1/23/2008

सैलानी सफर उर्फ आओ कलन्दर केशवा

बस पहाड़ी रास्तों पर हाँफते धीमे रफ्तार डीज़ल का धुँआ उगलते चढ़ रही है । औरत की साँस ऐसी फूलती है जैसे वही बस को ठेल रही है पहाड़ों पर । एक के बाद एक इस चोटी के पार अब दूसरी चोटी । बस में उलटी की खट्टी बसाईन महक फैली है । तेरह चौदह साल की लड़की बेहाल है , बेदम है उल्टी करते करते । उसकी माँ कभी नीबू पकड़ाती है कभी लौंग । एवोमिन का भी असर नहीं हुआ इसबार , ज़रा हैरानी से सॉलिलॉकी करती है । माँ की बात पर लड़की बेहाल भी शर्मिन्दगी से चोर नज़रों देखती है आसपास । उस पर किसी की नज़र नहीं है । यहाँ तक कि ज़रा लम्बे बालों वाला हीरो टाईप छोकरा भी उसे नहीं बगल की सीट पर बैठी तीसेक साल की उस औरत पर निगाह धरे है जो छ महीने के गदबद बच्चे पर कभी निहाल कभी चिड़चिड़ा रही है ।

ड्राईवर का चेहरा रियर व्यू मिरर में निर्विकार है । शायद सोचता हो घर जाकर पैर फैलाकर ज़रा देह सीधी करे । खलासी लगातार बीड़ी धूक रहा है । दुबला पतला चिरगिल्ला । बायें हाथ की कानी उँगली के नाखून को बढ़ाकर खूब लहालोट लाल नेलपॉलिश लगाई है । गले में मोटी चाँदी की जंजीर , पतली सिकिया छाती पर माँ शेरांवाली विराजती हैं । मतलब अपने लिहाज़ से है एकदम चकाचक । सब तैयारी भरपूर । भीमताल के पास किसी गाँव में अपनी माशूका की याद में दरवाज़े से लटके मुस्कुराता है लगातार । बीस सीढ़ी चढ़ कर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिव पार्वती की मूर्ति के आगे बेलपत्र चढ़ाते साष्टांग दंडवत होकर पिछले हफ्ते जो मन्नत माँगी थी सो होगी पूर्ण इसी विश्वास से सवारियों को नैनीताल उतार कर ट्रेकर से लौटेगा भीमताल ।

लड़की अब खिड़की के रेलिंग से सर टिकाये पस्तहाल है । भागती हरियाली , नीला आसमान ,बीच बीच में कौंधता अँगूठी के नग सा जड़ा सात ताल , चीड़ के पेड़ , बंदरों का झुंड , ढलानों पर जीजान से लटके टप्पर वाले घर जो अब गिरे तब गिरे पर टिके टिके , गुमटी पर भाप उड़ाते मुड़ कर दमा के मरीज से हाँफते रोज़ के इसी टाईम पर जाते पर फिर भी देखते , हर बार बिना नागा देखते बस को ताकते , समय बिताते ठंड से सिहरते पॉकेट में मुट्ठी बांधे हाथ गरमाते निठल्ले ठल्ले लोग ...इन सब को अनदेखा करते किसी पिक्चरपोस्टकार्ड में कैद सब । सब ।

सैलानियों के झुंड मोलभाव करते खरीदते , पता नहीं किसके लिये और क्यों ? कितनी चखचख , पचास रुपये की चीज़ के लिये कितनी मोलाई पर उस बंगाली महिला ने चार रुपये छुड़वा ही लिये हैं , दस का पिक्चर पोस्टकार्ड , रंगीन छाता , लकड़ी के कभी न काम आने वाले चाभी लटकाने वाला ताला और ट्रे , बच्चे का यो यो , चाईनीज़ मार्केट से परफ्यूम और अंडरगार्मेंट्स , डिजिटल घड़ी और बैटरी वाले खिलौने। विजयभाव से ओतप्रोत उसकी आवाज़ अपनी सहेली को नया दाम बताते और तेज़ हो गई है ।

मेहरू को आज मालकिन ने पुराना बैग दिया । पड़ताल करते कि कितना काम आयेगा ? आखिर हरवक्त ऐसी ही चीज़ पकड़ायेंगी जिसका कोई इस्तेमाल न हो , देखती है सफेद लिफाफे में पोस्टकार्ड , बैग के तल में बिछाये अखबार के तहों में चमकता .... कागज़ों पर पहाड़ , ताल , पेड़ और घुमावदार सड़क पर चढ़ती धुँआ उगलती एक सैलानी बस ।

6 comments:

काकेश said...

मैं हल्द्वानी से बाया भीमताल अल्मोड़ा जा रहा हूँ...ऎसा लगा.. लेकिन ये टूरिस्ट की दृष्टि है ...खालिश पहाड़ी की नहीं..अगले बुधवार दिखाऊंगा वह भी ..अपने ब्लॉग पर.. अब हर बुधवार खुलेगा एक पिटारा..

Pratyaksha said...

खालिस पहाड़ी दृष्टि हम कहाँ से लायेंगे , तभी पहले ही साफ कर दिया..सैलानी सफर । असली इनसाईट तो आप ही से मिलेगी । दिखाईये । हर बुधवार ! बहुत अच्छे । हम इंतज़ार में हैं ।

Srijan Shilpi said...

सैलानी की नज़र यदि आप जैसी कहानीकार की हो तो शब्दों की बुनावट में पूरे सफर का वीडियो इसी तरह का बन जाना स्वाभाविक है।

यदि काकेश जी की खालिस पहाड़ी नजरियों से सफर का यह वीडियो तैयार हो तो उसकी कशिश वाकई जोरदार होगी।

Arun Aditya said...

अच्छे शब्द- दृश्य हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि कहानी की विषयवस्तु और भाषिक कौतुक चिट्ठों में सिमट कर रह जा रहे हैं। चिठ्ठे लिख कर क्या उस मानसिक उद्वेलन से कुछ हद तक मुक्ति नहीं मिल जाती, जो किसी भी लेखक को कविता, कहानी या उपन्यास आदि लिखने के लिए विवश करता है।

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया चित्र खींचा है आपने, आपकी कल्पना कहां और कैसे दौड़ती है और वैसे ही शब्द आप बुनती हैं, शानदार!!

Tarun said...

salani hokar bhi aap pure safar me kahin aaloo rayta ya pakori khane nahi ruki, daave ke saath keh sakta hoon kakesh jaroor rukenge. Agar nahi ruke to samajh liye ki kakesh ko pahar gaye jamana gujar gaya hai (haan haan hume pata hai abhi kuch maheeno pehle hi almora ki teraf gaye thai) ;)