1/30/2010

द माईलस्टोन ... भाग 2

( अब आगे ... )

अगर किसी फिल्म की शूटिंग चल रही होती तो भीड़ होती और वह लौट जाती चुपचाप...लेकिन उसकी नजरें अभी जंगल और नदी तट को छान रही थीं... कहीं ‘कोई’ तो हो...

नहीं... कोई नहीं है।

तो कोई नहीं आएगा अब?

उसने अपनी आंखें भीतर को मोड़ीं और जैसे जन्मों से जमी हुई प्रतीक्षा की ठंडी चट्टान को छुआ... जो बिना हिलेडुले पड़ी रहती है भीतर। वह पुल की ओर बढ़ी। दोनों तरफ से लोहे के रस्सों पर कंपता हुआ पुल... रस्सों के साथ बंधी बौद्ध मंत्रों से भरी कपड़े की झंडियां... दैवी शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए रंगे हुए मंत्रचीर... अब इनसे कुछ नहीं ढांका जा सकता- ये झंडियां हवा में कांपती रहती हैं, आत्मा भीतर ठिठुरती रहती है।

पुल के बाद सीधी-सपाट पक्की सड़क... दोनों तरफ देवदार और कैल के लंबे-घने पेड़... उनसे छन कर आती गुनगुनी घूप, जो कुछ देर पहले नीचे उतरती ठिठुर रही थी। पांवों के नीचे रात की ओस से सने नुकीले पत्ते, जो नए हरे पत्तों के लिए जगह छोड़ कर धरती की बिछावन हो जाते हैं। देवदार से झड़े गुलाबनुमा भूरे फूल... और उसके सखा... यानी चीड़ के अग्रज कैल से झड़े लंबे-भूरे लक्कड़फूल...

धूप के टुकड़े के तले आकर उसने एक लंबा फूल उठा लिया और उसे नाक के करीब लाकर उसकी महक लेने लगी। सहसा उसे किसी की संकोच भरी चेतावनी सुनाई दी-

‘‘हेलो... फूल को संभल कर पकड़िए... इन फूलों का गोंद हाथों और कपड़ों से बुरी तरह चिपक जाता है और आसानी से नहीं छूटता...’’

नहीं... किसी ने नहीं कहा... कहीं कोई नहीं था... यह तो ‘उस’ ने तब कहा था जब पहली बार मिला था... अचानक पास आकर... उसी के जैसा भटकता परिंदा... उसी के जिस्मोजान की पहचान सा... उसी की देहभाषा को गाता... कितना कंगाल, फटेहाल... और कितना मालामाल...

उस वनैले क्षण की काश्ठ-गंध में समा कर एक नई और आत्मीय गंध उसके भीतर चली गई थी... पुरुषगंध... लेकिन सबसे अलग... पहले दिन से विकसित... आदिम और अदम्य...

‘‘मैंने जो कहा, उसका पता यदि आपको पहले से है... और अगर आप पता होते या पता न होते हुए भी परवाह नहीं करतीं तो मेरी बात पर ध्यान न दीजिएगा... ’’

वह अपने भीतर हिली... ध्यान क्यों न दूं? उसी होश पर तो निश्चिंत हैं मेरी बेपरवाहियां... सुनती सब हूं... छूता वही है जो छू सके...

‘‘ओ. के. ...’’ प्रकट में वह इतना भी ठीक से नहीं कह पाई थी कि-

‘‘कुछ खुशबुएं इतनी प्यारी होती हैं कि आप उनकी कैसी भी संभावित छुअन से नहीं डरते... किसी भी हद तक! एवरी मोमेंट इटसेल्फ... टेक्स इट्स केयर... तो भी... प्लीज़ बी अवेयर... ’’

कह कर वह अपने रास्ते पर जाने के लिए मुड़ने लगा तो वह उससे आंखें मिला कर होंठों पर कुछ लाते-लाते चुप रह गई... और अपने चुप रह जाने के रहस्य को पकड़ लिए जाने को देखती रह गई... अपने उस सपने को पकड़ लिए जाने को... जो समझ में आ भी जाए, पर हाथ में नहीं आता...

