9/20/2007

मायोपिक प्रेम

चश्मे की कमानी मोटी थी । टारटॉयज़ शेल की । उसमें मोटा शीशा जड़ा था । टिकाऊ था , मजबूत था । लेकिन उसमें एक बड़ी खामी थी । मुन्नी की आँखें उस शीशे के पीछे उल्लू की आँख सी लगती , मोटी ढेले सी , फटी हुई । आईने के सामने कितनी भी प्रैक्टिस की जाय ज़रा आँखों को सिकोड़ कर छोटा तिरछा करने की पर ऐन वक्त याद ही नहीं रहता । जब याद आती तब तक देर हो चुकी होती । मुन्नी को छोटी तिरछी खिंची हुई आँखें पसंद थीं । पर पसंद होने से क्या होता है । पसंद अपनी जगह और जो होना है वो अपनी जगह । दोनों के अलग स्वायत्त संसार एक दूसरे से दूर दूर रास्ता छोड़ते हुये । मुन्नी को ये पता था । पर पता होने से भी क्या होता है । छोटी तिरछी आँखों की हिरिस अपनी जगह । चश्मे से निजात अपनी जगह ।

अब वैसे तो मुन्नी के जीवन में कई और अरमान भी थे , जैसे गोरा रंग , खडी तीखी नाक और एक अदद तिल , कहीं भी चेहरे पर । असल में रंग तो गेहुँआ सा था , नाक पसरी हुई थी थोड़ी सी और तिल , तिल था तो पर कनपटी पर बालों की रेखा से सटा अपने अस्तित्व को तलाशता हुआ । तो फेहरिस्त जस की तस रही । मुन्नी बडी होती रही । चश्मे का शीशा मोटा होता गया । अलबत्ता मुल्तानी मिट्टी , हल्दी , मलाई और न जाने क्या क्या लीप पोत कर रंग ज़रूर गोराई पर अग्रसर हुआ । तिल की बात बचपन के खेल की तरह भूली बिसरी हँसने योग्य हुई । और रही पसरी हुई नाक , तो उसी पसरे हुये नाक में कोई ऐसी अजीब कमनीयता का वास हुआ कि मोहल्ले के कई लडकों लौंडों का दिल उसके भोले फैलाव पर बार बार रपटा । लेकिन हर बार चश्मे की मारक मोटाई ने ऐसी बेइलाज़ रपटन को पूरी तरह धाराशाई होने से बचा लिया । मुन्नी और बडी होती गई । इंतज़ार करती रही कि कोई उस चश्मे के पार का राजकुमार हो । फिर धीरे धीरे यकीन हो चला कि मेन डोंट मेक पासेज़ ऐट वोमन विद ग्लासेज़ । तो यही सही ।

मोटे मोटे पोथे पर अपनी चश्मेदार आँखों को गड़ाये जीवन का पाठ पढ़ती गई । लेकिन इसी बीच अनहोनी संयोग , नियति , जो भी कह लें , हुआ और ग्यारह बारह के भयंकर मायोपिया को माईक्रोस्कोपिक बनाकर स्लाईड पर फिसलता हुआ नौजवान अवतरित हुआ । अवतरित ही नहीं हुआ बल्कि मुन्नी से ऐसा टकराया कि टॉरटायज़ शेल चकनाचूर हुआ , शीशा चाक चाक । मुन्नी अपने मायोपिक धुँधलके के पार से मुस्कुराई और कोई तीर राजकुमार के दिल में महीन सुराख करता पार हो गया । प्रेम किसी फेरोमोंस हारमोंस की उठा पटक ही तो है । ऐसा ? तो उठा पटक क्या हुई पूरा धमाल हुआ ।

खिड़की के पार जो मियाँ बीबी एक दूसरे की आँखों में झाँकते दिखते हैं , बिना चश्मे के पर्देदारी के वो मुन्नी और उसके मियाँ ही तो हैं । आपको बताया था कि मियाँ की आँखों का पावर मुन्नी की मुन्नी पावर के सामने कितना बड़ा है । दोनों एहतियात से अपने अपने चश्मे को उतारते हैं , प्यार से शीशे को मुँह के भाप से भिगा कर साफ करते हैं , पीले फ्लालेन के रूमाल से , और फिर परे खिसका देते हैं । आँखों में आँखें डालकर देखने के लिये कमबख्त चश्मे की क्या दरकार । उसे मुन्नी की फटी हुई आँख नहीं दिखती । मुन्नी को उसका तोता नाक नहीं दिखता । बेइंतहा प्यार की नदी कल कल बहने लगती है । उसकी फुहार में और आँखों के पावर के नतीज़तन दोनों के चेहरे की लकीरें अस्पष्ट होकर हेज़ी हो जाती हैं । फेरोमॉंस और मायोपिया की थ्री लेगेड रेस चलती है दुलकी चाल ।

17 comments:

  1. चश्मे, तेरा बुरा हो!

