11/25/2005

तुम्हारी खुश्बू

तुम्हारी खुश्बू
(1)
घूमती थी मैं
सडकों पर आवारा
तुम्हारे खुश्बू की तलाश में
पर
सूखे पत्तों
और सरसराते पेडों
के सिवा
और कुछ
दिखा नहीं मुझे

(2)
हथेलियों से
चू जाती है
हर स्पर्श की गर्मी
आखिर कब तक
समेटे रखूँ मैं
मुट्ठियों में
चिडिया के नर्म बच्चे सी
तुम्हारी खुश्बू

(3)
साँस लेती मैं
खडी हूँ
तुम्हारे सामने
और भर जाती है
मेरे अंदर
तुम्हारी खुश्बू

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है। खुशबू की व्यथा भी सुनी जाये:-

खुशबू का इस चमन में कोई मकां नहीं है,
उसे हर किसी ने चाहा मगर राजदां नहीं है।
-डा.कन्हैयालाल नन्दन

अनूप भार्गव said...

बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है ...

अपनी कुछ पँक्तियाँ याद आ रहीं हैं :

ये मेरी देह महकी आज चन्दन सी अचानक क्यों ?
तुम्हारी साँस चुपके से बदन को छू गई होगी ....

debashish said...

मैं हमेशा बड़ा रेशनल किस्म का इंसान रहा और प्यार में खुशबू का एहसास अपनी जीवन संगिनी के बदौलत ही पता चला। कुछ एहसास जब तलक हमें छू नहीं लेते तब तक उनके विद्यमान होने पर भी शंका या अविश्वास होता रहता है। एक सवालः हम कहते "खुश्बू" हैं पर लिखते "खुशबू", क्या कारण है इसका?

Pratyaksha said...

देबाशीष जी ,लगता है मैं 'खुशबू' गलत लिख रही हूँ.
आपकी बात पढ कर परवीन शाकिर का लिखा याद आ गया
खुशबू है वो तो छू के बदन को गुज़र न जाये
जब तक मेरे वज़ूद के अंदर उतर न जाये

और ये मैंने लिखा...

हम ऐसे घर में रहते हैं
जहाँ रहती तेरी खुश्बू
कभी परदों को छूकरके
कभी खिडकी के पीछे से
मुझे आकर पकडती है
अपनी बाँहों में भरती है
लिपट जाती है तब मुझसे
तेरे इस प्रीत की खुश्बू