7/18/2008

चिलकती धूप में

मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी , खुद को झुठला रही थी , फिर भी बार बार फरेब खा रही थी । तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे , आईने में खुद को देखते खड़े थे । तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी , लाचारी में खुद को गला रही थी , अपनी तकलीफ का हार बना रही थी । तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी । भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी , देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ...



मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..



किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?



कल पढ़ा था साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजती रही कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी सोचती हूँ ..इतना क्यों सोचती हूँ पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?

7/17/2008

उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई

तो उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई । अँधेरा झरता रहा अंदर बाहर । उसने कहा था चित्त लेटो सब शांत हो जायेगा पर रात की रीतती रुलाई लगातार गोल घूमती रही , जाने कौन से चक्रव्यूह बनाती भेदती । कुछ खो गया था । और चाभी उस संदूक की मिलती न थी । हरबार आँख बन्द करते हथेलियों में उसका ठंडा स्पर्श और आँख खोलते गायब । खो गया ,क्या अब कभी नहीं मिलेगा ? की हूक उठती थी । कोई पतली लकीर नहीं थी , रेशे में खरोंचा निशान नहीं था । बस विध्वंस था । सब चुक जाने का प्रलयंकारी विलाप ।

फूल लेकिन अब भी गमक रहे थे । लतरों पर कनबलियाँ लटकी थीं , हवा में नाचते घुँघरू । और शीशे पर मातम मनाती एक तितली । अँधेरे में काली । दिन में रही होगी सफेद । मैं अब देखती क्या थी । उस रात में ? जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।

बाहर कोई बजाता था कोई धुन बहका हुआ , सुरों के बाहर डोलता लड़खड़ाता हुआ , जीवन से चूर , खुशी से भरपूर , जैसे अंतिम संगीत हो और फिर इसके बाद कुछ नहीं । ऐसी तोड़ देने वाली बहक कि बदन अपने आप झूम उठे , जैसे ये नृत्य भी अंतिम था , ये बात भी अंतिम थी , इसके बाद कोई आवाज़ नहीं । तो , उस रात अंतिम रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।

उसका खो जाना भी उतना ही नियत था जितना मिल जाना । फिर इस दुनिया की भीड़ में , इस शहर की भीड़ में , इस गली मोहल्ले की भीड़ में ,अपने अंदर की भीड़ में ... अभी था , अभी नहीं । बढ़े हाथ की सबसे लम्बी उँगली के अंतिम छोर पर स्पर्श टिका था अब भी जैसे नब्ज़ धड़कती थी अब भी । बावज़ूद इसके कि उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।

सपना अब भी सुबह तक याद नहीं रहता । किसी वक्त पूरे डीटेल्स में रहता था । अब नहीं । अब , गनीमत कि कुछ देखा था का भास याद रहता है । और बहुत बातें याद रहती हैं , जो नहीं रहनी चाहिये वही याद रहती हैं , अपने सम्पूर्ण बेवकूफियों में याद रहती हैं । कोई कील दिमाग में लटका छोड़ी है जहाँ इन फिज़ूल बेकार बातों को टाँग कर भूल जाते हैं , भूल जाते हैं पर कील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती । और जो जो इतना जितना नहीं भूलना था उसे फिर उस रात याद किया जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई ।

फिर रात लम्बी होती गई । इसलिये कि उसके बाद सुबह की कोई गुँजाईश नहीं थी । इसलिये कि पता था कि अब सुबह नहीं होनी । इसलिये कि जान लेना ही सब कुछ था । इसलिये कि जितना खोना सच था उतना ही पाना । फिर उस रात के बाद कभी सुबह नहीं हुई । फिर उस बात के बाद कोई बात नहीं हुई ।

7/13/2008

न बीतते हुये ..बीतता हुआ समय


फिर अँधेरे में खिलता है सूरजमुखी
शुरु होती है यात्रा , चलती हैं
मेरी आँखें , पैर होते हैं महफूज़ , बिस्तरे पर
रेत के बगूले उठते हैं
काले नकाबपोश घुड़सवार और ऊँटसवार
फिर सीन डिसॉल्व हो जाता है नींद खुल जाती है
सफर खत्म हो जाता है
पर मज़ा ये कि हर सुबह पैरों पर छाले होते हैं
तलवे घायल
लहुलुहान

