लपकते शोलों की लपट किस्सागो की आँखों में चौंध भर देती । अरेबियन टेल्स वाली शाहज़ादी हो जैसे । लुढ़कते पुढ़कते ऊन के गोलों सा किस्सा दर किस्सा खुलता जाता था , कभी रेशम कभी नीला । सब मुँह बाये भक्क सुनते थे बिना पलक झपकाये , बिना उबासी जम्हाई लिये । कहीं एक पल को भी किस्सा छूट न जाये । बरस बीतता जाता था । किस्सागो किस्सा कह कह नहीं थकता । बस सुनने वाले बदलते जाते थे । तभी उस भयंकर षडयंत्र का पता कहाँ किसी को चला था ? सब उस किस्से की नूतनता पर आह करते , गज़ब ! उँगलियाँ तक सिहर जातीं रोमाँच से , ओह अद्भुत ! अद्भुत । सिर डुलाते वेदवाक्य का जाप होता । किस्सा कोह हँसता मंद मंद । इस शातिर चालाकी पर बाग बाग । फिर किसी होनहार गुनहगार की तरह इसे कैसे ज़ाहिर किया जाय कि सुनगुन में रहा मस्त । फिर मस्ती बेपरवाह हुई मुर्झाई सुस्त । बेचैन हुई आत्मा बेचैन हुआ मन ।
वही किस्सा बरस दर बरस उमर दर उमर हज़ारों लाखों साल , जाने कितने लाईट ईयर्स कहा जाता रहा , शून्य में , समग्र में , जंगलों गाँवों में , भोर के झुटपुटे में , तारों के चमकने में , छाँह में , बचपन की उमगन में , बुढ़ापे की ठहराई में , सघन वन अमराई में । किस्सा जीवन का मरण का , बेचैन तड़पते दमतोड़ खुशी और टूटती काँपती रुलाई का । फिर भी हर जन्म पर वही नये खुशी के नवजात भाव और मृत्यु के गठीले कंठ फोड़ते भय के तराजू पर ऊपर नीचे होती ज़िन्दगी का , वही का वही बरसों बरसों का खेल चलता है अनवरत । सब फैल कर विस्तार में विलीन या सिकुड़ कर एक बिन्दु में समाप्त ? किस्साकोह अब मुस्कुराता नही । खेल का मज़ा हुआ मन्द । वही किस्सा बार बार कितनी बार ? और क्यों भला ?
तलाश है अब एक नये स्क्रिप्ट की , कुछ तड़कता फड़कता दमदार ज़ोरदार । कहा जाये कोई नया किस्सा तरबतर रसेदार । है कुछ आपके पास ? कुछ तेज़ तीखा मिर्चीदार । किस्सागो करता है इंतज़ार ।
bahut khuub,aapki lekhnii me hameshaa mujhey ek ajab saa flow miltaa hai,sarsaraa kar padh jaati huun aur fir vapas se samajhney ke liye pehli pankti se padhnaa shuru karti huun...ek ek baat apney me anuthii hai,,,,,,hameshaa achha lagta hai.....kahti rahey yun hii
ReplyDeleteप्रत्यक्षा जी
ReplyDeleteआप मेरे ब्लोग पर आयी और आप को मेरी साधारण सी पोस्ट अच्छी लगी जान कर अच्छा लगा। आप का इ-मेल पता न होने के कारण यहीं आप का धन्यवाद कर रही हूं। कृपया अपना इ-मेल पता दें। वैसे मैने आप के बारे में बहुत कुछ सुना है(सब अच्छा ही अच्छा) आज आप से मिल कर भी अच्छा लग रहा है।
क्या सजीव चित्र प्रस्तुत किया है.....वाकई एक पल तो ऐसा लगा की जाड़े की रात में आग को घेर कर बैठे किसी बूढे चौकीदार से कहानियाँ सुन रहा हूँ....बचपन याद दिला दिया आपने....
ReplyDeleteलंबे समय से एक पाठक के तौर हिन्दी चिट्ठेकारिता से जुड़ा हूँ... आपका और कईयों का प्रशंसक भी हूँ अतः क्षमायाचना के साथ कहना चाहता हूँ : क्या लाईट ईयर्स का प्रयोग आपने जान बूझ कर किया है या फिर भूल गयीं की ये दूरी का मात्रक है...:)...वैसे odd नहीं लग रहा है...लम्बी दूरी हो या लंबा समय...आगे जाकर एक से हो जाते हैं...
क्या सजीव चित्र प्रस्तुत किया है.....वाकई एक पल तो ऐसा लगा की जाड़े की रात में आग को घेर कर बैठे किसी बूढे चौकीदार से कहानियाँ सुन रहा हूँ....बचपन याद दिला दिया आपने....
ReplyDeleteलंबे समय से एक पाठक के तौर हिन्दी चिट्ठेकारिता से जुड़ा हूँ... आपका और कईयों का प्रशंसक भी हूँ अतः क्षमायाचना के साथ कहना चाहता हूँ : क्या लाईट ईयर्स का प्रयोग आपने जान बूझ कर किया है या फिर भूल गयीं की ये दूरी का मात्रक है...:)...वैसे odd नहीं लग रहा है...लम्बी दूरी हो या लंबा समय...आगे जाकर एक से हो जाते हैं...
