12/26/2007

मैना ? मिन्ना ? मेनका ? मुनमुन या फिर मून्स ?

साबुन की बट्टी घिस गई थी इतनी कि बदन में मलना चाहो तो हाथ से फिसल कर बिला जाये । पर ना जी ऐसे कैसे पानी में घुलने छोड़ दें ।लोहे के जंगियाये बाल्टी के नीचे से , मग्गे के बगल से ,उस बड़े पानी जमा करने के हौद के किनारे छिपे , फूली टूटी लकड़ी के दरवाज़े के पीछे सरसरा कर फिसल गये दुष्ट बट्टी को वापस पकड़ धकड़ कर फिर उस बदरंग नीले , माने किसी ज़माने में नीले और अब न जाने पानी के दाग से सुसज्जित कौन से अनाम रंग से सुशोभित साबुनदानी में स्थापित कर दिया जाता । मुनिया को खूब बुरा लगता है । अब ऐसी कैसी कंजूसी ? अम्मा निकाल दो न नया वाला साबुन , नीला वाला पीयर्स । मोटा गदबद टिकिया । नहाने का मज़ा आ जाय । अम्मा भुनभुनाती अरे अभी हफ्ता दिन और चलेगा । और सच चल ही जाता । ठीक हफ्ता दिन नहीं तो चार पाँच दिन तो ज़रूर । पहले पारदर्शी होता फिर एक कोना जाता धीरे धीरे फिर फट से आधा गायब हो जाता और बाकी बचा दीन हीन टुकड़ा कोने के जाली में जा कर फँस जाता ।

अम्मा ऐसे ही जमा करती माचिस की जली तीलियाँ । मुनिया कुढ़ती तो अम्मा का प्रलाप चालू हो जाता । अरे गृहस्थी चलाना कोई गुड्डे गुड़िया का खेल नहीं ।तिल तिल करके जोड़ा जाता है । सब बचाई हुई जली तीलियाँ काम आती जब गैस का दूसरा बर्नर जलाया जाता । अम्मा गर्व से हर बार एक नई तीली बचाने की चालाकी और उस बचे पैसे से कोई ऐसा खर्च का हिसाब किताब जोड़तीं जो महीनों से अगले महीने पर टलता रहा होता हो । जाने एक एक तीली जोड़ कर महीने में कितना पैसा बचा लेंगी , मुनिया जल कर सोचती , मेरा घर होगा तो सबसे पहले माचिस फेंकूँगी । मुनिया बड़ी होती गई ,मेरा घर होगा तो .... करते करते ।

मुनिया के घर में अब नॉब से जल जाने वाला गैस का चूल्हा है , हॉब है , चिमनी है , बाथरूम में नीला बाथटब है , बाथटब में पॉटर ऐंड मूर का मैंगो फ्लेवर्ड फोमिंग बाथ क्रीम है , बेसिन के काउंटर पर नारंगी फिग ऐप्रीकॉट शावर जेल हैं , गुलाबी लोशंस हैं और ऐशवर्य है । झाग में गर्दन तक डूबे मुनिया तृप्त सोचती है । सब बदल लिया मैंने । सिर्फ एक चीज़ नहीं बदली । इस मुनिया नाम को कैसे अंग्लिसाईज़ किया जाये ? स्मार्ट बनाया जाये ? ओह अम्मा बाउजी भी न ! कैसा नाम रख दिया गँवारू । नो वंडर आई हेट देम ।

लूफा से पैरों की उँगलियाँ रगड़ते सोचती है ... मैना ? मिन्ना ? मेनका ? मुनमुन या फिर मून्स ?

(अज़दक के पोस्ट की साबुन की टिकिया से शुरु हुआ ये चेन रियेक्शन )

12/24/2007

एक कॉस्मिक छींक

एक शुरुआत हुई होगी कभी या ये सिलसिला बिना किसी स्टार्टिंग प्वायंट और एन्ड प्वायंट के एक सीधी रेखा या ढेर सारी सामानांतर रेखायें ,सब एक दूसरे में गडमड फिर भी अलग ,बराबर फिर भी अलग जैसे बच्चे ने क्रेयान से रगड़ी हो खाली आसमान में शून्य में कोई रंगीन बैंड समय का ? या फिर कोई समय कभी नहीं था कभी । सब टंगा है अलग अलग डाईमेंशन में , घटता है साथ साथ अलग अलग , प्रोबेबिलिटी के नियम ? ई = एम सी स्कावयर ? रेलिटिविटी थ्योरी ? साईंस फिक्शन का हैरतअंगेज़ किस्सा पॉसिबल और फीज़ीबल , विज्ञान के सिद्धांतों के दायरे में ? अगर सब सिद्धांत मालूम हैं फिर सही और अगर किसी रूबिक्स क्यूब के अंतिम स्टेप की सुगमता फिर भी दिमाग से फिसलता ? है तो कुछ और । आयेगा किसी के दिमाग में एक यूरेका । लटका है अधर में कोई टहनी से सेब । व्हेयर आर यू न्यूटन ? । चलती हैं कोशिकायें , धड़कता है न्यूरॉंन्स , ग्रे मैटर , हाइपोथलमस और मेडुला ऑब्लांगेटा के भीतर बाहर । कोई दो तार जुड़ जायेंगे और होगा कोई धमाका ,चमकेगी बिजली , फिसलेगा गरम चाकू मक्खन में । कितना आसान ,ओह सचमुच सचमुच ।


और बीतेगा समय ,रहेगा समय । खिंचेगी एक रेखा और । अनंत में ? सितार के तार ?बजायेगा कोई धुन इसी खिंचे तार पर । सरगम के पार । तार सप्तक सिर्फ शून्य । कोई सौर राग । जन्म लेगा कोई नया तारा कोई नया ग्रह कोई सौर मंडल एक और । फिर गीत रुकते ही सब बिखर जायेगा किसी ब्लैक होल में । ब्लैक होल नहीं सिर्फ एक क्षण को दो साँस के बीच का समय , एक गैप , अ ब्लैंक स्पेस । ठीक जिसके बाद फिर शुरु होगा जैसे नॉर्थ पोल के पास औरोरा बोरियालिस । ब्रह्मांड के बेरंग शून्य में बनेगा एक चित्र धुन से और रंगो की आवाज़ देगी संगत तब तक जब तक उसका जी चाहे । फिरेंगे तब तक हम पृथ्वी पर , रेंगेगे चींटियों से अपने बिलों में , रोयेंगे हँसेंगे , जनमेंगे मरेंगे , एक एक पल का हिसाब करेंगे , तकलीफ का दुखों का , क्षय होगा सब धीरे धीरे । फ्रॉम डस्ट अनटू डस्ट । सब खत्म होगा । ये समय , हमारा समय । ओह ! सब कैसा क्षणभंगुर । क्यों क्यों ? लेकिन आदि से अंत तक फिर भी खिंची है वही अदृश्य रेखा जहाँ हम ढोते हैं पुरखों के जींस , उनकी स्मृतियाँ , उनका समय । हम क्या सिर्फ केयरटेकर्स हैं कुछ मिलियंस सेल्स और तेईस जोड़ी क्रोमोसोम्ज़ के जिन्हें हिफाज़त से बढ़ाना है अगली पीढ़ी तक ? फिर अगली और अगली ? कब तक ? जब सब उस दो साँस के बीच का क्षण , उस ब्लैंक स्पेस तक न आ पहुँचें । फिर एक कॉस्मिक छींक ?

मिटा देगा कोई बच्चा बड़ी बेध्यानी और बचपन की निर्ममता से सारी लाईंस अपने इरेज़र से । ऊब चुका इस खेल से अब । देखता है कुछ पल ,खोजता है फिर नया खेल । तब तक ? एक पल .... सदियों का ब्लैंक स्पेस ..एक नया के टी एक्सटिंकशन ईवेंट ?


( रोती है लड़की आज किसी खोये प्रेम पर । गिरता है पसीना धार धार ,धुँधलाती है आँख उस मजदूर की । चिपके पेट रोता है बच्चा रोटी के एक टुकड़े के लिये । हर की पौड़ी पर सर्द बर्फीले पानी पर नहाता है तीर्थ यात्रियों का दल , मस्जिद से आती है अजान की आवाज़ अल्लाहो अकबर सुबह के कुहासे को चीरती है आवाज़ । उठता है ज़माना जुटता है खटराग में । छनकती है चाय की प्याली किसी लाईन होटल में , गिरता है झाग बीयर मग से किसी पब में । भूलते हैं सब , सब ।राम नाम सत्य है , सत्य बोलो मुक्ति है । अर्थी उठाये गुज़र जाता है काफिला और औरत ज़रा भीत पल भर छाती पर हाथ रखती सोचती है अपने बूढ़े बीमार पिता की , लौटती है गिराती है पर्दा खिड़की पर बच्चे की पुकार पर । फिर वही मायाजाल । थैंक गॉड फॉर आल दिस इल्यूज़न )

12/18/2007

ज़िंदगी कितनी हसीन है !

पहले दिन मुझसे टकराई थीं तो अजीब कुड़बुड़ाहट हुई थी । देख कर चलना चाहिये । अपने गिरे लिफाफे समेटते बिना उनपर तव्वोज्ज्ह दिये फुर्ती से आगे हो लिया था । स्पेनसर में मेरे ठीक आगे । वही स्टील ग्रे बाल , आज खुले थे कँधों तक । वॉलेट से पैसे निकालने जोडने में खूब वक्त लगाया । मैं एक पाँव दूसरे पाँव बेचैन कदमताल करता रहा । इनकी वजह से आज पाँच मिनट , पूरे पाँच मिनट खराब हुये ।

हफ्ते भर बाद लांजरी शॉप में मुठभेढ़ हुई । तमाम रंगीन लेसी झालरदार लांजरीज़ को एक हाथ परे हठाकर स्पोर्ट्स ब्रा उठाया । मणिपुर की कार्मेन अपने सीधे बालों को झटकारती पूरा डब्बा काउनटर पर उलट दे इसके पहले उन्होंने सधे हाथों से एक सफेद स्पीडो उठाया और पेमेंट काउंटर पर चली गईं । मैं कुछ देर कारमेन से बतकही करता रहा , उसके सीधे भूरे बालों की और चिकने पीले गालों के कंट्रास्ट में मसकरा वाली पलकों की तरीफ करता रहा । कारमेन ब्लश करती रही जबकि ये हमारा पुराना खेल था ।

मादाम के लिये सेक्सी ब्लैक निकालूँ ? उसने मुझे छेड़ा । कारमेन को पता था मादाम ब्लैक नहीं पहनती । पहले मादाम इस शॉप में अकेले आती फिर मैं भी साथ साथ । सोचता कभी अकेला आ जाऊँ तो ? निकाल बाहर करेगी ये सब छोकरियाँ मुझे दुकान से या फिर हाय आयम निहारिका कहते दुकान मालकिन छ फूटी लचके तने सी लहरा कर पीछे के प्लश कमरे से बाहर आ जायेंगी । कैन आई बी ऑफ अनी अस्सिटैंस ? किसी एक जन्मदिन पर अपने को गिफ्ट देने का यही शानदार तरीका सूझा था । के के लिये दर्ज़नों सोने के कपड़े , अक्सेसरीज़ , अल्लम गल्लम । फिर उसके लिये ऐसी शॉपिंग मैं मज़े से गाहे बगाहे किया करता ।

पेमेंट करके नीचे सबज़ीरो में घुसे तो फिर निगाहें चार हुईं । थ्री स्कूप कोन पकड़े बच्चों की तरह आईसक्रीम खा रहीं थी कम , गिरा रहीं थीं ज़्यादा । मुझसे नज़र मिलते ही झेंप गईं । फिर उस दिन जॉगर्स पार्क में पाँव मुचक गया । बस यकबयक ढ़हराकर गिर ही पड़ा । पाँच बजे की अँधियारी अल्लसुबह में जो दो लोग दौड़ते हुये आये उनमें ये भी थीं । एड़ी के पास कोई टेंडन खिंचा था । क्रेप बैडैज और पंद्रह दिन बिस्तर आराम । चौथे दिन के दफ्तर चली गई । दिन बहुत बुरा बीता । पाँचवे दिन वो आईं । सीधे सफेद काले ब्लंट बाल , ढीला स्टील ग्रे घुटनो तक का कार्डिगन और नीले स्लैक्स । कँधों पर कत्थई मफलर । अच्छा तो ये था आज का के का प्रॉमिस्ड सरपराईज़ । दो पीले सूरजमुखी के फूल ले कर आई थीं । आज तुम्हें कुछ पढ़ कर सुनाऊँ । फिर एक पतली किताब सीमस हीनी की कवितायें

There are the mud-flowers of dialect /And the immortelles of perfect pitch/ And that moment when the bird sings very close/ To the music of what happens.

फिर

As a child, they could not keep me from wells /And old pumps with buckets and windlasses./ I loved the dark drop, /the trapped sky, the smells Of waterweed, fungus and dank moss.

और

And here is love /Like a tinsmith’s scoop/Sunk past its gleam /In the meal bin


उनकी आवाज़ में एक संगीतमय गूँज थी , ज़रा सी रेशेदार जैस्रे खूब सिगरेट पीने के बाद कुछ खराश हुई हो । फिर एकदम से उठकर चली गईं बिना ये कहे कि फिर आयेंगी या नहीं । छठा दिन बीता फिर सातवाँ । आठवें दिन थरमस से सूप ढाल कर पीने ही वाला था कि घँटी बजी । दरवाज़ा खोलते ही सर्द हवा के झोंके के साथ दाखिल हुई । ठंड से चेहरा ज़रा लाल था । बिना दुआ सलाम के कुर्सी खींच कर बैठ गईं । झोले से किताब निकाला । आज कवितायें नहीं है ऐसा आश्वासन दिया ।

कुछ संगीत रखते हो ? मेरे स्टीरियो डेक की तरफ इशारा करने पर चुपचाप उठीं , शुबर्ट की ऑव मारिया लगाई और अपनी किताब में मगन हो गईं । अरे ! कैसी अजीब औरत है , मैं हर्ट सोचता रहा । कुछ लेंगी ? मैंने अन चाहे भी औपचारिकता निभाई । नहीं ठीक है । फिर डूब गईं किताब में । मैंने ज़रा सा झाँक कर देखने की कोशिश की फिर बेमन अन्यमनस्क होता रहा फिर कुछ नाराज़गी , ठीक है मुझे उस दिन मदद किया , तो क्या । यहाँ इस तरह आने की ज़रूरत नहीं । आई डोंट नीड ऐनीवन । लगभग दो घँटे हमने शुबर्ट और फिर हाईडेन को चुपचाप सुना , बिना एक शब्द बोले । फिर जैसे धड़ाके से आईं वैसे ही गईं ।

रात मैंने के को शिकायत की , अजीब पागल औरत है , आती है चली जाती है । मैं बोलता रहा , के मुस्कुराती रही । मेरा पैर क्रमश: ठीक होता गया । एड़ी में थोड़ा बहुत दर्द गाहे बगाहे बना रहता । बावज़ूद उसके कुछ दिन खूब भागदौड़ के बीते । दस दिन बाहर रहा । मैं लौटा तब के निकल गई हफ्ते भर के लिये । मैं अनमना घर में अकेला डोलता रहा । पूरा शनिवार अपने बेंत के झूले को वार्निश करता रहा । इतवार रेड ज़िनफंडेल की एक बोतल और ऑर्किड का एक छोटा गुच्छा लिये मैं धमक गया था । ज़रा अचकचाई थीं फिर नारंगी दरी पर बिखरे गद्दों के ढेर की ओर इशारा किया था ।
वाईन ग्लास ले आई थीं । इस दिसम्बर मैं सड़सठ साल की हो जाऊँगी । उन्होंने ग्लास मेरी तरफ बढ़ाते हुये कहा । जॉगिंग कब शुरु करोगे ?
हम दो घँटे बतियाते रहे पर सीमस और शुबर्ट की बात नहीं की । इसबार हम सिनेमा की बात करते रहे । खूब हँसे । शायद वाईन का भी कुछ खुमार था ।

ज़िंदगी कितनी हसीन है , नहीं ? उनका चेहरा , थोड़े से झुर्रियों भरा चेहरा एक खूबसूरती से दमक रहा था । वाकई , वाकई !

(के ने मुझे कभी बताया था कुछ दिनों पहले । अकेली रहती हैं । पति नहीं रहे । बेटे के पास यूएस गईं । पहुँची ही थीं कि खबर मिली किसी हाईवे ऐक्सीडेंट का शिकार हुआ । फिर दोस्त अहबाब पर निपट अजाना शहर और दुख , तोड़ देने वाला व्याकुल दुख जिसका ओरछोर कूल किनारा नहीं । लौट आईं । अकेली रहती हैं बिलकुल अकेली । कितनी बहादुर ! कितनी हिम्मत , कैसी दिलेरी । दिस इज़ लाईफ , ब्लडी अनजस्ट बट ब्यूटिफुल ! दिस इज़ लाईफ )

12/16/2007

रूल ऑफ द गेम

मेज़ पर फ्रेम्ड फोटो में एक लड़का एक लड़की कैमरे की तरफ देखते हँस रहे हैं । कैमरा भी शायद उस पल हँसा होगा क्योंकि तस्वीर उम्र के साथ पीली पड़ने के बावज़ूद एक खुशी की छटा बिखेरती है , अब तक भी , खिले उजले धूप सी खुशी । उस पल को फ्रीज़ करती हुई । कहाँ है अब वो खुशी ? मुट्ठी में बन्द पसीजा हुआ चुकता हुआ , जो था । अब नहीं है ?

तुम मुझे कितना सुख देना चाहते हो ? लड़की भोलेपन से पूछती ।
मैं तुम्हें सपना देना चाहता हूँ और तुम सुख की बात करती हो ? लड़के की आवाज़ में एक बेचैनी है ।
लड़की थोड़ी हैरान है । ये कौन सी भाषा बोलता है ।इसके सुर इतने अलग क्यों हैं ?
फिर तुम मुझे सपना ही दो । जो दे सकते हो वही तो दोगे । और जो जितना दोगे वही उतना ही तो लूँगी ।
तुम कैसी अजीब बात क्यों कहती हो ? लड़का बेचैन है । लड़की अपने दुख तकलीफ को लेकर अपनी माँद में घुस जाती है ।

तुम मेरे लिये क्या करतीं रही आज ? लड़का पूछता है ।
लड़की कल की बात से नाराज़ , कुछ भी नहीं किया तुम्हारे लिये।
ठीक है । लड़का झटके से फोन रख देता है ।

फिर हफ्ते महीने बीत जाते हैं बात किये ,मिले हुये । लड़की पता नहीं क्या सुनना चाहती है ।लड़का पता नहीं क्या कहना चाहता है । उनके शब्द एक दूसरे को बिना छूये निकल जाते हैं । बीच की कोई हवा है जो बहती नहीं ।

लड़की कभी कुछ सीखती नहीं । उसे रूल्ज़ ऑफ द गेम नहीं मालूम ।

तुम्हें पता है शतरंज में हाथी प्यादा वज़ीर कितनी चाल चलते हैं ? ब्रिज कैसे खेला जाता है ?
मुझे तो मोनोपॉली तक खेलना आता नहीं । लड़की अबकी बार हँसती है । फिर सोचती है सच मुझे तो किसी भी खेल के कायदे कानून नहीं मालूम ।

तुम रूल्ज़ तय करो और मैं सिर्फ फौलो ? ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिये कि ये खेल ज़रूरत का है । जिसकी ज़्यादा है वही फौलो करेगा न ।

फिर लड़की की समझ में पहला नियम साफ साफ आ जाता है । ठीक ! और वो अपनी ज़रूरत कम करने में जुट जाती है ।

आर यू डम्पिंग मी ? लड़का हैरान दुखी है । व्हाई ?
लड़की कहती है , मैंने नियम बदल दिये इसलिये ?


