आज एक अरसे बाद
हम बैठे हैं
एक छत के नीचे
हम बातें करते हैं
हम हँसते हैं
मैं खोजती हूँ
तुम्हारे चेहरे में
एक पुराना चेहरा
एक बीता हुआ समय
जहाँ मुट्ठी भर कँचे थे
पतंग की लटाई थी
छिले हुये घुटने थे
फटी हुई कमीज़ थी
मुचडी हुई फ्रॉक थी
जेब में मुसा हुआ
टॉफी का सीला हुआ टुकडा था
जिसे इंच इंच बराबर
हर झगडे के बावजूद
बाँट कर खाया था
आज
इतना अरसा बीता
कितने पतझड बीते
कितने वसंत आये
हम फिर बैठे हैं
न कोई लडाई है
न पतंग की होड है
न कोई छिला हुआ घुटना है
न फटी हुई कमीज़ है
फिर भी
आज भी ताज़ा है
मुसा हुआ टॉफी का
सीला हुआ टुकडा
लोकधर्म को नमाज़ अदा करने को तड़पता फिल्मकार
4 days ago
5 comments:
अब तो छत से उतर आओ।
हीही, अच्छी कविता लिखी है, लेकिन ये बताइये छत पर आप लोग काहे बैठे हुए हैं, बहुत धूप है उतर आइये। कुछ घर बार पर भी ध्यान दीजिए।
PS :छत पर बैठने का काम फ़ुरसतिया लोगो को दे दीजिए।
बड़ी बढ़िया कविता लिखी। अच्छा लगा!
chaat per hi kyon sari kavitayen bain hain ? Per bahut bhadiya bani hai. Gulzar ke gaano type :)
प्रत्यक्षा जी
बहुत दूर तक यादों मे बहा दिया आपने।
बधाई।
समीर लाल
सुन्दर कविता है ।
कई बार लगता है कि हम बड़े हो कर छोटे हो गये हैं ।
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