पारुल सही कहती हैं.....कई देशज- आंचलिक शब्दों का भी खूबसूरत नबाह आपके लेखन की खासियत है जैसे इस बार - बचपन की उमगन में...
ReplyDeleteक्या यह एक विडम्बना है कि कहने के कितने सारे तरीके और तकनीक ईज़ाद होने के बाद भी सूचनाओं के लिए बांटने को बातें किस कदर सिकुड़ रही हैं. क्योंकि हम शायद दिलचस्प होने की कीमत पर प्रासंगिक होना चाह रहे हैं.रही सही जगह टीवी से पैदा हुई विचारशून्यता ने घेर लिया है. तुम्हारी बात इस लगभग लुप्त हो चले शिल्प को पुकारती है, हालांकि हमारी जिदंगी से किस्सागोई क्या रवां उर्दू की तरह हाशिए से भी बाहर ठेल नहीं दी गई.
ReplyDeleteऊबिये मत.. दिलचस्पी बनाए रखिये.. कहीं कोई दूसरी स्क्रिप्ट नहीं है.. वही क़िस्सा झक मारकर सबको सुनना है.. हँस कर मज़ा ले कर.. या झींककर रोकर..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग तक पहुँचने का धन्यवाद प्रत्यक्षा कहाँ हो? कैसी हो? बहुत दिनों से तुम्हारी नई कहानी का इंतज़ार है अभिव्यक्ति में... भगवान करे जल्दी कोई ज़बरदस्त् स्क्रिप्ट हाथ लगे...
ReplyDeleteविषयों की कहां कमी है, प्रत्यक्षा जी। चारों ओर बिखरी पड़ी हैं कहानियां, किस्से। जीवन का देखा-जिया सबकुछ वही तो है। मुक्तिबोध की एक कविता है, मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं। शायद ठीक-ठीक कविता की आखिरी पंक्तियां याद न हों, लेकिन उनका अर्थ कुछ ऐसा ही है कि विषयों की कमी नहीं / उनका आधिक्य ही उसे सताता है / और वो ठीक चुनाव नहीं कर पाता है।
ReplyDeleteपारुल , आपको प्रवाह दिखता है क्योंकि आपकी खुद की दुनिया संगीतमयी है । आपको अच्छा लगा , मुझे बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteअनीता जी , मुझे भी आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा । आपकी पोस्ट से आपको जानना सुखमय अनुभव था ।
विस्मृत , लाईट ईयर्स ... सही कहा दूरी का माप है , मेरे दिमाग में ब्रह्माँड के शुरु होने से लेकर खत्म होने के इंफाईनाईट समय , शून्य से समग्र तक का भाव था ,लिखते वक्त। पता नहीं कंवे कर पायी या नहीं ।लम्बी दूरी लम्बा समय बहुत दूर जाकर एक ही बिन्दु पर जा टिकते हैं । ये भी अलग पोस्ट का विषय है , नहीं ?
अजित , ये जो देशज शब्द हैं , अटके हैं स्मृति में । लिख लिख कर उन्हें जिलाये रखने की कोशिश करती हूँ ।
अजगर जी , शायद फॉर्म बदलता है , फॉर्मैट भी । आगे जाकर पीछे लौटते हैं , कितना ये वक्त तय करेगा । किस्सागो सचमुच देख रहा है कर रहा है इंतज़ार ।
अभय , मैं तो समझ रही थी कि स्क्रिप्ट में , आगे कोई भयानक तीखा मोड़ है , ये आप , स्क्रिप्ट राईटर , तो जरूर कहेंगे । आप तो झेलने की सलाह दे रहे हैं ।
पूर्णिमा जी , अच्छी हूँ , बहुत अच्छी । आपकी दुआ पर सिर्फ आमीन कहूँगी । आप कैसी हैं ?
मनीषा , विषयों की सच कमी कहाँ है । लेकिन मैं तो इस जीवन के परे का नया स्क्रिप्ट खोज रही थी । मैं भी कहाँ ये तो किस्सागो है जो खोज रहा है कोई नया रोमाँच , नई कहानी का ...इस संसार के बनने बिगड़ने का , जन्म मृत्यु के दोहरावन का खेल , इसके परे ,हमारे परे , इस ब्रह्माँड के परे का , अंत और शुरु के परे का , उस पल के परे जहाँ सब सब ठिठका रुका पड़ा है । बियांड द युनिवर्स ऐंड बियांड लाईफ।
इंतजार का फ़ल मीठा होता है। :)
ReplyDeleteहमेशा आपको पढ़ते हुए सोचती हूँ कि यहां शब्दों को बिना पलक झपकाए पढ़ जाते हैं....अगर प्रत्यक्षा जी को प्रत्यक्ष में सुनेंगे तो निश्चित रूप से एक सम्मोहन में बँध जाएँगे.
ReplyDelete