बसाल्ट पत्थरों पर समुद्र की लहरें सर पटक रही हैं अनवरत । पर्यटकों का झुँड कॉरिक रोप ब्रिज पर ठंड से सिहरता तस्वीरें खींच रहा है । बेलफास्ट के किसी पब के बाहर भूरी लाल दाढ़ी वाला गायक कोई बैलड गा रहा है किसी प्राचीन डुयेल की , किसी अनरेक़्विटेड प्रेम की । औरत , काले टोपी और लम्बे नीले ओवरकोट में , पुरुष की बाँहे थाम लेती है । उसके कँधे से सिर टिका देती है । पुरुष बेसब्र हो कहता है , चलें अब ? औरत सुनना चाहती है गीत इस ठंड भरे शुरुआती दोपहर में , रुकना चाहती है कुछ देर और । खेल के नियम अभी उसे सीखना बाकी है । अभी तो पूरा खेल ही बाकी है ।

कॉबल्ड स्ट्रीट में पत्थरों पर से ठंड धूँये सी उठती है ,छूती है औरत के सर्द गालों को । लकड़ी के बेंच पर अपने बदन को सिकोड़ता लाल चेहरे वाला बूढ़ा जलाता है पाईप , उसकी उँगलियाँ थरथराती हैं पल को माचिस की फक्क से चमकती तीली के साथ । कुहासे में क्षण भर को रौशनी का बस एक गर्म गोला !

12/14/2007

ये टिकट कहाँ रिफंड होता है ?

मेज़ पर चुमकी की पायल रखी है । तब की जब वो साल भर भी की नहीं थी । अब कलाई तक में भी न आये । कमरा गुम्म है । सब चीज़ चेक कर लिया है । हफ्ते दस दिन से यही कर रहे थे । हफ्ता दस दिन क्यों ये तैयारी तो और पहले की है । बैंक आकाउंट में नाम बदलना , नॉमिनी डालना पेंशन ग्रच्यूटि के कागज़ातों पर , राशन कार्ड , वोटर आईडी , पैन कार्ड , एल आई सी की सारी पॉलिसियाँ , किसान विकास पत्र और एन एस सी के सर्टिफिकेट्स, मकान की रजिस्टरी के पेपर्स , शेयर सर्टिफिकेट्स । सफर पर चलने के पहले कितना काम । सब एक मैथेमैटिकल प्रेसाईशन से करते रहे । लिस्ट बनाई और हर काम खत्म होने के बाद टिक किया । अब बाकी रहे सिर्फ दस , पाँच , तीन दो एक । सब निपटाते समय जीवन भर की अकाउंटैंसी से उपजे कार्यकुशलता का तानाबाना हर कदम पर दिखता रहा । मन को उठा कर कोने वाली दुछत्ती पर डाल दिया था ये पहला अच्छा काम किया था । जयंती तक साथ होती तो समझ नहीं पाती ।

सिर्फ एक सबसे बड़ी चीज़ तय करने की रह गई है । सफर पर निकलें कब ? चुमकी लौट जाये या उसके पहले । दस दिन से सिर्फ इस कमरे उस कमरे डोल रहे हैं । ये कोने वाला स्टडी टेबल शादी के जस्ट बाद खरीदा था , विपुल से उधार लेना पड़ा था । और ये पलंग , किश्तों पर । गैराज में सड़ रही फियेट जंग खाई , कितनी जद्दोज़हद के बाद बैंक लोन से । बाद में ज़ेन आ गया था । फिर चुमकी के आग्रह पर एस्टीम । ज़ेन बिका था उस नुक्कड़ वाले किराना दुकान के मालिक को । फियेट अब भी धरी है , चूहों मूसों का घर । दीवार पर हाथ फेरते याद करते हैं ,किस बचकाने उत्साह से फर्श के टाईल्स , खिड़कियों के शीशे , बाथरूम के फिटिंग्स लाये थे । जयंती कैसा नाराज़ हो गयी थी , रसोई तो होगी खूब बड़ी और बिलकुल जाने कब से सँभाल कर रखी गई ब्रिटिश पत्रिका वाला किचेन .. रोज़वुड कबर्डस । और गेट पर मालती लता का लतर । दरवाज़े पर पीतल के अक्षरों से नाम लिखा उनका और जयंती का । कैसा खुश हुई थी जयंती । हर बार कहीं बाहर से घर में घुसती तो हाथों से एक बार सहला लेती अपने नाम को । लेकिन अंत में बड़ा कष्ट झेला बेचारी ने । कैसे टुकुर टुकुर याचना भरी नज़रों से खिड़की से बाहर ताकती ।

इस पाँच कमरे वाले भभाड़ घर में , इस विशाल हाते में अकेले कितना भूत बने डोलें । रामदीन माली भी साल भर पहले गुज़र गया । अब उसका बेटा महीने दो महीने में आता है । सब फूल खत्म हो गये । जंगली झाड़ फैल गयी है सब तरफ । अबकी दफे चुमकी आयी तो कितना गुस्सा हो रही थी । क्या हाल बना रखा है अपना और घर का पापा ? अपने मैनीक्योर्ड लौन और पिक्चरपोस्टकार्ड घर की तस्वीरें दिखाती रही । कितनी दूर और कितनी अलग दुनिया है उसकी । यही मेरी बिट्टी चुमकी ?

अब दिमाग में सिर्फ एक हथौड़ा बजता है , अकेले अकेले । रात बिरात क्यों दिन में भी कुछ हो जाये फिर ? पिछले रो वाले बंगले में विश्वबंधु जी का क्या हुआ ? तीन दिन तक किसी को पता तक नहीं चला । कैसे हदस से मन भर जाता है । घड़ी की टिक टिक , पँखे का एक गोल धीमा चक्कर , नल की टोंटी का टपकना...... सब बीतता है न बीतते हुये भी । जयंती होती तो मन की भाषा में समझाती । यहाँ तो सिर्फ हिसाब किताब करने पर फॉर्मुला का अंतिम इक्वेशन ही दिखता है । एक सरल उपाय ।

रात गेट पर ताला लगाया । सब खिड़कियाँ दरवाज़े बन्द किये । छत वाले किवाड़ पर छोटा ताला लगाया । सारे बाथरूम के नल चेक किये । फिर साफ सुथरे बिस्तर पर लेट गये । धुले हुये कपड़े । चप्पलों को करीने से बिस्तर के ठीक सामने रखा । बस ये अंतिम बार पहनना हुआ । चुमकी मेरा बेटा चुमकी , खुश रहो खुश रहो । नाराज़ होगी फिर भी यही सही था । एक अंतिम बार साईड टेबल पर रखा चुमकी को लिखा गया पत्र देख लिया । नींद की गोलियाँ गले में अटकी थीं ज़रूर । छाती पर हाथ बाँधते डर का एक भयानक आवेग झकझोर गया । कूद कर गड्ढे के पार सुरक्षित पहुँच जाने की मर्मांतक टीस ! बस एक मौका और ? शरीर से कुछ निकल बहा हो । सिर्फ एक अंतिम नींद भर ही तो ।

(हफ्ते भर बाद चुमकी पापा के लिये लाया ऐयर टिकट थमाती है ज़फर को , देखिये कुछ हो सकता है ? रिफंड ? फिर फफक कर रोने लगती है )

12/11/2007

मुन्नव्वर तुम्हें प्रेम हो गया है !

मुन्नव्वर सुल्ताना बेगम आज ज़रा मायूस थीं । शीशे के सामने घँटो बिताये पर बालों की काकुलपत्ती ठीक ठीक नहीं सजनी थी सो नहीं सजी । एक लट भी कमबख्त घूँघर न होना था फिर लाल गुलाब का फायदा क्या । उसपर तुर्रा ये कि हाले दिल बेहाल । न उनको सुनाया गया न थाम के नौ गज शरारे के खम में छुपाया गया । जूतियाँ तक पैरों में ऐसी काट खाती थीं कि बस , इस पहलू उस पहलू बेचैन लहर मचलती बस । पान और ज़रदे किमाम की खुश्बू से सिर घूमता था । छोटे नक्काशीदार हत्थे वाले आरसी में जहाज जैसे पलंग पर लेटे लेटे जाने क्या देखती सोचती थीं ।

काहिरा अंकारा के बुर्जों पर शाम ढलती थी । कहवाघरों में धुँआते अँधेरों में बहसे गर्म होती थीं । यहाँ इस लाल पत्थरों वाली हवेली पर अँधेरा चुपके से आता था । चमगादड़ निपट अँधकार में उलटे लटके घँटे गिनते थे । दान्यूब के तट पर बर्फ जमती थी । समोवार की गर्म भाप चेहरे को कंठ के पहले धिपा देती । आग और बर्फ का खेल चलता । सरदी और गर्मी की रस्सी कूदते मौसम बदलता । सेंट पीटर्सबर्ग स्कायर पर लाल मफलर ओढ़े इर्वीना स्मेलोवा ओदोलेन स्मेलोव के हाथ में अपना हाथ , ठंड से चिलब्लेन वाले हाथ , थमा देती । नील नदी पर बजरे पर तैरते अमोन और ज़हरा पानी में डुब से डुबकी मारते सूरज को देख देख उदास मुस्कुरा देते । मिराबो में अनातोल मारी अन्ना को देख कहता , j'avais aimé une fois , मैंने प्यार किया था कभी । उसकी आँखें कहीं सुदूर चली जातीं । नहीं देखती कि मारी अन्ना का चेहरा फक्क पड़ गया है । ऑस्टिन में सिगरेट से धूँआ छोड़ते , धूँये से आँख मिचमिचाते नाओमी अचानक रसेल को कहती मूव अवे हनी , मूव अवे । रसेल मूव अवे नहीं करता , बस इंतज़ार करता , इंतज़ार । दुनिया में जाने कहाँ कहाँ औरत और मर्द यों हाथ में हाथ डाले चुप घूमते , बिना एक शब्द बोले बतियाये । ऐसे जोड़े जो बिना कहे एक दूसरे को समझ लेते । और ऐसे भी जो खूब खूब बोलकर भी ज़रा सा भी नहीं समझते । कतरा भर भी नहीं । न एक दूसरे को न खुद को । और जीवन बिता देते इसी मुगालते में कि समझ लिया सब।

मुन्नव्वर जान दौड़ कर जाती मेहराबों वाले झरोखे पर , पल भर को झाँकती फिर पलट निढाल गिर पड़तीं । साटन और किमखाब के चादर पर बदन फिसल जाता । कितना दुख । मिस मजूमदार होतीं तो कहतीं ,की दारूण कोथा , फिर अपना चाँदी का गुच्छा अपने सलोने कमर में खोंस होंठ दबा कर अफसोस ज़ाहिर करतीं । मुन्नव्वर मुन्नव्वर ! तुम्हें प्रेम हो गया है । मुन्नव्वर छाती पर हाथ धरे आँख फाड़े एक पल को मिस मजूमदार को देखती है । प्रेम ! मुझे ? फिर एकाएक बिस्तर पर ढह जाती है । हँसते हँसते उसकी आँख से आँसू की धार बहने लगती है । मिस मजूमदार अफसोस और करुणा से उसकी तरफ देखती हैं । उफ्फ बेचारी लड़की ! हाथ में पकड़ा वर्जिनिया वुल्फ की मिसेज़ डैलोवे ज़रा और कस कर पकड़ लेती हैं । मुन्नव्वर की हँसी अब जा कर रुकी है । ओह मिस मजूमदार , प्रेम नहीं मुझे तो सिर्फ बदहज़मी हुई है बदहज़मी । डाईज़ीन की गुलाबी गोली बड़े से बड़े प्यार पर मजबूत पड़ती है ।

12/08/2007

दिदिया तू कितनी अच्छी है

कैसी खुशबू उड़ती थी जानमारू ! कितनी बार तो झाँक झाँक गये । टोह में । पर कोई सुनगुन न कोई नामोनिशान । बल्कि हर बार खदेड़ दिया गया बाहर बाहर से ही । एक ही बार आना जब बुलायें । यूँ दिक न करो । ठिसुआये मुँह बैरंग वापस । मन ही मन पक्का निश्चय करते कि अब न आयेंगे । पर उड़ती खुशबू खींच लेती और तमाम पक्के कच्चे इरादे छन्न से भाप बन उड़ जाते । जाने सुबह से क्या आयोजन हो रहा था । भूख पेट में सेंध मारती थी गुपचुप । नहाये धोआये पीढ़े पर बैठे थे कब बुलव्वा हो जाने । अम्मा ईया , चाची फुआ यहाँ तक कि दिदिया और बदमाश मनी भी भी कहाँ अंदर गायब थी । मनी तक को बुलाओ तो अभी नहीं बाद में कह फिर अंदर गायब । लाल पीले पाड़ की साड़ियाँ , बड़ी बड़ी लाल लाल बिंदी , छमछम चूड़ी । दिदिया कैसी सुंदर सलोनी लगती है । मनी तक छोटके चाचा के ब्याह में सिलाया हरा लहंगा पहन इठला रही है , बदमाश कहीं की ।

बाहर बरामदे पर बैठे डल्लन के घर की मुर्गियाँ निहारने के आलावा और क्या करें । कारू ही आ जाये तो लट्टू ही खेल लें कुछ देर । आज अम्मा कहाँ मना करेगी । मेरी फुरसत हो तब तो । नीचे का होंठ मान में लटक गया । ये पीला कुर्ता और उजला पजामा अलग जी का जंजाल है । अम्मा ने खास चेताया है , खबरदार जो गंदा किया । बाबूजी बाबा बड़के चाचा सब ऐसे तैयार बैठे हैं जैसे कहीं जाना हो । पर खटारा गाड़ी तो पीछे के शेड में बन्द है , फिर ? ऐसे भी गाड़ी में कुनबा निकले तो कारू और मंगल , हरि और राघव सब मुँह छिपाये खटारा फियेट पर हँसते हैं ऐसा डर हर बार सताता है । बड़ी शरम आती है तब । इससे अच्छा तो रामजीत का रिक्शा है । कैसी फरफर हवा मिलती है । और हैंडल से लगा बड़ा सा आईना जिससे जाने कितनी ललरिया फुदनिया लटकती है , उसमें अपना चेहरा कैसा बुलंद भी तो दिखता है । सारी दुनिया का नज़ारा दिखता है सो अलग । पूछ लें क्या बाबा से , निकलना है क्या, बुला लायें नुक्कड़ से रामजीत को ? पर पहले कुछ खा तो लें । कब बुलायेंगी जाने ये अम्मा भी ।

पीछे के दरवाज़े से अंदर आँगन में घुसते ही दिखती हैं परात में लाल लाल खस्ता कचौरियाँ । एक उँगली धरो तो ऊपर का हिस्सा कुरमुरा के टूट जाये । आलू मटर की रसेदार तरकारी के साथ अभी मिल जाये तो क्या कारू से जीती हुई गोलियाँ ? फुआ की नज़र उस पर पड़ जाती है । उफ्फ अभी फिर निकाल बाहर करेंगी । पर नहीं । अबकी फुआ हँस कर उसे भीतर खींच लेती हैं । एक तरफ आँगन में गोधन की कुटाई हुई है , पूजा का सब सामान अब भी पड़ा है । आ रे .. सुमी और मनी टीका लगा लें , प्रसाद खिला लें । अम्मा हाथ में धरती हैं सिक्का , टीका लगायें तो हाथ पर रख देना बहनों के । दिदिया को दें सो तो ठीक पर मनी को ? कैसे इतरा रही है । बाद में इसी सिक्के से जलायेगी उसे । लड़की होने के कितने फायदे हैं ।

कचौरी का पहला गस्सा दिदिया उसके मुँह में डालती हैं । खा लेगा अपने से ? थाली अपने गोदी में खींचते कहता है , खा लेंगे , तुम सिर्फ बाद में मिठाई खिला देना हाँ । दिदिया उसके बाल बिखेर देती है फिर सटा कर छन भर , हँस कर परे धकेल देती है । माथे पर अक्षत और रोली का टीका चुनचुनाता है सूखकर ।

12/07/2007

टू गो व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर

(डायरी का पहला पन्ना ........ जो लिखा गया नहीं है अभी इस समय में , किसी भी समय में पर जो घटता है इस समय में , किसी भी समय में )


सब चीज़े ऐसे ही धीरे धीरे चुक जाती हैं बेसान गुमान के । मैग़्नीफाईंग ग्लास का शीशा खेल खेल में कलाई पर रखा तो मग्नीफाईड कोशिकाओं का जाल किसी सौ साल के बुड्ढे की चमड़ी दिखा गया । सिहर कर आँख बन्द की तो लेकिन तब तक सिहरन दौड़ चुकी था शिराओं में । धूप में बैठे सुसुम वाईन का घूँट मुँह के अंदर ज़ुबान पर गुनगुना था और गुनगुना था जीवन का बीतना मुँदी आँखों के भीतर किसी सूरज का चमकना किसी नये तारे का जनमना ।

मिमोसा के पत्तों पर नीचे एक भुआ पिल्लू स्थिर जड़ा था । लैब के अंदर कुछ रहस्यमय कारगुज़ारी चल रही थी । चश्मे के मोटे शीशे भाप से धुँधलाये थे । आकृतियाँ रेटिना के पहले बनती थीं और दिमाग के न्यूरांस चटक रहे थे । तारों और पाईप्स का जाल । पूरा सयंत्र क्रोम प्लेटेड चमचमाता , न एक कण धूल । कंट्रोल्ड अटमॉसफियर !

पेट्री डिश में उबल रहे थे बुलबुले नीले और नीले । डीप फ्रीज़र में न्यून्तम तापमान कल्पना के परे था , कोई फ्रिजिड ज़ोन । जहाँ साँस थम जाती है , लहू जम जाता है , हृदय धड़कना बन्द करता है ..एक पल का एक सदी का आराम । उस क्षण के ठीक ठीक बाद फिर दुगुने आवेग से सब शुरु होगा , नया जलसा नया आयोजन..एक और नया त्यौहार । कोई पुच्छल तारा टूटा है अभी अभी कहीं।

भुआ पिल्लू सरक कर दूसरे पत्ते की टहनी तक पहुँच गया है । मेरे वाईन खत्म करते करते नीचे की काली मिट्टी तक पहुँच जायेगा , इसके आज के जीवन का प्रयोजन जैसे मेरा.... इस वाईन को खत्म कर के सफेद लैब कोट धार के झुकूँगा मेज पर , उठाऊँगा फॉरसेप से एक महीन बुलबुला और फूट पड़ेगा बेइंतहा कोई छतफोड़ ठहाका ?