दिन का कितना वक्त बीतता है
उन छालों को फोड़ने में
खून सने जूतों को साफ करने में
सफर की अगली तैयारी में
इतना
कि कोई कहता है चलो
गली के बाद वाले नुक्कड़ तक
या गेट के सामने फूलों की दुकान तक भी
कॉफे टर्टल की किताबों और कॉफी तक
या नई लगी कोई च्यूईंग गम सिनेमा तक या
फिर लास्ट टैंगो इन पेरिस भी
मैं मना करती हूँ
खोलनी है मुझे आखिर अपनी कोई तीसरी आँख
कोई सातवीं आठवीं नवीं इन्द्रीय
देखना है मुझे अनंत का रंग
रात हो गई है चलना है मुझे
पाँव पाँव
शून्य के सफर में

रात हँसता है ठठाकर कर
खोलता है मुँह, मार्लन ब्रांदो झुकता है कहता है
मैं पेरिस कभी गया नहीं
बुंडू झुमरी तिलैया बरकाकाना
कहीं भी तो नहीं

डूबता है सपना नींद में तैरता है कुछ पल
फिर बैठ जाता है
तल में

मैगज़ीन के सेंटर स्प्रेड पर अब भी देखता खड़ा है
मार्लन ब्रांदो या क्या पता कोई और
पुरानी ग्रेनी ब्लैक एंड व्हाईट
तस्वीर , किसी और और समय की

समय बीतता है , न बीतते हुये भी बीतता है

मेरी उँगली अब भी फँसी है उसकी उँगलियों में
और अँगूठे से खींचता है वो मेरे पाँव के तिल पर अपने निशान

समय बीतता है...

7/12/2008

एक और प्रेमकथा ..रीप्ले ?

औरत कहती है , अगर मैं सब पेड़ पर्वत नदी मैदान लांघ लूँ , और मेरे पैर ऐसा करते पत्थर के हो जायें फिर ? फिर भी तुम .... आदमी जो ऐसे ललक से देखता था उसे , जैसे उसके शब्दों को बोलने के पहले ही सुन लेगा । भाँप लेगा , अपने अंदर पी जायेगा उनको फिर बेमत्त खुशी के नशे में चूर हो जायेगा , ऐसा सुनकर उसके अंदर उसका मन भसकने लगा । उसकी आत्मा निचुड़ने लगी । जैसे एक पल में सब राख हो गया ..सदी बीत गई । उसके कँधे हताश झुक गये । ज़रा आश्चर्य से उसने अपने अंदर झाँका और शर्मिन्दगी की लहर उसके अंदर उभचुभ होने लगी ।

औरत की आँखें सयानी हो गईं । उसने बहुत कोमलता से अपनी उँगलियाँ आदमी के चेहरे पर फिराई । उसके चेहरे की शर्मिन्दगी पोछी । औरत इस एक पल में आदमी से बहुत बड़ी हो गई । अपने दुख में आदमी से ऊपर हो गई । उसे आश्चर्य नहीं हुआ । इस आदमी का चेहरा जो हर वक्त उससे माँग करता था .. इस पेड़ पर्वत नदी मैदान को लाँघ आओ,उस आदमी का चेहरा अब भी वही था । बस उसके नक्श किसी और के उधार को वापस करते से लगने लगे ।

औरत जहाँ जाना चहती थी अपने हर धड़कन के सम पर , वहाँ पहुँचने के पहले ही ऐसी हूक रुलाई की वापस लौट आने की ,जैसे कलेजे पर चोट की तीखी लकीर खींचता हो जाने कौन । और जाने के पहले ही लौट आने की ऐसी उद्दाम कामना । औरत के अंदर बहुत सारी दुनिया वास करती है कुछ एक के बाद एक , कुछ साथ साथ , कुछ जो बीत चुकीं , कुछ जो रीत चुकी , कुछ आगत कुछ अनागत । उसका सफर हर रोज़ शुरु होता है । पर हर रोज़ इतनी दुनिया पैदल चलते , गुनते , फिर भी कितनी खाली जगह है जहाँ रंग भरा जा सकता है । औरत सोचती है , खूब सोचती है , कौन से रंग , कहाँ कहाँ क्या क्या , पत्ते पेड़ खरगोश हाथी । और आदमी ? पर आदमी तो उसके पत्थर पाँव से सहम गया । उसका सहमा रंग मेरी दुनिया को बदरंग करेगा । औरत कँधे सीधे किये , बिना कुछ कहे लौट पड़ती है ।

