2/19/2008

जैसा बे-टैग मैं जीना चाहती हूँ

(एक नॉन पतित औरत की डायरी के पन्ने)

लेकिन मैं पतनशील नहीं बनना चाहती । पतित तो बिलकुल नहीं । मैं सिर्फ मैं बनना चाहती हूँ , अपनी मर्जी की मालिक , अपने फैसले लेने की अधिकारी , चाहे गलत हो या सही , अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे । किसी भी टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती । मैं सिर्फ औरत रहना चाहती हूँ , जीवन डिग्निटी से जीना चाहती हूँ , दूसरों को क्म्पैशन और समझदारी देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ । मैं नहीं चाहती कि किसी कोटे से मुझे शिक्षा मिले , नौकरी मिले , बस में सीट मिले , क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले । मैं देवी नहीं बनना चाहती , त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती , अबला बेचारी नहीं रहना चाहती । मैं जैसा पोरस ने सिकंदर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो ‘ के जवाब में कहा था ,” वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है , बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी अकाँक्षाओ में है , जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है , जैसे एक इंसान किसी दूसरे इंसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है ।

मैं दिन रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती । मैं दिन रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोज़हद में नहीं गुज़ारना चाहती । मैं अपना जीवन सार्थक तरीके से अपने लिये बिताना चाहती हूँ , एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा मेरे खुद के अंतरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो , कि जब अंत आये तो लगे कि समय ज़ाया नहीं किया ,कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की , कि जीवन जीया ।

मैं प्रगतिशील कहलाने के लिये पश्चिमी कपड़े पहनूँ , गाड़ी चलाऊँ , सिगरेट शराब पियूँ , देर रात आवारागर्दी करूँ ऐसे स्टीरियोटाइप में नहीं फँसना चाहती । मैं ये सिर्फ तब ही करना चाहूँगी जब ये करना मेरी मर्जी में होगा , सिर्फ किसी और के बनाये ढाँचे में फिट होने या मात्र फॉर द सेक तोड़ फोड़ करने के लिये नहीं । मेरे चुनाव मेरे अपने होंगे किसी और के थोपे हुये नहीं । मेरे रास्ते मेरे होंगे , उनके काँटे भी मेरे , फूल तो मेरे ही । पुरुष के ही बनाये मापदंड से खुद को नहीं आंकू । मैंने अपनी मर्जी का किया तो पुरुष मुझे गलत समझेगा पतन शील समझेगा तो मैं पतनशील ही सही वाला रवैया भी मेरा नहीं । ऐसा जैसे लो सिर्फ तुम्हें दिखाने के लिये मैं ऐसी बनी , विरोध करने के लिये मैं ऐसी बनी ।

मैं अपनी मिट्टी खुद गढ़ना चाहती हूँ , अपनी मिट्टी , अपना चाक और खुद ही कुम्हार भी। बिना शोर शराबे के , बिना हीलहुज्जत के । आराम से , शाँति से , इज़्ज़त से । आप दबेंगे आपको दबाया जायेगा । आप लड़ेंगे आपको हराया जायेगा । मैं अपने आप को इस निरर्थक लड़ाई से ऊपर उठाऊँगी । ऐसे जीयूँगी जैसे जीवन ऐसे ही जीने के लिये बना था ।



एक बात और कहना चाहती हूँ । चोखेर बाली एक मँच है ,एक समुदाय है ,अपनी बात कहने का ऐसा लाउडस्पीकर है जिससे बात सब तक पहुँचे ,लेकिन शोर के रूप में नहीं , सार्थक अर्थों और शब्दों के साथ पहुँचे । लेकिन बात अगर डिसटॉर्ट हो , डाईल्यूट हो , तो उसकी तेज़ी फीकी पड़ती है । कुछ मानवीय पक्ष को सामने लाते हुये सयंत बातों का विमर्श हो । चोखेर बाली की मंशा क्या हो इसके बारे में कुछ छिटपुट सोच । सुजाता से कई बातें हुईं । बहुत चीज़ें पक रही हैं । एक सही दिशा की ओर कैसे बढ़ें इस पर चोखेर बाली में ही आगे फिर । तब तक आप सब भी सोचें और खूब सोचें ।

24 comments:

neelima garg said...

nice post...very progressive thoughts...

