3/25/2008

शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

बेड नम्बर बयालिस , न्यूरो डिपेंडेंस वार्ड

राफेल राफेल
आवाज़ खोज रही थी । दोपहर की सुन सन्नाट गलियों में गोलगाल घूम रही थी। कभी पास आ जाती तो तेज़ हो जाती। मद्धम होती तो राफेल समझ जाता दूर हो गई। हथेली में चार चमकीले पत्थर पसीने से चमकते थे जैसे उस रात पेड़ पर बैठे उल्लू की आँखें।


हथेलियों को हथेलियों में थामे कलाईयों को मोड़ते हुये जोएल सोचता है , बोलेंगे कभी ? पहचानेंगे कभी ? कलाईयों के बाद कुहनी फिर बाँह। उसके बाद एड़ियाँ , घुटने। हर एक घँटे एक्सरसाईज़ करायें । जोड़ लचीले रहें बाद में आसानी होगी । घड़ी देखता है जोएल। ठीक ग्यारह बज कर दस मिनट पर एक्सरसाईज़ का दूसरा दौर। अभी नेब्यूलाईज़र लगेगा फिर सक्शन कर के छाती पर जमा कफ निकाला जायेगा । सिस्टर जब पाईप डालती है मुँह में तो दाँत से पकड़ लेते हैं। गाल थपथपा कर सिस्टर चिल्लाती है , बाबा छोड़ो । तब जोएल की इच्छा होती है ठीक वैसे ही पकड़ कर सिस्टर को झकझोर दे । उनकी तकलीफ देखकर हट जाता है जैसे उसकी छाती तक पाईप रेंग गया हो ।

बगल वाले बेड पर लेटा बच्चा शारुख अपने पिता को बेहोशी के आलम में अंकवार भर लेता है। उसकी बैंडेज बँधी मुट्ठियाँ पिता के पीठ पर बेचैन थरथराती हैं। डी वार्ड में हर वक्त मरघट शाँति रहती है। सारे पेशेंट नीम बेहोशी में । अटेंडेंट्स थके हारे निढाल क्लांत । बाहर रुलाई की महीन रेखा उठती गिरती विलीन होती है। शायद कार्डियाक वार्ड से आती है । बीमारी की महक जैसे ज़्यादा पके फल की महक नाक में भर जाती है। कुछ कुछ सड़े हुये आम की महक जैसे।

वाईटबोर्ड पर जोएल पढ़ता है

नाम राफेल टिर्की
डेट ऑफ एडमिशन चौदह जनवरी दो हज़ार आठ
कॉज़ ब्रेन प्लस हाईपोथैल्मस कंट्यूशन
प्रोसीजर फ्रांटल क्रेनियोलजी
मेल कैथ /फॉलीज़ चौदह जनवरी
डाएट .........
राईलीज़ ट्यूब.......
..........
..............

नीचे नीचे और नीचे ऐसे ही कितने अजाने मेडिकल टर्म्ज़ ..सारे शब्द गडमड होते हैं । माँ कहती है मैं आऊँगी । आकर भी क्या करेगी । संस्था वाले कहते हैं सात लाख खर्च हो गये । एक ही आदमी पर कितना खर्च। और भी तो हैं मदद के लिये ..बेबस बेचैन बेसहारा । पिता अनदेखी आँखों से देखते हैं । कुछ भी नहीं देखते हैं। कहाँ चले गये तुम ? किस दुनिया में ? जहाँ मेरा रास्ता नहीं , जहाँ मेरी दरकार नहीं , घुसपैठ नहीं ? हमेशा अपनी की । अंत तक। और मैं अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ , कहाँ इन्हें ले जाऊँ ..उस छोटे से बीहड़ जसपुर के पास जंगल वाले गाँव में , उस दो एकड़ के खेत में ? उस सरकारी लावारिस से बे-डॉक्टर अस्पताल में ? कहाँ ले जाऊँ । अबकी बार जोएल देखता है खिड़की के बाहर अनदेखी आँखों से । कुछ भी नहीं देखता ।

पोखर पर लिपटती शाख से पानी में छपाक कूदते लहर बनाता तैरता है राफेल । मछली जैसा । पानी में काला चिकना बदन छहलता है।
राफेल , राफेल
आवाज़ कभी पीछा नहीं छोड़ती । सटती चिपकती है । सर झटकता है एक बार ज़ोर से । ओह अभी नहीं , अभी तो बिलकुल नहीं ।


सिस्टर सिस्टर ।
जोएल उत्तेजना से सिहर रहा है । अभी इन्होंने अपना सर हिलाया । मैंने देखा , अभी देखा । आप भी देखना सिस्टर ।

बाबा बाबा , मैं जोएल । मुझे सुनते हो तो अपना सर हिलाओ । जोएल उनको पकड़ कर हिला रहा है । दो मिनट इंतज़ार कर सिस्टर बेजार लौट जाती है कुर्सी पर ।

खिड़की के सिल पर गिलहरी भौंचक इस शोर से थमती ठिठकती है फिर पूँछ उठा विलीन हो जाती है।

सिस्टर बेड नम्बर चौआलिस पर झुकी पुकार रही है ,
शारुख शारुख कैसे हो शारुख ?

6 comments:

रजनी भार्गव said...

प्रत्यक्षा शब्द नहीं हैं कुछ कहने को, तुम्हारा सहारा शायद यही है। अंदर तक झंझोड़ देते हैं।

राकेश खंडेलवाल said...

वो जो अंधियारे में कोई एक किरन को ढूँढ़ रहा है
है पागल मन सोचे उंगली कोई थामे इस मेले में
तड़प, चेतना और सोच को ताक उठा कर रख देती है
तिनका ही है एक सहारा, बहे जा रहे इस रेले में

Geet Chaturvedi said...
This comment has been removed by the author.
Geet Chaturvedi said...

तुम्‍हारी पोस्‍ट्स पढ़कर कई बार लगता है, किसी लंबी कहानी का हिस्‍सा पढ़ रहे हों। वो हिस्‍सा जिसमें रूह का रंग सबसे ज़्यादा धूसर हो, बरौनियों में कुछ अटका हो, गालों पर नमक सूख रहा हो। यानिस रित्‍सोस की एक कविता याद आ गई, पढ़ते हुए, बरबस....

You know, death doesn’t exist,
he said to her.
I know, yes, now that I’m dead, she answered.
Your two shirts are ironed,
in the drawer.
The only thing I’m missing
is a small rose.

Sanjeet Tripathi said...

यार आप मानवीय भावनाओं, मानसिक हालत को इतना सटीक कैसे उतार लेते हो शब्दों में!!:)

विजय गौड़ said...

गीत चतुर्वेदी की राय थीक लगती है कि एक लम्बी कहानी का हिस्सा लगती है, प्रस्तुत कथा.