उसका लौटना आदमी चुप देखता है । उसकी उँगलियाँ हथेली में कैद हो जाती हैं । वो उँगलियाँ जो औरत को वापस बुला सकती थीं । ऐसा करके आदमी ने तयशुदा रास्ते में से एक से मुँह मोड़ लिया । पर उसका दिल अवसाद से धड़कता रहा बहुत देर तक । इतनी देर कि उसे लगने लगा कि छाती जम रही है और उसका शरीर बिखर रहा है । उसे औरत का मीठा चुंबन याद आता है ,उसकी उँगलियों का प्यार याद आता है , उसकी हँसी याद आती है , उसके बाँह के नीले निशान याद आते हैं , अपनी उँगलियों से उन्हें छूना याद आता है , अपनी उँगलियों से उन्हें बनाना याद आता है । बिना साथ हुये साथ होना याद आता है । और उसे लगता है इस साथ होने में ज़रूरी सिर्फ पेड़ पर्वत नदी मैदान लाँघना था , पत्थर के पाँव नहीं थे । अपने इस खोज पर उसे ऐसी बेतरह खुशी मिलती है , जैसे औचक उसने कोई चमकती चीज़ मुट्ठी में कैद की हो , आँखें चौंधिया जाय ऐसी खुशी । जैसे पूरा शरीर किसी सफेद रौशनी से नहा गया हो ।

औरत अब तक दूर रास्ते में जाती एक धब्बा, एक परछाई का अभास रह गई है । आदमी की आँखें उसे देखने के लिये अँधेरे से लड़ती हैं ।

कोई बच्चा अपने चोटिल घुटने को दाबे सुबकता घर जाता मुड़ कर , एक पल खून नहाये घुटने को भूलता , जिज्ञासा से अँधेरे में खड़े आदमी को देखता है । फिर आसमान देखता है । आसमान में कोई टूटा तारा या क्या पता कोई रात का उड़ता हवाई जहाज किन अनजान लोगों को किस अजाने लोक में ले जा रहा है ।

फिल्म देखता आदमी सिगरेट की अंतिम सुलगती टोंटी राखदानी में कुचलता है और एकबार फिर बटन दाबता है ..रीप्ले ..

7/07/2008

बारिश में भीगी गौरैया



बारिश है । हर रोज़ तो नहीं लेकिन बारिश है । कभी ऐसे झटास से दरवाज़ा पीटती है , कभी बस झीसी फुहार । लेकिन एक शिकायत रही । मिट्टी का विंडचाईम जो सुखराली से खरीदा था , पता नहीं क्यों कभी बजता नहीं । उस बूढ़ी राजस्थानी औरत से जब लिया था तब खूब मीठा बज रहा था । मैं उस औरत को देख रही थी । एक आँख मोतियाबिन्द से धुँधली पर दूसरी नीली पुतली में चमक और चेहरा पके पीच सा ।

“मिट्टी का गुन है बेटा कि ऐसे मीठा बजता है” , उसने हँस कर कहा था ।

मैंने पूछा था “कहाँ की मिट्टी का बना है ? “

“बँगाल “, उसने मुस्करा कर कहा था ।

पर कोई बंगला टुनटान बजा नहीं । इस बारिश प्याज़ के पकौड़े भी नहीं खाये । अलबत्ता भुट्टे ज़रूर खाये । आग पर पके हुये नहीं , माईक्रोवेव्ड एक मिनट वाले पर खूब मीठे । चलो तसल्ली हुई ये तो मीठे रहे । दगा नहीं किया । आसपास पेड़ पौधों को देखा । ये भी कायम रहे अपनी प्रकृति पर । मतलब हरे भरे , और ऐसे टूट के बढ़े कि दिल जुड़ा जाये । गरमी की धूसर बदहाली के बाद मिट्टी का गीलापन , स्याह बादल आसमान और हर किस्म का हरापन एक अद्भुत कोलाज़ बनाते हैं । कुछ कुछ बचपन में बनाये वाटर कलर की तरह । तब आसमान को बरसाती बनाने के लिये ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी । फिर बाद में ज़्यादा मेहनत पानी से गीले शीट को सुखाने में वक्त लगता । पँखा चलाया जाता और डाँट पड़ती कि बन्द करो इतनी गर्मी नहीं ।



