डोलती हुई छायाओं से लगातार कैसी और कितनी मगजमारी । हाथ धरे गाल पर सोचता है कवि । मक्खियाँ भिनभिनाती हैं लगातार । सोये बच्चे के मुँह पर और बहते नाक पर स्याही के मोटे भद्दे चकत्ते जैसे । नाली में बहते पानी के साथ तैरते चावल के दाने , आलू के छिलके ,ढंगराये बर्तनों पर बैठा एक काला कव्वा ,चौकन्ना ताकता , गुम्म दोपहरी में । पुराने काठ के बक्से को मेज बना इस्तेमाल करता हमारा कस्बाई कवि लेखक , कव्वे की काँव काँव में ढूँढता है संगीत , लय , ताल । कोई ओवरफ्लोईंग वेस्टपेपर बास्केट तक नहीं , सृजनात्मकता का चमत्कृत मिसाल दे दे ऐसा कोई उद्धरण नहीं , किसी ज्ञानी महापुरुष की तस्वीर तक नहीं । ऐसे में कोई क्या लिखे , कैसे लिखे । पत्नी बेखबर साड़ी के मुसे तुसे आँचल से मुँह ढाँप सोती है निश्चिंत । बच्चा भरे नाक से गड़गड़ाती साँस लिये माँ के ब्लाउज़ का कोना पकड़े हकबका कर पैर फेंकता है फिर करवट करवट बेचैन नींद में ढुलक जाता है ।
जागा है तो सिर्फ हमारा लेखक । पिछले महीने ही तो काव्यप्रभा के तैंतीसवें पृष्ठ पर उसकी कविता छपी थी , “पुकारता रहा प्रिये “। बीस लाईन के इस श्रृंगारिक काव्य रस पर दो अदद पोस्टकार्ड भी प्रसंशिकाओं के मिले । नाम तो नहीं लिखा था पर मजमून के तर्ज़ पर ये मानने को कवि मजबूर हुआ कि ऐसी चिट्ठी किसी विरह रस में सर से पैर तक पगी कोई कन्या की ही हो सकती है । खैर जो भी हो उन दो पत्रों को अनगिनत बार पढ़ने का सुख , पत्नी के पूरे वैवाहिक जीवन के एकमात्र लिखे पत्र से कई गुना ज्यादा था ।
ऐसी ही और कितनी चिट्ठियाँ आयेंगी इस सुख का एहसास मात्र कवि को आगे लिखने की प्रचुर प्रेरणा दे रहा था । पत्नी के चौड़े चपटे मुँह पर से आँचल हट गया था । तेल सनी चुटिया के अंत में मटमैला लाल रिबन और साड़ी के अंदर से झाँकता चीकट पेटी कोट मन की सारी सुरम्यता कमनीयता पर झाड़ू फेर रहा था । आह! कवि होना भी कितना त्रासदायक है । ओह कविमना किधर ढूँढे सौन्दर्य और कहाँ मिलेगा बोध । कविता , सुन्दरता की कैसे रची जायेगी ,बहते नाक और जूठे बर्तनों की खरखट्टे ढेर पर बैठे कौव्वे के बेसुरे काँव काँव में कहाँ से निकाला खोजा जायेगा सुर ?
पत्नी को बेढंगे तरीके से पैर से ठेलकर कवि ने उठाया । पत्नी भकुआई आँख मलती उठी । बेसऊर फूहड़ थी पर गृहस्थिन थी सो उठी और चाय बना लाई , फिर आँचल कमर में कस जुट गई बर्तनों का निपटान करने में । बच्चा सोया है तब तक बर्तन चमचमाने लगे । कवि चाय सुड़कता आसमान ताकता सोचता रहा सोचता रहा । दो शब्दों से आगे बढ़ नहीं पाया । बीती विभावरी जाग री के तर्ज़ पर बीती रात , बीती रजनी के खेल खेलता रहा । मैं थक गया , आता हूँ जरा ताजादम (ताज़ा नहीं ताजा) हो लूँ , कहता एहसान जताता ,चप्पल फटफटाता निकल गया । पान की गुमटी के पास यार दोस्तों संग सिगरेट फूँकी , हँसी ठट्ठा किया , साँझ ढले डूबते सूरज को देख दुखी हुआ । रात अवसाद लेकर सोया । हाय आज कविता लिखी नहीं गई । पर टुमौरो इज़ अनदर डे ।
(गॉन विद द विंड से हमारे कवि को क्या सरोकार पर आशा की जोत जलती है लगातार । फूहड़ता में भी सौन्दर्य खोजता है बारम्बार । तभी तो कवि कवि हैं दिल का महीन नफीस है , लेखक है, कलाकार )
एक खास किस्म की फूहड़ता जरूरी भी है जिंदगी में...तभी हम सुंदरता और खूबसूरती का अहसास कर पाते हैं।
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने। बधाई।
बहुत ही खूबसूरती से चित्रण किया है. यही तो है एक लेखक की कलाकारी और कवि की कविता. बधाई.
ReplyDeleteलिखा आपके चिट्ठे पर है, एक टिप्पणी भेजें इतना
ReplyDeleteइसीलिये बस एक बार ही लिख कर मैं वापस जाता हूँ
ऐसे ही सुन्दर लेखन से बाँधे रखें आप हर पाठक
एक टिप्पणी में केवल मैं यही कामना कर पाता हूँ :-)
ऐसे कवि को कहां देख लिया आपने? यदि यह कल्पना है तो आप निश्चय ही बहुत बड़ी कलाकार हैं।
ReplyDeleteसुन्दर लिखा।
आप अपने बिम्ब खूब चुनती है .. आपकी शैली काव्यात्मक है,और बहुत अच्छी भी, शुक्रिया
ReplyDeleteकूडा बीनने वाली लड्कियों को लोग फूहड कह्ते हैं।मगर उनकी बेपनाह खूबसूरती पर कोई कविता क्यों नहीं लिखता।
ReplyDeleteपढ़लिया। अब इसमें सौंदर्य खोज रहे हैं। :)
ReplyDeleteबहुत बढिया लिखा है प्रत्यक्षा जी..दिन प्रतिदिन आपके हर एक लिखे मे वैरियेशन देखने को मिल रहे हैं...बहुत ही बढिया.
ReplyDeleteरोचक……कही कहीं लगा "शिवानी" की मयापुरी पढ़ रही हूं……।
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