फिलहाल टाँगे आगे फैलाये धूप चेहरे पर लेते बीतता है एक पल फिर एक पल । किसी और समय में घटित होती हैं किसी और के जीवन की बातें । किसी फिबोनाची नम्बर्स का जादू उलझाता है किसी दिमाग को , कितनी चालें ? शह और मात । घोड़े प्यादे और वज़ीर लेते हैं डेढ़ चाल , पिटती है रानी , गिरता है शहसवार मैदाने जंग में , छोड़ती है हेलेन मेनेलॉस को किसी पेरिस की चाह में ..यही था वो चेहरा दैट लौंच्ड अ थाउज़ैंड शिप्स ? क्रूर क्रूर नियति , क्रूर जीवन की गति ।

मुन्दी आँखों के भीतर सब घटता है एक एक करके , कभी सिलसिलेवार कभी बेतरतीब । मैं भी घट रहा हूँ शायद किसी और की मुँदी आँखों के भीतर ? या क्या पता किसी भुआ पिल्लू के सरकने जैसा ही निष्प्रयोजन है मेरा अस्तित्व ? फिर कहाँ जाना चाहता हूँ मैं ? वहाँ कहाँ जहाँ कोई अब तक गया नहीं । व्हेयर नो मैन हैज़ गॉन बिफोर ?

12/06/2007

नीचे पल्प की दुकान ऊपर खाली आसमान

पात्र ..सिर्फ दो ..बोबा बे और रामिनी ममानी
स्थान लक्मे ब्यूटी सलून
समय दोपहर साढ़े तीन बजे
दिन आह सप्ताह खत्म होने को चला ..आज शुक्रवार है



(बालों पर ड्रायर का हेल्मेट पहने , चेहरे पर लेप प्रलेप लगाये , आँखों पर खीरा के दो गोल टुकड़े सजाये )


र: कुछ सोचा हमारे ज्वायंट वेंचर के बारे में ? धूप में बैठकर गैलेरिया टाईप किताब और म्यूज़िक की दुकान चलाने का मज़ा ... साथ में कॉफी शॉप

ब: वेरी अप मार्केट और हम सिर्फ एक्सेंटेड अंग्रेज़ी बोलें

र: अरे रिवर्स स्नॉबरी भी चल सकती है । भोजपुरी या हिन्दी ?
ब: या तो एक्सेंटेड अंग्रेज़ी या फिर ठेठ भोजपुरी ..जो अंग्रेज़ी बोले उससे भोजपुरी बोलें और वाईसवर्सा ....

र: और क्या पहनें ? हैंडलूम की साड़ी या किरण बेदी टाईप कुर्ता विद जैकेट

ब: सीधे कटे स्फेद स्याह बाल .... बीड्स और लकडी की चीज़ें .... बहुत सारा ऑरगैनिक स्टफ

र: बड़ी बिन्दी ? डॉली ठाकोर या स्वप्न सुंदरी ?

ब: काजल , सुरमा और देसी चाँदी के गहने ?

र: सारे एथनिक कपड़े...कुच्छी लहँगे ..मोजरी ... लिनेन लिनेन

ब: सिर्फ इसोटेरिक जारगन बोलें ..नाक हवा में ... शोभा दे टाईप बिची बिच ?

र: एक्सिस्टेंशियलिज़्म ? मेटा फिज़िकल ? इम्पेरीसिज़्म ....एपिस्टेमेलॉजी ....वगैरह वगैरह ?

ब: शायद एक सिगरेट चाँदी के होल्डर में जो हम कभी फूकेंगे नहीं , सिर्फ प्रभाव के लिये ( मुझे तो आस्थमा की बीमारी है )

र: या फिर बीड़ी ? पान रंगे दाँत भी हो सकते हैं ..वहीदा रहमान जैसे ?

ब: बीड़ी जिसे हम ऑफर करें वीआईपी कस्टमर्स को ..नक्काशीदार ट्रे में ?

र: हाँ जी

ब:: जिसको बीड़ी ऑफर किया समझो दे हैव अराईव्ड

र:फिर लम्बी लाईन ..दुकान के बाहर

ब: हमारी दुकान के बाहर दिखना माने स्टैटस सिम्बल

र: फिर हम आई एस ओ सर्टिफिकेट भी ले लेंगे

ब: नहीं लम्बी लाईन नहीं ..वेरी सेलेक्टिव .. हेवी ड्यूटी डिसकशन ..माल खरीदो सौ के बात करो हज़ार के

र: ओह ला..डी डा .. वेवी वेवी अपर क्लास !

ब: ये भी हम तय करेंगे कौन अपर क्लास ..पारंपरिक मूल्यों को उलट पुलट देंगे

र: हाँ जी .. अरोमैटिक पॉटपोरीज़ बिखरे इधर उधर और एक तरफ गोबर अपनी मिट्टी से जुड़े होने का असर दिखाता

ब: कुल्हड़ में चाय और गोबर गैस की अंगीठी ?

र: पेज थ्री सोशलाअईट्स लड़ मर रहेंगी गोबर पाथने के लिये ....ऊह वॉट ऐन एक्स्पीरीयंस ...ट्रूली माईंड ब्लोईंग न ? लेट्स चिल आउट बेबी !

ब: हाँ .. मेरा गोईठा तेरे से अच्छा टर्न आउट किया मैन

र: डिज़ाईनर वंस ओनली ? क्या

ब: मार्केटिंग मार्केटिंग .. फिर शुरु करें

र: (उबासी ) अगले हफ्ते पेडिक्योर कराने आते हैं ..तब तक ...सोचते हैं ..( रेस्तरां ...डिज़ाईनिंग ...और क्या क्या करें .....बोबा का क्या ..पल्प लिखा ..ऐश की ...)

लिखवैया .. पी स्कायर ..मतलब दो प ..बूझो कौन ? ओह ! कितना फलसफा ?

12/04/2007

प्यार में माईग्रेन ?

काली कॉफी के तल में छूटी हुई हैं कुछ बातें । धूप की सीढ़ी चढ़ दिन पहुँच जाता है छत पर , सो जाता है अलस्त दोपहरी ।

आर यू हैप्पी ? सिगरेट की राख सवाल के साथ साथ भुरभुरा कर गिरती है ट्रे पर ।

सामने बच्चे खेलते हैं फव्वारे के चारो ओर । हवा बहती है छूती है इसको उसको , कोई स्कार्फ , कोई शॉल हिलता फड़फड़ाता है । सेल पर बात करती लड़की हँसती है अचानक । चौंक कर मुड़कर देखती है फिर मगन हो जाती है । कॉफी का प्याला प्लेट पर गोल घुमाती औरत सोचती नहीं है । दिन के इस वक्त जड़ा हुआ ये पल तौलती है । आदमी के आर यू हैप्पी को तौलती है । तौलती है दर्द के चिलकने को । टीस की टोपी ओढ़े सिर थामे स्थिर ।

आदमी बाहर देखता है ,सिगरेट फूँकता है । सब तरफ देखता है । औरत आदमी को देखती है । उसके न देखने को देखती है । फिर बैग से निकालकर कोई सा भी पेनकिलर गटकती है । क्या फर्क पड़ता है ।

कमरे में बिखरी हैं नीली दरियाँ । हर रंग का नीला । और कोने में इज़ेल , आधा चेहरा । बेंत के काउच पर अब भी निशान है देह के ढलकने की ,बाल के एक रेशे की , रात के स्मृति की । बाहर पेशियो पर गीले पत्ते सिहरते हैं कुहासे में । ठंड चाय की प्याली में डूबता उतराता है । गद्दे पर निढाल पड़े आदमी को देखती है औरत । पीछे बजता है कोई धुन रेडियो पर ,काँपती है आवाज़ । आदमी की उँगलियों पर अब भी निशान हैं पेंट के । तारपीन के तेल की महक सूँघती है औरत नाक भर कर ।

एक नस फिर तड़कता है , बिजली फिर कौंधती है । औरत सोचती है आज भी असर नहीं हुआ , ये कमबख्त पेनकिलर ! इज़ेल के आधे चेहरे में ढूँढती है हैप्पीनेस का डेफिनेशन ।

11/30/2007

बाथटब आदमी और कनगोजर

ओह कैसी भटियारी ज़िंदगी है । सड़क की धूल भरी गर्द फाँकता सोचता है आदमी । एक लाईन से इकतल्ले दुकान , माँ अम्बे टेंटहाउस ,स्नोव्हाईट लौंड्री , महावीर भोजनालय का शुद्धशाकाहारी भोजन , साईं फोटोकॉपियर ,मित्तल केमिकल्स से लेकर गुड्डु पप्पी दी गड्डी और बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला , नींबू मिर्ची का टोटका ... कैसी प्रेडिक्टेबल ज़िंदगी है । कोल्हू का बैल हुये सब । इक्के का घोड़ा जिसकी आँखों पर काली पट्टी जिससे सिर्फ आगे आगे देखे । आजू बाजू अँधकार शून्य ।

औरत सिर्फ रंग सोचती है । दिनरात रंग । उठते जागते रंग । इतना कि आँखें थक जाती हैं फिर खाली स्याह सफेद दिखता है । सोचती है सिर्फ सोच लेने से भर से हो जायेगा ? हुआ है क्या ? फिर ? फिर भी फिर भी । औरत की छाती हुम्म हुम्म करती है ।

कबाड़ीवाले के टाल पर अंबार है रद्दी का , टूटे फूटे कबाड़ का और किनारे पड़ा है एक पुराना इनामेल का बाथटब जिसे जोसान ने प्यारी मटिल्डा के लिये खरीदा था सन उन्नीस सौ तेईस में । नीली आँखों वाला जोसान और हरी आँखों वाली मैटी प्यानो पर जब बजाती थी , आई वॉन्ट से आई विल बट आई वॉन्ट से आई वॉंन्ट , तब जोस देखता था कैसे उसे । पर आदमी को क्या पता कौन जोसान कौन मैटी । यहाँ इस छोटे से कस्बे में इसाईयों के कब्रिस्तान में कैसी जंगली हाथी घास उग आई है । बकरियों मेमेनों का झुंड टूटी दीवार से कभी कभार अंदर घुस आता है तब गले बँधी घँटी की रुनझुन में प्यानो की अवाज़ ऐसे ही गूँजती है । तब गड़रिया टूटी मुंडेर पर बैठ कर आसमान तकता है रूई बादल ।

उस छोटे से घर के बड़े से आँगन में कोने में खूब सेरेमनी के साथ बाथटब टिकाया जाता है । औरत फिक्क फिक्क हँसती है । हाय ! कौन नहायेगा इसमें ? मैं तुम कि ये हमारी मुर्गियाँ ? हाय , पेट पकड़ पकड़ कर दोहरी होती है । इतना कि आँखों में आँसू झिलमिला जाते हैं । और आँसू में बेहिसाब रंग ।
आदमी झेंपा मुस्कुराता है । कान खुजाता है सिर झुकाता है फिर हँसता है । बाथटब के कोने पर बैठ बैठ हँसता है । लायें हैं तुम्हारे लिये और क्या ?

इस प्रेडिक्टेबल ज़िंदगी में कुछ अनप्रेडिक्टेबल कर देने के आहलाद से भर जाता है आदमी का मन । औरत की हँसी रसभरी है और आँगन का कोना धूप के टुकड़े में झिलमिल करता है । इनामेल के बाथटब के नीचे तल से सटा कनगोजर ज़रा सा और अंदर ठंडे में सरक जाता है ।

11/23/2007

ओह ब्लेम इट ऑन द डीएनए बडी

(आज मैं हुई चिराग का जिन्न , ऐसा उसने कहा । क्या दे दूँ कहाँ दे दूँ । ऐसा कि दिग दिगंत लोक पाताल सब भर जाये । अंदर समुद्र हरहराता था । पेड़ पौधे नदी नाले , चर अचर ,जल थल । सब तरफ धूँआ ही धूँआ । और बीच में घूमता था गोल गोल चिराग भी जिन्न भी और वह भी जिसे दिया जाना था पर जो ले नहीं सकता था । ले लेना आसान नहीं होता ये वो जानता । इसलिये कि लेते ही देने का खेल शुरु होता है और उसके पास न चिराग , न जिन्न न मन । ये भी जानती थी जो देना चाहती थी । उसे पता था जिस पल सब थिर होगा उसका देना भी रुक जायेगा । तब चिराग धूँये सा काफूर हो जायेगा । वक्त निकल रहा था गला भर रहा था । खाली तलहथी पर कोई फूल नहीं था , धूँआ भी नहीं था , कुछ नहीं था । जिन्न का जादू तो नहीं ही था ।)

बदन की कोशिकायें पीले पत्तों सी झर रही थीं । चाय की केतली में पत्तियाँ जैसे तल पर नाचती फिर थमती हैं । किसी जीनोम के डीएनए में छुपा गुप्त आज्ञात कोड अपना काम बेआवाज़ एफ्फीशियेंसी से कर रहा था । हज़ारों लाखों साल से रिबन में पंच हो रहा था हर एक क्षण के घटित होने का हिसाब । कैसे लम्बे इक्वेशंस , महीन फॉर्मुलाज़ , कोई अलोगरिदम ... पाईथॉगरस या यूक्लिड ,जाने क्या क्या सिम्बल्स । किसी उज़बक पागल साईंटिस्ट का सोचा हुआ कोई अजूबा प्रोसेज़ जहाँ आधा किसी पीले कम्प्यूटर शीट के हरे प्रिंट में धड़क रहा था और बाकी किसी वेरियबल स्मृति पर द्वार ठकठकाते अपने आगमन का ऐलान करता होता । बीकर में उबलता फफकता बैंगनी धूँआ ,पिपेट की एक फूँकी बून्द पर ..... जैसे एक फूँक पर चू पड़ी ज़िन्दगी । हर घटना के पीछे करोड़ों करोड़ों छोटे कीड़े कुलबुलातें हो , किस लार्वा से कैसा प्यूपा ? फिर कैसी तितली ? रानी मधुमक्खी बैठी है अपने छत्ते के बीच में । काम चल रहा है अनवरत चलती चीटियाँ । प्रोग्राम्ड फॉर इटरनिटी ।

कितनी अंगड़ाई ले कर पीठ ठोकते हैं । ये किया वो किया , जाने क्या क्या किया । हमने किया , हमने कहा । ओह , आह । किया किया । गर्द गुबार पर आँख मींचा । नहर खोदे , बाँध बाँधा , अपना मन साधा । ओह जीवन जीया ..हमने हमने । इतना पढ़े इतना भूले । साईबेरियायी क्रेन और अपलूज़ा घोड़े , बेलूगा कवियार और टॉर्टिल्ला फ्लैट ,कम सेप्टेम्बर। ज्ञान बाँटा आज्ञान बाँटा । मन ही मन उत्फुल्ल रहे गुलफुल रहे । नहीं बाँटा तो सिर्फ एक चीज़ , पकड़ के रखा , छाती से संजो के रखा । हाँ जी ले के जायेंगे अपने साथ । वही अपनी खाली हथेली का सच । सच !

डीएनए में छुपा कोड हँसा , गुपचुप हँसा । हर हँसी पर पंच किया हुआ कोड लहराया । ब्रेल के डॉट्स और डैशेज़ । किस अशरीरी उँगलियों ने पोर फिराया । एक डॉट और एक डैश और बदल गया । हाँ जी पूरा जीवन बदल गया । मुन्ना तू तो ऐसा न था । बेवकूफ बुचिया बबली बॉबी कैसे बनी । मैंने दिया दिया बेहिचक दिया । न कोई जिन्न न चिराग फिर भी दिया । उसने नहीं लिया , हिज़ लॉस व्हाट द हेल ? मेरा कोडबुक फॉल्टी ? ओह ब्लेम इट ऑन द डीएनए बडी !

