7/13/2007

डरने का डर

शाम का अँधियारा धुँधलका था । पाँव कितने भी तेज़ चलें डर की तेज़ धडकती नब्ज़ से तेज़ कहाँ चल रहे थे । चुन्नी का फहरना , बेवजह भी , कैसी उच्छृखंलता ! कैसे लपेट लूँ , छुपा लूँ , चेहरे को , बदन को । लडकी सिमट सिकुड कर कहाँ विलीन हो जाँऊ ,जैसी सिमटती थी , सिहरती थी । सडक के ठीक बगल से नाली , बजबजाती हुई बुदबुदा रही थी । बदबू का एक स्वायत्त संसार उसके ठीक ऊपर से होकर हवा में रेंग रहा था । भारी , भीगे कम्बल सी सडांध , या फिर भीगे कुत्ते की सडाईन बिसाईन महक ।

नाक दबाये , चुन्नी सटाये , सलवार पैरों में लथपथ , चप्पल फटफटाये तेज़ भागती, साँसों को पसीजी हथेलियों में थामे किस प्रेत पिशाची डर का भय कँधे पर सवार था उसके ।लडकी डर से चौकन्नी थी , सतर्क थी । उसे माँ की सारी हिदायतें याद थी , मुँहज़बानी । सयानी लडकी अँधेरा होने के पहले घर की चार दिवारी के अंदर ही शोभती है । साईकिल पर अनजान भी कोई बगल से गुज़रे या आगे कहीं तीन चार लौंडों का झुँड दिखे , लडकी की चाल तेज़ हो जाती थी ।रोंये खडे हो जाते , डर एक ठंडा लिजलिजा साँप हो जाता जो रेंगता कंधों और छाती पर , जाँघों और नितम्बों पर । लडकी कुछ चाल और तेज़ करती , सूखे पपडाये होंठों पर उससे भी ज़्यादा सूखी जीभ फेरती ।

गली के मुहाने पर कुछ टप्पर ठेलों सी दुकान पर ढिबरी की लम्बी मटमैली लौ गुम साँझ की बेहया बेहवा में स्थिर लपलपा रही थीं । कालिख और धूँये की मोटी लकीर आसपास के चकत्ते अंधेरे और गहरा रही थी । लडकी की पतली लम्बी काया जाने किस वेग से से दुहरी हो रही थी । सडक के किनारे की कमर से कमर सटी बिना पलस्तर की एक और डेढ मंजिला खस्ताहाल मकानों से कहीं रेडियो की धीमी आवाज़ सन्नाटे को चीरती तोडती उभर आती । किसी खिडकी से कोई छोटा ब्लैक व्हाईट टीवी का नीला स्क्रीन एक पल को बेचैन हिलती आकृतियों की किस अनाम दुनिया में खींच लेता ।

छन्न से किसी रसोई की छौंक की अवाज़ , कोई बच्चे की टूटती रुलाई , कोई दबी छुपी हँसी , तली हुई मछली की तेज़ तीखी महक , कहीं से पेट में ही मरोड नहीं करती ,बल्कि कैसी पल भर में अपने घर के सुरक्षित चारदिवारी में साबुत ,सलामत हो जाने की हकबका देने वाली टीस से भी मार डालती ।

लडकी अकेली कैसे छूट गई थी । इतनी देर कैसे छूट गई थी । अभी अभी तो रौशनी थी ।पल भर में कैसे इतना अंधेरा छा गया । नाभि के भीतर से डर रुलाई में लिसड लिथड रहा था । उबकाई की खट्टी डकार घूम कर माथे चढी और लडकी अचानक नीचे गिर पडी । हाथ में थामी चीज़ें धूल में फैल गईं । खंभे की टिमटिमाती ,पीली फीकी रौशनी में लडकी बदहवास बस बैठी रह गई । वही लडकी जो छुटके के साथ पटीदारी करती थी , लडकर गिल्ली डंडा खेलती थी , लट्टू खेलती , पतंग उडाती , साईकिल पर कैंची चलाती ,लडकों को बायें हाथ की कानी उँगली का नहीं समझती , वही लडकी ।हाँ , वही लडकी ,जिसे माँ कहती कि लडका है कि लडकी , किसी बात का भय नहीं इस लडकी में , वही लडकी जो क्लास में अव्वल आती , जो कहती कि मैं नहीं डरती किसी से , वही लडकी जो छिपकली से नहीं डरती पर तिलचट्टे से डर जाती और वही लडकी जो समझती कि उसकी मुट्ठी में सारा जहान है ।