उसके होंठों पर जम गए शब्दों को पिघला गया वह- उस घड़ी के अपने इन शब्दों से- ‘‘आय केन लिसन द सौंग ऑव योर साइलेंस इन माय मोमेंट... इस क्षण में बन रही एक ग़ज़ल में... ’’

‘‘ग़ज़ल?’’ वह बिना बोले होंठ हिला कर रह गई।

‘‘तेरे बियाबां से मेरे याराने हैं... ये जंगल मेरे जाने-पहचाने हैं...’’

‘‘ओह...’’ वह जहां की तहां ठहर गई... अपनी आंखों में उसके कहे का जवाब लेकर... उसे समूचा सुनते हुए-

‘‘मैं जब अपने होने पर हैरान होता हूं तो सहसा कोई आवाज सुनता हूं कि यहां तो अस्तित्व तक नहीं जानता कि वह क्यों है? उसे ‘क्यों’ का नहीं, ‘है’ का शायद अबोध सा कुछ बोध हो। कहकशाओं या नक्षत्रों की ज्वलंत हैरानियों को... और मेरे या आपके होने की परेशानियों को यहां कौन पूछता है? बस, अटको मत... सतत भटको... चरैवेति... ’’

‘‘आह!’’ वह होंठों पर एक तड़पती जुंबिश लेकर रह गई।

दोनों की नजरें अब एक सेकेंड भर को मिलीं और जो होना था, वह हो गया... पता नहीं क्या?

उसके मुड़ते-मुड़ते वह अपने होंठों पर आए कुछ शब्दों में से अंतिम शब्द को खुद भी सुन सकी थी- ‘‘थैंक्स...’’ बोली वह इससे आगे भी थी... ‘‘... ओ, वंडर... वांडरर... थैंक्स..’’

वह चला गया... वह उसे दरख्तों में ओझल और खुद में उदित होते देखती रही।



आज वह उस मुलाकात को जैसे फिर से देख रही है... और उस दिन के बाद अपने यहां तीसरी बार आने को भी... कि उसके भटकाव की पुकार अब किस मुकाम पर है? अब किसको खोज रही है? ‘वह’ क्या अब मिलेगा भी? क्या उसे मालूम है कि वह उसके ‘होने’ के साथ हो ली है? क्या उसने उसके मुंह से निकला वह ‘थैंक्स’ सुना भी था? वरना एक पुरुष के लिए क्या यह एक शब्द काफी नहीं था ठिठक जाने और दुनियावी परिचय पा जाने को?

उसने जो कहा था, वह दो के बीच का अनकहा अद्वैत था... मगर जो आसानी से समझा जा सकता है, वह साफ है... हर नए को छूने से पहले आसानी से भरी एक सावधानी बरतो... मस्ती से भरी एक कीमियागरी...वरना आगे खतरा है। रिश्तों की गोंद थोड़ी दूरी से छुओ... एक फासले से ठीक सा फोकस करके देखो तो कहीं कोई भय नहीं...

देखने और छूने के ढंग अर्थ को बदल देते हैं... पर ये अर्थ भी आखिर हैं क्या? वह, जो तुम तय करते हो, या वह, जो वास्तव में है? लेकिन इस ‘वास्तव’ को भी कौन तय करेगा? पहाड़, जंगल और नदी के भीतर अगर हमारे फलसफे प्रवेश कर जाएं तो रचना तो दूर, बचना असंभव हो जाए कुदरत के लिए... वरना चांद तक को खबर नहीं कि धरती पर उसके लिए हार्दिक आहें भरता मनुष्य उसे दिमागी तरीके से रौंद भी चुका है... अपने ज्ञान या विज्ञान की षान में... अपनी धरती को श्मशान बनाते हुए...

दिमागी तर्क चिल्लाते हैं, दिल की दस्तकें सहमी-सहमी पुकारती हैं...

सभी पुकारों को अनसुना कर उसने नदी की अतक्र्य पुकार को सुना और नदी की तरफ निकल गई... अपनी जीन्स के पांवचों को दो बार ऊपर को मोड़ा, जैकेट उतार कर बैग में डाला और बैठने के लिए एक सुनहरी-भूरी चट्टान चुन ली...