11/21/2007

हमने उनको हँसते देखा

खाने की थाली लगी थी । रोटियाँ , थोड़ा सा चावल , कटोरियों मे दाल , सब्ज़ी , दही । दाल सब्ज़ी चावल सान कर भाई छोटे छोटे कौर बनाते , बात करते जाते थे । एक कौर मुँह में और उसके बाद का दूसरा ज़रा सा खिसका कर थाली के कोने में , सामने की ओर । वो मुस्कुराती , बनाया हुआ कौर उठा कर खा लेतीं । बात और खाना दोनों आराम से आफियत से , सलीके से । बीच बीच में उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी गूँज जाती । तब हथेलियों से मुँह ढक लेतीं । शायद बचपन के किसी खुर्राट दादी नानी की डाँट उजागर हो जाती । मुँह दाबे उनका हँसता चेहरा किसी चौदह साल की शर्मीली हँसमुख लड़की में बदल जाता ।

कमरे में सामान अटा पड़ा था । पर हर चीज़ की नीयत जगह । एक तिनका तक टेढ़ा नहीं । जूठे बर्तन उठाये वो रसोई की तरफ चली जातीं । आदत थी रात को एक अंतिम चाय पीने की । छोटे से देगची पर ऊपर हथेली रख पानी के खौलने की गर्मी महसूस करतीं । दो पीले हरे कप में रिम पर उँगली रखे चाय ढारतीं । बाहर की ज़रा सी चौकोर खुली जगह में मोढ़े पर बैठे चाय पी जाती। लड़कियाँ अन्दर गुपचुप गप्प करतीं । डब्बे में रात की बनाई बिरयानी और रायता भाई पैक करते ।

प के लिये है । आज नहीं आई न । कहना भाभी ने भेजा है ।

रात मैंने खाना नहीं खाया था । पता था लड़कियाँ भाभी के घर गई हैं । फिर मेरे लिये सिंधी बिरयानी आयेगी ही । मैं जाऊँ न जाऊँ मेरा हिस्सा डब्बे में पैक ज़रूर आता था । भाभी क की मुँहबोली भाभी थीं । क मद्रासी और भाभी सिंधी । भाई पंजाबी । क की मुलाकात भाभी से तब हुई थी जब वो अपने आँखों के इलाज के लिये शंकर नेत्रालय गई थीं । लम्बा इलाज चला । तब वे लोग क के किरायेदार रहे कुछ दिन । तभी का रिश्ता था । अब जब क दिल्ली में थी तो हर इतवार उनके घर जाती । हम सब यानि क के दोस्त भी जाने लगे थे । लाजपत नगर की शॉपिंग के बाद हम सब निढाल भाभी के घर जा धमकते । कपड़े दिखाये जाते , रंगों का बखान होता । फैब्रिक छू छू कर देखा जाता । भाभी हँसती , गुलाबी रंग ? फिर तो प पर अच्छा लगेगा । और अ ने क्या खरीदा ? आज क्या पहना है ? आओ इधर । फिर छू छू कर देखतीं । कौन सा रंग है ? नीला होता तो अच्छा होता नहीं । ऐसी गप्पबाजी और खरीदारी का मज़ा लेने के बाद भाभी खाना बनातीं । हम अफरा कर खाते ।

भाई कोने में खड़े भाभी की मदद करते और मुस्कुराते । आज साल बीत गये । पता नहीं भाभी और भाई कहाँ हैं कैसे हैं । पर अभी भाभी के गोरे चेहरे और छोटे कटे बाल . खूब सलीके से पहने गये कपड़े , उँगलियाँ नेल पॉलिश्ड , सब एकदम टीपटॉप , और उस बड़े काले चश्मे के पीछे दृष्टिविहीन आँखें सब याद आ गये । और इनसब के ऊपर सिर पीछे फेंककर हथेलियों से होंठ दाबे उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी याद आती है , भाई का छोटे छोटे कौर बनाकर उनकी उँगलियों की पहुँच तक थाली में खिसकाना याद आता है ।

टीवी में चित्रहार में हिरोईन ने क्या पहना है , क ने बाल कटवाये तो कितने कटवाये , नये पर्दें कैसे लगे .. जाने कितनी छोटी बातों से हम लगभग भूल ही जाते कि उन्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता । तब हम छोटे थे और उनके जीवन के बीहड़ नीम अँधेरों की दुनिया हमसे बहुत बहुत दूर थी । कितने कितने सतहों पर वो जीती थीं ये हम अनुमान भी नहीं लगा सकते थे । अवसाद और उदासी उन्हें भी घेरती होगी । हताशा और निराशा से उनका खूब वास्ता भी पड़ता होगा । पर हमने हमेशा उनको हँसते देखा , खुश देखा ।

11/16/2007

तलाश है अब एक नये स्क्रिप्ट की

लपकते शोलों की लपट किस्सागो की आँखों में चौंध भर देती । अरेबियन टेल्स वाली शाहज़ादी हो जैसे । लुढ़कते पुढ़कते ऊन के गोलों सा किस्सा दर किस्सा खुलता जाता था , कभी रेशम कभी नीला । सब मुँह बाये भक्क सुनते थे बिना पलक झपकाये , बिना उबासी जम्हाई लिये । कहीं एक पल को भी किस्सा छूट न जाये । बरस बीतता जाता था । किस्सागो किस्सा कह कह नहीं थकता । बस सुनने वाले बदलते जाते थे । तभी उस भयंकर षडयंत्र का पता कहाँ किसी को चला था ? सब उस किस्से की नूतनता पर आह करते , गज़ब ! उँगलियाँ तक सिहर जातीं रोमाँच से , ओह अद्भुत ! अद्भुत । सिर डुलाते वेदवाक्य का जाप होता । किस्सा कोह हँसता मंद मंद । इस शातिर चालाकी पर बाग बाग । फिर किसी होनहार गुनहगार की तरह इसे कैसे ज़ाहिर किया जाय कि सुनगुन में रहा मस्त । फिर मस्ती बेपरवाह हुई मुर्झाई सुस्त । बेचैन हुई आत्मा बेचैन हुआ मन ।

वही किस्सा बरस दर बरस उमर दर उमर हज़ारों लाखों साल , जाने कितने लाईट ईयर्स कहा जाता रहा , शून्य में , समग्र में , जंगलों गाँवों में , भोर के झुटपुटे में , तारों के चमकने में , छाँह में , बचपन की उमगन में , बुढ़ापे की ठहराई में , सघन वन अमराई में । किस्सा जीवन का मरण का , बेचैन तड़पते दमतोड़ खुशी और टूटती काँपती रुलाई का । फिर भी हर जन्म पर वही नये खुशी के नवजात भाव और मृत्यु के गठीले कंठ फोड़ते भय के तराजू पर ऊपर नीचे होती ज़िन्दगी का , वही का वही बरसों बरसों का खेल चलता है अनवरत । सब फैल कर विस्तार में विलीन या सिकुड़ कर एक बिन्दु में समाप्त ? किस्साकोह अब मुस्कुराता नही । खेल का मज़ा हुआ मन्द । वही किस्सा बार बार कितनी बार ? और क्यों भला ?

तलाश है अब एक नये स्क्रिप्ट की , कुछ तड़कता फड़कता दमदार ज़ोरदार । कहा जाये कोई नया किस्सा तरबतर रसेदार । है कुछ आपके पास ? कुछ तेज़ तीखा मिर्चीदार । किस्सागो करता है इंतज़ार ।

11/10/2007

लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की तलाश

कल वो अमेरिका से वर्षों बाद दीवाली पर पटना पहुँचे । बचपन शिवपुरी , चित्तकोहड़ा के आसपास बीता । घूमते रहे गलियों में , बाज़ार में । खोज खाजकर घर ढूँढ निकाला । जो देखना चाहते थे नहीं दिखा , जो दिख रहा था आँखें उसे देख नहीं पा रही थीं । अपनी व्याकुलता की कथा सुनाते रहे । लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की धूल भरी गलियों को तलाशते हैं । कैसे बतायें क्या ढूँढते हैं क्या आँखें साफ शफ्फाक देखती हैं । जब चिकनी सड़कों पर लम्बी गाड़ियाँ फिसलती हैं , मन लौटता है उस गली जो अब सिर्फ स्मृति में महफूज़ है । उनकी बेकली शब्दों को पार कर उफन रही थी । कसीनो की जगमग , रौशनी और चकमक । छोटे दुकानों पर आलू और चावल की बोरियाँ , दस साल और बुढ़ा गया वही नाख्रुस टेलरमास्टर , एक एक कपड़े के लिये कितना दौड़ाता था , आज देख पहचान कैसा खुश हो गया । भिनभिनाती मक्खियों के ढ़ेर , बजबजाती नालियों से सजी धूल भरी सड़क , सड़क के बीचोबीच पगुराती गाय , औटो ,रिक्शे की गजर मजर । आह यही है होमकमिंग । मोहल्ले का सबसे शानदार घर अरे उसी आनंद का , पढ़ता था जो एक साल आगे , उफ्फ कैसा जर्जर हुआ आज । एक गुस्सा कौंधा । क्यों नहीं सब वैसा ही रहा जैसा मन में साबित साबुत है । कैसी दुखदायी टीस । क्या छूट गया पीछे क्या मिलेगा आगे । छोटे छोटे टूटे वाक्य । वही क्लीशेड इमोशंस । बार बार उस अजब से दुख को पकड़ लेने की नाकाम कोशिश में अटके शब्द । आवाज़ में अजीब हैरानी । कुछ न समझ आने जैसी गज़ब सी बात ।


क्यों हम हमेशा एक तलाश के गुलाम होते हैं । भौगोलिक दूरी को तो कभी पाट भी लेते हैं , समय की दूरी का क्या करें ? कैसे लौटें , कुछ दिन पहले , कुछ महीने पहले , पिछले साल , पिछले कई बरस ? हाय ! मन इतनी चीज़ों को क्यों सहेज रखता है । कोई ब्लैकहोल , कोई ट्रैश बिन कहाँ है जहाँ ये स्मृतियाँ गड़प से बिला जायें ?

एक उम्र पर आकर शायद हम सिर्फ पीछे लौटते रहते हैं । जितना हम वर्तमान में जीते हैं उतना ही अतीत में लौटते हैं । बढती उम्र के साथ ये लौटना डाईरेक्टली प्रोपोर्शनल होता है । मेरे शब्द भी ऐसे ही टूटे फूटे से थे । उनकी हाँ में हामी भरते । हम साथ साथ चित्तकोहड़ा बज़ार जो घूम रहे थे , घूम घूम कर चकित हो रहे थे । अरे ! अब भी बिलकुल वही का वही ? नहीं ? हमारे आहलाद के पीछे पीछे कंठ में एक रुलाई वाली टीस ,मैं भी हूँ , जैसा कुछ याद दिला रही थी । मुझे भी पटना लौटे चार साल बीत चले हैं ।

11/04/2007

ईवनिंग ब्लूज़


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
सड़कों पर साँझ उतर रही है । आसमान धूसर मटमैला है । नीचे एक भूरी बिल्ली उदास आँखों से छज्जे को देखती , झाड़ियों में बिला जाती है । पंछियों का लौटना भी जैसे उदासी का ही कोई राग हो । जैसे खत्म होने को दोहराता हुआ । लौट जाना भी जैसे खत्म होना होता होगा । पेड़ों के पत्तों पर से अँधेरा गहराता है । कुछ देर में नीचे शाखों से होकर ज़मीन तक फैल जायेगा ।

मन उदास बेचैन है । पचास चीज़ें उभचुभ कर रही हैं ,जी किसी में नहीं रम रहा । सामने के घर के छोटे लॉन में कुर्सियाँ लगी हैं । बगल में मेज़ पर क्रिस्टल ग्लासेज़ हैं , वाईन की बोतल । शायद कोई छोटी सी पार्टी । धीमा संगीत उठकर ऊपर मुझ तक आता है । अँधेरे में चुप बैठे सोचती हूँ कितने काम करने हैं , कितने बिलकुल नहीं करने । करने न करने के बीच मन यो यो जैसा डोलता है । कितना पढ़ना , कितना सीखना , कितना संगीत सुनना , कितना खाना चखना पकाना । कितनी दुनिया देखनी है । कितनी यायावरी , कितना पागलपन, कितना मिलना कितना छूटना । कितना कितना करना । मैं चुपचाप ढ़लती साँझ में बिना कुछ किये बैठी समय का बीतना महसूस करती हूँ । एक नशे में धुत्त पागल ऐडिक्ट वेटिंग फॉर अ फिक्स ?

10/30/2007

चार सौ एक नम्बर की बस रूट माने किस्सा कोताह किसी गुलफाम का

चार सौ एक नम्बर बस में भीड़ की रेलम पेल है । औरत बेहाल है । पसीने से तरबतर । दुपट्टा गले की फाँस है । बैग का स्ट्रैप कँधे पर दर्द की पट्टी छोड़ रहा है । है भी इतना भारी । जाने क्या क्या अल्लमगल्लम ठूँस रखा है , मुड़ा तुसा रूमाल , कँघी , बेबी का दिया हुआ छोटा सा बंद हो जाने वाला आईना , क्रोसिन और डिस्पिरिन की दो पट्टी , जेलुसिल का आधा पत्ता जिसमें सिर्फ दो टैबलेट्स हैं , वो भी एक्स्पायरी डेट पार करता हुआ , सूखा हुआ कत्थी रंग का लिपस्टिक जो कभी लगाया नहीं जाता , बिन्दी के दो पत्ते , एक काला गोल दूसरा कत्थी लम्बा , सेफ्टीपिन का एक गुच्छा , तीन चार क्लिप , मिसेज़ भल्ला का लाया चाँदी के ब्रेसलेट का डब्बा जिसके पैसे अगले महीने के तनख्वाह से दी जानी है , दो दिन से बैग में घूमता सेब , टिफिन का छोटा डब्बा , अधखाया पराठा , आलू का भुजिया और आम के अचार का रिसता तेल , छोटी एडरेस वाली डायरी , एक डिजिटल डायरी के बावज़ूद .. अभी तक डिजिटल छोड़ उसी पर हाथ जाता है पहले , एक पतली कविता की किताब , जिसे रखे रखे , बिन पढ़े भी , कोई कोमल भाव अब तक ज़िन्दा है जैसा सुख कभी रूई के फाहे से सहला जाता है , कुछ ज़रूरी कागज़ पत्तर , फोन का बिल , पिछले महीने खरीदे गये सलवार कमीज़ का सुपर टेक्सटाईल का बिल , लौंड्री का रसीद , डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्शन , मोबाईल का चार्जर , गुड़िया की मैथ्स की किताब जिसकी बाईंडिंग करानी है , आज भी कहाँ हुई ..... .. माने पूरी की पूरी दुनिया ।

औरत कँधे सिकोड़ती सोचती उफ्फ कितना भारी है बैग । आज शाम ही हल्का करती हूँ । गर्दन और कँधे की मांस पेशियाँ जकड़ गईं बिलकुल । बार बार उसका बैग कोने के सीट पर बैठे आदमी के सर से टकराता है । आदमी शरीफ है । ये झल्ला कर नहीं कहता , मैडम अपना बैग सँभालो । बस हर टकराहट पर एक बार आँख ऊँची कर औरत को देख लेता है । औरत हर बार शर्मिन्दगी और झेंप भरा मुस्कान देते हुये बैग को अलगाने का नाकाम उपक्रम सा करती है । अगर आदमी ने कुछ कह दिया होता तो लड़ पड़ती , ऐसे ही आराम से चलना है तो गाड़ी करो , हुँह । पर औरत भी शरीफ है , चुप रह जाती है । रोज़ का सफर है । 401 नम्बर की बस से इसी वक्त जाना है । दोनों शक्ल से पहचानते हैं एक दूसरे को ।


आदमी सोचता है क्या होगा इस बैग में । कोई रहस्यमय दुनिया , इस औरत का अंतरलोक ? उसकी इच्छा होती है एकबार बैग का ज़िप खोल कर अंदर झाँक ले । औरत सोचती है स्टॉप आने में अभी आधा घँटा और है । घर जाकर क्या सब्ज़ी पकाऊँ , दाल बनाऊँ कि नहीं , गुड़िया को होमवर्क कराना है , कपड़े धोने हैं , किराना दुकान से चायपत्ती लेकर जाना है , ओह कितनी गर्मी है सबसे पहले नहाना है । आदमी अकेला है । उसे घर गृहस्थी की ऐसी बातें नहीं सोचनी । खाना काके दी ढाबा में खाना है ,टीवी देखना है और पसर के सो जाना है । उसे ये औरत आकर्षक लगती है । ढलके बालों में और टेढ़ी बिन्दी में , क्लांत थके चेहरे में जाने क्या क्या सोचती जाती है । आदमी सोचता है आज कुछ ज़्यादा थकी दिखती है । क्या करूँ अपनी सीट दे दूँ । लगभग उठ सा ही जाता है फिर याद आता है , कितना तो काम किया आज । लेज़र की इतनी पोस्टिंग्स की । सारा बैकलॉग निपटाया , बैंक रिकंसीलियेशन किया । हाय पीठ अकड़ गई । आज तो काके के ढाबे में भी जाने की हिम्मत कहाँ । अपनी थकान की सोचकर फिर फैलकर बैठ जाता है । औरत बैग सँभालती सोचती है स्टॉप अब आ ही चला । आज का दिन तमाम हुआ ।

10/22/2007

या देवी सर्वभूतेषू

पूरी सड़क गुलज़ार थी । कागज़ के रंगबिरंगे गुलाबी पीले हरे तिकोने हवा में लहरा फड़फड़ा रहे थे । लाउडस्पीकर पर फुल वॉल्यूम गीत बज रहा था । छुट्टन के कब्ज़े में होता तो सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोले और निकम्मा किया इस दिल ने , बजने लगता और भोलाशंकर बाबू जैसे ही समझते कि बज क्या रहा है , तिलमिला कर पहुँचते और फट से भक्ति रस की धार फूटने लगती । माँ शेरांवालिये की मार्मिक पुकार साठ के ऊपर के लोगों में माँ के प्रति व्याकुल भक्ति का भाव प्रवाहित करती । इन सबसे बेखबर बच्चों का छोटा झुँड पंडाल के ठीक ओट में बून्दिये के देग पर काक दृष्टि डाले बको ध्यानम करता । क्या पता कब प्रसाद वितरण का कार्य शुरु हो जाये ।

लाल पाड़ की साड़ी , चटक ब्लाउज़ और कुहनी भर चूड़ियाँ पहने औरतें पूजा की थाल लिये माँ के दर्शन की प्रार्थी होतीं । खूब लहलह सिंदूर और गोल अठन्नी छाप टिकुली और खुले बालों की शोभा देखते बनती । पैरों में आलता बिछिया ,लाल लाल तलुये ।

नयी नवेली लड़कियाँ , कुछ पहली बार साड़ी में । माँ से गिड़गिड़ा कर माँगी , फटेगी नहीं , सँभाल लूँगी के आश्वासन के बाद , भाभी के ढीले ब्लाउज़ में पिन मार मार कर कमर और बाँह की फिटिंग की हुई और भाई से छुपाके लिपस्टिक और बिन्दी की धज में फबती , मोहल्ले के लड़कों को दिखी कि नहीं , इसे छिपाई नज़रों से ताकती भाँपती लड़कियाँ , ठिलठिल हँसती , शर्मा कर दुहरी होतीं , एक दूसरे पर गिरती पड़ती लड़कियाँ । ओह! ये लड़कियाँ ।

लड़कों की भीड़ । बिना काम खूब व्यस्त दिखने की अदा , खास तब जब लड़कियों का झुँड पँडाल में घुसे ।
अबे , ये फूल इधर कम क्यों पड़ गये ,
अरे , हवन का सब धूँआ इधर आ रहा है , रुकिये चाची जी अभी कुछ व्यवस्था करवाते हैं
अरे मुन्नू , चल जरा , पत्तल और दोने उधर रखवा

जैसे खूब खूब ज़रूरी काम तुरत के तुरत करवाने होते । जबकि पंडिज्जी ने जब कहा था इन के बारे में तब सब उदासीन हो एक एक करके कन्नी काट गये होते ।

ये तो दिन के हाल थे । जैसे जैसे शाम ढलती , रौनक बढ़ती जाती । रौशनी का खेला , ढोल और शँख की ध्वनि , शिउली की महक , ढाक की थाप , भीड़ के रेले , माँ की सौम्य मूर्ति ..या देवी सर्वभूतेषू शक्तिरूपेण संस्थिता .... महिषासुर का मर्दन करती हुई भव्य प्रतिमा , कैसा अजब जादू , कैसा संगीत जो शुरु होता है महाल्या के चँडी पाठ से । आरती और ढाकियों का नृत्य और फिर विसर्जन के बाद की मरघटी उदास शाँति । जैसे छाती से कुछ निचुड़ गया हो ऐसा दुख ।

( कल विजय दशमी में पटना के दुर्गा पूजा को याद करते हुये )

10/11/2007

राग टाग क्या विहाग

कैसी धम धम धमक थी । पैर के घुँघरू की आवाज़ दब जाती थी । तबले की टनकार हर थाप पर गूँज कर , उठकर तानपूरे के स्वर के साथ कुछ छेडछाड कर लेती । गले की खखास , कुछ तैयारी ,तानपुरे का टुनटुना देना बस एक दो बार । गावतकिये के सहारे सफेद जाज़िम पर बैठे ढुलके अधलेटे स्वर जाने किस तन्द्रा में चौंक चौंक जाते । महफिल की तैयारी थी या समाँ खत्म होने की शुरुआत , पता नहीं चलता था । सुर साधक थे कि राग टाग क्या विहाग जैसे अनाडी थे । हर खम पे सिर डुलाते हाथों से ताल देते किस दुनिया के वासी थे । झूमने वाले रात भर डोलने वाले अधनींदी आँखों से मधुरम मधुरम जपने वाले , सब उसी उजली रात के स्याह सलेटी सलाखों को छाती से लगाये चेतन अचेतन जड थे । आधी रात का राग था कि भरी चटकीली कँटीली दोपहरी का स्वरगान था , कौन जाने पर कोई अधूरी पंक्ति का बिसराया हुआ गीत जरूर था , अटका हुआ था स्मृति के किसी नोक पर , तलवे पर गडे काँटे सा , न निकलते न भूलते बनता । बस एक खोंच सा , लटपटायी ज़बान सा , था तो सही ऐसा ही कुछ अनाम सा ।