अफ़लातून said...

बहुत अच्छा लगा जानकर ।

Anonymous said...

mae bhi aapki hii tarah soch tee hun

Unknown said...

आमीन।

Ashish Maharishi said...

यह एक शानदार सोच

सुजाता said...

बहुत अच्छे प्रत्यक्षा जी । लेकिन मनीषा की बात समझ सकती हूँ । जिनके परिवेश में बिखरी तल्खियाँ बहुत ज़्यादा हैं अगर आप उनका सामना रोज़ रोज़ बार बार करते हैं तो जल्द बेचैन कर देती हैं; ऐसे में सहज ही निकलता है "धिक् तुम धिक् तुम्हारे मानदण्ड"..
शायद मै भी अभी आग में हूँ । बाहर आउंगी तो कांचन हो कर ।
फिलहाल तो मेरा और मुझ सीयों का माहौल देख कर लगता है इतना कहने मे भी देर कर दी है ।

आप शायद संयत हो गयी है और बाहर से देख समझ पा रही हैं । एक बैलेंस्ड नज़रिया ..।

चंद्रभूषण said...

बहुत अच्छा लगा- एक हॉट-हॉट बहस के कूल-कूल समाहार जैसा। बस इस संघनन में थोड़े बिखराव की गुंजाइश भी बनी रहे। एक जमाने से कोई खोज-खबर न रखने वाले अपने मित्र आलोक श्रीवास्तव का एक अनोखा छंद पेश करना चाहूंगा-

मेरो कोऊ मान न कोऊ अपमान
कोऊ सुख मेरो न कोऊ दुख मेरो
बहुत कमजोर बहुत बलवान
बहुत बिखरो मैं बहुत मैं घनेरो।

azdak said...

बेजी ने फिर यहां मेरा कमेंट पहले से उड़ाके चेंप रखा है! अब मुझे फिर कुछ नया सोचने (या गाने की) ज़रूरत होगी? या उसी को थोड़ा बदलकर कह दूं? आह् एंड सो मीन?

Neelima said...

हां प्रत्यक्षा आप बहुत संयत होकर देख रही हैं इस अघोषित आदिम स्त्री पुरुष संघर्ष (?)को! पर जब हम खुद को पतनशीला कह रहे होते हैं तब हम समाज के (स्त्री से )सदियों से अपेक्षित-निर्धारित मान दंडों का खंडन कर रहे होते हैं !

मनीषा पांडे said...

प्रत्‍यक्षा जी, पतन क्‍या कोई मूल्‍य है। पतन मूल्‍य कैसे हो सकता है। अच्‍छे और बुरे की, सत्‍य और असत्‍य की, उदात्‍त और पतित की सारी परिभाषाएं हर देश, काल और विचारधारा में कमोबेश समान होंगी। जो बात वस्‍तुत: पतित है, स्‍त्री मुक्ति के विमर्श में वह उन्‍नत कैसे हो जाएगी। नहीं होगी। ऐसा सोचना समझदारी की बुनियादी जमीन से ही विचलन है।

माया एंजिलो अपनी ऑटोबायोग्राफिकल राइटिंग, 'आई नो, व्‍हाय द केज्‍ड बर्ड सिंग्‍स' में ऐसी ही बैड वुमेन होने की बात कहती हैं। रंग के आधार पर बंटे समाज में वह काली है, अमीर और गरीब के खांचों में बंटे समाज में वह गरीब है और औरत और मर्द के शक्ति समीकरणों में बंटे समाज में वह एक औरत है। वह गरीब, काली और औरत, तीनों एक साथ है, जिसके नियमों को मानने के बजाय वो एक बुरी औरत होना चाहती है। 'ए रुम ऑफ वंस ओन' में वर्जीनिया वुल्‍फ ने भी एक मुक्‍त और बुरी औरत के बारे में लिखा है।