लडकी क्या यों ही धूल सनी , घूमते माथे को लिये बदहवास बैठी रहेगी कि उठेगी फिर । याद करेगी कि मुट्ठी में जहान है , याद करेगी कि सिर्फ एक चीज़ से डरती है और वो अँधेरा नहीं है , कि अकेली लडकी का रात बिरात घूमने का अनाम डर ,उसका डर नहीं है , कि इस डर के आगे कोई गहरी खाई नहीं है । लडकी उठती है चुपचाप , खुद बखुद , समेटती है अपने बिखरे धूसरित सामान को , गिनती है , गुनती है , उठती है ,संभलती है । स्ट्रीट लाईट की मटमैली रौशनी में तेज़ चाल चलती है फिर वही लडकी ।

15 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत अच्छी-- क्या कहूं--मुझे तो कहानी ही लगी। यानी बहुत अच्छी कहानी। लड़की के अन्दर डर भरने का काम घरवाले ही करते है। धीरे-धीरे उसके अंदर डर का राक्षस तैयार होता जाता है और एक दिन उसे गिरा देता है। आपकी भाषा और शिल्प की जितनी तारीफ़ की जाय, कम है।

अनामदास said...

मोटरसाइकिल पर बैठा आदमी ऑटोरिक्शा में बैठी लड़की को तब तक देखता है जब तक वह दिखाई दे या वह ख़ुद गिरने वाला हो, ऑटो में बैठा आदमी कार के भीतर बैठी लड़की को ऐसे देखते है मानो खिड़की का शीशा खुला हो तो वह अंदर कूद जाए. लड़की को समझ में नहीं आता कि वह कहाँ देखे. लड़की आज महानगरों में भी दिन में सौ बार ऊपर से नीचे तक ऐसे स्कैन की जाती है मानो वह टेरर ससपेक्ट हो...

Anonymous said...

यानि रात के अंधेरे में इंसानो का डर एक बहादुर लड़की को भी लग सकता है।

Udan Tashtari said...

समाज के वर्ग विशेष के कुछ भाग में व्याप्त असुरक्षा की भावनाओं को अहसासते, रेन फारेस्ट सा आभास कराता भांति भांति के शब्दों की झाडियों के सघन बेतरतीब वन से खरोंचे खाते, खुद को बचाते, कमीज में रफूयोग्य उधड़न लिये बस निकल ही आये इस पार-और अब टिपिया रहे हैं. अपनी तरह की एक अलग शैली.कहीं कहीं पर इस भाव प्रधान प्रस्तुति में मुख्य भाव शब्दों की भीड़ में बेक सीट लेते नजर आये मगर फिर भी भाये. रचना अपना संदेश देने में कामयाब रही. बधाई.

-टिप्पणी में मेरे व्यक्तिगत विचार है और वही लिखा जैसा मुझे रचना पढ़ते ही लगा, कृप्या अन्यथा मत लिजियेगा. :)

काकेश said...

डर है, कि जाता नहीं,
शुकून है, कि आता नहीं,
चलती रहती हूँ तेज कदमों से यूँ,
देखती,पीछे तो कोई आता नहीं!!

थरथराते हैं पांव, पर चलना है,
रूह कांपे है, पर संभलना है,
खुद को बचाने की कवायद में
रस्ता यूँ ही गुजरना है.

अच्छे भाव पर शब्द कहीं कहीं भाव पर भारी हो गये.