बरसात में घुटने भर पानी में हिम्मत बाँध निकलना , बरामदे में बैठे शर्त लगाना कि ये स्कूटर बाईक सवार सड़क के ठीक उस मोड़ पर जहाँ पीपल का पेड़ है वहाँ अटकेगा कि नहीं और अटक जाने पर बेतहाशा निर्मम हँसी । फिर अगले शिकार का इंतज़ार । कीचड़ कीचड़ सब तरफ , पिछवाड़े जमे पानी में रेंगता हरा पानीवाला साँप , रात को टर्राते मेंढक , काला लकड़ी की कमानी वाला छाता जो भीगा होने पर उलट कर सूखने को बरामदे में छोड़ा जाता , भीगे जूतों की बिसाईन महक , जुगाड़ लगाकर पिछले बरामदे में और कभी कभी ज़्यादा होने पर कोने वाले कमरे में रस्सी टेम्पररी तान कर सुखाये जाते गीले कपड़ों की आते जाते चेहरे पर गीली छुअन , सब तरफ सीली सीली बू , छत के पाईप से तेज़ मूसलाधार में हरहराता पानी , नाली में गिरकर उफन उफन कर आँगन तक फैलता , गीली मिट्टी में धीरे धीरे रेंगते चेरों की जमात और कभी कभार कोई घोंघा दिखता तो मौज़ आ जाती ।


बगल वाले मैदान में जो हर बरसात पोखर बन जाता , उसमें आउटहाउस में रहने वाले सकलदेव के बच्चे केवई मछली मार लाते और हम उनसे मिन्नत करके एक या दो, माँ से ज़िद करके जुटाये गये अचार के मर्तबान में खूब मनोयोग से पालते । कितने भी जतन से उन्हें पोसा जाता फिर भी हफ्ते दस दिन में घोर उदासी के आलम में उनका सामने ठीक गेट के पास वाले मालती लता झाड़ के नीचे अंतिम संस्कार होता। पता नहीं कितनी अनाथ बेचारी मछलियों का कब्रगाह अब भी होगा वहाँ । कोई अड़ोस पड़ोस के चाचा , भाई दिल्लगी करते कि यहाँ अब झाड़ में फूलों की बजाय मछलियाँ उगेंगी । और हमारे भोले मन का इस पर तुरत फुरत विश्वास कर लेना , बचपन की अनेक गाथाओं में से एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा आज तक बना रहा ।




बरसाती किस्से और भी हैं पर आज बारिश में चाय की चुस्की के बीच अपने हरे कोने को देख कर बचपन की स्वछन्द , जंगली बरसाती दिन याद आये । बच्चों का एक हुजूम रंगीन छाते और बरसाती में स्कूल के लिये निकल पड़ा है । सामने छत के मुंडेर पर एक भीगी गौरैया बदन सिकोड़ बैठी अचानक फट से उड़ जाती है ।




तस्वीरें मेरे बॉलकनी कोने की हैं , बरसात उनपर भी खिली है , मेहरबान है

7/05/2008

मन अटकेगा जायेगा कहाँ ?

मन है क्या ? पिंजरे में बन्द मैना , हर पल फुर्र , कभी दाना कभी चोगा , कभी हरियाली विस्तार , कभी सरपट भागा बेलगाम घोड़ा कभी अलस्त पलस्त भरा पेट अजगर , कभी कानी आँख से तकता भालू , कभी गुपचुप गुपचुप गप्पी गोली ।

पर इतना ही होता मन ? कुकुरमुत्ता होता मन ? बारिश में हरियाला तोता होता मन , अगरबत्ती का धूँआ होता मन , उलझे बाल और सुलझे मन वाली भोली लड़की के मुँह में घुलता अनारदाना होता मन ? कोई चीन की दीवार क्यों नहीं होता मन , जिसपर चलते जायें चलते चले जायें , वो तिब्बाती लामा लेह की सड़कों पर , वो खोजी दस्ता अमेज़न की जंगल में , वो नागा साधू ब्रह्मापुत्र के तट पर , श्मशान घाट का तांत्रिक कापालिक ..ओम फट स्वाहा स्वाहा .. चलें जाय , चले जाय जहाँ अंत न हो , बस ओर छोर विस्तार हो , भूली हुई सड़क हो , बाँस का झुरमुट हो , दबोचा हुआ सीने से लगाया हुआ प्यार हो |