सिमोन, माया एंजिलो, वर्जीनिया सबके यहां ये बुरी औरत एक सटायर है, एक व्‍यंग्‍य। मुझे सांस लेने के लिए बुरी औरत बनना पड़ेगा तो ठीक है, बुरी ही सही, लेकिन सांस तो मैं लूंगी। लेकिन ये बुरी औरतें बुरे होने से शुरुआत करके न सिर्फ स्‍त्री समुदाय, बल्कि पूरी मनुष्‍यता को उदात्‍त करने की दिशा में जाती हैं। वो विचार, जीवन, कर्म सबमें एक वास्‍तविक मनुष्‍य की मुक्ति का लक्ष्‍य हासिल करती हैं। कर्म, रचनात्‍मकता और आत्‍म-सम्‍मान से भरा जीवन जीती हैं। उनकी पतनशीलता इस दुनिया के प्रति एक व्‍यक्तिवादी रिएक्‍शन और सिर्फ अपने लिए स्‍पेस पा लेने भर की लड़ाई नहीं है।


यह पतनशीलता का सटायर एक चीप किस्‍म की निजी आजादी में बदल जाएगा, अगर उसके साथ विचार, कर्म और रचनात्‍मकता का व्‍यापक फलक न हो। वह स्‍त्री मुक्ति के साथ समूची मानवता और मनुष्‍य मात्र की मुक्ति के स्‍वप्‍नों से जुड़ा न हो। अपने अंतिम अर्थों में वह एक बेहतर मनुष्‍य समाज के निर्माण के स्‍वप्‍न और कर्मों से संचालित न हो। यह अपनी कुछ खास वर्गीय और सामाजिक सुविधाओं का लाभ उठाते हुए दारू-सिगरेट पी लेने, रात में घूम लेने, एक सुविधा और सेटिंग से मिली नौकरी को अपनी आजाद जीवन की उपलब्धि की माला समझकर गले में टांगकर मस्‍त होने की बात नहीं है। ऐसा तो बहुत सारी औरतें कर लेती हैं, लेकिन वह मुक्‍त तो नहीं होतीं। वह पतित भी नहीं होतीं, क्‍योंकि जिस वर्गीय परिवेश से वो आती हैं, वहां वह पतनशील मूल्‍य नहीं है। दारू पीना मेरे घर में पतित मूल्‍य है, लेकिन सुष्मिता सेन के घर में तो नहीं होगा। रात 12 बजे दफ्तर से घर लौटना मेरे घर में पतनशील मूल्‍य नहीं है, लेकिन बेगूसराय के सरकारी स्‍कूल मास्‍टर चौबे जी के लिए बहुत बड़ा पतनशील मूल्‍य है। हंडिया, बस्‍तर, लखनऊ, मुंबई और पेरिस के समाजों में स्‍त्री के लिए पतनशील मूल्‍य अलग-अलग हैं। एक जगह जो पतित है, वह दूसरी जगह बड़ी सामान्‍य बात है।

‘पतनशील’ - इस शब्‍द की प्रतीकात्‍मकता को समझना और अपने विचारों को बड़े फलक पर देखना बहुत जरूरी है। और मुक्ति भी तो ऐसी कि ‘मैं ये होना चाहती हूं’ जैसी नहीं होती। मैं कोई चीज सिर्फ इसलिए नहीं कर सकती, क्‍योंकि मैं ये करना चाहती हूं। कोई स्‍त्री भी उतनी ही मुक्‍त होती है, जितना मुक्‍त वह समाज हो, जिसमें वह रहती है। मेरी मुक्ति का स्‍पेस उतना ही है, मेरे जीवन का भौतिक, वर्गीय परिवेश मुझे प्रदान करता है। यह मुक्ति, अपने मन-मुताबिक जीने की इच्‍छा मेरे जींस की जेब में रखा लॉलीपॉप नहीं है, कि जब जी में आया, उठाया और खाया।

बेशक, यह बड़े सवाल हैं, बड़ा स्‍वप्‍न, बड़े विचार और बहुत बड़ा संघर्ष। इसी समझने के लिए बड़ी नजर, बड़ी समझ, बड़े विवेक और बड़े श्रम की जरूरत होगी।

मनीषा पांडे said...

