगे । आपके लिखे के प्रति एक रिगार्ड है जिसने इतना सब लिखवा दिया मुझसे । बहुत बातें हैं .. ढकी छिपी ही ठीक रहती हैं । कोई कोना उघाड़ कर अंदर की गंदगी प्रगट कर दूँ ,वहाँ जहाँ कोई वैली ऑफ द ब्लाईंड्स है , ऐसी बेवकूफियाँ बार बार नहीं करूँगी ।

प्रत्यक्षा

1/27/2008

आप कभी अकेले नहीं होंगे

बहुत दिनों पहले रेड इंडियंस के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था । कल नेट पर टहलते वो भाषण मिल गया जिसकी याद अटकी पड़ी थी । ऐसा आनंद आया जैसे भूला हुआ कोई खज़ाना हाथ आ गया हो । बीच में पिछले महीने ब्रूस चैटविन की सॉंगलाईंस पढ़ कर ऐसा ही कुछ आनंद आया था । औस्ट्रेलिया की स्पिरिचुअल हिस्टरी जिसमें वहाँ के आदिवासियों के अदृश्य रास्ते जहाँ से आदिम संगीत का सफर तय होता है जो पृथ्वी और जीव के उत्पत्ति की कहानी का रहस्य खोलते हैं , मनुष्य और प्रकृति के बीच का सीधा सरल तार । पढ़ कर ऐसा आनंद आया जैसे संगीत के सुर एक एक करके खुलते हों । और याद आई सियेटल चीफ की कहानी । और देखिये क्या गज़ब संयोग ।

तो इसकी बानगी पढ़िये ... अंगेज़ी में इसका अनुवाद किन्हीं डॉक्टर स्मिथ ने किया है जब चीफ सियेटल ये वक्तव्य सुक्वामिश भाषा में दे रहे थे और खुद स्मिथ महाशय के अनुसार अपने अनुवाद में मौलिक वक्तव्य की सुंदरता और सुघड़ता लेशमात्र नहीं ला पाये हैं । तो इस ऐडमिशन के बाद इसे हिन्दी में तर्जुमा करने की हिम्मत भी नहीं बनाई ।

सन 1851 में , सियेटल , सुक्वमिश कबीले के सरदार ने एक भाषण दिया था जो आज भी माना जाता है कि पर्यावरण पर यह सबसे प्रोफाउंड और सुंदर वक्तव्य है । सियेटल शहर का नाम इन्हीं के नाम पर है और यह भाषण उस ट्रीटी के अंतरगत दिया गया जिसके तहत रेड इंडियंस को दो मिलियन एकड़ ज़मीन मात्र एक लाख पचास हज़ार डॉलर्स में बेचने को मजबूर किया गया ।


“The Red Man could never comprehend or remember it. Our religion is the traditions of our ancestors -- the dreams of our old men, given them in solemn hours of the night by the Great Spirit; and the visions of our sachems, and is written in the hearts of our people.
Your dead cease to love you and the land of their nativity as soon as they pass the portals of the tomb and wander away beyond the stars. They are soon forgotten and never return.

Our dead never forget this beautiful world that gave them being. They still love its verdant valleys, its murmuring rivers, its magnificent mountains, sequestered vales and verdant lined lakes and bays, and ever yearn in tender fond affection over the lonely hearted living, and often return from the happy hunting ground to visit, guide, console, and comfort them.
It matters little where we pass the remnant of our days. They will not be many. The Indian's night promises to be dark. Not a single star of hope hovers above his horizon. Sad-voiced winds moan in the distance. Grim fate seems to be on the Red Man's trail, and wherever he will hear the approaching footsteps of his fell destroyer and prepare stolidly to meet his doom, as does the wounded doe that hears the approaching footsteps of the hunter.

A few more moons, a few more winters, and not one of the descendants of the mighty hosts that once moved over this broad land or lived in happy homes, protected by the Great Spirit, will remain to mourn over the graves of a people once more powerful and hopeful than yours.
But why should I mourn at the untimely fate of my people? Tribe follows tribe, and nation follows nation, like the waves of the sea. It is the order of nature, and regret is useless. Your time of decay may be distant, but it will surely come, for even the White Man whose God walked and talked with him as friend to friend, cannot be exempt from the common destiny. We may be brothers after all. We will see.

We will ponder your proposition and when we decide we will let you know. But should we accept it, I here and now make this condition that we will not be denied the privilege without molestation of visiting at any time the tombs of our ancestors, friends, and children. Every part of this soil is sacred in the estimation of my people. Every hillside, every valley, every plain and grove, has been hallowed by some sad or happy event in days long vanished.

Even the rocks, which seem to be dumb and dead as the swelter in the sun along the silent shore, thrill with memories of stirring events connected with the lives of my people, and the very dust upon which you now stand responds more lovingly to their footsteps than yours, because it is rich with the blood of our ancestors, and our bare feet are conscious of the sympathetic touch. Our departed braves, fond mothers, glad, happy hearted maidens, and even the little children who lived here and rejoiced here for a brief season, will love these somber solitudes and at eventide they greet shadowy returning spirits.