किसी सिहरते रोंये का नृत्य था , नसों में दौडता संगीत था , पान खाये होंठों की जालिम ललाई थी , गाढे शहद सी बहती आवाज़ थी ।

10/03/2007

फूहड़ता में भी सौन्दर्य खोजता है कलाकार

डोलती हुई छायाओं से लगातार कैसी और कितनी मगजमारी । हाथ धरे गाल पर सोचता है कवि । मक्खियाँ भिनभिनाती हैं लगातार । सोये बच्चे के मुँह पर और बहते नाक पर स्याही के मोटे भद्दे चकत्ते जैसे । नाली में बहते पानी के साथ तैरते चावल के दाने , आलू के छिलके ,ढंगराये बर्तनों पर बैठा एक काला कव्वा ,चौकन्ना ताकता , गुम्म दोपहरी में । पुराने काठ के बक्से को मेज बना इस्तेमाल करता हमारा कस्बाई कवि लेखक , कव्वे की काँव काँव में ढूँढता है संगीत , लय , ताल । कोई ओवरफ्लोईंग वेस्टपेपर बास्केट तक नहीं , सृजनात्मकता का चमत्कृत मिसाल दे दे ऐसा कोई उद्धरण नहीं , किसी ज्ञानी महापुरुष की तस्वीर तक नहीं । ऐसे में कोई क्या लिखे , कैसे लिखे । पत्नी बेखबर साड़ी के मुसे तुसे आँचल से मुँह ढाँप सोती है निश्चिंत । बच्चा भरे नाक से गड़गड़ाती साँस लिये माँ के ब्लाउज़ का कोना पकड़े हकबका कर पैर फेंकता है फिर करवट करवट बेचैन नींद में ढुलक जाता है ।

जागा है तो सिर्फ हमारा लेखक । पिछले महीने ही तो काव्यप्रभा के तैंतीसवें पृष्ठ पर उसकी कविता छपी थी , “पुकारता रहा प्रिये “। बीस लाईन के इस श्रृंगारिक काव्य रस पर दो अदद पोस्टकार्ड भी प्रसंशिकाओं के मिले । नाम तो नहीं लिखा था पर मजमून के तर्ज़ पर ये मानने को कवि मजबूर हुआ कि ऐसी चिट्ठी किसी विरह रस में सर से पैर तक पगी कोई कन्या की ही हो सकती है । खैर जो भी हो उन दो पत्रों को अनगिनत बार पढ़ने का सुख , पत्नी के पूरे वैवाहिक जीवन के एकमात्र लिखे पत्र से कई गुना ज्यादा था ।

ऐसी ही और कितनी चिट्ठियाँ आयेंगी इस सुख का एहसास मात्र कवि को आगे लिखने की प्रचुर प्रेरणा दे रहा था । पत्नी के चौड़े चपटे मुँह पर से आँचल हट गया था । तेल सनी चुटिया के अंत में मटमैला लाल रिबन और साड़ी के अंदर से झाँकता चीकट पेटी कोट मन की सारी सुरम्यता कमनीयता पर झाड़ू फेर रहा था । आह! कवि होना भी कितना त्रासदायक है । ओह कविमना किधर ढूँढे सौन्दर्य और कहाँ मिलेगा बोध । कविता , सुन्दरता की कैसे रची जायेगी ,बहते नाक और जूठे बर्तनों की खरखट्टे ढेर पर बैठे कौव्वे के बेसुरे काँव काँव में कहाँ से निकाला खोजा जायेगा सुर ?

पत्नी को बेढंगे तरीके से पैर से ठेलकर कवि ने उठाया । पत्नी भकुआई आँख मलती उठी । बेसऊर फूहड़ थी पर गृहस्थिन थी सो उठी और चाय बना लाई , फिर आँचल कमर में कस जुट गई बर्तनों का निपटान करने में । बच्चा सोया है तब तक बर्तन चमचमाने लगे । कवि चाय सुड़कता आसमान ताकता सोचता रहा सोचता रहा । दो शब्दों से आगे बढ़ नहीं पाया । बीती विभावरी जाग री के तर्ज़ पर बीती रात , बीती रजनी के खेल खेलता रहा । मैं थक गया , आता हूँ जरा ताजादम (ताज़ा नहीं ताजा) हो लूँ , कहता एहसान जताता ,चप्पल फटफटाता निकल गया । पान की गुमटी के पास यार दोस्तों संग सिगरेट फूँकी , हँसी ठट्ठा किया , साँझ ढले डूबते सूरज को देख दुखी हुआ । रात अवसाद लेकर सोया । हाय आज कविता लिखी नहीं गई । पर टुमौरो इज़ अनदर डे ।

(गॉन विद द विंड से हमारे कवि को क्या सरोकार पर आशा की जोत जलती है लगातार । फूहड़ता में भी सौन्दर्य खोजता है बारम्बार । तभी तो कवि कवि हैं दिल का महीन नफीस है , लेखक है, कलाकार )

10/01/2007

सूरजमुखी का पीला स्वाद

हर बार शब्द निकलते हैं अर्थ को तलाशते बौराये निपट उदास खोज में। मैं सुनती हूँ खुद को भी दम साधे , चौकन्ना सतर्क ,बजती है आवाज़ लौट लौट आती है बिना छूये हुये किसी हवा तक को भी । अंदर गिरता है बून्द बून्द पानी। कोर्स की किताबें , स्टैलेकटाईट्स और स्टैलेगमाईट्स , बर्फ की पिघलती शिला रिसती है ठंडे सन्नाटे में। ऐसा कैसा मौन , इस शोर में भी ? या फिर रात के अँधेरे में बाथरूम के टपकते नल जैसा, उचटती है नींद, बेखटके देखती है आँखें चीर कर गाढ़े काले अँधकार में चमकती बिल्ली आँखें, कुछ रेंग जाता बचपन का भूला डर? खिड़की से झाँक जाता है एक बार और। और पाती हूँ अपने को कहते हुये किससे ?शायद खुद से बस एक बार और ?

डर का भी एक स्वाद होता है , लटपटायी जीभ पर फुसफुसाता कोंचता स्वाद जो याद रहता है बरसों डर के न होने पर भी । जिसका इंतज़ार करता है मन कैसी सिहरती उत्सुकता से , पैर बढ़ाते ही झट से पीछे खींच लेने का कौतुक खेल ? आगे पीछे पटरी पर दौड़ती है रेल , बोलते हैं झिंगुर बाहर की बरसात में , निकल पड़ते हैं यायावर , मन के ही सही , उतरती है सड़क किसी बियाबान खोह में नीम गुम अँधेरे के । बीतती है रात एक बार और । सुरंग के पार उगता है दिन सूरजमुखी सा । अँधेरे डर के बाद सुलगते दिन का स्वाद , बस एक बार और ।

(वॉन गॉग के सूरजमुखी के फूलों को याद करते हुये )

9/26/2007

लेडी बर्ड ,मखमल का कीड़ा और खेल खेल

(छुट्टी का अंतिम दिन)


पिछले दरवाज़े के पार थोडी सी ज़मीन थी। उसके अंत में तार के बाड़ के पार दूसरों का अहाता था। बाड़ से सटे सीमेंट के ढाले हुये बड़े पटरे बेतरतीबी से फिंके पड़े थे , जाने किस ज़माने से। फट्टों के बीच में घास की उबड़ खाबड़ पैदावार , कीड़े मकोड़ों की ठंडी अँधेरी दुनिया , भूले भटके गिरे सिक्के , टूटी चूड़ियाँ , इमली के बीज .. माने एक पूरा संसार था। मेरी दुनिया में लॉस्ट एटलांटिस , खोया शहर! नम ठंडी मिट्टी की छुअन नींद तक में सिहरा देती। मेरी बौराहट सुनकर कितनी बार मुझे दुस्वप्न से निजात दिलाने के लिये बेदर्दी से झकझोर कर उठा दिया जाता।

एक किनारे टी रोज़ की झाड़ी दुर्निवार बढ़ती जाती। रोज़ चाय की पत्तियों का खाद शायद इस बढ़वार के लिये ज़िम्मेदार था। पड़ोसिनें रश्क रश्क कर जातीं। पर आज मैं बैठी थी , भरी दोपहर में , अकेले। सबसे नीचे वाले फट्टे पर , सींक के टुकड़े से आड़ी तिरछी लकीरें खींचते। हम आज सुबह ही लौटे थे वापस छुट्टियों के बाद। छुट्टी का अंतिम दिन था। मुट्ठी से भरे खज़ाने का एक एक करके खत्म होना। उफ्फ कितनी उदास पीली दोपहरिया थी। न एक पत्ता न कोई चिड़िया का बच्चा। इन पटरों के बीच की दुनिया कितनी शीतल और सुखद थी तुलना में। उस मखमली लाल कीड़े के पीठ की तरह जो बरसाती दिनों में भीगे पत्तियों के बीच रेंगता दीखता। होड़ लगती माचिस की डिबिया में इकट्ठे करने की। कैसा जादू ! आह! या फिर पतली सूई सी ड्रैगनफलाई जो चमकती धूप में एक चमकीली विलीन होती रेखा सी दिखती। ये सब बरसात में होगा , जाड़ों में होगा।

अभी , अभी क्या होगा ? बस छुट्टी के खत्म होने का उदास उदास गीत होगा। गले से लेकर छाती तक कंठ को फोड़ता , सुबकियों सा हिचकता , रिसता। घर के अंदर सब सोये हैं। आस पास सब सोये हैं। वो बदमाश बिट्टू भी सोया है। और सामने के घर में पपली भी सोयी है। शाम होगी तब सब जगेंगे। बगल वाले मनी भैया , दुष्ट अन्नू , प्रभा दीदी , पपली और उसकी छोटी बहन सुपली और बूनी। गुड़िया सी बूनी । सींक से मैंने लाईन पाड़ कर एक लड़की बनाई है , धूल में। दो चोटी वाली। ये मैं नहीं हूँ। मेरे दो चोटी नहीं है। मेरे बाल छोटे हैं , लड़कों जैसे। पर मैं चाहती हूँ कि मेरे बाल खूब लम्बे हों , कमर से भी नीचे , माँ जैसे। माँ कहती है बड़ी हो जा फिर लम्बे रखना बाल। बड़े होने में अभी बहुत वक्त है। बड़े होकर बहुत कुछ करना है। हर बात में माँ कहती जो है कि बड़ी हो जा फिर। बड़ी होकर मैं सिर्फ अपने मन का करूँगी सिर्फ अपने मन का। छुट्टी के बाद स्कूल नहीं जाने का मन न हो फिर भी जाओ जैसी बात किसी को नहीं कहने दूँगी। पटरे पर डूबते सूरज की तिरछी किरणें पड़ रही हैं अब। छुट्टी का अंतिम दिन अब कुछ घँटे ही बचा है। मैं इस खत्म होने के उदासी को उँगलियों से भींच लेती हूँ। मेरे होंठ रुलाई की याद में बनते बिगड़ते हैं ,गाल पर सूखे पुँछे आँसू के लकीरों की तरह।

मिन्नी मिन्नी , कोई पुकारता है बाड़ के पार से। अन्नू , पपली सुपली सब बुला रहे हैं। खेलने का समय हो गया। माँ भी पुकार रही है। मेरा मन अचानक आहलाद से भर जाता है। इन दोस्तों को महीने भर बाद देख रही हूँ। कितना मज़ा आयेगा छुट्टियों की कहानी सुनाने में। खरीदे गये दूरबीन दिखाने में , आँखें बन्द कर सो जाने वाली नीली आँख और सुनहरे बाल वाली गुड़िया दिखाने में , कल स्कूल के नये टीचर की बात करने में।

“ आई , आई “ । सींक फेंक कर , हाथ झाड़ कर मैं कूद पड़ती हूँ पटरों पर से। मेरी फ्रॉक पर मेरे साथ साथ एक लाल पर काली बुन्दकियों वाली लेडीबर्ड मेरे खेल में शामिल हो जाती है।

माँ देखती हैं लड़कियाँ मगन चहचहा रही हैं , इखट दुखट खेल रही हैं। शाम के झुटपुटे में पंछियों का कलरव जैसे।

9/20/2007

मायोपिक प्रेम

चश्मे की कमानी मोटी थी । टारटॉयज़ शेल की । उसमें मोटा शीशा जड़ा था । टिकाऊ था , मजबूत था । लेकिन उसमें एक बड़ी खामी थी । मुन्नी की आँखें उस शीशे के पीछे उल्लू की आँख सी लगती , मोटी ढेले सी , फटी हुई । आईने के सामने कितनी भी प्रैक्टिस की जाय ज़रा आँखों को सिकोड़ कर छोटा तिरछा करने की पर ऐन वक्त याद ही नहीं रहता । जब याद आती तब तक देर हो चुकी होती । मुन्नी को छोटी तिरछी खिंची हुई आँखें पसंद थीं । पर पसंद होने से क्या होता है । पसंद अपनी जगह और जो होना है वो अपनी जगह । दोनों के अलग स्वायत्त संसार एक दूसरे से दूर दूर रास्ता छोड़ते हुये । मुन्नी को ये पता था । पर पता होने से भी क्या होता है । छोटी तिरछी आँखों की हिरिस अपनी जगह । चश्मे से निजात अपनी जगह ।

अब वैसे तो मुन्नी के जीवन में कई और अरमान भी थे , जैसे गोरा रंग , खडी तीखी नाक और एक अदद तिल , कहीं भी चेहरे पर । असल में रंग तो गेहुँआ सा था , नाक पसरी हुई थी थोड़ी सी और तिल , तिल था तो पर कनपटी पर बालों की रेखा से सटा अपने अस्तित्व को तलाशता हुआ । तो फेहरिस्त जस की तस रही । मुन्नी बडी होती रही । चश्मे का शीशा मोटा होता गया । अलबत्ता मुल्तानी मिट्टी , हल्दी , मलाई और न जाने क्या क्या लीप पोत कर रंग ज़रूर गोराई पर अग्रसर हुआ । तिल की बात बचपन के खेल की तरह भूली बिसरी हँसने योग्य हुई । और रही पसरी हुई नाक , तो उसी पसरे हुये नाक में कोई ऐसी अजीब कमनीयता का वास हुआ कि मोहल्ले के कई लडकों लौंडों का दिल उसके भोले फैलाव पर बार बार रपटा । लेकिन हर बार चश्मे की मारक मोटाई ने ऐसी बेइलाज़ रपटन को पूरी तरह धाराशाई होने से बचा लिया । मुन्नी और बडी होती गई । इंतज़ार करती रही कि कोई उस चश्मे के पार का राजकुमार हो । फिर धीरे धीरे यकीन हो चला कि मेन डोंट मेक पासेज़ ऐट वोमन विद ग्लासेज़ । तो यही सही ।

मोटे मोटे पोथे पर अपनी चश्मेदार आँखों को गड़ाये जीवन का पाठ पढ़ती गई । लेकिन इसी बीच अनहोनी संयोग , नियति , जो भी कह लें , हुआ और ग्यारह बारह के भयंकर मायोपिया को माईक्रोस्कोपिक बनाकर स्लाईड पर फिसलता हुआ नौजवान अवतरित हुआ । अवतरित ही नहीं हुआ बल्कि मुन्नी से ऐसा टकराया कि टॉरटायज़ शेल चकनाचूर हुआ , शीशा चाक चाक । मुन्नी अपने मायोपिक धुँधलके के पार से मुस्कुराई और कोई तीर राजकुमार के दिल में महीन सुराख करता पार हो गया । प्रेम किसी फेरोमोंस हारमोंस की उठा पटक ही तो है । ऐसा ? तो उठा पटक क्या हुई पूरा धमाल हुआ ।

खिड़की के पार जो मियाँ बीबी एक दूसरे की आँखों में झाँकते दिखते हैं , बिना चश्मे के पर्देदारी के वो मुन्नी और उसके मियाँ ही तो हैं । आपको बताया था कि मियाँ की आँखों का पावर मुन्नी की मुन्नी पावर के सामने कितना बड़ा है । दोनों एहतियात से अपने अपने चश्मे को उतारते हैं , प्यार से शीशे को मुँह के भाप से भिगा कर साफ करते हैं , पीले फ्लालेन के रूमाल से , और फिर परे खिसका देते हैं । आँखों में आँखें डालकर देखने के लिये कमबख्त चश्मे की क्या दरकार । उसे मुन्नी की फटी हुई आँख नहीं दिखती । मुन्नी को उसका तोता नाक नहीं दिखता । बेइंतहा प्यार की नदी कल कल बहने लगती है । उसकी फुहार में और आँखों के पावर के नतीज़तन दोनों के चेहरे की लकीरें अस्पष्ट होकर हेज़ी हो जाती हैं । फेरोमॉंस और मायोपिया की थ्री लेगेड रेस चलती है दुलकी चाल ।

9/18/2007

खिड़की के अंदर खिड़की के बाहर

लड़की झुकी थी । बाल उसके गिरते थे चेहरे पर । बार बार कानों के पीछे करने पर भी फिर मिनट भर बाद गाल पर गिर आते । ट्रेन के रफ्तार से हिलती डुलती पढ़ती जाती थी लड़की । ट्रेन गीत गाती थी । उसके चक्के एक बीट पर घूमते थे , छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । सलाखों से नाक सटाये लड़का गाता था , सपनीली आँखों से देखता था , भागते हुये संसार को , दूर सुदूर किसी धुँधलाये सुबह के कुहासे में डूबा मेंड़ पर एक अकेला छतनार पेड़ , रहट पर पानी उलीचता किसान , भागते हुये धूँये उड़ाती रेल को भौंचक पनीली आँखों से ताकती गाय, बछड़े की बजती घँटी , कोई नया नया संसार । लड़का गाता था । लड़की पढ़ती थी । छिटके धूप में दौड़ लगाते सूरज की रेलगाड़ी से रेस । किसी गुमटी पर पल भर धीमी होती ट्रेन को ताकता खेत का बिजूका , उठंगी छींटदार फ्रॉक पहने बिखरे बालों वाली टोकरी उठाये लड़की , उजबक लड़का और गोबर पाथती औरत ।

