एक शुरुआत हुई होगी कभी या ये सिलसिला बिना किसी स्टार्टिंग प्वायंट और एन्ड प्वायंट के एक सीधी रेखा या ढेर सारी सामानांतर रेखायें ,सब एक दूसरे में गडमड फिर भी अलग ,बराबर फिर भी अलग जैसे बच्चे ने क्रेयान से रगड़ी हो खाली आसमान में शून्य में कोई रंगीन बैंड समय का ? या फिर कोई समय कभी नहीं था कभी । सब टंगा है अलग अलग डाईमेंशन में , घटता है साथ साथ अलग अलग , प्रोबेबिलिटी के नियम ? ई = एम सी स्कावयर ? रेलिटिविटी थ्योरी ? साईंस फिक्शन का हैरतअंगेज़ किस्सा पॉसिबल और फीज़ीबल , विज्ञान के सिद्धांतों के दायरे में ? अगर सब सिद्धांत मालूम हैं फिर सही और अगर किसी रूबिक्स क्यूब के अंतिम स्टेप की सुगमता फिर भी दिमाग से फिसलता ? है तो कुछ और । आयेगा किसी के दिमाग में एक यूरेका । लटका है अधर में कोई टहनी से सेब । व्हेयर आर यू न्यूटन ? । चलती हैं कोशिकायें , धड़कता है न्यूरॉंन्स , ग्रे मैटर , हाइपोथलमस और मेडुला ऑब्लांगेटा के भीतर बाहर । कोई दो तार जुड़ जायेंगे और होगा कोई धमाका ,चमकेगी बिजली , फिसलेगा गरम चाकू मक्खन में । कितना आसान ,ओह सचमुच सचमुच ।
और बीतेगा समय ,रहेगा समय । खिंचेगी एक रेखा और । अनंत में ? सितार के तार ?बजायेगा कोई धुन इसी खिंचे तार पर । सरगम के पार । तार सप्तक सिर्फ शून्य । कोई सौर राग । जन्म लेगा कोई नया तारा कोई नया ग्रह कोई सौर मंडल एक और । फिर गीत रुकते ही सब बिखर जायेगा किसी ब्लैक होल में । ब्लैक होल नहीं सिर्फ एक क्षण को दो साँस के बीच का समय , एक गैप , अ ब्लैंक स्पेस । ठीक जिसके बाद फिर शुरु होगा जैसे नॉर्थ पोल के पास औरोरा बोरियालिस । ब्रह्मांड के बेरंग शून्य में बनेगा एक चित्र धुन से और रंगो की आवाज़ देगी संगत तब तक जब तक उसका जी चाहे । फिरेंगे तब तक हम पृथ्वी पर , रेंगेगे चींटियों से अपने बिलों में , रोयेंगे हँसेंगे , जनमेंगे मरेंगे , एक एक पल का हिसाब करेंगे , तकलीफ का दुखों का , क्षय होगा सब धीरे धीरे । फ्रॉम डस्ट अनटू डस्ट । सब खत्म होगा । ये समय , हमारा समय । ओह ! सब कैसा क्षणभंगुर । क्यों क्यों ? लेकिन आदि से अंत तक फिर भी खिंची है वही अदृश्य रेखा जहाँ हम ढोते हैं पुरखों के जींस , उनकी स्मृतियाँ , उनका समय । हम क्या सिर्फ केयरटेकर्स हैं कुछ मिलियंस सेल्स और तेईस जोड़ी क्रोमोसोम्ज़ के जिन्हें हिफाज़त से बढ़ाना है अगली पीढ़ी तक ? फिर अगली और अगली ? कब तक ? जब सब उस दो साँस के बीच का क्षण , उस ब्लैंक स्पेस तक न आ पहुँचें । फिर एक कॉस्मिक छींक ?
मिटा देगा कोई बच्चा बड़ी बेध्यानी और बचपन की निर्ममता से सारी लाईंस अपने इरेज़र से । ऊब चुका इस खेल से अब । देखता है कुछ पल ,खोजता है फिर नया खेल । तब तक ? एक पल .... सदियों का ब्लैंक स्पेस ..एक नया के टी एक्सटिंकशन ईवेंट ?
( रोती है लड़की आज किसी खोये प्रेम पर । गिरता है पसीना धार धार ,धुँधलाती है आँख उस मजदूर की । चिपके पेट रोता है बच्चा रोटी के एक टुकड़े के लिये । हर की पौड़ी पर सर्द बर्फीले पानी पर नहाता है तीर्थ यात्रियों का दल , मस्जिद से आती है अजान की आवाज़ अल्लाहो अकबर सुबह के कुहासे को चीरती है आवाज़ । उठता है ज़माना जुटता है खटराग में । छनकती है चाय की प्याली किसी लाईन होटल में , गिरता है झाग बीयर मग से किसी पब में । भूलते हैं सब , सब ।राम नाम सत्य है , सत्य बोलो मुक्ति है । अर्थी उठाये गुज़र जाता है काफिला और औरत ज़रा भीत पल भर छाती पर हाथ रखती सोचती है अपने बूढ़े बीमार पिता की , लौटती है गिराती है पर्दा खिड़की पर बच्चे की पुकार पर । फिर वही मायाजाल । थैंक गॉड फॉर आल दिस इल्यूज़न )
सच तो यह है कि समय का पहिया अपनी निर्बाध गति को बनाए हुए सुनहरे भविष्य की ओर गतिमान है और हम सारे स्वर-व्यंजन के साथ उसका पीछा करते दिखाई देते हैं ...! जीवन के कड़वे सच पर आपका सारगर्भित चिंतन , नि:संदेह चिंतन पर मजबूर कर रहा है , काफी गंभीर बातें करती हैं आप , अच्छा लगा !
ReplyDeleteप्रत्यक्षा ये तुम्हारा अनन्त का सफ़र बहुत रोचक है.य़ूँ ही करती रहो.
ReplyDeletediamonds.. sky..
ReplyDeleteबढ़िया रहा कास्मिक चिंतन। ब्रेकेट में फिर वही दुनियावी चिंताएं....समझ नहीं पाया ।
ReplyDeleteA very happy new year to you Pratyaksha.
ReplyDeleteनए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं प्रत्यक्षा जी. उम्मीद है कि यह विशिष्ट लेखन यात्रा निर्बाध चलती रहेगी.
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