And when the last Red Man shall have perished, and the memory of my tribe shall have become a myth among the White Men, these shores will swarm with the invisible dead of my tribe, and when your children's children think themselves alone in the field, the store, the shop, upon the highway, or in the silence of the pathless woods, they will not be alone. In all the earth there is no place dedicated to solitude. At night when the streets of your cities and villages are silent and you think them deserted, they will throng with the returning hosts that once filled them and still love this beautiful land. The White Man will never be alone.”




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एक फुटनोट लिखने की इच्छा हुई है आज । पिछले दो तीन दिनों के प्रकरण में कुछ चीज़ें साफ हुईं । पहला ये कि अभय वाकई ‘जेंटलमैन’ हैं । लेकिन कोई सार्वजनिक स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत नहीं थी । ऐसा करके उन्होंने सिर्फ मित्रों के असंतुलित बेचैन उद्गारों की बेमतलबता को रेखांकित किया । ज्ञानजी की समझदारी पर उन्हें विश्वास तो था ही फिर उन्हें सफाई देने की कोई ज़रूरत तो नहीं ही थी । दूसरे ज्ञानजी में वाकई सेंस ऑफ ह्यूमर है , ये तो हमारी कमी है कि इसे देख नहीं पाये वरना रीताजी नेरुदा न पढकर चाय बनाना चाहें और ज्ञानजी सिर्फ और सिर्फ चाय पीनी चाहें उसमें हमें कैसा उज़्र :-)। मुझे पक्का और पूर्ण विश्वास है कि निजी जीवन में ज्ञानजी और रीताजी का भी उतना ही सौहाद्रपूर्ण और परिपक्व रिश्ता है जितना अभय और तनु का । रही बात शिव जी की तो वो शायद उतने ही हड़बड़ प्रतिक्रिया देने वाले हैं जितना कि हम । सो एक साम्य तो है । हाँ उनका लिखा ये पहला पोस्ट मैंने पढ़ा । इसके पहले उनका ब्लॉग मैंने नहीं देखा था । खैर उन्होंने हमारा देखा था पर सब टैंजेंट गया था तो यहाँ भी हम एक ही लेवेल पर हुये अंतत: ..एक दूसरे के लिखे से अपरिचित।

और शिव जी को बता दें कि ये ज़रूरी नहीं कि किसी एक मुद्दे पर सार्थक बात करने के अधिकारी हम तभी बनते हैं जब हमने सारे मुद्दों पर बहस और जंग छेड़ी हुई हो पहले से । दूसरी बात कि नौ से छे की नौकरी करने के बाद नेरूदा न सिर्फ पढ़ते हैं , समझते भी हैं । जितनी दखल वित्तीय मसलों पर है उतना ही साहित्य पर रखने का मुगालता भी । और जब पढ़ते हैं तो चर्चा भी करते हैं । आप इसमें अपने रिवर्स स्नॉबरी से हमें आतंकित तो न ही करें।

और चूँकि पढ़ते हैं ,लिखते हैं , नौकरी करते हैं , घर चलाते हैं , खाना पकाते हैं , सोचते हैं .... लगातार सोचते हैं तो कई बार फेंससिटर्स वाली समझदारी और अभय की उर्जा बेकार न करने वाली थ्योरी की सेंसीबिलिटी जानने के बावज़ूद ऐसी बेवकूफियाँ हो जाती हैं जहाँ समझदारी वाकई गड्ढे में गिर जाती है ।


जिन लोगों ने मुद्दे की गंभीरता को समझा ,उनका बहुत शुक्रिया ।

1/26/2008

आई अक्यूज़ ... फिर भी मुझे गुस्सा नहीं आता

एमिल ज़ोला ने 1898 में अल्फ्रेड ड्रेफस के बचाव के लिये लिखा था “ज़ाकूज़ , आई अक्यूज़ , मैं इलज़ाम लगाता हूँ “.... और मुझे अभी ऐसा ही लग रहा है कि जब मैं अक्यूज़ करूँगी तो मेरी उँगली किधर उठेगी ... उस तरफ जहाँ कोई स्त्री अगर पढ़ती है तो किसी को भय उपजता है ( क्यों भला , कितने इनसेक्योर हैं आप , कितनी छोटी क्षुद्र आकाँक्षायें और भय है आपकी कि आप ऑफिस से थक हार कर घर आयें और चाय की जगह नेरूदा की कवितायें मिले , तो आप डर जायें ? वैसे भी नेरूदा कितना पल्ले पड़ेगा , जीवन की किताब तो हम सब पढ़ ही रहे हैं , इतना ज्ञान काफी नहीं ? इससे ज़्यादा ज्ञान की ज़रूरत आपको नहीं लेकिन अगर किसी का क्षितिज़ ज्यादा फैलाव लिये है , कोई दूसरी दुनिया की समझ किसी और को है , किसी का अंतरलोक इतना विशाल है तो आप क्यों डरते हैं ? या अगर कहें डर वाजिब है तो ज़्यादा समझ आता है । आपकी फ्यूडल मानसिकता को क्वेशचन जो किया जा रहा है )

या उस दूसरी तरफ जिस तरफ वो लोग हैं जो इस भय के हास्यास्पद अक्सेपटेंस में ह्यूमर तलाश रहे हैं । नीचे वाली सीढ़ी से चढ़ कर औरत ऊपर , आपसे ऊपर न आ जाये ऐसा ही कुछ भय जिसे हँसी से छुपाया जा रहा है , जैसा कुछ भास हो रहा है । पॉलिटिकल और जेंडर करेक्टनेस के परे ज्ञान और विज़डम की बात , नोंकझोंक और चुहलबाजी ? अपने ऊपर हँस लेने की कला कौशल ? क्या है ये ?

