11/13/2008

फिर एक दरवाज़ा


बचपन से उस दरवाज़े को देखते आये थे ..कभी जागे में कभी सपने में । शीशे पर नीले , पीले , धानी रंगों के चौकोर बक्से जिनसे रंग बहकर एक दूसरे में समा जाते , लगता जैसे समन्दर भीतर बह रहा हो । तब सोचा करते कि घर होगा तो इसकी सब दीवारें रंगों से भरी होंगी , सब दरवाज़ों से दूसरे कमरे की बजाय दूसरी दुनिया का रास्ता होगा । कि सिर्फ उँगली से छूने भर से दीवारें रंगों से पिघल कर पेड़ पौधे , जानवर , दरिया , पर्वत , आँख ..जाने क्या क्या में बदल जायेंगी । फिर वो दरवाज़ा बदल गया । बदल गया उस काठ के गाँठों भरे , खुरदुरे , रुखड़े , फटे फट्टों से भरे दरवाज़े में ,जो खड़ा है किसी पुराने बरगद की तरह , ठीक घर से बाहर , कोई सरपरस्त !

उसकी मोटी साँकल लगाकर अंदर किसी आँधी तूफान के गुज़र जाने का सुरक्षित इंतज़ार किया जा सकता था । लेकिन किसी समुद्री जहाज़ पर पागलपन की धुन में , बिना आगा पीछा सोचे , किसी नशे की बहक में निकल जाने को नहीं उकसाता । मेरा दरवाज़ा मज़बूत था , पागल सनकी नहीं था । सनक मुट्ठी में बन्द एक पैसे का सिक्का था , जो अब चलता नहीं था ।

फिर एक दिन एक सपना आया । और बार बार आया । सुबह उस सपने को मैं मुट्ठी में बन्द करती । रात तक उँगलियाँ लाख कोशिश के बावज़ूद खुल जातीं और सपना उन खुली उँगलियों से बह जाता । फिर उस बहे हुये सपने ने अपना खेल शुरु किया । हर दिन उनका यों बह जाना थोड़ा थोड़ा टलता रहा ..इतना कि एक दिन फिर एक पूरी रात उसे लगी बह जाने में । उस रात के बाद की सुबह में उसने रंग उठाये और एक दीवार रंगनी शुरु की । दीवार पर सबसे पहले उसने एक दरवाज़ा बनाया ...


उस एक दरवाज़े में
कई कई दरवाज़ों का
खुलना
तय था
जैसे
जीवन भर
जीना तय था




(पिछले दिन के.. धूप के असर में ऊपर की पेंटिंग)

11/09/2008

सपने का कमरा उर्फ रात में कभी कभी दिन भी होता है , साईत !



रात के सपने में दिखा था और ठीक ठीक दिखने के पहले गायब भी हो गया था । सुबह , फिर सारे दिन एक बेबस बेचैनी में छटपटाते मन के पीछे पार्श्व संगीत सा बजता रहा था । पतझड़ के उदास दिन थे । पीले झरे पत्ते की खड़खड़ाहट में सारंगी पर कोई एक महीन रुलाई बजाता था । और मेरे शरीर के अंदर जो एक और काया थी , वो लगातार उस धुन पर बल खाती पछाड़ती थी । जैसे लहरों के ऊपर फेन की महीन परत ।

फिर उस दिन काम के हज़ार झँझटों के बीच किसी ने एक वाक्य कहा था .. जंगल में इतना अँधेरा था , सिर्फ जुगनू रास्ता दिखाते थे ... मैं चौंक कर मुड़ी थी । किसने कहा था ये ? लेकिन आसपास नेसकफे कॉफी के भूरे कप में झागदार कॉफी के घूँट भरते सब झुके थे बड़ी मेज़ पर ..कागज़ , डॉक्यूमेंटस , फोल्डर्स , फाईल्स , मोटे स्पाईरल बाईंड किये हुये । सब कागज़ों की ऑथेंटिसिटी की पुष्टि में जुटे लगातार बहस कर रहे थे । एक आवाज़ बार बार किसी रीफ्रेन की तरह हर बहस पर विराम लगाती ..लेकिन हम कोई विजिलेंस वाली अजेंसी नहीं और सब अचकचाकर राहत में कुर्सी पर पीठ टिकाकर मुस्कुराते और कॉफी का एक और घूँट भरते । जैसे हमारे किये की एक वाजिब सीमा तय कर दी गई और इसके आगे जाने की जद्दोज़हद से हमने अपने आप को मुक्त किया ।

