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ऐसा क्यों है
कि कहने में
और करने में
खाई सा फासला हो
आदर्शवाद जपें
मुँह से
पर जब वक्त आये
तो बैसाखी थाम लें
मजबूरी की
जरूरत का
और उसके बावजूद
बुलंदी भर लें
आवाज़ में
और कहें
आदर्शवाद गलत
थोथे मूल्यों की
ज़रूरत नहीं
लपेट लें साफा
सिरों पर
सजा लें मौर
पगडी पर
और कर दें
ऐलान
आज का मूल्य
बदल गया
हम हैं नये युग के
नये अवतार
जहाँ आदर्शवाद
कोरी भावुकता है
जहाँ सफलता
सुकून है
जहाँ अंत जरूरी है
प्रयोजन नहीं
ऐसे कुकुरमुत्ते भीड
बेतरह उग आये हैं
चारों ओर
तो फिर ऐसा क्यों है
कि आज भी
किसी गाँधी के नाम पर
उमड जाते हैं आँसू
गर्व के
किसी मार्टिन लूथर के सपने
आज भी देते हैं आकाश
उडने को
फिर क्या जरूरी है
इस भीड का हिस्सा
हम भी बनें
क्या ये प्रश्न कभी भी
पूछा है आपने
खुद से ?
और अंत में एक हाइकू
आदर्शवाद
बिछाया सिरहाने
सुकून नींद
3 comments:
यह कविता प्रश्न के प्रत्युत्तर में प्रश्न करती है साथ ही आपके दृष्टीकोण से परिचित भी करवाती है. आप इसके साथ लेख भी लिखते तो मजा दुगुना हो जाता.चलिए अगली बार सही!
बहुत बढ़िया कविता लिखी। अब यह पहली अनुगूंज हो गई जिसमें दो प्रविष्टियां कविता में हैं। बधाई।
बहुत सशक्त कविता है , तुम्हारी और कविताओं से हट कर । बधाई ...
यहां भी देखें ..
http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/12/blog-post.html
अनूप
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