मुझे अमूमन गुस्सा इन चीज़ों पर नहीं आता । हमें हमारा हक चाहिये जैसी नारेबाजी में मेरा विश्वास नहीं । मैं किसी पुरुष के बराबर हूँ मैं ऐसा मानती हूँ ऐसा व्यवहार करती हूँ । ये कोई लड़ाई नहीं सिर्फ अ स्टेट ऑफ बीईंग है । मेरे लिये । किसी और के लिये कोई और तरीका होगा खुद को साबित करने का । उससे मुझे उज़्र नहीं । कोई जरमेन ग्रीयर और सिमोन बोवुआ वाली फेमिनिस्म की बात भी नहीं करना चाहती । लेकिन कोई पुरुष अगर कहे , तुम औरत हो अपनी औकात में रहो , रसोई में रहो , अपने मन को मार कर रहो , बुद्धि और ज्ञान से दूर रहो , दुनिया से दूर रहो .... तो मैं कहती हूँ पहले आप अपनी औकात को पहचाने .... अपनी इनसेक्यूरिटी को पहचानें , अपनी क्षुद्रता को पहचाने , अपने भय का सामना करें , अपने स्व का सामना करें ।

ये हम पर छोड़ दें कि हम तय करें हम क्या हैं कौन हैं । कि हम औरतें सेकेंड सेक्स हैं तो इसका ये मतलब नहीं कि आप पहले हैं , कि कोई खेल एक्स और वाई क्रोमोज़ोम्ज़ मात्र का ही है , कि आपकी बेटी तो घर की राजदुलारी है लेकिन आपकी पत्नी मात्र रसोई की रानी है ? आप ये सब तय नहीं करेंगे कि आप किसको क्या हक देंगे , कितनी ज़मीन देंगे । कि ये तय करने का अधिकार हमारा होगा कि हम क्या और कहाँ तक लेंगे । डरें मत । हमारे अंदर एक उदारता है । क्या आपके पैर के नीचे की ज़मीन खिसक रही है ? क्या आपको लगता है कि आधी दुनिया के बाशिन्दे पूरी दुनिया पर राज करेंगे ?निश्चित करेंगे , तब आप चाय भी बनायेंगे और अगर औकात रही तो नेरूदा भी डिसकस करेंगे ... हमारे साथ । तब तक के लिये ... गुडलक !



(ये पोस्ट बिना स्माईली वाली पोस्ट है और न तो पॉलिटिकल न जेंडर न मॉरल ...किसी भी करेक्टनेस की कोई कहानी नहीं है यहाँ । )

1/23/2008

सैलानी सफर उर्फ आओ कलन्दर केशवा

बस पहाड़ी रास्तों पर हाँफते धीमे रफ्तार डीज़ल का धुँआ उगलते चढ़ रही है । औरत की साँस ऐसी फूलती है जैसे वही बस को ठेल रही है पहाड़ों पर । एक के बाद एक इस चोटी के पार अब दूसरी चोटी । बस में उलटी की खट्टी बसाईन महक फैली है । तेरह चौदह साल की लड़की बेहाल है , बेदम है उल्टी करते करते । उसकी माँ कभी नीबू पकड़ाती है कभी लौंग । एवोमिन का भी असर नहीं हुआ इसबार , ज़रा हैरानी से सॉलिलॉकी करती है । माँ की बात पर लड़की बेहाल भी शर्मिन्दगी से चोर नज़रों देखती है आसपास । उस पर किसी की नज़र नहीं है । यहाँ तक कि ज़रा लम्बे बालों वाला हीरो टाईप छोकरा भी उसे नहीं बगल की सीट पर बैठी तीसेक साल की उस औरत पर निगाह धरे है जो छ महीने के गदबद बच्चे पर कभी निहाल कभी चिड़चिड़ा रही है ।

