2/13/2006

एहसास के परे भी

एक फूल खिला था
कुछ सफेद
कुछ गुलाबी
एक ही फूल खिला था
फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से
अचेत सी हो गई

..........................................

मेरी एडियों दहक गई थीं
लाल, उस स्पर्श का चिन्ह
कितने नीले निशान
फूल ही फूल
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि
कहाँ हो तुम

...........................................

कहाँ कहाँ भटकूँ
रूखे बाल
कानों के पीछे समेटूँ कैसे
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं

...................................................................


मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में
दो बून्द खून के
धीरे से खिल जाते हैं ,तुम्हारे भी
कलाई पर
अब ,हम तुम
हो गये बराबर
एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ
.........................................................


आवाज़ अब भी आ रही है
कहीं नेपथ्य से
मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी
मैं चख सकती हूँ
तुम्हें और शायद
अपने को भी
लेकिन इसके परे
एक चीख है क्या
मेरी ही क्या
...................................................


न न न अब मैं कुछ
महसूस नहीं कर सकती
एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या

8 comments:

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...
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Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सच कहूं प्रत्यक्षा तो ये नई कवितायें मेरे सर के ऊपर से जाती हैं। कुछ भी समझ नहीं आया। :-(

लाल्टू said...

मानसी, यही कविता है। आखिरी बयान छोड़ देतीं तो और बेहतर।
हर शब्द को लेकर हमें सतर्क होना चाहिए।
नहीं तो, कहने को तो रम्य रचना अच्छा माध्यम है।
ओ हो, मैंने तो जंग छेड़ दी!

अनूप शुक्ल said...

बड़ी शानदार कवितायें हैं। उद्दाम प्रेम की कविता में अभिव्यक्ति बड़ी कलाकारी का काम है।
तलवार की धार पर चलना है। उसका इतना अच्छा निर्वाह काबिले तारीफ है। इस तरह की
कविताओं से जलन भी होती है कि हम काहे नहीं लिख पाते इतनी सटीक कवितायें। बधाई!

Jitendra Chaudhary said...

प्रत्यक्षा जी, बहुत सुन्दर लिखा है। बहुत सुन्दर।एक एक कविता मे बहुत सारे अर्थ छिपे पड़े है। इसी बात पर मुझ अकवि से भी एक कविता झेलिये:

अचानक ही खुली आंख,
देखा कुछ भी नही था।
सांसें भारी, आंखे बोझिल
दिल मे हर तरफ़ सूनापन खड़ा था।

(देख लीजिये, कविता हमारे बस की नही, फिर भी हमने कमेन्ट मे लिखने की हिम्मत की, अपने ब्लॉग पर लिखेंगे तो शुकुल धो मारेंगे।)

मसिजीवी said...

मानसी सी राय अक्‍सर कई विद्यार्थी (जी हॉं । साहित्‍य के विद्यार्थी) व्‍यक्‍त करते हैं कक्षा में । पर अपन लाल्‍टू सी राय देते हैं। इस कमबख्‍त स्‍कूली शिक्षा ने हर एक के स्‍याह सफेद मायने खोजने की लत ही लगा दी है। मैं जो कहता हूँ अपनी क्‍लास में वह यह कि मानसी। वह समझने की कोशिश करो ही नहीं जो प्रत्‍यक्षा समझाना चाह रही हो बल्कि बस महसूस करो इन शब्‍दों में ठीक वही जो तुम चाहो। तुम भाव खुद गढ़ लोगी, और यकीन मानो कोई कुछ भी कहे वही कविता का सच्‍चा भाव होगा।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

सब के कमेंट्स पढ कर तो शर्म आ गयी कि मुझे ही समझ नहीं आया। :-( लालटू जी य मसीजीवी के इस बात से असहमत हूं कि बस यही कविता है। मगर मसीजीवि की इस बात से से पूरी तरह सहमत कि हां शब्दों में भाव अपनी तरह से महसूस कर के ढूंढ कर समझा जाये, इस तरह की कविताओं में। प्रत्यक्षा आपने तो चैलेंज दे दिया। अब ऐसी कविताओं को ज़्यादा से ज़्यादा पढ कर समझने की कोशिश करूंगी।

Pratyaksha said...

अगर किसी रचना में कुछ अनकहा कुछ अनबूझा रहे, कोई रहस्य की हल्की सी परत रहे जो पढने वाले की जिज्ञासा को कुरेदे, जिसे हर बार पढने पर आप कोई नया परत खोल पायें अपने उस वक्त के सोच के मद्देनज़र, जहाँ आप (मतलब पाठक )अपनी कल्पना को पूरी उडान दे सके,कोई नया आयाम खोजने के लिये , ऐसी रचना चाहे कविता हो या कहानी , मुझे अपील करती है.

शायद लाल्टू जी और मसी जिवी जी यही कह रहे हैं.
मानसी , इस राह पर चलने की कोशिश भर मैं कर रही हूँ. कहाँ तक सफल हो पयी ये नहीं जानती पर इस कविता को लिखकर खुद को बहुत अच्छा लगा था .

अनूप जी , जीतेन्द्र जी , शुक्रिया
लाल्टू और मसीजीवि आपलोगों की बातें आइसबर्ग जैसी . थोडी दिखी , बहुत छिपी हुई. इस पर कभी चर्चा करें , अपने चिट्ठे पर ?