11/01/2005

वही तन्हा चाँद

मुद्दतों बाद कुछ ऐसा
सा हुआ
रात भर धमनियों में
टपकता रहा
वही तन्हा चाँद

खिडकियों के सलाखों से
कभी झुक कर झाँके
धीरे से पलकों को
कभी छू कर के भागे
आखिर में इस खेल से
थक कर के
फैले हुए बिस्तर पे
सिमट कर के

रात भर पहलू मे
मेरे सोता रहा
वही तन्हा चाँद

गई रात तक
खेली गई जो
आँखमिचौली
उनींदे आँखों की
मदहोश खुमारी
हँस कर कह देती
वो मासूम कहानी
वो नटखट ,नादान
नन्हा सा वो खेल

दिनभर मुझे याद
आता रहा
वही तन्हा चाँद

8 comments:

अनूप शुक्ल said...

कविता और कविता लिखने की गति वाकई काबिले तारीफ है। लेकिन कुछ बातें समझ में नहीं आईं:-

1.मुद्दतों बाद कुछ ऐसा
सा हुआ


ये कुछ ऐसा सा कैसे होता है?

2.रात भर पहलू मे
मेरे सोता रहा
वही तन्हा चाँद


पहलू का चांद तन्हा कैसे हो गया?

Jitendra Chaudhary said...

पहलू......तन्हा....????
हाँ भई,
इन दोनो सवालो का जवाब दिया जाना बहुत जरुरी है। नही तो फ़ुरसतिया जी की आत्मा तड़पती रहेगी।

हम भी इन्तज़ार कर रहे है जवाब का?

अनूप शुक्ल said...

रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर तथा तमाम दूसरे दबावों के चलते पहली टिप्पणी वापस ली जाती है।
दूसरी अपने आप वापस हो गई है कि नहीं जीतेन्दर बाबू!

Tarun said...

Dekha pratyaksha tumne ye shabdo ka khel,
Koi hua hai paas aur koi hua hai phel

इंद्र अवस्थी said...

पहलू का चांद तन्हा यूं हो सकता है
- ये 'सन्नाटे की गूंज' जैसा झन्नाटेदार प्रयोग है
- जब मैं और चांद में अद्वैतवाद जैसा संबंध हो, यानी 'मैं' मतलब चांद

'ऐसा सा' में अप्रत्यक्ष तरीके से अप्रत्यक्षता का प्रयोग हुआ लगता है

Sunil Deepak said...

आप जैसे कद्रदानों की तो भीड़ में भी तनहा महसूस किया जा सकता है, तो पहलू में तनहा होने में क्या कठिनाई है?

मुझे यह कविता बहुत अच्छी लगी. ब्रांदो, हमारा कुत्ता भी आप के चांद जैसा है, छेड़ता है, चाटता है और फिर थक कर पहलू में बैठ जाता है.

सुनील

Pratyaksha said...

सबसे पहले तो, जीतेंद्र जी..नोट किया जाय फुरसतिया जी को धमका कर टिप्पणी वापस कराई जा सकती है, आगे भी काम आयेगा.

दूसरी बात, इंद्र जी ने सही कहा, सन्नाटे के शोर के बारे में क्या ख्याल है? वैसे भीड में भी तन्हा और अकेले में भी मुक्कमल, ऐसा भी होता है.

सुनील जी, शुक्रिया आपको कविता पसंद आई, हाँ, कुत्ते और चाँद ,इसपर भी कुछ लिखा जा सकता है (मुझे लाईका की याद आई)

थर्ड आई (?) चलिये कम से कम आप तो हमारे साथ हैं.

और सबसे अंत में ,भाईयों कविता के कोमल भाव को समझा जाये, शब्दों पर न जायें

प्रत्यक्षा

debashish said...

मुझे कॉलेज के ज़माने में हमारे एक सीनीयर की गाई कव्वाली से एक अश्आर याद आया, शायद सुना होः

ज़िदगी की राहों में रंजोग़म के मेले हैं,
भीड़ है कयामत की, और हम अकेले हैं।