ड्राईवर का चेहरा रियर व्यू मिरर में निर्विकार है । शायद सोचता हो घर जाकर पैर फैलाकर ज़रा देह सीधी करे । खलासी लगातार बीड़ी धूक रहा है । दुबला पतला चिरगिल्ला । बायें हाथ की कानी उँगली के नाखून को बढ़ाकर खूब लहालोट लाल नेलपॉलिश लगाई है । गले में मोटी चाँदी की जंजीर , पतली सिकिया छाती पर माँ शेरांवाली विराजती हैं । मतलब अपने लिहाज़ से है एकदम चकाचक । सब तैयारी भरपूर । भीमताल के पास किसी गाँव में अपनी माशूका की याद में दरवाज़े से लटके मुस्कुराता है लगातार । बीस सीढ़ी चढ़ कर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिव पार्वती की मूर्ति के आगे बेलपत्र चढ़ाते साष्टांग दंडवत होकर पिछले हफ्ते जो मन्नत माँगी थी सो होगी पूर्ण इसी विश्वास से सवारियों को नैनीताल उतार कर ट्रेकर से लौटेगा भीमताल ।

लड़की अब खिड़की के रेलिंग से सर टिकाये पस्तहाल है । भागती हरियाली , नीला आसमान ,बीच बीच में कौंधता अँगूठी के नग सा जड़ा सात ताल , चीड़ के पेड़ , बंदरों का झुंड , ढलानों पर जीजान से लटके टप्पर वाले घर जो अब गिरे तब गिरे पर टिके टिके , गुमटी पर भाप उड़ाते मुड़ कर दमा के मरीज से हाँफते रोज़ के इसी टाईम पर जाते पर फिर भी देखते , हर बार बिना नागा देखते बस को ताकते , समय बिताते ठंड से सिहरते पॉकेट में मुट्ठी बांधे हाथ गरमाते निठल्ले ठल्ले लोग ...इन सब को अनदेखा करते किसी पिक्चरपोस्टकार्ड में कैद सब । सब ।

सैलानियों के झुंड मोलभाव करते खरीदते , पता नहीं किसके लिये और क्यों ? कितनी चखचख , पचास रुपये की चीज़ के लिये कितनी मोलाई पर उस बंगाली महिला ने चार रुपये छुड़वा ही लिये हैं , दस का पिक्चर पोस्टकार्ड , रंगीन छाता , लकड़ी के कभी न काम आने वाले चाभी लटकाने वाला ताला और ट्रे , बच्चे का यो यो , चाईनीज़ मार्केट से परफ्यूम और अंडरगार्मेंट्स , डिजिटल घड़ी और बैटरी वाले खिलौने। विजयभाव से ओतप्रोत उसकी आवाज़ अपनी सहेली को नया दाम बताते और तेज़ हो गई है ।

मेहरू को आज मालकिन ने पुराना बैग दिया । पड़ताल करते कि कितना काम आयेगा ? आखिर हरवक्त ऐसी ही चीज़ पकड़ायेंगी जिसका कोई इस्तेमाल न हो , देखती है सफेद लिफाफे में पोस्टकार्ड , बैग के तल में बिछाये अखबार के तहों में चमकता .... कागज़ों पर पहाड़ , ताल , पेड़ और घुमावदार सड़क पर चढ़ती धुँआ उगलती एक सैलानी बस ।

1/22/2008

कोयलिया मत कर पुकार

बजेगा नगाडा कोई कहीं दूर पास धक्क से । पिघल जायेगी तरल तरल कोई नदी , कई शिलायें बर्फ की ? फूटती है जैसे अल्ल सुबह कोई हरे खिच्चे पत्तों में बन्द ओस । और ठीक उसी वक्त , बस ठीक उसी वक्त वही वही स्वर निकलेगा उस पुराने ग्रामोफोन से । सुर और ताल के टेढे मेढे रास्ते तय करता फिसल आयेगा गले से नीचे किसी नस के सहारे ,धमनियों में , गाढे मीठे शहद सा । कोई गीत बजेगा रात भर गले की हड्डियों के सुबुक गड्ढे में । हर उठती गिरती थरथराती साँस के साथ टिका होगा बस जीभ के नोक पर ज़बान तक पहुँचने के बस ज़रा सा पहले । शब्द , धुन सब बिसराये से किसी पुरानी चोट का भूला हुआ दर्द जो टीस न मारे । स्मृतियाँ किसी मार्चिंग सॉंग की धुन पर बहकेंगी मचलेंगी इठलायेंगी । हटाओगे उन्हें फिर किस बेरहमी से ? आह कितनी भीतरघुन्नी कैसे समेट रखा हिफाज़त से ।अब देखो कोई कोना उघड़ेगा बस इतनी सी बात फिर सब होगा जगज़ाहिर जैसे झाँकता बच्चा किसी ओट से ।

1/17/2008

डायल एम फॉर मर्डर

अँधेरा मुँह पर दाबा चादर थी ,दम घोंट देने वाली । घड़ी की टिकटिक सन्नाटे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और समय बीत रहा है की घोषणा पूरे दमखम से कर रही थी । मेरी उँगलियाँ पसीज रही थीं । मर्डर वेपन महफूज़ है ये बार बार चेक करने के बाद भी फिर आश्वस्तता चाहता था । यही बात सूचक थी कि अंदर से मैं कितना घबड़ाया हुआ था । पहली बार हर बार ऐसा ही होता है । चाहे पहला प्यार हो , प्यार की पहली लड़ाई हो , पहला रूठना मनाना हो , पहली नौकरी हो , पहला जन्म या पहली मृत्यु .. या पहला मर्डर .... देख लें आप , हर बार ऐसा ही लगता है किसी आँधी तूफान से गुज़र कर आये हों , बैटर्ड पर सुरक्षित । सिर्फ मृत्यु के पार पता नहीं कैसी सुरक्षा ? आज का शिकार भी तो मृत्यु के पार पहुँचेगा ही , सशरीर नहीं अशरीर ।