फिर रफ्तार पक़ड़ती रेल , पीछे सब छूट जाते , सब । कभी न दिखने के लिये । मन का एक छोटा हिस्सा कैसा टूट मरोड़ जाता । एक बार , सिर्फ एक बार फिर । गले की थूक घोंटता लड़का आँखें बन्द कर लेता है सिर्फ उतनी ही देर तक जितनी देर रेल गुमटी से पार हुई थी । लड़की इस सब से बेखबर , पढ़ती जाती है । रेलगाड़ी भागती है छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । गले की थूक अटकती है अंदर के संसार में , बाहर के संसार में ।

9/13/2007

हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं

हमारी बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स में छोटे मोटे काम करने वालों की एक मोबाईल फौज़ है । घर में काम करने वाली बाई से लेकर साफ सफाई वाले कर्मचारी , माली , रोज़ाना कूडा उठानेवाले , सेक्यूरिटी गार्डस , दूध बाँटने वाले लडके , लौंड्री वाला छोकरा , पेपर बाँटने वाले दो तीन लडके , रोज़ सुबह सवेरे फूल पहुँचाने वाला बालक । कितने लोग हैं । इतने दिन बीतने पर सब चेहरे जाने पहचाने । सवेरे की चाय पीते नीचे झाँकते गेट से एक फौज़ साईकिल चलाकर आने वाली औरतों की होती है । जवान , अधेड , बांगला साडी में , सलवार कुर्ते में अपने अपने गेटपास पकडे तेज़ चाल दौडती भागती औरतें ।

ज़्यादातर बंगाली औरतें । ठीक से हिंदी नहीं बोल पाने वाली फिर भी हँस कर इशारे इशारे में टूटी फूटी हिन्दी में बांग्ला मिलाकर काम निकालने वाली औरतें । कुछ दिन पहले मैंने दरयाफ्त किया अगर कोई खाना बनाने वाली मिल जाय , साफ सफाई वाली मिल जाये । गेट पर गार्ड को कहा । अगली सुबह दो औरतें हाज़िर हुई । मैंने नाम पूछा । अधेड उम्र की औरत ने बताया आशा और उसकी पच्चीस छब्बीस साला शादीशुदा बालबच्चेदार बेटी ने बताया ,मंजू । दोनों काम पर लग गईं । काम ठीक ठाक चल रहा था । पर एक चीज़ मुझे परेशान कर रही थी । जब भी मैं आशा या मंजू पुकारूँ कोई रेस्पांस नहीं । शायद माँ बेटी कम सुनती हैं ऐसा विश्वास होने लगा था । भाषा की समस्या तो थी ही । कुछ पूछने पर पता नहीं किस तरह के आँचलिक बंग्ला में भगवान जाने क्या बोल देतीं । जोड जाड कर कुछ अपनी समझ से मैंने एक नक्शा उनके रहन सहन का खींचा था । बंगाल के किसी अझल देहात के सिकुडते बँटते खेत और मछली के सूखते पोखर , कर्ज , गरीबी , बडे शहर के कमाई के असंख्य मौकों की मरीचिका कितना सब तो था जो इनको खींच कर यहाँ लाया था । ज़्यादातर , घर के आदमी रिक्शा चला रहे थे , गाडिय़ाँ धोने का काम कर रहे थे और औरतें दूसरे घरों में खाना पका रही थीं , झाडू पोछा बर्तन कर रही थीं । गाँव से बेहतर कमाई हो रही है , सेकेंडहैंड साईकिल खरीद लिया है , साडी छोड सलवार कुर्ता पहनना शुरु किया है , साडी साईकिल में फँसती है , ऐसा मंजू एक लजीली मुस्कान से कहती ।

फिर एक दिन गेट पास की समस्या हुई । नया बनवाना था । तब मैंने देखा कि आशा तो आयेशा थी । मंजू मेहरू । दोनों बांग्ला देशी रिफ्यूज़ीज़् शायद । पर अब भी कहती हैं नहीं बांग्ला देशी नहीं हैं । नाम क्यों छुपाया पर सीधा जवाब , कि मुस्लिम समझ कर खाना पकाने का काम कोई नहीं देता । अगर देते भी हैं तो पैसे कम देते हैं । तो उनके बुलाने पर अनसुना करने का राज़ खुला । मैंने कहा मुझे फर्क नहीं पडता । ये और बात है कि अब मुँह पर आशा और मंजू नाम चढ गया है और उन्हें भी अब तक इस नये नाम की आदत हो गई है । ईद की छुट्टी वो लेती हैं , दीवाली की मैं दे देती हूँ ।

बहरहाल इस पूरे प्रसंग से मुझे अजीब तरह का डिज़ोनेंस हुआ । अब भी लोग इन बातों को मानते हैं , छुआ छूत में विश्वास करते हैं । और ये सब किसी गाँव देहात में नहीं बल्कि तथाकथित कॉस्मोपोलिटन , पढे लिखे अपवर्डली मोबाईल लोगों के समाज में हो रहा है । इस बात का ज़िक्र मैंने कुछ लोगों से किया । किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई । एकाध ने ये भी पूछा , आप अब भी उनसे खाना पकवा रही हैं ?

मुझे क्षोभ और ग्लानि हो रही थी । और जिस मैटर ऑफ फैक्ट तरीके से आशा मंजू और उनके अन्य साथिनों ने इसका हल निकाला था ,उस मैटर ऑफ फैक्टनेस से भी मुझे समस्या हो रही थी । जैसे कि इससे ज़्यादा और नैचुरल बात क्या होगी कि उनसे खाना कौन पकवायेगा । इस बात का अक्सेपटेंस उनकी तरफ से सहज था । तुम्हें गुस्सा नहीं आता , ऐसा पूछने पर सयानों की तरह मंजू ने कहा था , ऐसा तो होता ही है दीदी , इसमें गुस्सा कैसा । फिर सोचने पर लगा कि उनकी तरफ से और किस तरह के प्रतिक्रिया की मैं उम्मीद कर रही थी । उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या है , और चीज़ों की चिंता का वक्त और उर्ज़ा कहाँ से लायें । पर जिनके पास रोटी की चिंता नहीं है , जिनके पास कुछ हद तक वक्त है , उर्जा है वो क्या सोचते हैं इस विषय पर । ये किस तरह की शिक्षा है , हम कैसे शिक्षित हैं , कैसे सभ्य सुसंस्कृत हैं जो कई मूलभूत मुद्दों पर , ” ऐसा तो हमारे बाप दादा के ज़माने से होता आया है , तो कुछ सही ही होगा , हम क्यों बदले , या हम ही क्यों बदलें “ वाले जिद पर अडे हैं ।

आप क्या सोचते हैं ? क्या हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं ? किसी मानसिक विकास पथ के यात्री हम क्यों नहीं हैं ? एक बेसिक सहृदयता , तार्किकता , संवेदना क्यों हमारे जीवन में ऐसी दुर्लभ कमोडिटी है ? अब हो गई है या हमेशा से थी ? आप , सच क्या सोचते हैं ?

9/01/2007

किताबों के बीच

कमरे में ड्रेसर के ऊपर मैं कुछ किताबें रखती हूँ । फिर पलंग के पास हाथ बढाकर छू सकने वाली दूरी पर शेल्फ में भी कुछ किताबें रखती हूँ । जो किताबें पढी जा रही हैं वो पलंग के पास और जो पढी जाने वाली हैं या साथ साथ कुछ अंतराल पर पढी जा रही हैं वो ड्रेसर टॉप पर । ये किताबें बदलती रहती हैं । पहले ये रफ्तार तेज़ होती थी । टर्नओवर फास्ट । अजकल काफी धीमा हो गया है । किताबें भी कई कई एकसाथ पढी जा रही हैं । पहले यही बात कोई कहता तो मैं हैरान हो जाती । डूब कर एक किताब खत्म करने के बाद ही दूसरे को हाथ लगाती । लेकिन अब ऐसा छूटता जाता है । दोस्त कम हो रहे हैं और किताबें , एक समय पर पढी जाने वालीं , बढ रही हैं । ड्रेसर पर की किताबों में जो पलटे पढे जा रहे हैं , प्रियंवद की भारत विभाजन की अंत:कथा , नायपॉल की द मिमिक मैन , मार्खेज़ की द औटम ऑफ द पैट्रिआर्क , डगलस ऐडम्स की हिचहाईकर्स गाईड टू द गैलेक्सी , पालीवाल की भक्तिकाव्य से साक्षात्कार , पामुक की स्नो। मुराकामी पलंग के बगल में हाथ से छूने की दूरी पर हैं । बीच बीच में साईनाथ के कुछ चैपटर्स भी पढ रही हूँ ।

गाडी में भी हमेशा कुछ किताबें पडी रहती हैं । पता नहीं कब किस लाल बत्ती पर घंटे दो घंटे की फसान हो जाय , तब मंसूर सुना जा सकता है या फिर किताब पढी जा सकती है । तो ऐसे किसी औचक अवसर के लिये , जो अबतक आई नहीं है , किताबें गाडी में भी रखी रहती हैं , हैदर और इस्मत चुगताई और निर्मल वर्मा , फिलहाल । कल कुर्र्तुलएन हैदर की श्रेष्ठ कहानियाँ गाडी के पिछले सीट पर से उठा लाई । कलन्दर और डालनवाला फिर फिर से पढी । ज़िलावतन पढने की हुमस हो रही है । जितनी किताबें साथ साथ चलती हैं उतनी ही वो भी अपना प्रेसेंस बनाये रखती हैं जिन्हें पहले पढा हो । दिमाग में किताबें कैसे गडमड अपनी अपनी जगह बनाये रखती हैं । टेक्टोनिक प्लेट्स के हिलते रहने जैसे पता नहीं कब कौन सा परत ऊपर आ जाये और कौन सी किताब का कौन सा पात्र दरवाज़ा ठकठका दे । दूसरे कमरे में , जहाँ और किताबें रखी हैं वहाँ कोई याद आई किताब ढूँढ लेना महान काम है । तब जब आपके मन पर उस किताब का कवर , लिखाई सब तस्वीर जैसे साफ हो । किताब का न मिलना तब कैसा त्रास दायी होता है । दाँत में फँसे अमरूद के बीज जैसा कुछ अजीब अटका सा । कल से पानू खोलिया की किताब सत्तरपार के शिखर खोज रही हूँ । एक दोस्त से किताबों की चर्चा हो रही थी । पानू खोलिया का ज़िक्र कुछ याद करते करते हुआ । तब से अटके हैं पानू पर ।

पानू खोलिया नहीं मिले लेकिन और कुछ किताबें मिल गईं , इन्नर कोर्टयार्ड मिली और डार से बिछुडी मिली , तालस्ताय मिले और जेन औस्टेन मिलीं । चाँदनी बेगम मिली और मित्रो मरजानी मिली । ये सारी किताबें ड्रेसर पर आ गई हैं । घर में थोडा हंगामा मचा है कि एक बार में इतनी किताबें कैसे कोई पढ सकता है , कुछ तो हटाओ यहाँ इस कमरे से । और मैं सोचती हूँ थोडा थोडा सबसे मिलूँ फिर से ।

8/27/2007

स्याही और सोख्ता और बाँस की खपच्ची की कलम

घर में आजकल एक नया इजाफा हुआ है । दीवारों पर क्रेयॉन की चित्रकारी तो पुरानी बात थी । दाँत चिहारे चेहरे यकबयक किस दीवार से लपक जायें ऐसा बन्द डब्बे से किसी मुक्के की सी डरा देने वाली भंगिमा की अब तक आदत हो चली है फिर भी सरपराईज़ मिलता रहता है । खिडकियों का शीशा रंगों के जानदार छींटों से दमकता है । कभी दीया , कभी अचानक कोई चट बैंगनी फूल , कभी तैरती मछलियाँ , कभी दो चोटी वाली चौखुट दाँतों वाली कोई दुष्ट लडकी । कुछ भी हो सकता है । ये कुछ भी हो सकता है वाली सस्पेंस मज़ेदार चीज़ है । नाराजगी और गुस्से को ज़ाहिर करते हुये ,ये कुछ क्या है का सस्पेंस कौशल से छुपाना पडता है । कभी हँसी भी मुल्तवी करनी पडती है बाद के लिये जब बच्ची सामने न हो । हँस दिया तभी के तभी तब तो पूरा घर रंग जायेगा नहीं । रोका तो पूरा घर सूजा चेहरा लिये डोलती फिरेगी । हामी भर दी फिर घर गुलज़ार हो गया । चिलकती खिलकती हँसी फूल सी उगेगी यहाँ वहाँ ।

फिर घर तो घर ,बाहर तक भी रंग निकल निकल पडें ऐसी कयामत । लिफ्ट के पास , पार्किंग लॉट में ,कॉमन एरिया में , कहाँ कहाँ नहीं लाल नीली लकीरों में बच्ची के हाथ दीखते पडते हैं । पर इतना ही कम कहाँ था जो उसे स्याही और फाउंटेनपेन ला दिया । अब चादर पर , गद्दे पर , सोफे के कुशंस पर , फर्श पर चकत्ते चकत्ते । और तो और हथेलियों उँगलियों पर , नाक के कोरों पर , नाखुनों के नीचे , कभी माथे गाल पर । गरज़ ये कि स्याही सारा जहाँ स्याह किये हुये है । अभी उसी दिन की बात है ,किसी मेहमान को नीचे से विदा कर के दरवाज़े पर कॉलबेल बजाये इंतज़ार में खडे थे । आँखें के बराबरी के सतह पर महीन बारीक अक्षरों में कालबेल के ठीक नीचे खूबसूरत कैलीग्राफी । चोर तुरत पकड में आया । अभी पिछले हफ्ते आखिर कौन इस सनक के घोडे पर सवार था । लिफ्ट के दरवाज़े के पास चार अंक वाले नये सीखे गुणा भाग फूल पत्तियों के बीच , कार के पिछले शीशे पर हँसता सूरज और उडती एक टाँगों वाली चिडिया , फ्रिज़ के दरवाज़े पर भाप उडाती छुकछुक रेलगाडी और सिग्नेचर ट्यून की तरह हवा में काँपते लहराते नारियल के पेड । पूरा घर किसी ट्रॉपिकल द्वीप में बदल जाये उसके पहले गंभीरता से कोई कार्यवाई करनी पडेगी ऐसा निश्चय लिया गया है । मॉम के स्ट्रिकलैंड की याद आई । तो बच्ची को बुला कर उसकी क्लास ली जाय । ऐसी ली जाय कि उसके अंदर का कलाकार कागज़ों पर सिमट कर रह जाये । बडी जुगत लगानी थी ।

इसी बीच बच्ची के पिता ने एक नया खेल और खेल दिया । बाँस की खपच्चियों वाला नुकीले नोक वाला जादूई कलम ला दिया उसके लिये । उसके निब को बारबार स्याही के बोतल में डुबा कर लिखने का चमत्कार । जितनी बार निब डुबाया जायेगा उतनी बार जीभ दाँतों से दबा कर पूरे पूरे मनोयोग से बून्द तक न छलके ऐसा एहतियात बरता जायेगा । फिर बिना गिराये स्याही कागज़ पर शक्ल लेगी स्कूल के बस्ते की , किताबों कॉपियों की , कलम दवात की , और उनके बीच सजा सजा कर लिखा जायेगा मोती अक्षरों में कोई ऐसा सूक्ति वाक्य जिसकी समझ अभी बच्ची को नहीं है । बच्ची को क्या कई बडों को भी नहीं है । लेकिन बच्ची को नहीं है ये क्षम्य है फिलहाल । लेकिन मेरी चिंता अभी उसके सूक्ति वाक्य के न समझने की नहीं है । मेरी चिंता उस स्याही के बोतल की ठेस लग कर हरहरा कर गिरने की है । तो जब तक बच्ची लिखती है मैं अपनी आँखें स्याही के बोतल पर गडाये रहती हूँ जैसे देखते रहने भर से उसके न गिरने को निश्चित कर रही हूँ । मेरे इस भोलेपन पर बच्ची के पिता कहते हैं , तुम सचमुच बच्ची हो । अब , बच्ची बच्ची है कि मैं बच्ची हूँ ? मुझे तो लगता है कि बच्ची के पिता बच्चे हैं । आप क्या कहते हैं ?

8/19/2007

केमोफ्लाज़्ड पतनशीलता

हम इक्क्सवीं सदी में भले ही आ गये हों मानसिकता अब भी कई कई मुद्दों पर किस पुरातन सदी की थ्रोबैक हो और कब कहाँ किस रूप में फूट पडे ये देखना भी एक लैब में किसी एक्स्पेरीमेंट के अनफोल्ड होने जैसा ही चमत्कृत कर देने वाला होता है । यहाँ चमत्कृत शब्द का कोई नेगेटिव कन्नोटेशन वाला शब्द नहीं सूझने के दुख में इसी शब्द से काम चला रही हूँ । मुद्दे कई हैं लेकिन सबसे तुरत ,बिना दिमागी कसरत के जो मुझे स्मरण हो आता है .. स्टीरियोटाईपिंग । इस औचक स्मरण के पीछे न तो हाथ है ज्ञानदत्त जी का और न शिल्पा शर्मा का और न उन तमाम ब्लॉगर साथियों का जिन्होंने ज्ञानदत्त जी के पोस्ट पर जाकर उनके तत्वज्ञान के समर्थन में स्माईलीज़ की फौज़ खडी कर दी।

तत्व ज्ञान तो सचमुच ज्ञान है लेकिन उसके ऊपर लिखे में जो छिपा भाव है उसपर एक बुद्ध मुस्कान तो फैलाई ही जा सकती है । ऐसा नहीं है कि मुझे परम ज्ञान की प्राप्ति हो गई है लेकिन पतनशीलता का ऐसा केमोफ्लाज़ ? मेरे विचार से हम सबों को इसी तरह का कोई न कोई टैगशब्द इज़ाद कर लेना चाहिये ( अज़दक जी इस टैग पर आपका पेटेंट तो नहीं ? हम भी इस्तेमाल कर लें ?) और जब कभी इच्छा हुई , उचित लगा तो फट से इस टैग की छतरी की सुरक्षा में बिना कुछ दो बार सोचे बेधडक छाप देना चाहिये । फिर देखते हैं कौन कहाँ पंगे ( फिर और कोई दूसरा उपयुक्त शब्द न सूझने की दयनीय दशा हो रही है , क्या करें अरविंद जी का थेसारस खरीद लें ? ) लेता है , कैसे कोई उत्तर प्रतिउत्तर पोस्ट लिखता है ।


लेकिन उस खास पोस्ट पर ज्ञ जी ने कोई टैग नहीं लगाया । फिर भी उदारमना होकर हमने उसे पतनशील ही समझा । हमारी समझ में कोई कमी हो तो ज्ञानीजन गुणीजन हमें समझायें । वैसे यहाँ हम साफ कर दें कि ये पोस्ट हमने पतनशील ही लिखा है , माने फिलहाल उधार लिया है टैग अज़दक से । आगे जब सोच कर अपना टैग बना लेंगे तब तक के लिये । लेख लेकिन ठीक ठीक पतनशील भी नहीं है । हमारी अभी अभी आपलोगों के संगत में अप्रेंटिसशिप शुरु हुई है ।

चाहते तो थे कि लिखें गंभीरता और पूरी संजीदगी से उस सफर के विषय में जो शुरु होती है शून्य से और आती है शायद किसी सुदूर भविष्य में आधी ज़मीन तक , कुछ रौशनी की धुँधलाई परछाई दिखने लगी है लेकिन जहाँ अब भी एक ऐसा अबोला अनवरत युद्ध छिडा है जहाँ हर वक्त अपने को साबित करने की थका देने वाली लडाई से जूझ रही है औरत । जहाँ अब भी उसे अपने हक को पाने के लिये सुनना पडता है , हमने तुम्हें दिया , ये नहीं कि ये तुम्हारा ही तो था । जो होना था खुद ब खुद उसे कोई क्यों किसी को दे और क्यों औरत ले । लेना है तो खुद लेना है किसी के दिये से नहीं । इंच दर इंच ज़मीनी हकीकत से जूझती औरत ऐसे स्टिरियोटाईप्स को गीले कपडे सी झटकार देती है । मुद्दे और भी महत्त्वपूर्ण हैं । ये उनमें शायद सबसे पेरीफेरल । लेकिन बावज़ूद इसके जब भी , और ऐसा दिन भर में कई बार होता है , इसका सामना होता है तकलीफ होती है , लडाई और कितनी बाकी है इसका एहसास होता है ।

पर माफ करें पतनशीलता में ऐसी संजीदा विमर्श का क्या स्थान । कहा न , सीख ही रही हूँ अभी । अब ये मत कहियेगा , अरे ये औरतें कोई भी काम ठीक ठीक कैसे कर सकती हैं ? वैसे औरतों के विषय में कुछ तत्व बोध हम भी बाँच दें ?


