12/26/2005

पुराना साल ,दुबका खरगोश, बीता समय

नूतन वर्ष
द्वार खटखटाये
आ जायें हम ?



पुराना साल
दुबका खरगोश
बीता समय



सांता की टोपी
मिसलेटो का पेड
तोहफे सारे



धूम धडाका
बारह बजे क्या ?
इंतज़ार है


रेंनडियर
घुँघरू बजाता है
कैरोल धुन


नाचते सब
खुशी मनाते रहे
क्यों न रोज़


पुराने पत्ते
सा , गिर गया साल
कोंपल फूटी


गिनते रहे
उँगलियों पे हम
साल हिसाब


सूरज बोला
उठ जाओ भी अब
नये साल में


कर लें प्रण
फिर नये पुराने
इस बार भी


इंतज़ार में
लायेगा साल क्या
थोडी सी खुशी


पिछला साल
रुठा , इतने बुरे
हम थे नहीं


गिले शिकवे
चादर के अंदर
बाँधी गठरी


फूल खिलायें
तितलियाँ रंगीन
नूतन वर्ष

12/21/2005

कान्हा


नीले डंठल पर
गुलाबी पँखुडियाँ
सूखे पत्तों पर
गिरा एक मोर पँख
कहीं सुदूर वन में
बाँसुरी की मीठी तान

कौतुक से कान पाते
भयभीत मृगों का जोडा
खो जाता है कहीं वन में

पद्मासन में मेरा शरीर
गूँजता है ब्रह्मनाद से
मन के अंतरतम कक्ष में
युगल चरण कमलों की छाप
द्वार हृदय का खोल
एकाकार कर देता मुझे
निराकार में

12/16/2005

ऐसा क्यों है ?

Akshargram Anugunj


ऐसा क्यों है
कि कहने में
और करने में
खाई सा फासला हो
आदर्शवाद जपें
मुँह से
पर जब वक्त आये
तो बैसाखी थाम लें
मजबूरी की
जरूरत का
और उसके बावजूद
बुलंदी भर लें
आवाज़ में
और कहें
आदर्शवाद गलत
थोथे मूल्यों की
ज़रूरत नहीं

लपेट लें साफा
सिरों पर
सजा लें मौर
पगडी पर
और कर दें
ऐलान
आज का मूल्य
बदल गया
हम हैं नये युग के
नये अवतार
जहाँ आदर्शवाद
कोरी भावुकता है
जहाँ सफलता
सुकून है
जहाँ अंत जरूरी है
प्रयोजन नहीं

ऐसे कुकुरमुत्ते भीड
बेतरह उग आये हैं
चारों ओर
तो फिर ऐसा क्यों है
कि आज भी
किसी गाँधी के नाम पर
उमड जाते हैं आँसू
गर्व के
किसी मार्टिन लूथर के सपने
आज भी देते हैं आकाश
उडने को

फिर क्या जरूरी है
इस भीड का हिस्सा
हम भी बनें
क्या ये प्रश्न कभी भी
पूछा है आपने
खुद से ?