ये पूरी प्रक्रिया कुछ कुछ लैब में एक्स्पेरीमेंट करने जैसी बात हो गई । लाईब्रेरी में बैठकर खतरनाक ज़हर जैसी पोथियाँ उलट लीं , आर्सेनिक , स्ट्रिखनाईन या साईनाईड । आज पता चला कि कितना सीमित ज्ञान लेकर भटक रहे थे । अगाथा क्रिस्टी , शरलॉक होम्ज़ और चेज़ के अलावा कुछ पढ़ा ही नहीं था । दो रुपये में गुमटी वाले से अलबत्ता किराये पर लाये कर्नल रंजीत और वेदप्रकाश शर्मा टाईप किताबें भी कुछ अरसे भक्ति भाव से घोंटी थीं पर याद नहीं आता कि कोई ज़हर से मर्डर किया गया हो वहाँ । खैर जैसे भी हो मारना ही है उसे आज । उसे देखते ही जाने कैसी जुगुप्सा की लहर दौड़ जाती है , हाथ पाँव काँपने लगते हैं , शरीर का एक एक रोंआ खड़ा हो जाता है , दिल धड़क कर बाहर । ओह कैसी वीभत्स स्थिति हो जाती है । क्या सायकॉलजी इस घृणा की । निजात पाने का बस एक तरीका ... खल्लास , दो इंच कर दो छोटा । महीने भर से इम्प्लीमेंटेशन प्रोग्राम चल रहा है । कैसे किया जाय , किस उपाय से और फिर बॉडी को कैसे निपटाया जाय । रस्सी , चाकू , पिस्तौल , ज़हर । सब ओपशंस पर खूब सोच विचार किया गया है । स्टेप बाई स्टेप कैसे कत्ल किया जाय हज़ार दफे दोहराया गया है । अब तो आँखे मून्दे कत्ल किया जा सकता है । देखो फिर भी आज डी डे या डी नाईट और कैसा दहशत सना डर है । बस एक पल का खेल फिर बॉडी डिस्पोज़ किया और मुक्ति !

उसकी भी नींद खुल गई है । घुप्प अँधेरे में उसकी आँख मुझ पर टिकी हैं । मेरा मर्डर वेपन मेरे हाथ से फिसल गया है । मैं महसूसता हूँ गर्दन पर के रोंये को खड़े होते हुये , मेरी योजनाओं को नाकाम होते हुये । ऐसे मुझे वो देखते रहे और मैं चाकू क्या चप्पल तक न उठा पाऊँ । अपनी बेबस लाचारी से खुद मुझे घिन हो रही है । पसीने से ठंडे होते अपने शरीर को किसी प्रत्यंचा सी तनी रखे कब मैं नींद में ढुलक जाता हूँ । सुबह उसकी उपस्थिति रसोई में , फ्रिज में .. पूरे कमरे में दिखती है । शायद उसे भी मेरे कातिलाना हमले की पूरी आशंका है , जानकारी है । बिना बोले हम घात प्रतिघात के चौकन्ने खेल में रत हैं । मैं जीतूँगा या वो ?

आज मैं बहुत खुश हूँ । दफतर में अनिल शानबाग ने एक अचूक नुस्खा मेरी समस्या का बताया है ।

“अरे यार मैंने सक्सेसफुली उससे छुटकारा पाया “

“ अच्छा ! और किसी को कानोकान खबर नहीं हुई ?”

” किसी को भी नहीं “

“ और डिस्पोज़ल का क्या ? “ , मैं थोड़ा हकलाया । “ मतलब स्मेल वगैरह , यू नो दुर्गंध बहुत जल्दी फैलती है न “

“ अरे नो प्रॉब्लेम भाई , नो स्मेल , नो लफड़ा , ओनली ईज़ी सॉल्यूशन आई टेल यू , गेट अ मॉर्टीन रैट किलर । कमबख्त खायेगा अंदर और जाकर मरेगा बाहर। “