कहाँ है मन और कहाँ है दीवार , चीन की ? कहीं की जिससके बराबर बराबर चलते हुये पहुँचा जायेगा , इस समय से उस समय में , इस दीवार से उस दीवार में , नापेंगे हम अपने चील डैनों से उसकी लम्बाई , तौलेंगे समय को हर पँख की झटकार से , छाती के कोटर में बिठायेंगे ? आसमान तब नीला कहाँ होगा ? होगा हरा , होगा भरा । और धरती फिर धरती नहीं गोल तश्तरी उलटी सी और पानी ? पानी बहेगा नीचे से ऊपर और हम सुनेंगे मन से , देखेंगे मन से , महसूसेंगे मन से , आलाप के आ पर और सरगम के सा पर लचक जायेगा बदमाश। हँसी फूटेगी , फूटेगी , तिब्बती लामा हँसेगा अपनी नासमझ या सब समझ हँसी । और चीन की दीवार टूटेगी ईंट ईंट , गर्द उठेगा , गूबार थमेगा । मन किसी चौकन्ने पंछी सा तिर जायेगा ऊपर ऊपर , चक्रवात के सिरे पर , फुनगी पर , नोक पर , साँस पर , कोर पर ..अखिर मन ही तो है । कमरे के उखड़ते पलस्तर पर आँख गड़ाये , नींद भर आये तो टेढ़ी मेढ़ी रेखा की धूपछाँह कारीगरी पर मन अटकेगा न , जायेगा कहाँ ? वहाँ जहाँ सब है , सब और जहाँ कुछ भी नहीं ।

इसे सुनिये यहाँ और अज़दकी ग्रामोफोन का मज़ा लीजिये...

7/02/2008

जीवन में प्यार ज़्यादा ? नहीं ही है

कुछ है जो अटकता है, खटकता है, शायद खाने में नमक ज़्यादा ? या जीवन में प्यार ज़्यादा
पर कहाँ मन भरता है और और माँगता है
क्या जाने क्या माँगता है, कई बार कोशिश की
कहा अरे अब तो संभल ,रुक , देख ना
खिड़की से जो नीला आसमान दिखता है ज़रा सा
जो एक सिल पर रखा पौधा जिसमें अचक्के खिला था एक दिन बस एक फूल या फिर सड़क पर मिट्टी में मिला
किसी का , जाने कब का
बदरंग कंचा
ओठंगे देखता है मन नीले पानी में
हल्का बदन
खुद हाथ लगाओ तो चकित होता है मन, रेशम सब जैसे बिल्ली फँस गई थी उस दिन ऊन के गोले में
कबूतर का बच्चा
मुँह बाये फकफक करता था
अझल दोपहरी में
या फिर बर्फ का गोला पिघलता , भरी गर्मी में
मुँह में या फिर रात
सफेद चादर पर सुकून सोता
सर ढक के और पीछे से बजता
वायलिन का कोई दुखी स्वर
कोई चिड़िया चहचहाती
कोई हिरण कुलाँचे भरते भरते ठिठक जाता
कभी घुल जाता मुँह में
बिन्नी की फुआ की बालूशाही
देख लेते धुनते रूई किसी धुनिया को
बजा जाता सड़क की रेडलाईट पर
इकतारा कोई सन से सफेद बाल वाला
बूढ़ा , तकता किसी गहरी काली बिटर
आँखों से
उफ्फ
उफ्फ
जाने कहाँ कहाँ
भागते समय में
दौड़ते ज़मीन पर, छाती फाड़ कर
डूबते शहर में, कच्ची गलियों में , टूटी सड़कों पर
कोने के मिसराईन की चूड़ी और बिन्दी पर
कहाँ कहाँ कहाँ

पर इन सबके बीच मन कहाँ मानता
जाने क्या अटकता है
जाने क्या ?
और मैं अंत में कहती हूँ सब माया है
इस विस्तार से उस छोर का खेला है, चौपड़ की बिसात है, कोई छे वाली लकी गोटी है
ओह ! जाने क्या है क्या क्या है ? पर इतना तो है कि ज़्यादा प्यार नहीं है ?