और अंत में एक हाइकू

आदर्शवाद
बिछाया सिरहाने
सुकून नींद

12/14/2005

कोको ,बॉबी , बोरिस और रॉकेट


बचपन की एक बहुत ही प्रिय किताब आज याद आ गई. सुनील जी और जीतेन्द्र जी ने जब अपने प्यारे ब्रांदो और सिंड्रेला की बात की, तो मुझे भी अपना कोको याद आया, जो आज हमारे बीच नहीं है. कोको के पहले बॉबी की बात. और अगर बॉबी की बात करें तो बोरिस और रॉकेट की बात कैसे न आये.
जब स्कूली छात्र थे तब एक किताब थी ,बॉबी बोरिस और रॉकेट, हमारे पास. मोटी जिल्द वाली, चमकते सफेद पन्ने, पेंसिल रेखाचित्र और पिछले दो पन्नों पर उन कुत्तों की तस्वीर जो अंतरिक्ष में गये, लाईका , ओत्वाज़नाया और अन्य नाम जो अब याद नहीं. तब उन दिनों हम ने कई रूसी किताबों के बेहद उम्दा हिन्दी अनुवाद पढे, मीश्का का दलिया (शायद लेखक न. नोसोव थे ), निकीता का बचपन, बॉबी बोरिस , वगैरह
बॉबी बोरिस और रॉकेट , ये किताब दो दोस्तों की कहानी थी, बोरिस और गेना और बोरिस के कुत्ते बॉबी की. बोरिस और गेना दिनरात अनुसंधान में लगे रहते. एक पीपे को रॉकेट बनाकर और अपने प्यारे कुत्ते बॉबी को अंतरिक्ष यात्री बनाकर वे कोशिश करते हैं उसे अंतरिक्ष में भेजने की. प्रयास असफल रहता है और इसी क्रम में वे बॉबी को खो देते हैं. बहुत तलाशने के बावज़ूद वे उसे खोज नहीं पाते. इसी बीच घायल बॉबी को एक आवारा जानवरों के आश्रय में घर मिल जाता है. अंतरिक्ष में कुत्तों को भेजने का सरकारी अनुसंधान चल रहा है और कई ऊँची नस्ल के कुत्तों को आजमाने के बाद ये निष्कर्श निकलता है कि अंतरिक्ष यात्रा के लिये जिस तरह के धैर्य की जरूरत है वो सिर्फ आवारा कुत्तों में ही पाया जाता है. उसके बाद बॉबी की यात्रा "दिलेर" बनने की शुरु होती है. अंतरिक्ष से सफलता पूर्वक वापस आने पर टीवी पर बोरिस और गेना उसे पहचान लेते हैं और उनका सुखद मिलन होता है.
किताब इतनी रोचक थी कि हम उसे कई बार पढ गये थे. शैली मज़ेदार थी और कहानी में बच्चों और कुत्तों की मानसिकता का इतना प्यारा वर्णन था कि कई बार बडी तीव्र इच्छा होती कि काश उन बच्चों सी हमारी जिंदगी होती. हमारा ज्ञान अंतरिक्ष के बारे में भी खासा बढ गया था और यूरी गगारिन, वैलेंतीना तेरेश्कोवा जैसे नाम हमारी ज़बान पर चढ गये थे .

बहरहाल जो तस्वीर बॉबी यानि दिलेर की थी, वो जहन में कैद रह गई थी. कई साल बाद जब हर्षिल पाँच साल का था, तब उसकी जिद पर हम एक नौ दिन के बेहद प्यारे से पिल्ले को खरीद लाये. हर्षिल का तर्क था कि जब हमारे घर कुत्ता होगा तो वो कई काम कर दिया करेगा, मसलन सुबह बाहर से अखबार लाया करेगा ( सुबह सुबह ये काम कौन करे, इस पर कई बार नोकझोंक होती ), उसकी स्कूल की बैग को उसके अज्ञानुसार सही जगह पर रख दिया करेगा, उसके खिलौने ला दिया करेगा. ऐसे तर्कों से मुझे फुसलाया जा रहा था. बाप बेटे ने ये भी आश्वासन दिया कि मुझे पिल्ले का कोई काम नहीं करना पडेगा. उसे खिलाना , घुमाना, नहलाना सब वो करेंगे.

जब वोट आपके विपक्ष में 2-1 हो तो अंजाम बताने की क्या जरूरत. खैर पिल्ला आ गया और हर्षिल ने उसका नामकरण 'कोको " किया. मेरे पिता ने कहा कि चूँकि ये हर्षिल का भाई है इसलिये हर्षिल सिन्हा की तर्ज़ पर कुंतल सिन्हा, इसका नाम हो. कुंतल और कोको, दोनों में सामजंस्यता थी सो नाना नाती ,दोनों का दिल रख लिया गया. ये कुछ दिन बाद पता चला कि कुंतल कुमार ,कुंतल कुमारी है, पर तब तक हमारी ज़ुबान पर कोको जायेगा, कोको खायेगा, वगैरह ऐसा बैठ चुका था कि इसे बदलना अंत संभव नहीं हो पाया .