( सेरा फॉरेस्टर का स्केच है ये , वैसे मैं भी ऐसा बना सकती हूँ , आप भी :-) शायद

1/13/2008

एक दुनिया और एक सफर और

कमरे में दो दीवार पर छत से लेकर ज़मीन तक आलमारी थी , लकड़ी की । तीसरे दीवार पर खिड़कियाँ थीं लम्बी शीशे वाली जहाँ से धूप की नदी अंदर आती थी । चौथी दीवार अभी खाली थी । लकड़ी के फर्श पर कार्टंस ही कार्टंस थे । हम किताबों की कैटलॉगिंग कर रहे थे । अल्फाबेटिकली , फिर नम्बर चिपकायेंगे फिर आलमारियों में सजायेंगे । मैं किताब उठाती और उसके कवर में खो जाती । कोई हवा में भागता आदमी जिसके आउटलाईंस स्मज हो जाते हैं या कोई चेहरा जो फेडआउट हो जाता है सिर्फ आँखें रह जाती हैं इतना बोलती हुईं या फिर रेत और समुद्र का कोई भूला टुकड़ा या किसी खिड़की के अंदर से झाँकता कमरे का कोना या कोई साईकिल इंतज़ार में ... कोई जर्नी ऑफ एम्बार्कमेंट । मैं चल पड़ती विली निली । सिधु मेटिक्यूलस है । नम्बर का स्टिकर टेढ़ा हो उसे दिक्कत होती है । शेल्फ पर किताबें आड़ी हों उसे दिक्कत होती । मैं किताबों के पन्ने सूँघती , उँगलियों से कागज़ सहलाती , उलटती पलटती । अगर कुछ दिलचस्प लाईन दिखी तो मैं पढ़ने भी लग जाती । मैंने जीन रीस ऐसे ही पढ़ डाली , फर्श पर ओठंगे हुये खिड़की से टिके हुये अन्ना मोरगन के साथ वेस्ट इंडीज़ और लन्दन के थियेटर्स तक उसकी मासूमियत के खोने की अँधेरी यात्रा में उसके साथ हो ली । सिधु नाराज़ होता रहा , अकेला काम करता रहा । नाराज़गी में उसकी एफीशियेंसी बढ़ती जाती । मैं अकेली मोनैको और आर्मीनिया , कोर्फू और काहिरा घूमती रही । किसी ग्रीक मछुआरों के संग भूनी मछली खाती रही , चाँदनी रात में रेत पर बैठे शराब पीती रही , बसरा की तंग गलियों में मोलभाव करती कहवा पीती रही , कोई जार्जियन चर्च में ऑरगन सुनती रही , काफे बूलवार में उस बूढ़े ट्रम्पेट बजाते आदमी की उलटी रखी टोपी में कुछ नोट डालती रही । और सिधु नाराज़ होता रहा ।

हमारा काम हफ्ता खिंचता रहा । अभी तक हम सिर्फ पी तक पहुँचे थे एज़रा पाउंड और टॉमस पायेन और अभी से मुझे एस दिखाई दे रहा था ..... सैलिनगर और सरोयान , स्टाईनबेक और सिनक्लेयर । मुझे पी खत्म करने की हबड़ तबड़ थी । सिधु भी स्टाईनबेक देखना चाहता था पर अपनी उत्तेजना काबू में रखना उसे आता था । अंडर टाईट लीश । मुझमें जन्मजात सब्र की कमी थी । आलमारी वाली दीवार अब सुंदर लग रही थी । जैसे सफेद कैनवस पर ऐक्रीलिक रंग । मेरी त्वचा सिहरने लगती । मैं चुप बैठे कितनी भी देर उस भरी आलमारी को देख सकती थी , फिर किताबों के स्पाईन पर उँगलियाँ फिरा सकती थी जैसे लोग अपने प्यारे पालतू स्पित्ज़ और सेंट बर्नार्ड को दुलराते हैं । मुझे जाने कब की पढ़ी किताब याद आती जिसमें एक औरत इतनी बूढ़ी और लाचार है , जो देख नहीं सकती पर जो फिर भी जगहें घूमना चाहती है और उसके साथ के लोग खूब एलाबोरेट इंतज़ाम करते हैं जिसमें उसे ऐसा लगे , अपने कमरे में बैठे बैठे कि वो सफर कर रही है , नई जगहों पर पहुँच रही है , स्टेशन की आवाज़ें , टैक्सी की , किसी खास बीच , वहाँ की महक , शोर गुल , हॉकर्स की चिल्ल पों , सब रेप्लीकेट की जाती । मैं भी ऐसी ही किसी जगह से दुनिया घूम रही थी । एक धूप के टुकड़े में बैठकर समुद्र की लहरों को सुनती थी , रोटी के टुकड़े चबाती और मुँह में किसी पीटा ब्रेड का स्वाद पाती , बोतल से पानी पीती और अंगूर के शराब की खुशबू जीभ पर महसूसती ।ऐसा प्यार मैंने और किसी के लिये नहीं महसूस किया , कभी नहीं किया । ये दिन मेरे सबसे अच्छे दिन थे ।

हाँ सिधु से कोई पूछे तो वो क्या कहे ? किताबों से उसे भी प्रेम था । पर उसका प्रेम अनुशासित प्रेम था । किताबों का प्रकाशन किसने किया , लेखक किताब लिखते वक्त कितनी उम्र का था , कवर इलसट्रेशन किसने डिज़ाईन किया , बाईंडिंग कैसी है , छपाई कितनी सुबुक है , पेपर क्वालिटी बुरी है , ऐसे गंभीर मुद्दों से निपटने के बाद कहानी की बारी आती । उसके पागलपन में भी एक तरतीब थी , पाबन्दी थी नियमबद्धता थी । मैं पानी में सर के बल कूद जाने वाले जुनून से किताब की कहानी में छलांग लगाती , गोते खाती ढेर सारा पानी उछालती किसी नौसिखिये तैराक की अबाध खुशी से किताब पढती । फिर मुझे दुनिया जहान की सुध नहीं होती ।

