खाने की थाली लगी थी । रोटियाँ , थोड़ा सा चावल , कटोरियों मे दाल , सब्ज़ी , दही । दाल सब्ज़ी चावल सान कर भाई छोटे छोटे कौर बनाते , बात करते जाते थे । एक कौर मुँह में और उसके बाद का दूसरा ज़रा सा खिसका कर थाली के कोने में , सामने की ओर । वो मुस्कुराती , बनाया हुआ कौर उठा कर खा लेतीं । बात और खाना दोनों आराम से आफियत से , सलीके से । बीच बीच में उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी गूँज जाती । तब हथेलियों से मुँह ढक लेतीं । शायद बचपन के किसी खुर्राट दादी नानी की डाँट उजागर हो जाती । मुँह दाबे उनका हँसता चेहरा किसी चौदह साल की शर्मीली हँसमुख लड़की में बदल जाता ।
कमरे में सामान अटा पड़ा था । पर हर चीज़ की नीयत जगह । एक तिनका तक टेढ़ा नहीं । जूठे बर्तन उठाये वो रसोई की तरफ चली जातीं । आदत थी रात को एक अंतिम चाय पीने की । छोटे से देगची पर ऊपर हथेली रख पानी के खौलने की गर्मी महसूस करतीं । दो पीले हरे कप में रिम पर उँगली रखे चाय ढारतीं । बाहर की ज़रा सी चौकोर खुली जगह में मोढ़े पर बैठे चाय पी जाती। लड़कियाँ अन्दर गुपचुप गप्प करतीं । डब्बे में रात की बनाई बिरयानी और रायता भाई पैक करते ।
प के लिये है । आज नहीं आई न । कहना भाभी ने भेजा है ।
रात मैंने खाना नहीं खाया था । पता था लड़कियाँ भाभी के घर गई हैं । फिर मेरे लिये सिंधी बिरयानी आयेगी ही । मैं जाऊँ न जाऊँ मेरा हिस्सा डब्बे में पैक ज़रूर आता था । भाभी क की मुँहबोली भाभी थीं । क मद्रासी और भाभी सिंधी । भाई पंजाबी । क की मुलाकात भाभी से तब हुई थी जब वो अपने आँखों के इलाज के लिये शंकर नेत्रालय गई थीं । लम्बा इलाज चला । तब वे लोग क के किरायेदार रहे कुछ दिन । तभी का रिश्ता था । अब जब क दिल्ली में थी तो हर इतवार उनके घर जाती । हम सब यानि क के दोस्त भी जाने लगे थे । लाजपत नगर की शॉपिंग के बाद हम सब निढाल भाभी के घर जा धमकते । कपड़े दिखाये जाते , रंगों का बखान होता । फैब्रिक छू छू कर देखा जाता । भाभी हँसती , गुलाबी रंग ? फिर तो प पर अच्छा लगेगा । और अ ने क्या खरीदा ? आज क्या पहना है ? आओ इधर । फिर छू छू कर देखतीं । कौन सा रंग है ? नीला होता तो अच्छा होता नहीं । ऐसी गप्पबाजी और खरीदारी का मज़ा लेने के बाद भाभी खाना बनातीं । हम अफरा कर खाते ।
भाई कोने में खड़े भाभी की मदद करते और मुस्कुराते । आज साल बीत गये । पता नहीं भाभी और भाई कहाँ हैं कैसे हैं । पर अभी भाभी के गोरे चेहरे और छोटे कटे बाल . खूब सलीके से पहने गये कपड़े , उँगलियाँ नेल पॉलिश्ड , सब एकदम टीपटॉप , और उस बड़े काले चश्मे के पीछे दृष्टिविहीन आँखें सब याद आ गये । और इनसब के ऊपर सिर पीछे फेंककर हथेलियों से होंठ दाबे उनकी ज़रा सी भारी रेशेदार हँसी याद आती है , भाई का छोटे छोटे कौर बनाकर उनकी उँगलियों की पहुँच तक थाली में खिसकाना याद आता है ।
टीवी में चित्रहार में हिरोईन ने क्या पहना है , क ने बाल कटवाये तो कितने कटवाये , नये पर्दें कैसे लगे .. जाने कितनी छोटी बातों से हम लगभग भूल ही जाते कि उन्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता । तब हम छोटे थे और उनके जीवन के बीहड़ नीम अँधेरों की दुनिया हमसे बहुत बहुत दूर थी । कितने कितने सतहों पर वो जीती थीं ये हम अनुमान भी नहीं लगा सकते थे । अवसाद और उदासी उन्हें भी घेरती होगी । हताशा और निराशा से उनका खूब वास्ता भी पड़ता होगा । पर हमने हमेशा उनको हँसते देखा , खुश देखा ।
हमने उनको हँसते देखा संस्मरण(कहानी)दिल को छू गया। आपकी भाषा भी संतुलित और सटीक है।
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
कितना गज़ब है न. कहां चली गई वे फिर?
ReplyDeleteकहने को कुछ नहीं है । लोग अंधेरों में भी खुशी ढूँढ लेते हैं और हम उजालों में भी दुख !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अब तो हम ने भी देख लिया.
ReplyDeleteआंखे न होने पर इस तरह जी लेना। अद्भुत !
ReplyDeleteकुछ समझ नहीं आया. लघु कथा भी नहीं है, ना पूरी कथा है. ऐसा लगता है कि बस लिखने को लिख डाला....
ReplyDeleteजी देख लिया जी हमने भी.
ReplyDeleteजीने की कला अगर कुछ होती है तो उससे पुरी तरह से वाकिफ रही होगी वे. आगे भी कुछ लिखें.
ReplyDeleteबढ़िया शब्दचित्र!!
ReplyDeleteआपकी यादों के टनेल मे घुसे तो घुसते चले गये. निकलने का मन ही नही कर रहा था.
ReplyDeleteभले ही भइया भाभी आपके साथ न हो, मेरी शुभकामनाये हैं की वो लोग अच्छे ही होंगे. वैसे भी जिनके पास ये जीने की कला हिया, वो लोग कभी दुखी नहीं होते. वो तो सदा आनंद ही बांटते हैं
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