Sanjeet Tripathi said...

शानदार!!

विजेंद्र एस विज said...

सच मे आपके पास तो शब्दो और विचारो के मोती है...तो कृतियाँ अपने असली आस्तित्व मे साँस ले पाती है.
बहुत ही अच्छी रचना लगी.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया लिखा है।समाज के कु्छ वर्गो मे यह भय अभी मौजूद है। वैसे कौन जानता है कोई भेड़िया कब किसी बकरी पर हमला कर दे।पता नही कब सुधार आएगा।

अभय तिवारी said...

आप ने खूब लिखा.. साथ ही घुघूती जी की लिखी एक पोस्ट भी याद हो आई.. वो भी एक बेहद बहादुर लड़की एक ऐसे ही डर के बारे में थी.. आप दोनों का शिल्प काफ़ी जुदा होने के बावजूद एक गहरी समानता दिखी.. क्या है वह जो एक किसी से न डरने वाली लड़की को इस तरह कम्ज़ोर बना देता है.. समाज को यह बार बार समझने की ज़रूरत है.. आप और घुघूती जी से अपेक्षित है.. इस पर हम मर्दों को शिक्षित करें..

चंद्रभूषण said...

बहुत अच्छा लिखती हैं प्रत्यक्षा- जिंदा भाषा का नमूना। अभय के सुर में अपना सुर मिलाता हूं। बहुत सारी छोटी-छोटी चीजों पर भी लिखें, ताकि लोग तमीज और बदतमीजी के बीच फर्क करना सीख पाएं। निम्नमध्यवर्गीय लड़की की असुरक्षाओं के बारे में बातें कही जाती रही हैं। ऊपरी वर्गों को ज्यादा तमीजदार समझा जाता है और लड़कियों को वहां ज्यादा सुरक्षित माना जाता है। हो सके तो इस जन्नत की हकीकत के बारे में भी कुछ लिखें।

subhash Bhadauria said...

आपने लड़की के डर की हूबहू तस्वीर खेंची है.
हमारे अहमदाबाद शहर की बात तो इस तरह है-
सारा मंज़र है अजन्ता की गुफाओं की तरह.
लड़कियां शहर में फिरती हैं घटाओं की तरह.
वे रात के ग्यारह बजे तक बेखौफ घूमती हैं डर तो हमें लगता है जब वे अपनी ड्राइविंग कला का परिचय देते हुए कट मारती हैं हमें लगता है गये काम से.
मुझे अपना शहर खूबसूरत लगता है
और लड़कियों को भी यहाँ किसी दरिन्दों का खौफ नहीं.

subhash Bhadauria said...

आपने लड़की के डर की हूबहू तस्वीर खेंची है.
हमारे अहमदाबाद शहर की बात तो इस तरह है-
सारा मंज़र है अजन्ता की गुफाओं की तरह.
लड़कियां शहर में फिरती हैं घटाओं की तरह.
वे रात के ग्यारह बजे तक बेखौफ घूमती हैं डर तो हमें लगता है जब वे अपनी ड्राइविंग कला का परिचय देते हुए कट मारती हैं हमें लगता है गये काम से.
मुझे अपना शहर खूबसूरत लगता है
और लड़कियों को भी यहाँ किसी दरिन्दों का खौफ नहीं.

Vikram Pratap Singh said...

बहुत उम्दा ... आपके शब्दों से मंतव्य जाहिर है ...... शायद यही है आज भी आधी दुनिया का पूरा सत्य .... यकीनन बेहतरीन कृति ......

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा है। यह कहानी की भूमिका नुमा है या संक्षिप्त कहानी ही। इसे पूरा किया जाये। :)

अनूप भार्गव said...

बड़े लेखक तो न जानें कब आयेंगे ’ब्लौग्स’ में लेकिन आज तुम्हारे ब्लौग में एक बड़ी लेखिका का जन्म होते हुए देख रहा हूँ ।

बहुत अच्छा और बेखौफ़ लिखा है ।