आज सिधु नहीं है । अंतिम कार्टन खोले मैं किताबों के ढ़ेर , कुछ गोद में लिये ज़रा उदास बैठी हूँ । सिर्फ डब्लू एक्स वाई ज़ेड ......एलिस वाकर और वल्ट विटमैन ,यामामोटो और ज़ुकोफ्स्की..... हाथ में मेरे वर्जीनीया वुल्फ और गोर विडाल हैं । काम खत्म सा हुआ । बोतल का पानी आज सुसुम है । कोई अंगूर अनार के रस की खुशबू नहीं , कोई पोलर बीयर बर्फ पर अकेला नहीं घूम रहा , कालाहारी में बुशमेन का कबीला शिकार के तलाश में नहीं भटक रहा , नेबुचेडनज़र बेबिलोनिया का राजा राज नहीं कर रहा , रानी हातशेपशुत किसी पुरुषवेश में राजगद्दी पर कब्ज़ा नहीं कर रही । आज सिर्फ एक्स वाई ज़ेड है । मैं किताबों से भरे इस कमरे में बैठी हूँ ओरलैंडो उठा कर देख रही हूँ और अचानक सम्मोहित हो जाती हूँ उस आदमी से जिसने तय किया था कि वो बूढ़ा नहीं होगा और जो एक दिन उठने पर पाता है कि वह एक औरत में बदल गया है । मेरा जादू फिर शुरु होता है । धूप अब भी खिड़की के काँच से अंदर आ रही है । आज शायद ही काम खत्म हो , मैं सिहरती खुशी से सोचती हूँ ।

1/10/2008

मछली और सुख

मछली के गलफड़ में फँसा काँटा देखा है कभी ? जितना गहरे जाती है बचने को उतना अँदर धँसता जाता है । बस ऐसे ही काँटा धँसा है छाती में , हर साँस पर भारी होता जाता है ।इतना बोझ कैसे ढोयें दिल चाक चाक होता जाता है । औरत छाती पर हाथ धरे बात करती है अपने आप से । कभी उस छाया से भी जो दीवार से छत और छत से रौशनदान होते खिड़की से बाहर फिर अंदर करती रहती है । औरत सीधी है । उसे सब बातें सीधी दिखती हैं । कुछ टेढ़ा दिखता है तो भी झट से सीट साट करके सीधा कर लेती है जितना बन पड़े उतना भर । आदमी सीधा नहीं है । खूब खूब टेढ़ा है जलेबी जैसा । और जब नहीं है तो अपने किसी स्वार्थवश नहीं है । औरत कितनी भी सीधी क्यों न हो इस बात को ,औरत के पीठ पर भी आँख , वाली बात से इस बात को समझ जाती है । फिर भी इस सीधे टेढ़े का खेल चलता है , उसका सुख और इसका दुख चलता है । सुखी होने के चरम सीमा पर भी हर बार बिना नागा दुख की नदी औरत की छाती को बहा ले जाती है । फिर सब ,पेड़ घर मवेशी टप्पर , सब उपला जाते हैं बहते पानी पर । सपना अपना संग साथ सब तिनके सा डूबता उतराता है । आदमी निर्विकार देखता है । औरत सोचती है ये देखता तो है पर इसे दिखता क्या है ? कुछ दिखता है भी कि नहीं ? मैं दिखती हूँ ? मेरी तकलीफ दिखती है ?

आदमी भात खाते सोचता है अब एक बीड़ी । फिर खुले आसमान के नीचे बाँहों पर सिर धरे खटिया पर चित्त लेटे तृप्ति की साँस लेता है । औरत अंदर कोठरी में खाली ढेंगराये बरतनों से खुरचन समेटती निकालती मुट्ठी भर भात । प्याज़ और मिर्चें के संग खाती उदास होती है । छाती पर पत्थर लटकाये भारी कदमों से डोलती है कुछ पल इधर उधर ,रोकती है छोड़ती है साँस भरती उसाँस देखती है नज़रें एक पल चारों दीवार ! सब सर्द है सब ठंडा । सोचती है काश सरल होता मेरा मन । जैसे सीधी हूँ मैं वैसा सीधा होता मेरा मन , हर वक्त उभचुभ न करता । होने न होने के द्वंद में न फँसता । भात और तरकारी खाकर सुखी रहता । इस न सोचने , न देखने वाले आदमी के संग सुखी रहता । काश । मन उस फुदकती गौरैया जैसा होता । सिर्फ दाना चुगता खुश होता । क्या सोचती होगी ये गौरैया । न स्मृतियों का भार , न भविष्य की आशंका ? न आज के व्यर्थ होते जाने का बोध । न कुछ चुकते जाने का दर्द । औरत क्षण भर सोचती है , लाल काँच की चूड़ियों को सूखी कलाई पर आगे पीछे करती है फिर हँसुआ लेकर बैठ जाती है । मछली काटती है , सिल पर सरसों का मसाला पीसती है , दो बून्द आँसू उस मसाले में गिराती है । रात आदमी मछली के झोल के साथ भात खाता डकारता है । आज मछली बहुत अच्छी बनी ।