तो , ऐसी बहसों के बीच किसने जुगनू से रास्ते का आभास दिला दिया ? मैं शायद बहक रही हूँ ..इसलिये कि इन दो दुनिया के बीच कोई सम्पर्क सूत्र बाहरी तौर पर नहीं है । लेकिन भीतरी तौर पर कोई ऐसा हिस्सा है जो एक दूसरे की भीतर पैठता है ..कुछ कुछ वेंस डायाग्राम जैसा । रात में सपने में जैसे मुझे मेरे ही घर में एक ऐसे कमरे के होने की खबर मिलती है जिसका अतापता मुझे अबतक न था । एक लम्बोतरा साफ रौशनी भरा कमरा । सपने में इस चीज़ को मैं जितनी आसानी से स्वीकार कर रही थी उतना ही चकित भी हो रही थी कि गज़ब ..इतनी जगह और मुझे पता तक नहीं था , कैसे और स्पेस के लिये मैं लगातार चख चख करती थी ..अब देखो ..इतनी जगह , इतनी रौशनी भरी । बस इसके दरवाज़े को पहचान कर रखनी होगी ताकि दिन में जागे हुये में फिर से खोज पाऊँ । कमरे की चीज़ों को लगातार प्यार से छूते कैसे बच्चे सी कौतुक से खुश होती घूम रही थी फिर भी सब याद रखूँ की एक छोटी सी घँटी भी बज रही थी , जैसे घूमते हुये भी हर वक्त एक चौकन्नेपन से मैं कोई तीसरी आँख दरवाज़े पर रखे हुये थी ।

दिन में जागे हुये मैं गैलरी के दीवार पर हथेली फेरते चलती हूँ , यहीं तो था वो दरवाज़ा फिर दुखी देखती हूँ कि मेरे इस घर में तो कोई गैलरी तक नहीं । मुझे तंग संकरी जगहों से सख्त नफरत है । मेरे घर में कोई गैलरी नहीं । मुझे बहुत सारी रौशनी चाहिये.. हमेशा । लेकिन अँधेरा छोटी छोटी पोटलियों में साथ चलता है और बिना किसी पूर्वानुमान के जाने कब किस पल . किस होने से ट्रिगर होकर पूरी की पूरी पोटली किसी नौगज़ी साड़ी की तरह फट से खुल कर फैलती भी जाती है ।

इस लगातार के जंगली बनैले खेल से , दिन और रात की आँखमिचौनी से , दुनियावी माया और वास्तविकता से परे कोई तीसरा संसार भी है ? मैं जब सपना देखती हूँ तब जागी नहीं होती । जब जागी होती हूँ तब सपने का कमरा बिला जाता है । जब कहती हूँ इस मुद्दे पर मैं ये , ये और ये सोचती हूँ तब सामने खड़ा दूसरा टेढ़ी नज़रों से टोकता है , लेकिन तुम ये सोचती हो , गलत सोचती हो क्योंकि मैं वो सोचता हूँ , सही सोचता हूँ । हमेशा हम आमने सामने ही होते हैं , साथ साथ नहीं । फिर इस आमने सामने के साथ .. साथ साथ होने वाली दुनिया कौन इज़ाद करेगा ? कब मैं जागे होने पर ही मन मर्जी उस सपने वाले कमरे में भी जा सकूँगी । जंगल का रास्ता जुगनू ही दिखायेंगे शायद । हँसती हुई फूलमनी के ठुड्डी पर के तीन गुदने कहते हैं , रात में कभी कभी दिन भी होता है साईत !



(पॉल गोगां की लैंड स्केप विद पीकॉक्स )