औरत है तो बाहर का काम क्या करेगी , कर ही नहीं सकती

एक घर तक का काम ठीक ठीक नहीं संभलता इस औरत से

औरत दफ्तर आती है सिर्फ तफरीह के लिये

औरत है तो गाडी कैसे चलायेगी ,चला ही नहीं सकती

गलत पार्किंग है तो ज़रूर किसी औरत ने की है

औरत है तो पैर के नीचे दब के रहेगी , रहेगी कैसे नहीं

बच्चे बिगड गये सिर्फ इस औरत की वजह से

फॉर्म गलत भरा है ? ज़रूर किसी औरत ने भरा होगा

औरत है तो उसे त्याग करना ही होगा , होगा कैसे नहीं

औरत है तो उसे अधिकार नहीं अपने बारे में सोचने का , इतनी हिम्मत ?

औरत है तो औरत बन कर ही रहे ,

आखिर हमने इतनी ज़मीन दी है उसे आसमान तो नहीं दे दिया ? तय हम करेंगे कि हद कहाँ तक है ? हमने अपनी औरत को परमिट किया , आई हव अलाउड हर टू डू दिस.....

8/10/2007

छप छप छपाक

छप छप छपाक



कैसा मज़ा है
बचपन पानी धींगा मुश्ती
ठंडा ठंडा नीला पानी
उलटा तैरें , सीधा तैरें
डुबकी डुबकी
जल की रानी

मेंढक मछली कल कल पानी
उठा पटक और हँसती मस्ती
बून्दें बून्दें
पल भर जल भर
छप छप छप छप
जल की रानी

8/05/2007

चूडियों का डब्बा माने कसम कसम

मुन्नी से खाना खाया नहीं जा रहा । चौके के , मिट्टी से लीपे हुये जमीन पर बडे मोटे चूँटे टहल रहे हैं । पीढे पर मुन्नी फ्रॉक बचाये बैठी है । कहीं चूँटा चढ न जाये पैर पर , फ्रॉक पर । चढ जाये तो चीख चिल्ला कर , कूद कूद कर आसमान एक कर लेगी । ऐसा होता है तब गप्पू को खूब मज़ा आता है , मुन्नी से बेतरह दोस्ती और प्यार के बावज़ूद । मुन्नी का ध्यान खाने पर कम है चूँटों पर ज़्यादा है । थाली में चावल पर दाल की नदिया बह रही है । भिंडी का भुजिया इतना अच्छा लगता है फिर भी खाना खाया नहीं जा रहा । चाची के घर बस यही एक चीज़ खराब लगती है ,ये चौके में चूँटों की दौड । बाकी तो सब खूब बढिया है ।

आँगन में चाँपाकल पर नहाना , हुमच हुमच कर चाँपाकल चलाना , बगीचे में लीची के पेड पर बंदरों की तरह भरी दुपहरिया में सबकी आँख बचाकर खेल खेलना । गप्पू अपनी बहती पैंट सँभलता सँभालता किवाड के पार हुलक हुलक कर देखता है । इशारा करता है , आ जा बाहर । गप्पू की आँखें काले गोली जैसी चमकती हैं । उसके पैंट की पॉकेट में गोलियाँ खनखन खनकती हैं । खज़ाना है खज़ाना । वैसे ही जैसे मुन्नी के डब्बे में टूटी काँच की चूडियाँ । किसी दिन जब डब्बा भर जायेगा तब मुन्नी मोमबत्ती जलाकर उसकी लपट में टूटी चूडियाँ का सिरा पिघला कर जोडेगी । तब तक मुन्नी हर किसी से चूडियाँ माँगती चाँगती रहती है । कैसी तो ललचाई आँखों से फुआ और चाची अम्मा की चूडियाँ निहारती है , लाल पीली धानी सुनहरी ,अहा ।

चाची अम्मा ,फुआ , पडोस की औरतें सब दोपहर में बैठकर न जाने क्या बतियाती हैं । पापड , मखाने और आलू के चिप्स के साथ अदरक वाली चाय स्टील के कप में । मुन्नी का दिल मखाने पर आ जाता है । चुपके कोने में बैठ कर मखाने टूँगती है ,आँखें चिहारे गप्प सुनती है । तब गप्पू लाख दफे खिडकी से बाहर आने का इशारा करे , टस से मस नहीं होती । सुमित्रा ने जाने कैसे बच्चा गिरा दिया । औरतें सब मुँह पर हाथ धरे अफसोस करती हैं । मुन्नी सोचती है कहाँ गिरा दिया , कैसे गिरा दिया , सीढी से कि पलंग से । कैसे गिरा दिया चाची ? अरे ! कैसे पुरखिन सी बैठी है यहाँ बडों के बीच पाको मामा । जा भाग , खेल बाहर । मुन्नी ठिसुआई सी बाहर भाग पडती है ।ओह ,कैसे बडी हो जाये अभी के अभी ।

गप्पू अलग गुस्सा ,मेरे लिये चिप्स तो ले आती । कमरे में पँखा मरियल चाल चलता है । हनुमान जी वाला कैलेंडर हवा में फडफड करता है । दीवार पर कैलेंडर के टीन का कोना दोनों तरफ आधा चाँद बनाता है । हवा में डोलते हनुमान जी संजीवनी पर्वत उठाये ठीक मुन्नी की तरफ देखते हैं । अगले महीने के पन्ने पर माखन खाते कृष्ण कन्हैया हैं । मुन्नी को इंतज़ार है अगले महीने का जब हनुमान जी वाला पन्ना हटा कर कृष्ण जी वाला पन्ना सामने किया जायेगा । पर अगले महीने तक शायद मुन्नी वापस अपने घर चली जाय ।

छोटे कमरे में चौकी के नीचे आम का ढेर है। बीजू और लंगडा । दिनभर गप्पू और मुन्नी आम चूसते हैं । गप्पू के मुँह पर आम खाने वाली फुँसी निकल गई है । हर साल ऐसा ही होता है । फुँसी और पेट खराब । पर गप्पू बाज नहीं आता । गर्मी भर सिर्फ आम पर जिन्दा रहता है । रेडियो पर दोपहर को पुराने गाने आते हैं । मुन्नी कभी कभी थम कर सुन लेती है । तब उसे लगता है कि अब बडी हो गई है । गाने तो ऐसे दीदी सुनती हैं । टिकुली साटे , फुग्गा बाँह की ब्लाउज़ पहने ,आँखों में काजल पाडे ।गाने सुनती हैं बाँहों पर सिर धरे और पता नहीं किस बात पर धीमे धीमे मुस्कुराती हैं । मुन्नी उनको ध्यान से देखती है । आईने के सामने कभी कभी उनके दुपट्टे को ओढे उनके जैसे ही मुस्कुराने की कोशिश करती है । दीदी ठीक मीनाकुमारी मधुबाला लगती हैं । मुन्नी भी बडी होकर उनके जैसे ही लगेगी । लगेगी लगेगी जरूर लगेगी ।

पर पहले उस पाजी गप्पू को ठीक करना है । रुसफुल कर जाने कहाँ बैठा है । मुन्नी ओढनी फेंक गप्पू की खोज में निकलती है । जरूर आम वाली कोठरी में पुआल पर बैठा आम चूसता होगा । बदमाश छोकरा कहीं का । दिनभर खाने की फिराक में रहता है । सचमुच गप्पू बैठा आम चूस रहा है । रस की धार कुहनी तक बह रही है । होंठों से बहकर ठोडी तक भी । गप्पू है तो सिर्फ साल भर छोटा पर मुन्नी को लगता है वो गप्पू से खूब बडी हो गई है खूब ।

दीदी के ब्याह के बाद शहर लौटते मुन्नी का चूडियों का डब्बा वहीं छूट जाता है । उफ्फ कितनी मुश्किल से जमा किया था । दिल पर जैसे हज़ार घाव हो जाते हैं । आँखों के आगे दिनरात वही तरह तरह की रंगीन चूडियाँ नाचती हैं । कैसा दिल तोड देने वाली हालत है मुन्नी की । दीदी के घर छोड ससुराल जाने की पीर से भी कहीं ज्यादा दुख देने वाली बात । मीठू सुग्गा तक मुन्नी को देख पुकारना छोड चुका है । हरी मिर्च और फूले हुये चने देने के बाद भी मुन्नी को गोल आँखों से तकता है । पिछले साल टॉमी के भाग जाने का भी इतना दुख नहीं हुआ था । अम्मा लाल पर सुनहरे लहरिया वाला गोल चिपटा बिस्कुट का डब्बा निकालती हैं । मामा लाये थे बिदेस से बिस्कुट । वही डब्बा है । अपनी सबसे सुंदर सुनहरे काम वाली गुलाबी चूडियाँ और लहटी निकाल कर डब्बे में डाल मुन्नी को पकडाती हैं । डब्बे को पकड कर मुन्नी को इतनी खुशी मिलती है ,इतनी । कोई खोई चीज़ जैसे फिर से मिल गई हो । मुन्नी अभी बडी नहीं होना चाहती । चूडियों के टुकडे वाली खुशी छोडनी हो तो बिलकुल भी नहीं । मुन्नी ने तय कर लिया है जब तक ये वाला डब्बा भर न जाये , जब तक चूडियों को जोड कर खूब खूब लंबा इन्द्रधनुष के रंगों वाला झालर न बना लिया जाय तब तक उसे बडे नहीं होना है , बिलकुल भी नहीं । ये तो बात पक्की रही , गले पर अँगूठे और तर्जनी रख उम्र भर की कसम खाने जैसी पक्की बात ।

7/31/2007

शिकार, जँगल और सूखी धरती

मंगलवारी हाट का दिन था । लाल मोर्रम की ज़मीन रात की बरसा से भीगी थी । सागवान के पत्ते से पानी अब भी टपटप चू रहा था । नीले चिमचिमी को रस्सी से बाँधकर थोडा आड बना दुकानें सज रही थीं ।पेड के तने से लाल चींटों की मोटी कतार व्यस्त सिपाहियों सी मुस्तैदी से काली लकीर खींचती थीं । नीचे ज़मीन पर भुरभुरी मिट्टी के टीले में फिर अचानक से बिला भी जातीं । किसी के पाँव पर चढ गये तो छिलमिला कर उछलने का औचक नृत्य भी दिख जाता ।

मंगरू टोपनो , शिबू कुजूर , बालू , बिरसा ,सब के सब बझे थे । छोटी मछली , रुगडा , कुकुरमुत्ता , केकडा पकडेंगे बजार के बाद । जंगल में आग जला पकायेंगे । हडिया के संग खूब पकेगा छनेगा । पर पहले कमाई तो हो ले । कमर के फेंटे में बाँसुरी बाँधे मँगरू छन छन इंतज़ार करता है । इतवरिया और फूलटुसिया हथेलियों से मुँह दाबे हँसती छनकती मुड मुड के देखती हैं । बालों में बुरुंश के फूल कान के पीछे लटक लटक जाते हैं । पाँवों के कडे काले बादल में बिजली की चमक । मंगरू के दाँत भी चमकते हैं , बिजली की कौंध से ।

हाट की भीड बढ रही है । जमीन पर बिखरी हैं चीज़ें , टोकरी , रस्सी , सूप और दौरी , सींक के झाडू , बालों का नाडा , सीप मोती के हार , जडी बूटी , सूखी मछली , सुतली से बँधे साग के गट्ठर , जंगली डंठल , पत्ते के दोने में भुने हुये फतिंगे और भूरे चींटे , मोटे रस में पगे बेडौल देहाती चींटी सनी मिठाईयाँ , घडियाँ और काले रंगीन चश्मे , छींटदार कपडे और न जाने क्या क्या । गाँव के गिरजे का पादरी फादर जॉन एक्का अपने उजले चोग़े को उठाये ,संभाले गुजर जाता है । पिछले इतवार ही तो मारिया कुजूर के बच्चे का बपतिस्मा कराते बच्चे ने पेशाब की धार से नहला दिया था । । बच्चे को लगभग गिरा ही दिया था फादर ने । तब प्रभु इसु की दयानतदारी कहाँ गायब हुई थी । औरतों का झुंड मुँह बिचकाता है ।

भनभन भनभन आवाज़ इधर उधर घूमती है इस छोर से उस छोर । तेज़ तीखी , मोलभाव करती ,हडिये के नशे में झगडती , उकसाती , दबे छिपे हँसते किलकते और फिर दिन ढलते थकी हारी ,बेचैन थरथराती ,बुझते ढिबरी के काँपते सिमटते लौ सी । अँधेरा होते ही सब सिमटता है । अलाव की रौशनी में उजाड पडे चौकोर गुमटियों के निशान , कागज़ की चिन्दियाँ , पत्तल और कुल्हड । रेजगारी की छनछनाहट ,नोटों की करकराहट । कुछ बुझे उदास चेहरे ,धूसर मिट्टी में सने पैरों के तलवे , रबर की चप्पलें और जंगल में सुनसन्नाटे में खोते पाते अकेले रास्ते । जंगल का जादू कहीं बिला गया है । सच कहीं बिला गया है । जंगल अब कुछ नहीं देता । पानी सूख गया है । पत्थर से आग निकलती है । जानवर सब भी कहीं लुकछिप गये हैं । कोई शिकार बरसों से नहीं हुआ है । तीर और भाले किसी और ही समय के खिलौने हैं । सिंगबोंगा ,सूरज देवता भी रूठ गया है तभी आग बरसाता है । मुँडा ,खडिया , ओराँव ,सब आसमान ताकते हैं । पानी टप टप चूता है आसमान से लगातार लगातार । अंधेरा परत बनाता है इतना इतना कि हाथ को हाथ न सूझे । गाँव के लडके अब अंधेरा पीते हैं । दिन भर रात भर । और कुछ जो करने को नहीं । इतना घुप्प अँधेरा है कि सपना तक नहीं दिखता । मँगरू बाँसुरी बजाये तो भी नहीं ।

हाट की दुकानें हर मंगलवार घटती जाती हैं । ट्रक पर हफ्ते आलू और प्याज़ और बीडी के बंडल के साथ दो तीन लडके भी निकल जाते हैं पैर लटकाये ,थोडी सी लाल मिट्टी नाखूनों में दबाये । एकाध लडकियाँ भी , कलाई और माथे के गोदने को छुपाये ,शहर में चौका बर्तन और मजूरी करने । गाँव का जँगल सच बिला गया । अब तो पूरा शहर ही जँगल है जहाँ आदमी ही शिकार करता है और आदमी ही शिकार होता है ।



लाहा पाहिल धरती लोसोत गे

थो थोले तहेकान

सेकाते धरती रोहोर एना

लोसोत हावेत लागित पँखी राजा

होये माय बेनाव केत

ओना हादार होये तेगे रोहोर एना

(शुरु में धरती दलदल थी

फिर इतनी सूखी कैसे हुई

धरती सूखे सो पक्षी राजा ने

बनाई हवा

और उसकी फूँक से सूखी धरती )

7/24/2007

पार्क में

लडकी हँस देती है जाने किस बात पर । लडकी हँसती है हमेशा जाने किस बात पर । लडका हैरानी से देखता है उसे । ऐसी तो हँसने वाली कोई बात नहीं कही फिर लडकी हँसी क्यों । जब भी लडकी हँसती है लडका हैरान हो जाता है । मैं कोई जोकर हूँ क्या , कुछ कुछ नाराज़गी से कहता है । लडकी कुछ और हँसती है ,संतरा छीलती है , बिखरे बालों को कानों के पीछे समेटती है । लडका सिर्फ देखता है और सोचता है । लडकी पूछती है ,क्या कर रहे हो ? लडका कहता है , सोच रहा हूँ । लडकी इस बार नहीं हँसती । लडकी इसबार हैरान हो जाती है , मेरे साथ हो फिर भी सोच रहे हो ?