कोको बहुत बहादुर थी. बचपन में एक बार एक आवारा कुत्ते ने उसपर हमला कर दिया था. तब महीने भर उसके घाव पर दवाइयाँ लगाना, सिरिंज से उसे मुँह में दवाई खिलाना ,ये सब आज याद आता है. जब छोटी थी तो रूई का गोला लगती कई बार खाने की तश्तरी में , हडबडी में, मुँह के बल गिर जाती. हम जब ऑफिस से शाम को घर आते तो हर्षिल और पाखी के साथ वो भी एकदम हमारे ऊपर टूट पडती. मैं सबको ह्टाती ,हँसती, कहती रुको तो ज़रा, दम लेने दो. कपडे बदल कर हाथ मुँह धोकर जब तक कमरे से बाहर आती, कोको धीरज से दरवाजे के मुँह पर बैठी इंतज़ार करती. फिर दोनों बच्चों के बाद अपनी बारी का इंतज़ार करती. बस एकटक मेरे चेहरे को देखती और आँख मिलने पर हल्के से पूँछ हिलाती, मानो कह रही हो,' कोई बात नहीं मैं कुछ देर और रुक सकती हूँ'
चार बज़े उसका बिस्किट का समय तय था. चुपचाप पिछले पँजों पर खडी होकर माँगती. जब वह ऐसे आती, हम समझ जाते, चार बज गये. ब्रिटैनिया मारी गोल्ड ,उसका प्रिय बिस्किट था. बाद में हम उस बिस्किट को कोको का बिस्किट कह कर ही बुलाने लगे थे. इसपर एक मज़ेदार वाक्या याद आ गया. कोई मेहमान आये थे.उन्हें मैं चाय के साथ कुछ खाने का भी पेश करना चाहती थी पर कुछ ऐसा हुआ कि उस वक्त कुछ भी चाय के साथ नहीं था देने को घर में, सिवाय ब्रिटैनिया मारी गोल्ड के. ट्रे, चाय, बिस्किट के साथ मेज़ पर. आगमन होता है मेरी बेटी का. और एकदम से बोल पडती है,
'अरे कोको वाला बिस्किट आंटी खायेंगी ' .
मेहमान का चेहरा देखने लायक था. और हमारा भी.

इस गर्मी में ,कोको हमें छोड कर चली गई. जहाँ उसे दफनाया, वहाँ पेड और फूल लगे हैं. हमारा घर वहाँ से दिखता है. उसके जाने पर हर्षिल और पाखी बहुत रोये. रोये तो हम भी. आज भी कभी कभी नींद में मेरे हाथ उसके नर्म बालों को सहलाते हैं.
हमने भी हीरामन की तरह तब एक कसम खाई, अब दोबारा किसी जानवर से इतना प्यार नहीं करेंगे.
(ऊपर की ये तस्वीर कोको की है. उस किताब में बॉबी भी बिलकुल ऐसा ही था.)

12/01/2005

जन्नत यहाँ है

पाँच दिन की भागदौड के बाद सप्ताहांत का इंतज़ार बडी बेकरारी से रहता है. शुक्रवार की शाम से ही लगता है कि अब मुट्ठी में दो दिन का खज़ाना है, जैसे चाहे खर्च करो.
इसबार शनिवार रविवार अच्छा बीता. शनिवार को मेरे बौस की दोनों बेटियों का दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में अरंगेत्रम था. गुडगाँव से दिल्ली जाना, दो बार तो सोचना पडता है पर जब शनिवार की सुबह उनका फोन आ गया तो फिर जाना तय ही कर लिया. मेरी आठ साल की बेटी पाखी को नृत्य और संगीत का बेहद शौक है. बेटा ,हर्षिल, खेल में ज्यादा मन लगाता है. इसलिये जाने वालों में मैं, मेरे पति, संतोष, और पाखी थे.
दोनों लडकियों का भरत नाटयम नृत्य इतना सुंदर था कि तीन घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला. घर आकर पाखी ने एलान कर दिया कि उसे भी नृत्य सीखना है. इसके पहले वह पेंटिंग सीख रही थी और घर भर में उसके कलाकारिता के नमूने बिखरे पडे हैं, कुछ तो दीवारों पर भी. किसी का जन्मदिन हो, कोई त्यौहार हो, कोई उसका प्रिय आया हो,एक मिनट में कार्ड हाज़िर रहता है. कई बार ऐसे ही सुबह सुबह, जब स्कूल की छुट्टी हो, मुझे और संतोष को एक कार्ड मिल जाता है....