11/04/2008

यादें खोल में बन्द कछुआ हैं

उस वक्त रात भी ठीक से नहीं थी । कोई समय था दिन और रात के बीच बीच का अनक्लेम्ड हिस्सा .. बेरंग और अकेला और कैसी पागलपने सी चाह हो रही थी कि बस तुरत रात घिर आये । और ऐसे में जब सब इन्द्रियाँ इंतज़ार में चौकन्नी बैठी थीं , उसी वक्त थोड़े से बसियाये आलू के पराठे जिसके कोने नमी से सफेद हो जाते हैं , भिंडी के भुजिये और आम के अचार की ऐसी तेज़ भभक उड़ी कि मन एकदम बौरा गया । किसी सफर में , ट्रेन में , पीले बत्ती के गर्माये रौशनी में ..कोई साथ के बर्थ पर बैठा जोड़ा अपने खाने का टिफिन निकालता ..सलीके से स्टील के गोल गोल चार डब्बों से पूड़ी , आलू की सूखी तरकारी , लाल मिर्च का भरवां अचार और बून्दी का लड्डू ऐसे भूख की मरोड़ उठाता कि अपने बेसलीके से पैक किया गया खाना हड़बड़ाहट में बेशउरी से निकलता .. अखबार में लपेटा खाना । भुजिये से तेल की परत पूरे अखबार को पीला तेलाईन कर चुकी होती , इतना कि रुमाल निकाल कर पैकेट खोलते हाथ पोछना पड़ता .. अखबार खोल लेने पर चार बड़े मोटे , आलू से ठसाठस भरे पराठे के बिस्तर पर महीन कटे भिंडी के भुजिये की जान मारू सुगंध ..और ठीक एक कोने में सौंफ झलकता मोटे फाँक का आम का अचार । पूरा कम्पार्टमेंट ऐसे मनोयोग और तल्लीनता से सर झुका कौर गटकता जैसे इसी हरेक कौर में प्राण बसे हों , जैसे सारी इन्द्रियाँ एकत्रित हो गई हों बस स्वाद को अनुभव करने के लिये


दूसरी साँस ली और महक गायब । उफ्फ ! करवट लिया , साँस ली और एकबार फिर वही सुगंध

सुनो , तुम्हें बताना चाहती हूँ , पूछना चाहती हूँ , आती है तुम्हें भी खुशबू ..उस बीते बचपन की , उस बीते समय की , लौकी के बचके और साग के पत्ते की पकौड़ी की , मुँगौड़ी और बैंगन बड़ी की , मूली के पत्ते के साग की , तिल तिलौड़ी की , गरम गरम भात और राहड़ के दाल पर माँ का कलछुल में ताज़ा करकराया शुद्ध घी ऊपर से गिराने की , लौंगलत्ता और खाजा की , धूप में बैठ मूग़फली टूँगने की , कोयले के चूल्हे के उठते भरते धूँये की , किसी बीती स्मृति में बूढ़ी नानी के हुक्के की , मसहरी के भीतर घुस कर चन्द्रकाँता और भूत नाथ पढ़ने की, बारिश के दिनों में सीले कपड़ों की महक और छुअन के बीच कुर्सी पर गोलमोल कज़ाक और नाना पढ़ने की ..

धीरे धीरे स्मृतियों की महक भारी होने लगती है ..वो दिन सब विलुप्त हुये ..शायद कहीं किसी गाँव कस्बे में बचे हों ..शायद या क्या पता वहाँ भी आलू के पराठे की जगह पैटीज़ और पफ्स की सुगंध उडती हो । हमारे जीवन से ऐसी सब चीज़ें अब सिर्फ स्मृतियों में शेष हों , कि हमारे बच्चे भौंचक आँखों से ऐसे किस्से सुनते अचानक उकता कर खेलने भाग जायें , कि उनके बच्चे ऐसे शब्दों , ऐसी खुशबू , ऐसे कोमल महीन एहसास को बाहरी तौर पर भी न समझ पायें ... एक पूरी दुनिया , एक पूरा समय विलुप्त हुआ , अपने साथ साथ चलता किसी कछुये की खोल सा ..अब था ..अब नहीं ..!


ऐसी बेकार तकलीफ की चादर ओढ़े मैं इंतज़ार करती हूँ रात का .. टीवी पर ‘लिटल वोमन’ देख रही हूँ और याद कर रही हूँ कि जब पहली बार पढ़ा था बचपन में तब उन मार्च बहनों की कहानी पढ़कर कैसी धूप धूली उदासी और खुशी मिली थी ..फिर सोचती हूँ ..यादें भी एक किस्म का ट्रैप हैं , टखने में पड़ी बेड़ी है , उन बेड़ियों की स्मृति हैं , रगड़ खाती है हर वक्त .. चोट देती हैं हर वक्त । फिर भक्क से रात के अँधेरे में धूप का जगमागाता टुकड़ा भी जला देती हैं कई बार । कई कई बार ।