पार्क के ठीक पीछे से ,जहाँ से कीकर के पेडों का जंगल शुरु होता है कोई पुरानी भूली बिसरी , लाखौरी ईंटों की मेहराबदार दीवारों की काई लगी इमारत में बंदरों का एक जोडा खोंकियाता है । अधगिरी टूटी दीवार के सहारे टिका , खादी कुर्ते और नीली जींस में भूरी दाढी वाला वो चित्रकार शायद लडके और लडकी की ही तस्वीर बना रहा हो या फिर क्या पता उसका चित्त बंदरों के जोडे पर जुडा हो । सिगरेट की अनगिनत टोंटियों को एहतियातन समेटता वो मुस्कुराता है । उँगलियों को खोल बन्द करता आँखें मूँद लेता है । लडकी होंठों से उँगलियों के रस को पोछती है । लडके को देख हँस देती है । लडका इसबार हैरान नहीं होता । लडका इसबार सोचता भी नहीं । लडका इसबार लडकी को देखकर सिर्फ हँस देता है ।

7/21/2007

रात पाली के बाद

रात की पाली थी । बारह बजते थे लौटते लौटते । फैक्टरी का साईरन दिन में और रात की पाली खत्म होने समय तक कितनी मर्तबा बज जाता था इसका हिसाब फैक्टरी गेट से कुछ दूरी पर पान दुकान की गुमटी वाले बजरंगी को जबानी याद था । ठीक साईरन बजने के घडी भर पहले पता चल जाता । पाली खत्म होने वाला साईरन अलग और शुरु होने वाला अलग । खत्म होने वाले पर बजरंगी की पान बीडी की बिक्री बढ जाती । रेले का रेला , हुजूम का हुजूम विशाल गेट के मुहाने से अजबजाये बाढ की तरह बह आता । साथ साथ आती पसीने ,थकन और ग्रीज़ की खट्टी बिसाई महक । कुछ भीड छिटक कर गुमटी की तरफ सरक आती । कुछ और आगे की टीन टप्पर की दो बेंच वाली चाय दुकान पर जमक जाती । रात पाली के बाद की रुकी ठहरी भीड बडी छेहर सी होती । बस ऐसे ही लोग जो जाने किस वजह घर की बेचैनी में नहीं होते । बीडी का सुट्टा , मुट्ठी में भरे ,छाती धूँकते खाँसते काँखते रहते । दिन भर की बढी दाढी की छाया चेहरे को फीका मलिन कर देती । घडी भर बेंच पर बचैन सिमटते सिकुडते फिर अलस अँगडाई से देह तोडते , झुके कँधों को खींचतान कर सीधा सिकोडते अपने साईकिलों पर हाथ टिकाये अँधेरी सडक को पल भर तौलते फिर ठंडी हवा मुँह से छोडते साँस भरे दम भर को पैडल मार निकल पडते दस पंद्रह की भीड में । हुहुआती सनसनाती हवा में अँधेरे को चीरते बढ जाते अकेली सडकों पर । भीड छँटती जाती , एक एक करके । सेक्टर के मोड पर मालती लता की झाड अपनी महक छाप छाप छोडती तो लगता कि बस अब आ ही पहुँचे । घर में धीमी रौशनी में एक महफूज़ दुनिया इंतज़ार करती है । खाना और गर्म बिस्तर । बदन अब भी टूटता है । नींद उतरती है आँखों और मुँह के रास्ते , खुली बडी जम्हाई में , आँख के निंदाये कोरों के आँसू में ।

दरवाज़ा खुलने में ज़रा सी देर पर मन लहक जाता है गुस्से से । दिन भर की हाड तोड खटाई और ये औरत पैर चढाये फैल से सोती रहे ? दिनभर की खटती औरत , बच्चों से सर फोडती ,चूल्हे से बदन धिपाती अभी घडी भर को ही तो आँख लगी थी ज़रा सी । आँख मलते धक्क से उठती है , धडफडा कर भागती है दरवाज़ा खोलने । पैर लटपटाते हैं छापे वाली साडी में ,चर्र से किनारी फटती है और दरवाज़े पर ही गाली की एक बौछार होती है सो अलग । पर ये तो रोज़ की कहानी है । खाना परोसती है , पँखा झलती है , नींद से झुकती हिलती है ,कुनमुनाते बच्चे को एक हाथ से थपथपाती है । मर्द अलस पड जाता है मसहरी लगे चारपाई पर । औरत निंदायी निंदायी पानी का ग्लास थामे निढाल आती है बिस्तर पर । रसोई समेटना बाकी है अभी , दही जमाना बाकी है अभी , मुन्नु की आखिरी बोतल बनाना बाकी है अभी । गँधाते फलियों और कपडों के ढेर को सरका कर जगह बनाते औरत सोचती है उसकी रात पाली कब खत्म होगी ।

7/19/2007

एक और दिन

बच्चू सुबह से लोटमलोट था । दिक कर रहा था , मुँह गोल किये था , कभी रुस जाता कभी मनुहार करता । साडी का आँचल पकड पकड ठुनक जाता । माँ को पता था इसे चाहिये क्या ? माँ ऐसे ही माँ थोडे ही थी । उस दिन मौसा के चाचा के समधी पधारे तो पित्ज़ा और पेस्ट्री के बजाय अम्मा के दिनों की मेहमाननवाज़ी याद आई । निमकी लाल साबुत मिर्च के मसालेदार अचार के साथ और बेसन का हलुआ । बना डाला और ढेर ढेर प्रसंशा पाई । और बच्चू जो मीठा नहीं खाता , ये मीठा बिलकुल जीभ पर नहीं धरता से बदल कर दो दो कटोरी हलुआ खाने वाला और माँ को सीधा झुठलाने वाला बच्चू हुआ ।

बस हफ्ता ही तो बीता था । किस बात से उस स्वाद की याद उसे आई । आनी भी थी तो छुट्टी वाले दिन आती । आज जब जल्दी ऑफिस पहुँचना था तब ही । साडी का आँचल कमर में खोंसे पसीने से तर बतर माँ बेचैन बदहाल । न , अभी तो किसी कीमत पर नहीं । बच्चू पहले तो प्यार से ठुनकता था । ममा प्लीज़ कहता था । माँ कहती आज नहीं , राजा , मुन्ना , बेटा , आज नहीं । बच्चू ने पैर पटके , नहीं अभी अभी । अभी खाऊँगा । माँ ने बेख्याली में बाल थपथपाये , रसोई का सामान समेटना शुरु किया , घडी की भागती सुई पर और भी तेज़ भागती नज़र डाली । बच्चू लडियाता था , हँस हँस कर माँ को रिझाता था , ठुनकता सहकता था । माँ नहाने घुसी । बच्चू दरवाज़ा पीटता था , अभी अभी अभी । भीगे बदन कपडे पहनते माँ का पारा गर्म होता जाता था । बीस साल की फ्लोरिया ऐसे वक्तों में बच्चू से दूर हो जाती । घर की सबसे कोने वाली बैल्कनी की सफाई में जुट जाती । इस रूटीन में व्यतिक्रम न करते हुये फ्लोरिया गायब हो ली । माँ निकली गरम गरम और दरवाज़े से लटके बच्चू को दे डाला दो धौल । बच्चू वहीं लोट गया जमीन पर । इधर से उधर । लोटने पर एक कान उमेठी और मिली । नाक ,आँख , मुँह सब बहाते हुये बच्चू , गुस्से से तिलमिलायी फट फट तैयार होती माँ और भाग कर बच्चू को गोद में उठा दूसरी तरफ ले जाती फ्लोरिया ।

बच्चू का चेहरा सहम गया था । माँ का ऐसा गुस्सा । रह रह के सुबक जाता । हर तीन साँस पर एक लम्बी थरथराती हुई ,टूटी हुई हिचकी गले के गड्ढे में थम कर सिहर जाती । माँ तैयार निकलती थी । बच्चू को फ्लोरी की गोदी से ही एक बार प्यार किया । बच्चू का सहमा चेहरा , धमसे हुये लाल गाल । नज़र फेर तुरत उतर गई । रास्ते भर ऑफिस के लस्ट्म पस्टम के बारे में दिमाग उलझा रहा । ऑफिस पहुँचते ही कल की टाईप की हुई चिट्ठी पर तीन बार काम करना पडा । सेक्रेटेरियल पूल की सुनीता खन्ना से झडप हुई । बॉस के पी ए सोनी से बहस हुई । चौथे ड्राफ्ट को फाईनल किया ही था सोनी नयी चिट्ठी थमा गया , अरजेंट । टाईप करते करते बच्चू का धमसा हुआ रुआँसा चेहरा तैरता रहा । ठीक बारह बजे फ्लोरी का फोन आया । बच्चू को बुखार है । घर जाना है बच्चा बीमार है । बैग समेटते , पेपर्स तहाते सोनी की बुदबुदाहट कान में पडती रही । बच्चा हमारा भी बीमार पडता है । इसका क्या मतलब । हर बात में छुट्टी । तनखाह तो बराबर लेंगी और काम घर का करेंगी । ये औरतें ,इनपर तो भरोसा ही नहीं किया जा सकता । भुनभुन , भनभन ।

औरत धडफड स्कूटी चलाती है । घर जाते ही बच्चू के लिये बेसन का हलुआ बनाना है । कुछ मन से खा ले बस ,मेरा बच्चू , मेरा राजा , मेरा मुन्ना । बच्चू माँ को देख हिलक जाता है । लपक कर गोद चढ जाता है । गाल से गाल सटा लेता है । धमसे हुये चेहरे से फिक से हँस देता है , सुबह की मार भुला देता है । रसोई में हलुआ बनाती माँ अचानक धक्क से रह जाती है । नयी चिट्ठी जो टाईप की थी उसे बॉस को देना तो भूल ही गयी । कल सुबह फिर कचडा होगा ।

7/13/2007

डरने का डर

शाम का अँधियारा धुँधलका था । पाँव कितने भी तेज़ चलें डर की तेज़ धडकती नब्ज़ से तेज़ कहाँ चल रहे थे । चुन्नी का फहरना , बेवजह भी , कैसी उच्छृखंलता ! कैसे लपेट लूँ , छुपा लूँ , चेहरे को , बदन को । लडकी सिमट सिकुड कर कहाँ विलीन हो जाँऊ ,जैसी सिमटती थी , सिहरती थी । सडक के ठीक बगल से नाली , बजबजाती हुई बुदबुदा रही थी । बदबू का एक स्वायत्त संसार उसके ठीक ऊपर से होकर हवा में रेंग रहा था । भारी , भीगे कम्बल सी सडांध , या फिर भीगे कुत्ते की सडाईन बिसाईन महक ।

नाक दबाये , चुन्नी सटाये , सलवार पैरों में लथपथ , चप्पल फटफटाये तेज़ भागती, साँसों को पसीजी हथेलियों में थामे किस प्रेत पिशाची डर का भय कँधे पर सवार था उसके ।लडकी डर से चौकन्नी थी , सतर्क थी । उसे माँ की सारी हिदायतें याद थी , मुँहज़बानी । सयानी लडकी अँधेरा होने के पहले घर की चार दिवारी के अंदर ही शोभती है । साईकिल पर अनजान भी कोई बगल से गुज़रे या आगे कहीं तीन चार लौंडों का झुँड दिखे , लडकी की चाल तेज़ हो जाती थी ।रोंये खडे हो जाते , डर एक ठंडा लिजलिजा साँप हो जाता जो रेंगता कंधों और छाती पर , जाँघों और नितम्बों पर । लडकी कुछ चाल और तेज़ करती , सूखे पपडाये होंठों पर उससे भी ज़्यादा सूखी जीभ फेरती ।

गली के मुहाने पर कुछ टप्पर ठेलों सी दुकान पर ढिबरी की लम्बी मटमैली लौ गुम साँझ की बेहया बेहवा में स्थिर लपलपा रही थीं । कालिख और धूँये की मोटी लकीर आसपास के चकत्ते अंधेरे और गहरा रही थी । लडकी की पतली लम्बी काया जाने किस वेग से से दुहरी हो रही थी । सडक के किनारे की कमर से कमर सटी बिना पलस्तर की एक और डेढ मंजिला खस्ताहाल मकानों से कहीं रेडियो की धीमी आवाज़ सन्नाटे को चीरती तोडती उभर आती । किसी खिडकी से कोई छोटा ब्लैक व्हाईट टीवी का नीला स्क्रीन एक पल को बेचैन हिलती आकृतियों की किस अनाम दुनिया में खींच लेता ।

छन्न से किसी रसोई की छौंक की अवाज़ , कोई बच्चे की टूटती रुलाई , कोई दबी छुपी हँसी , तली हुई मछली की तेज़ तीखी महक , कहीं से पेट में ही मरोड नहीं करती ,बल्कि कैसी पल भर में अपने घर के सुरक्षित चारदिवारी में साबुत ,सलामत हो जाने की हकबका देने वाली टीस से भी मार डालती ।

लडकी अकेली कैसे छूट गई थी । इतनी देर कैसे छूट गई थी । अभी अभी तो रौशनी थी ।पल भर में कैसे इतना अंधेरा छा गया । नाभि के भीतर से डर रुलाई में लिसड लिथड रहा था । उबकाई की खट्टी डकार घूम कर माथे चढी और लडकी अचानक नीचे गिर पडी । हाथ में थामी चीज़ें धूल में फैल गईं । खंभे की टिमटिमाती ,पीली फीकी रौशनी में लडकी बदहवास बस बैठी रह गई । वही लडकी जो छुटके के साथ पटीदारी करती थी , लडकर गिल्ली डंडा खेलती थी , लट्टू खेलती , पतंग उडाती , साईकिल पर कैंची चलाती ,लडकों को बायें हाथ की कानी उँगली का नहीं समझती , वही लडकी ।हाँ , वही लडकी ,जिसे माँ कहती कि लडका है कि लडकी , किसी बात का भय नहीं इस लडकी में , वही लडकी जो क्लास में अव्वल आती , जो कहती कि मैं नहीं डरती किसी से , वही लडकी जो छिपकली से नहीं डरती पर तिलचट्टे से डर जाती और वही लडकी जो समझती कि उसकी मुट्ठी में सारा जहान है ।

लडकी क्या यों ही धूल सनी , घूमते माथे को लिये बदहवास बैठी रहेगी कि उठेगी फिर । याद करेगी कि मुट्ठी में जहान है , याद करेगी कि सिर्फ एक चीज़ से डरती है और वो अँधेरा नहीं है , कि अकेली लडकी का रात बिरात घूमने का अनाम डर ,उसका डर नहीं है , कि इस डर के आगे कोई गहरी खाई नहीं है । लडकी उठती है चुपचाप , खुद बखुद , समेटती है अपने बिखरे धूसरित सामान को , गिनती है , गुनती है , उठती है ,संभलती है । स्ट्रीट लाईट की मटमैली रौशनी में तेज़ चाल चलती है फिर वही लडकी ।

7/11/2007

बक्से का जादू

कितना अटरम शटरम बटोर लाये थे । उम्र भर बस बटोरते ही रहे । पॉलीथीन के तहाये हुये थाक , पेपर कटिंग ..पीले जर्जर मोड पर सीवन उघाडते हुये बेदम बरबाद , ढेर सारे बटन ..सब के सब बेमेल ...मज़ाल कि कोई दो साथी मिल जाये , चूडियाँ दरज़नों धानी , पीली , हरी और कितने रंग की लाल , कामदार .सादी , कानों की बालियाँ ,टॉप्स बेपेंच और पेंचदार , रेशम के धागे ... लच्छी ही लच्छी सब एक दूसरे में उलझे ओझराये । बस जैसे जीवन ही उलझ गया । पुराने टीन के बक्से खोल ..न जाने क्या गुनती बीनती रहतीं रात बिरात । दो सफेद किनारी वाली सफेद साडी , एक पीला पड गया रेशमी , तीन हाथ से सिले पेटीकोट और इतने ही ब्लाउज़ ढीलम ढाले , हूबहू एक से , एक बटुआ जिसमें पता नहीं क्या खज़ाना था , पुराने सिक्के , दवाई की खाली पुडिया । कितना तो अगडम बगडम सामान !

बक्सा अब भी सुंदर था। ऊपर हरा रंग धीमा तो पडा था पर चारों ओर के बेलबूटे ,लहरिया पत्तीदार गुलाबी , अब भी लचक में लहर जाता । दिल में मरोड उठ जाती बेहिसाब । कैसा हरियर हरा था जब नया था । और ब्याह की गुलाबी चुनरी , गोटेदार ! ऐसी ही तो लहरिया बेलबूटी थी ।बक्से के ढकने पर अंदर छोटे छोटे खाँचे बने थे । पीली पडी चिट्ठियाँ , अखबार की पुरानी कतरनें , ट्रेसिंग पेपर पर कढाई के नमूने, चाँदी की छोटी मछली , दवाई की खाली पुरानी बोतलें , सब अटरम शटरम ।

गुल्लू का दराज़ भी कोई कम थोडे ही था । गोली कंचे से भरा पडा था । तुडी मुडी ज़ुराबें , बिना रिफिल के दर्ज़नों पेन , टूटी बुचकी पेंसिल की टोंटियाँ , नकली नोट का मोनोपली का बंडल , गोटिय़ाँ , मेकनो सेट के क्षत विक्षत पार्ट पुर्ज़े और किसी शैतान लडके की दुनिया के पता नहीं कौन से रहस्यमय राज़ ।स्याही के धब्बों से पॉकेट रंगे कमीज़ की झाँकी दादी के बक्से की दो सूते सफेद साडियों से कम कहाँ थी ।

और इन्हीं अटरम शटरम सामानों की एक वृहत्तर दुनिया कोने की छोटी कुठरिया भी तो थी जहाँ छत तक सामान झोल और जाले से लिप्त अटा पडा था । कोई एक सामान निकालना असंभव । अव्वल तो याद नहीं रहता कि रखा क्या है और किधर है । और जो याद आ भी जाता था तो निकालने की सौ दुश्वारियाँ ।धूल की परत मोटी सब सामान पर एक समान । टूटी साईकिल से लेकर बाबा आदम के ज़माने का ग्रामोफोन , कूट के डब्बे में पुराने पुराने रिकार्डस , पुरानी अलबम और मैगज़ींस के ढेर के ढेर, बिन पँख के पँखे और बिन हैडल की सिलाई मशीन। अधूरे डिनर सेट्स और बिन ढक्क्न की केतलियाँ , दरके चीनी मिट्टी के नाज़ुक प्याले , संदूकों में भरे बचपन के कपडे , न जाने क्या क्या । अजब जादू का संसार ।

गुल्लू को लगता है एक दिन इस कमरे में घुसेगा सब की आँख बचाकर , ऊपर रौशनदान से जो सूरज की एक किरण आती है जिसके गोलाई में धूलकण सोने जैसी चमक जाती है ,अगर वो पड गई गुल्लू पर तो उसी वक्त कोई जादू शर्तिया हो जायेगा । दादी का बक्सा पँख लगाकर यहाँ तक आ जायेगा , गुल्लू का दराज़ भी , कोई पुराना रिकार्ड अचानक झूम कर बजने लगेगा । बक्सों में से पता नहीं क्या क्या निकल पडेगा , कैसी छन्न पटक सी जादू , कैसे सुनहले रंग ।कोई भारी आवाज़ , ऐई छोकरे ! गूँज जायेगी और फट से जादू छनछनाकर चकनाचूर हो जायेगा । गुल्लू के रोंये सिहर जाते हैं एक पल को ।

दादी अब भी अपने बक्से को खोले पता नहीं क्या खोज रही हैं । एक पुरानी सी पागल कर देने वाली गंध फैल गई है । गुल्लू की आँखे दादी के बक्से पर टिकी हैं किसी अजूबे के इंतज़ार में । कौन सा अजायबघर अपने दरवाज़े खिडकियाँ खोल दे , कौन जाने कब ।गुल्लू मुस्कुरता है । दादी पूछती है , क्या रे गुल्लू ? गुल्लू की हथेलियों में पल भर को अपने हो जाने का जादू ठमक जाता है । उसके रोंये सिहर जाते हैं एक पल को । बक्से का ढक्कन बन्द हो जाता है । दुनिया घूम कर वापस फिर टिक जाती है अपनी धुरी पर । कोई रहस्य आँखों के अंदर छिप जाता है दोबारा । कुछ नहीं दादी , गुल्लू हँसता है ।बक्से का जादू एक बार फिर बक्से के अंदर कैद है ।