एक बात और, अगर मैं यह पतनशील राग इसलिए छेड़ रही हूं, क्‍योंकि मेरे निजी परिवेश में तल्खियां ज्‍यादा थीं, और उन बंधनों ने मुझे एक रिएक्‍शनरी जीव में तब्‍दील किया है, तो मुझे बहुत जबर्दस्‍त इंट्रोस्‍पेक्‍शन की जरूरत है। मुझे खुद पर मेहनत करनी होगी, अपने मन, मस्तिष्‍क और विचारों पर श्रम करना होगा।
लेकिन जितना मैं समझ पाती हूं, संभवत: ज्‍यादा न समझ पा रही होऊं, लेकिन मुझे लगता है कि मैं खुद को डंडा मार-मारकर रिएक्‍शनरी होने से बचने की कोशिश करती हूं। कितना कर पाती होऊंगी, पता नहीं।
लेकिन मेरे लिए पतनशीलता कोई मूल्‍य नहीं है। यह एक व्‍यंग्‍य है, सटायर है। मैंने जो जिंदगी जी है, वह तो उसका हिस्‍सा है ही, लेकिन उससे चार कदम आगे बढ़कर वो तमाम जिंदगी, जो अपने आसपास देख और महसूस रही हूं।

पारुल "पुखराज" said...

या फ़िर यूं कह लें-

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये

दुष्यंत कुमार

Pratyaksha said...

मनीषा, पतन का उतना ही मूल्य है जितना प्रगति का। दो छोर के हद हैं। और पतनशीलता को प्रगतिशीलता के बराबरी पर लाने का काम हम न करें क्योंकि तब बहुत कुछ हमारी दशा सत्तर के दशक के ब्रा बर्नर्स सी हो जायेगी। सिर्फ प्रतीक के नाम पर कुछ सनसनीखेज खिलवाड़ भर।
माया आंजेलू ने सत्तर के दशक में ‘आइ नो..’ लिखी थी। किताब बेहद चर्चित हुई थी पर साथ ही साथ कई डेवियंट बिहेवियर को प्रोमोट करने के लिये दुशचर्चित भी हुई थी । इसी आसपास रैडिकल फेमिनिस्टस ने एक सिम्बॉलिक ब्रा बर्निंग का भी आयोजन किया था। वहाँ भी मज़े की बात ये हुई कि मिस अमेरिका पैजेंट में, ’औरत एक शरीर है’, का विरोध करने के लिये एक भेड़ को ताज पहनाया गया , अपने ऊँची एड़ी वाले जूते ,कॉस्मेटिक्स और ब्रा को आज़ादी कूड़ेदान में डाला गया । सार्वजनिक ब्रा बर्निंग जैसा कुछ नहीं हुआ था पर जनचेतना में फेमिनिस्म का दूसरा लहर जो साठ सत्तर के दशक में शुरु हुआ था, का इससे ज़्यादा विज़िबल प्रतीक और कोई नहीं । जर्मेन ग्रीयर ने सत्तर में ‘फीमेल यूनक’ और फिर दसेक साल बाद ‘सेक्स एंड डेस्टिनी’ लिखा तब जितने उनके समर्थक थे उतने ही डिट्रैक्टर्स थे । बेटी फ्रीदान ने ‘द फेमिनिन मिस्टीक’ में औरत को अपनी पूर्णता अपने पति और बच्चों से परे पाने की घोषणा की थी। सामाजिक संरचना बदल डालने की। ये सब तरीके थे , पहले कदम थे अपने आप को पहचानने के।
फेमिनिस्म के इतने कदमताल में मुझे सिमोन बोवुआ की एक बात बहुत सही लगती है ,कि औरतें सदियों से अपनेआप को अब्नॉर्मल समझती रहीं, मेरी वॉल्स्टोनक्राफ्ट के अनुसार तो औरतों को पुरुषों सरीखा बनने की आकांक्षा रखनी चाहिये। तो पुरुष अगर नॉर्मल हैं तो हम स्वाभाविक रूप से अबनॉर्मल। सिमोन का कहना था कि जब तक इस बेसिक प्रेमाईस से हम अलग नहीं होंगे हम एक कदम आगे नहीं बढ़ सकते । शायद सिमोन बोवुआ की यही बात मैं कहना चाह रही थी। अपने को पुरुषों के बनाये ढाँचे के हिसाब से मत मूल्याँकन करो। अलग हटो , दूर जाओ , अपने माप दंड खुद बनाओ , अपनी ज़मीन खुद तय करो।
साँस लेने भर से तुम बुरी औरत कैसे बन जाती हो। इसलिये कि किसी पुरुष ने कहा ? तुमने खुद को क्या कहा ? यही कि साँस लेने से मैं जीवित रहती हूँ । अच्छा या बुरा ये मैं तय करूँगी। पतनशीलता का सैटायर भी अगर इस्तेमाल होता है तो कहीं किसी पुरुष दोहरी मानसिकता का भार अब भी हम ढो रहे हैं। जब माया आंजेलू ने बैड वोमन इस्तेमाल किया वो चालीस साल पहले की बात है। अब नये बिम्ब का इस्तेमाल हम करें , अपने बनाये बिम्बों का।
और जब हर औरत अपना स्पेस तय करेगी कोई न कोई पैराडाईम शिफ्ट तो अपने आप होगा। ये स्पेस पाने की पहली शुरुआत ‘ऐसा’ सोचना है। सोचो , फिर करो। अगर मैं ये सोचती हूँ , मैं ये चाहती हूँ , नहीं कहोगी तो करोगी कैसे ? कोई दूसरा तुम्हें कुछ देने नहीं आयेगा। इसे संयत तरीके से लेना पड़ता है , स्वाभाविक बनाना पड़ता है। लम्बी लड़ाई है और हर कोई अपने तरीके से करता है । तुम अपने तरीके से कर रही हो , मैं अपने तरीके से और कोई कमज़ोर औरत जो थकहार कर आत्महत्या कर लेती है , वो भी अपने तरीके से कोई विरोध तो दर्ज़ कर ही रही होती है। कहीं न कहीं कोई उससे सबक ले रहा होता है। बस सिर्फ एक बात बेहद ज़रूरी है एक जगह पर खड़े रहकर मार्चपास्ट न करते रहें। कुछ कदम आगे भी बढते चलें।
बातचीत ऐसे ही चलती रहे । आनंद आया और उम्मीद है कुछ और सार्थक बातें भी जुड़ती रहेंगी ।

