5/27/2008

ऑरकेस्ट्रा

उस रात घुप्प अँधेरे में चौकस सिर्फ दो आँखें थीं । गीदड़ों का हुहुआना , तेज़ बरछी हवा और झिंगुरों का संगीत था । रात था , अकेलापन निचाट था । और ऊपर चमकते कितने तारे थे , इतने कि छाती भर जाय । इतने कि सब ओढ़ लूँ फिर भी बच जाय । फिर बारिश होने लगी थी । अंदर बाहर सब भीग रहा था । अब सिर्फ चलना था । जैसे समय की कोई सीधी रेखा पर पैर जमाते कोई कुशल नट । और चलते चलते , एक लय से चलते संगीत शुरु हुआ । धीमा मद्धम । मेरे अंदर झरना बहता था । उसकी फुहार बाहर तक आती थी । किसी आरोह पर हिचकी सी अटक जाती थी । फूल खिलते थे , नीले हरे और नदी बहती थी तेज़ शोर करती हुई । और नदी के तट पर तम्बुओं से बाहर झाँकती औरतें आँखों को हथेलियों का ओट देकर देखती थीं दूर कोई घोड़े के चापों की आहट । गदबदे नंगधड़ंग बच्चे लुढ़कते गिरते हँसते रोते , माँओं के कपड़े से लटके पलते बढ़ते बड़े होते , आग पर कन्द और जानवर भूने जाते , मछलियाँ सुखाई जाती , कढ़ाहों में कपड़े रंगे जाते , मोती सीप पत्थर की मालायें बनती और जीवन चलता । उस रात और जाने कैसी कितनी रात , ऐसे ही तारों के नीचे धरती पर , नसों और शिराओं में गीत बजता । नगाड़े के थाप पर उन्माद नाचता , जोड़ता कोई तार जाने कहाँ से कहाँ तक । ऐसी ही सोच को सोचता कोई पगलाता विलाप में । पत्थर पेड़ नदी आदमी । आदमी छूता अपनी त्वचा को अपने शरीर को अपनी आँखों को । उस तेज़ होते संगीत में , किसी और नई सभ्यता के जन्म में , किसी और आकाशगंगा में कोई नर्म रोंयेदार गिलहरी बरामदे में बस एक पल को स्थिर गर्दन मोड़े देखती उस बच्चे को जो बढ़े हाथ में मूँगफली पकड़े देखता है घात लगाये । पर इस बार भी फुर्र होती है गिलहरी ।

आदमी भीगे ज़मीन में चलते चलते आखिर थक कर लेटता है । दूर कहीं एक रौशनी का टिमटिमाता बिन्दू ही काफी है सुकून के लिये । कोई और है तो इस भरी दुनिया में ..एक और इंसान कोई , कहीं । भीगे पत्तों से रामजी का घोड़ा निकल, बैठ जाता है उसकी छाती पर । आदमी के खर्राटे में सुनाई देता है उसको अपना कोई पहचाना प्यारा गीत । थकन से बेहोश आदमी अब भी अकेला है अपने संगीत में, अपनी नींद में ।

6 comments:

Geet Chaturvedi said...

डिलन को याद करते रहने के बाद ये ऑरकेस्‍ट्रा सुनना, एक अलग ही अहसास.

और हां, रामजी के घोड़े हर जगह दौड़ते हैं. ख़ूब.

Arun Aditya said...

आपका शिल्प सम्मोहक लगता है, लेकिन कई बार रघुवीर सही की एक पंक्ति चेतावनी की तरह याद आ जाती है कि जहाँ ज्यादा कला होगी जीवन नहीं होगा।

अनिल रघुराज said...

आपकी हर रचना को पढ़ना एक यात्रा होती है, जाने कहां-कहां ले जाती हैं आप चंद पंक्तियों में। पढ़कर जैसे मन में अमलतास के फूल खिल गए।

Pratyaksha said...

आदित्य जी ..सही बिलकुल सही ..इसी आत्मा की तलाश में भटक रहे हैं ... इस बीच प्रयास जारी है , लौ जलाये रखनी है

Abhishek Ojha said...

दिमाग में घूमते अनमने विचारों के सफर सी है आपकी पोस्ट... अच्छी लगी.

डॉ .अनुराग said...

वापस उसी अंदाज मे ......अच्छा लगा...