"मेरे प्यारे माँ पापा को,आपकी प्यारी बेटी की ओर से जो आपको बहुत प्यार करती है"

ऐसे कई कार्ड हमारे व्यक्तिगत फाईल्स मे संभाल कर रखे हुये हैं. मुझे पता है कि जब वह बडी हो जायेगी तब हमारे लिये ये ही सबसे बडा खज़ाना होंगे.

मुझे याद है मेरे पिता की , बचपन में लिखी हुई एक चिट्ठी. तब शायद वे दस ग्यारह साल के रहे होंगे. कहीं आसाम में कोई जगह टीटागढ, शायद. पत्र में तो उन्होंने टीटाबार लिख रखा था. कोई पेपर मिल था शायद वहाँ. कुछ दिनों के लिये वहाँ थे और वहाँ उनका बिलकुल मन नहीं लग रहा था. उस पत्र में वापस बुलाने की बात लिखी थी. अस्पष्ट सी भाषा और हिज्जे की गलतियाँ. तब हम भी बच्चे थे और उसे पढ कर खूब आनंद लिया था, खूब हँसे भी थे. ये बडा मज़ेदार भी लगा था सोच कर कि पापा भी कभी हमारे जैसे बच्चे रहे थे. फिर कुछ दिनों बाद माँ ने एक तस्वीर दिखाई थी. ग्रुप फोटो था, जिसमें मेरे दादा जी, उनके भाई और कुछ बच्चे. सब पुरुष ही थे उस तस्वीर में. मेरी दादी की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी जब पापा चार पाँच साल के रहे होंगे.
तस्वीर में बडे तो कोट पैट और ब्रिटिश हैट में है. किनारे में एक बेहद मासूम और सुंदर बच्चा ( आज भी बहत्तर साल की उम्र में खासे हैड्सम हैं) कमीज़, धोती और चमचमाते जूतों में खडा. माँ ने हँस कर बताया था कि ये पापा हैं. शायद, जूते नये दिलाये गये थे. ऐसा पापा बताते हैं.

तब उस तस्वीर को देख कर मेरा बालमन अचानक भर आया था. उस बिन माँ के बच्चे और उस गलत सलत हिज्जे वाला पत्र कहीं एक साथ जुड गये थे. पिता पर बहुत प्यार उमडा था. वैसे भी मैं उनके बहुत करीब हूँ. आज भी ऐसे ही कभी कभी अपने बच्चों को दुलार करते पापा की वो बचपन की तस्वीर और उनका 'टीटाबार' वाला पत्र याद आ जाता है.

खैर, शनिवार अच्छा बीता तो रविवार क्यों पीछे रहता. इस बार हम निकल गये सुल्तानपुर बर्ड सैंक्चुअरी की ओर. सर्दी अभी उतनी तो नहीं पड रही पर फिर भी पक्षी कई दिखे. अगले महीने तक शायद और भी आ जायें. जाते वक्त और लौटते वक्त बगीचों से ताज़ा तोडे गये मीठे अमरूद आजभी घर को सुगंधित किये हुये हैं. फार्महाउसेस के दीवारों पर लाल, बैंगनी, सफेद बोगन विलिया के झाड बेहद खुशनुमा लग रहे थे. खेतों में सरसों का पीला गलीचा, खुशगवार मौसम, बच्चों की चहचाहट, नीचे नर्म हरी घास और उपर नीला स्वच्छ आसमान. और क्या चाहिये.


ओमर खय्याम की मशहूर रुबाई याद आ गई. उसका हिन्दी तर्जुमा कहाँ से खोजूँ .शायद बच्चन जी ने किया है. अब खोजूँगी लेकिन एक अदना सा प्रयास मैंने भी किया, पंक्तियाँ सही याद नहीं पर जो भाव याद हैं उनके दम पर ये पेश है.........
(ओमर खैय्याम के प्रसंशकों से क्षमायाचना सहित )

"गीतों की पुस्तक, शाखों के नीचे

मीठा सा पानी ,दो रोटी के टुकडे

पहलू में तुम हो तो वीराना क्या है

मिल जायें ये सब तो जन्नत यहाँ है"



(जिसे कहते हैं लिटरल अनुवाद ,वो नहीं है, बस भाव हैं...और उसदिन की मेरी मनस्थिति को दर्शाते)


लाल्टू जी ने कहा "धन्यवाद प्रत्यक्षा...