Anonymous said...

hmmm... what's going on?? jab pahli baar patrakaaron ko blogging jagat mein ghuste dekha...tabhi andesha ho gaya tha ki doodh khatta hone waala hai...patrakaaron :) ke paas maadhyam hai apni baat kahne ka...sahityakaaron ke paas apna madhyam hai...ye blog to hum becharon ke liye hai...kaii achchhe blog bhi aaye hain patrakaron/sahityakaaron ke saujanya se...par keechadbaazi bhi aayi, gutbandi bhi aayi hai, bevajah ki holiest-of 'em-all attitude bhi aaya hai...
Woman vs housewife post par kahna chahta tha ki bahas se bachein nahin...bahas to soch ko parishkrit karti hai...par ab bhramit hoon...
Aakhiri baat jo sabhi blogger se kaahna chahoonga... blog readership ke liye nahin likhi jaati shayad....to blog apne man se likhein..naa ki tippanikaaron ke liye...mujhe lagta hai ki fursatiya/pratyaksha/sameerlal/laltu etc. ki samanya posts pratikriyavadi posts se behtar hoti hain...
Kripaya apne mukhya blog ko samanya hi rahne dein...yaad rakhein aap kisi ke prati uttardaayi nahin hain..

mere 2 aane...mera jaayka kharaab ho raha hai in sab ke beech:(..:)

विखंडन said...

तो आओ चलो सब " अपनी मर्जी" से जिए ओर लिखे चाहे वो स्त्री हो या पुरुष कोई किसी कि नही सुनेगा । पर क्या वाक्य ही खालिस "अपनी मर्जी" जैसी कोई चीज हो सकती है क्या । क्या वाक्य ही व्यक्ति " अपनी मर्जी" से जी सकता है।

ghughutibasuti said...

आपके विचार जानकर बहुत अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

सिमोन... माया एंजिलो... वर्जीनिया... जर्मेन ग्रीयर... फ्रीदान बोवुआ... मेरी वॉल्स्टोनक्राफ्ट...

पैराडाईम... शिफ्ट स्पेस...

अरे पाब्‍लो नेरूदा छूट गए..., कोई उनका जिक्र तो करो...

Batangad said...