    ReplyDelete
  2. बहुत रोचक वर्णन किया है। धन्यवाद।
    पूर्णविराम के पहले स्पेस लगाना तकनीकी दृष्टि से गलत परिणाम देता है। यहाँ देखें।

    ReplyDelete
  3. लघु कथा में मुन्नी की मनोदशा का वर्णन बहुत सहज लगा।


    अपने अपने चश्मे को उतारते हैं... फिर परे खिसका देते हैं । आँखों में आँखें डालकर देखने के लिये कमबख्त चश्मे की क्या दरकार।

    ह्म्म, सोचता हूँ कि यदि मायोपिया के बदले हाइपरमेट्रोपिया होता तब तो कथा के उत्तरार्ध में तो बदलाव होता
    क्या?

    ;)

    ReplyDelete
  4. बहती रहे प्यार की नदी कल-कल.......

    ReplyDelete
  5. बहती रहे प्यार की नदी कल-कल.......

    ReplyDelete
  6. मजा आ गया पढ़कर अभी और जो गूढ़ तत्व हैं,उन्हें
    टटोलूँगा।

    ReplyDelete
  7. मस्त पीस है..

    ReplyDelete
  8. बहुत ही सजीव, सुन्दर चित्रण है। पहली नज़र में, झील सी गहरी आँखों में खो कर होने वाला प्रेम तो बहुत सुनते हैं, पर ज़रूरत थी मायोपिक प्रेम की दास्तान की। एक साधारण प्रेम कहानी की। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  9. Anonymous10:37 pm

    प्रत्यक्षा,
    आप बेहद शानदार लिखती हैं, सौंदर्य के बाजार में एक साधारण-सी, आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ाने वाली, लड़की की भावनाओं, सपनों के साथ ही प्रेम की गहराई को चंद शब्दों में बेहद अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है।
    सर्जक

    ReplyDelete
  10. बहुत बेहतरीन चित्रण-आनन्द आया.

    ReplyDelete
  11. अब बेनामी जी ’तक की’ प्रशंसा के बाद कहने के लिये रह ही क्या जाता है ? :-)

    ReplyDelete
  12. अनूप जी, शायद गलती से बेनामी चला गया, लेकिन मेरा भी एक ब्‍लॉग है जिस पर मैं कभी-कभार कुछ पोस्‍ट कर देता हूं।

    ReplyDelete
  13. Anonymous5:00 pm

    प्रिय प्रत्‍यक्षा जी,
    नमस्‍ते।

    मैं वेबदुनिया से मनीषा पांडेय आपको यह पत्र लिख रही हूं। परिचय का एक छोटा-सा सिरा यह भी है कि अविनाश के ब्‍लॉग मोहल्‍ला पर मनीषा की डायरी वाली मनीषा मैं ही हूं। आपका ब्‍लॉग भी निरंतर देखती हूं और काफी पसंद करती हूं।

    वेबदुनिया पोर्टल से तो आप वाकिफ ही होंगी। इस पोर्टल पर प्रत्‍येक शुक्रवार को हम हिंदी के किसी ब्‍लॉग के बारे में चर्चा करते हैं। उसकी विशेषताएं और ब्‍लॉगर के ब्‍लॉग संबंधी कुछ विचार भी। इस कड़ी में मैं आपका ब्‍लॉग भी शामिल करना चाहती हूं, जिसकी नियमित पाठिका मैं खुद हूं। इस बारे में आपसे यदि कुछ बातचीत हो सके तो बेहतर होगा।
    आप अपना मेल आई डी और फोन नं. मुझे ई मेल कर दें। फिर हम फुरसत से बात कर सकेंगे।

    मेरा मेल आईडी - manishafm@rediffmail.com/ manisha.pandey@webdunia.net
    मोबाइल नं. - 09926906006

    मनीषा पांडेय
    वेबदुनिया - इंदौर

    ReplyDelete
  14. सर्जक जी:

    माफ़ी चाहूँगा । आप तो genuine बेनामी निकले ।
    'बेनामी' नाम से मुझे प्रत्यक्षा के एक और प्रशंसक 'बेनामी' का भ्रम हो गया था जिन की पिछली कुछ टिप्पणियां काफ़ी मनोरंजक (?) रही थीं । आप की टिप्पणी पढ कर मुझे उन के ह्रदय परिवर्तन का अहसास हुआ लेकिन ऐसे चमत्कार भी कभी होते हैं ?
    आप का ब्लौग देखा , अच्छा लगा ।

    ReplyDelete
  15. भाषा और भावों पर आपका अधिकार देखते ही बनता है.अच्छी रचना।

    ReplyDelete
  16. हमेशा की तरह इस बार भी अच्छा लिखा है। अच्छा चित्रण है।

    ReplyDelete
  17. सारे लोगो ने तो टिप्पणी दे दी पर अगर मैं कहूं के मायोपिक लेंस के पीछे की आँख बड़ी - बड़ी तो कभी लग ही नहीं सकतीं तो शयद मैं ग़लत नहीं होऊँ.

    ReplyDelete