वृक्ष की जडों के खोह में
अँधेरा कुलबुलाता था
थोडी सी रौशनी
मुट्ठी भर ज़मीन
और एक टुकडा छत
बस इतना ही काफी है
अँधेरे को अपने
काबू में करने के लिये
मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है
रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार
और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में
मेरी छत और तुम्हारी छत
की मुंडेर अब बराबर है
तभी तुम्हारी खुशबू
पहुँच जाती है
मुझतक
मैं बारबार
नंगे पाँव
भागकर,
छत पर क्यों आजाती हूँ
ये समझ गये हो न
अब !
मैंने
रौशनी के उस
गोल टुकडे को
हल्के से
फूँक दिया है
तुम्हारी तरफ
अब तुम्हारा चेहरा भी
खिल गया है
मेरी तरह
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
6 comments:
बढ़िया लिखा। यह छत देखकर मेरे सामने एक जीना खुल रहा है जिससे होकर मैं
अपनी छत का हाल देख सकता हूं।
बहुत खूब....
Bahut achha likha hai...
Woh chhat bhi kabhi apni hogi,
Jab us chhat ki chahat hogi...
Mera bhi ek khyal hai, Magar likh nahi pa raha hoon
Agar aap sahayeta kare to shayad likh sakoo
khyal kuchh aisa hai
"ke apne bade bajurg bhi ik chhat ki tarah hote hai,
aur jo hume har tarhe ki museebat se bachahate hai...
agar kabhi ab subhe utho aur aapko pata chale e aapki chhat gayab hai to kya hoga..."
Mujhe umeed hai aap kuchh sahayeta karenge...
mein kuchh tuk bandi kar leta hoo
my blog is
http://gauravshwe.blogspot.com/
kripya dekhiyega
aap mujhe email bhi kar sakate hai
g_arora@hotmail.com
Namaskar!
Gaurav Arora
अच्छी पंक्तियाँ हैं । सहज और सुन्दर कल्पना । कुछ लिखने के लिये बाध्य किया । यहाँ देखें :
http://anoopbhargava.blogspot.com/2006/04/blog-post.html
shabd keval hawaon aur roshni me hi nahi tange jo giraft me nahi aate kuchh aapke blog par bhi hain .
:)
मेरी भतीजी जब कभी बारिश में भीगती है तो कह्ती है ,"मेरे सिर की छत पर बारिश हो रही है!"
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