प्रत्यक्षाजी
'मैंने अपनी मर्जी का किया तो पुरुष मुझे गलत समझेगा पतन शील समझेगा तो मैं पतनशील ही सही वाला रवैया भी मेरा नहीं । ऐसा जैसे लो सिर्फ तुम्हें दिखाने के लिये मैं ऐसी बनी , विरोध करने के लिये मैं ऐसी बनी ।'
मैं जब से ये पतनशील बहस पढ़ रहा हूं। मेरे विचार पूरी तरह से आपकी पोस्ट की इन्हीं लाइनों के इर्दगिर्द घूमते रहे थे। ये अलग बात है कि मैं पोस्ट नहीं डाल पाया। लेकिन, एक और जो बात है सिर्फ महिला या किसी की नहीं कोई भी खालिस अपनी मर्जी नहीं चला सकता। यहां तक कि खालिस अपने निजी जीवन में भी नहीं।

अनूप भार्गव said...

सब से पहले तो सार्थक लेखन के लिये बधाई ।
अक्सर मैं गद्य में लिखने से कतराता हूँ लेकिन इस बार कुछ कहने की इच्छा हो रही है ।
अलग अलग कुछ बिखरे बिखरे से विचार हैं , ज़रूरी नहीं कि कुल मिला कर कुछ अर्थ निकले ही :

-तुम्हारी लगभग हर बात में अगर ’चाहती’ की जगह ’चाहता’ लगा दिया जाये तो कोई अन्तर नहीं पड़ेगा ।
-अपने ढंग से अपनी ज़िन्दगी को जीने की चाह किसी को भी हो सकती है ।
-हाँ अगर यह चाह किसी स्त्री की है तो रास्ता कुछ ज़्यादा कठिन हो जाता है ।
-इस कठिन रास्ते को उसे खुद ही तय करना है । यदि पूर्वाग्रह रास्ते में आते हैं तो उसे निजी स्तर पर ’वन परसन ऐट ऐ टाइम’ निपटना होगा । कोई सरल रास्ता नहीं है ।
-सरल रास्ता है तो सही लेकिन वह ’पहले गुज़रे हुए रास्तों से ही हो कर जाता है" । किसी भी तरह के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं छोड़ता ।
-लडाई सिर्फ़ अपने लिये लड़ी जा सकती है या फ़िर पूरे समाज को बदलने के लिये ।
-इन दोनों में से कौन सी लड़ाई लड़नी है , इस का फ़ैसला भी स्वयं ही करना होगा ।
-फ़ैसला चाहे कुछ भी हो, होना सिर्फ़ अपने लिये चाहिये किसी बात को सिद्ध करने के लिये नहीं और ना ही किसी की अपेक्षाओं पर खरे उतरने के लिये ।

अभी बस इतना ही .....

Pratyaksha said...

अनूप जी .. अभी हर्षवर्धन और विखंडन की बात का जवाब गुन ही रही थी कि आपकी टिप्पणी आ गई और जो मैं कहना चाह रही थी वो आपने मुझसे ज़्यादा अच्छे से और सरलता से कह दिया । जब औरत इंसान में गिनी जायेगी फिर मेरी मर्जी तेरी मर्जी बेमायने हो जायेगी । "मेरी मर्जी" के साथ साथ समझदारी और क्म्पैशन भी जोड़ा था । जब इनकी छतरी के नीचे मर्जी आती है तो वो मर्जी कोई सुरीला सुर बनाती है , कर्कश शोर नहीं ।
और हाँ बेनाम भाई , जब कविता की बात होगी तो हो सकता है नेरूदा न छूटें ..आप ज़्यादा परेशान न हों

विस्मृत .. कई बार कुछ कहने की इच्छा जोर मारती है । टिप्पणी की चाह नहीं अंदर के उबाल को बहने का रास्ता था ये पोस्ट । लेकिन एक बात से सहमति ..एक ही राग बार बार क्यों ? कुछ और भी लिखती रही हूँ , लिखती रहूँगी । लेकिन बीच बीच में ऐसा भी कुछ .. मीठे के बीच कड़वा कुछ !

अजित वडनेरकर said...

बहुत अच्छा प्रत्यक्षा। मनीषा की बातें भी पारदर्शी हैं। अनूपजी की एक एक पंक्ति से सहमत हूं। यही है सार ।

पर्यानाद said...