1/08/2008

यहीं कहीं मेरी स्मृति में

मेरा शहर पहाड़ी रास्तों का शहर था , लाल मिट्टी का शहर था । नीले आसमान और हरे पत्तों का शहर था । कुहासे में डूबे थरथराते रौशनी की पीली फीकी रंगत में भाप उड़ाते लाल गाल वाले बच्चों का शहर था । घरों के टूटे काई लगे बरामदों में निवाड़ की चारपाई पर काली आँखों बिटर बिटर ताकते बूढ़ों का शहर था जिनके चेहरों से सदाशयता टपकती थी बेहिसाब समय की तरह , जो किसी भी राह चलते राहगीर से हाल पूछ सकते थे इस आश्वस्तता के साथ कि कोई जवाबी मुस्कुराहट हुक्के की गर्माहट भर देगी हाथों में , बलगम धँसे छाती में । ढ़ेरों लकीरों में जीवन की अनगिनत सालों की कहानी कौन जाने कोई सुनेगा कि नहीं । और कोई सुन लेगा तो पोपली हँसी की उजियारी चमक अब भी कौंध जायेगी । मेरा शहर सुस्त रफ्तार का शहर था , हर समय लॉंग़ स्लो मोशन में फिलमाया गया सिनेमा , सीपिया रंगों में जैसे बिसरी स्मृति दिखाते हैं बस वैसे । मेरा शहर शहर था जीवन था समय था । मेरे जैसे कितनों का एक हिस्सा समय । मन में बसा ...... स्टिल फोटोज़ के फ्रोज़ेन मोमेंट्स ।

और अब मैं खोजती हूँ शहर को । कहीं भी नहीं वो शहर । जहाँ है वहाँ भी नहीं वो शहर । रेलवे स्टेशन पर फलों की पेटियों से निकले पुआल के गट्ठर और व्हीलर की काठ की बुकस्टॉल में सजे बेस्टसेलर , एकाध इलिया कज़ान और ग्राहम ग्रीन और शायद फटी पुरानी हाईनरीख बोल , कोई एक गुनाहों का देवता की डॉग इयर्ड कॉपी ? काले कनकट्टे कुत्ते की शातिर चालाकी और भूरी बिल्ली का अलस चौकन्नापन ? इनमें भी नहीं मेरा शहर । पसरे रेलवे ट्रैक के रोड़ों पर दूर जाती लाईन का जाल खोता है किसी साल वन में । मोटे धारीदार गिलास में दूध वाली खौलाई चाय को दोनों हाथ से पकड़े सुड़कते हरे बेंच पर ज़रा से धूप के टुकड़े में गरमाते , जान लेती हूँ उसी अजीब निस्पृह उदासी से । अब मेरा शहर कहीं रहा नहीं ।

1/01/2008

तरसत जियरा हमार ( ओ मेरी सोनचिरैया ऐसे मत होना फुर्र )

आग की लपट रह रह कर लपकती चमक जाती थी आँखों की पुतलियों में । लकड़ी के पतले फट्टों में किसी बरसाती साल की नमी कैद थी , आज रह रह निकलती कौंधती थी , एक चिंगारी कूदती थी बेखौफ । उबल जाता था एक एक , जाने कितने बुलबुले भूरे लसलसे । झुरझुराता था पल को गर्मी से , तेज़ आँच से फिर सिकुड़ विलीन हो जाता था । राख , गर्म राख का ढेर ,कल कराना होगा साफ पर अभी इस फायरप्लेस के आगे , तापते आग को , चेहरे पर रोकते मुट्ठी में भरते देखते हैं बीतते । कल से समय का नया होगा नाम एक नम्बर आगे पर समय ? क्या वही होगा ? नींद में झुकती हैं आँखें , सपने टिकते हैं पलकों की नोक पर , काँपता है भाग्य सहमती है नियति , गणेश जी की मूर्ति पर गेंदे का फूल , चाँदी के दीये में जलती है बत्ती ! गाती है हवा , हँसता है पानी । फिसल जाता है रेतकण , करता है नृत्य उन्मत्त बेमत्त । गिरता है मन किसी गड्ढे में , पड़ते हैं पैर किसी सूरज पर । हल्का होता बदन छूता है धरती को चिड़िया का पँख ! हवा में खींचता है रंग कोई अमूर्त चित्र । धूप में खिलखिलाता है दिन फूँकता है सरगम किसी बाँसुरी में लम्बी तान । आती है आवाज़ किसी ग्रामोफोन से । गाती हैं रसूलन बाई कजरी । तरसत जियरा हमार । काला तवा घूमता है । डूबता है मन घूमता है मन किस अदृश्य जाल में ? ओ मेरी सोनचिरैया ऐसे मत होना फुर्र ।