स्‍त्री हो या पुरुष... दोनों इंसान हैं. दोनों का व्‍यक्ति के रूप में अपना अपना स्‍थान हैं. जो इसमें भेद करना चाहता है यह उसकी निजी समस्‍या है. मुझे कोई एक व्‍यक्ति के रूप में सम्‍मान नहीं देना चाहे या स्‍त्री-पुरुष के खांचे में रखकर देखना चाहे तो मुझे क्‍यों परेशान होना चाहिए? यह मेरा दोष तो नहीं.. देखने वाले की कमी है. और क्‍या किसी के ऐसा करने से मेरा व्‍यक्तित्‍व नहीं रहेगा? लैंगिक भेद आधुनिक समाज में चली रही एक ऐसी विडंबना है जिसे खत्‍म होना ही होगा लेकिन इसे सायास करने से तो शायद ऐसा न हो. पतनशीलता की चर्चा एक भ्रमित बहस है.

Unknown said...

मैं जैसा पोरस ने सिकंदर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो ‘ के जवाब में कहा था ,” वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है , बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी अकाँक्षाओ में है , जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है , जैसे एक इंसान किसी दूसरे इंसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है ।

वास्तव में संतुलित, प्रगतिशील, तार्किक व वर्त्तमान समय में अपेक्षित दृष्टिकोण से भरी कामना, अपेक्षा या परिचय है जो जीवन अपनी शर्त, अपनी इच्छा, अपने पैमानों पर जीना चाहती है जो पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमो, व्यस्थाओ से परे हो. जिस व्यवस्था में अन्यथा आरोपित रूढीवादी बंधन न हो जिनमे बाँध कर जीना ही समाज में शालीनता की कसौटी हो.
स्वतंत्रता तो स्वछंदता से विपरीत होती है जिसमे अनेक उत्तरदायित्व होते है. आपकी स्वतंत्रता अपने भाग्य का निर्माता होने, अपने स्वप्न देखने और जीने, बन्धनों से मुक्त जीवन जीने की है जिसमे न तो तिरस्कार है न प्रतिकार है न प्रतिशोध है न पश्चात्ताप है अगर है तो बस स्वतंत्रता है रूदियो से दमन से अत्याचार से अन्याय से मुक्ति की कामना है. आप नारी मुक्ति हेतु उन बुराइयों को जीने में समर्थ होना नही चाहती जिनको जीकर पुरूष पौरुष का छद्म दंभ रखते है.
आपके स्वप्नों को साकार होने के लिए शुभकामनाये.

Unknown said...

मैं जैसा पोरस ने सिकंदर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो ‘ के जवाब में कहा था ,” वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है , बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी अकाँक्षाओ में है , जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है , जैसे एक इंसान किसी दूसरे इंसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है ।

वास्तव में संतुलित, प्रगतिशील, तार्किक व वर्त्तमान समय में अपेक्षित दृष्टिकोण से भरी कामना, अपेक्षा या परिचय है जो जीवन अपनी शर्त, अपनी इच्छा, अपने पैमानों पर जीना चाहती है जो पुरुषों द्वारा बनाए गए नियमो, व्यस्थाओ से परे हो. जिस व्यवस्था में अन्यथा आरोपित रूढीवादी बंधन न हो जिनमे बाँध कर जीना ही समाज में शालीनता की कसौटी हो.
स्वतंत्रता तो स्वछंदता से विपरीत होती है जिसमे अनेक उत्तरदायित्व होते है. आपकी स्वतंत्रता अपने भाग्य का निर्माता होने, अपने स्वप्न देखने और जीने, बन्धनों से मुक्त जीवन जीने की है जिसमे न तो तिरस्कार है न प्रतिकार है न प्रतिशोध है न पश्चात्ताप है अगर है तो बस स्वतंत्रता है रूदियो से दमन से अत्याचार से अन्याय से मुक्ति की कामना है. आप नारी मुक्ति हेतु उन बुराइयों को जीने में समर्थ होना नही चाहती जिनको जीकर पुरूष पौरुष का छद्म दंभ रखते है.
आपके स्वप्नों को साकार होने के लिए शुभकामनाये.