एक चट्टान को दूसरी चट्टान चुनती ही नहीं... गुपचुप सुनती भी है।

बैठते ही एक गर्म लंबी सांस बाहर फेंकी तो जवाब में अनायास भीतर नदी की नमहवाई सांसें भर गईं... अप्रयास...

शीशे जैसा पारदर्शी पानी... और शीशे सा साफ मानी भी... कि बैठे मत रहो किनारे पर... कम एंड लेट फ्लो द सेल्फ... योर... प्योर सेल्फ! उसने खुद को थामे रखा। तभी लाल दुम वाली एक नन्हीं चिड़िया जाने कहां से आई और सामने की चट्टान पर उतर कर पानी में अपनी चोंच डुबोने लगी। परवाज को आसमानी रंग का पानी चाहिए आकंठ... और तरबतर हो पंख फटक-झटक कर सुंदरतर असुरक्षित उड़ान को...

वह अपने भीतर उस रोज से लरजती एलियन इबारतों को भीतर थपक कर बाहर देखने लगी...

पानी में उभरती चट्टानें... जैसे बड़े-बड़े कछुये बैठे हों... सिर्फ इतना नहीं, बल्कि अदृष्य में विचरती एक दूसरी दुनिया का अहसास भी... सिर्फ विज्ञान की ही मानें तो भी केवल हम रूपधारी लोग ही नहीं हैं इस प्लेनेट पर... अरूपों का एक बड़ा संसार भी है। उनसे बात करने का मन होता है... ओए, माहणुओ... परमाणुओ... सुन रहे हो न? हम तुम्हें तंग तो नहीं कर रहे?

हाथ हिलाते ही ध्यान आता है कि पता नहीं कितने अदृष्य जीवों को परे हटा दिया... और उन्होंने हमें फिर-फिर घेर लिया होगा... एक संसार में कई संसारों के होने की अनुभूति उसे षिद्दत से पानियों से सटे निर्जन वनों में होती है।

उसके विचार आहिस्ता-आहिस्ता मद्धम होते गए... भीतर जाकर नस-नस का रस हो चुका वह हदपार का हादसा अब शांत था। वह आत्मलीन हो आंखें बंद किए वहीं बैठी रही।



आवाज से उसका ध्यान टूटा...

वह संभली... देखा, नदी पार से कुछ लड़के मस्ती में सीटी बजा कर पुकार रहे हैं। एकांतों में अकेले विचरते ऐसी सीटियां सुनने की आदत है उसे... छोटे-छोटे लड़के भी जान जाते हैं कि लड़की का अकेले होना सदा से संदिग्ध है... या एक तमाशा...

उसने झुक कर पानी पिया... बहुत ठंडा बर्फीला पानी... भीतर तक सिहरन दौड़ गई। फोन कैमरे से कुछ तस्वीरें उतार कर वह उठ खड़ी हुई। लड़के अभी सीटी बजा रहे थे। उसका परदेशी रूपरंग उन्हें कुछ ज्यादा शह दे रहा होगा। वह लौट चली... चट्टानों को कूद-कूद कर फलांगते हुए...

पेड़ों की घनी ओट में पहुंच कर भी उसे लगा, वह देखी जा रही है। उसने पेड़ों के बीच के हर रिक्त स्थान पर नजर दौड़ाई... कहीं कोई नहीं था... लेकिन जो देख रहे हैं, उन्हें तुम नहीं देख सकतीं... क्योंकि अस्तित्व की निराकार नजरें सदा हम पर लगी रहती हैं... बड़ी उम्मीदों के साथ... ताकि हमारे जरिये स्त्री और पुरुष तत्त्वों से संपन्न यह विकासमान सृष्टि बची रह सके... क्योंकि सृष्टि को खतरा भी सिर्फ मनुष्य से ही है... उस मनुष्य से जो अभी बन रहा है... श्रेष्ठतम होने की खुशफहमियां पालता... सजातीय गिरोहों के आसरे पलता... प्रदर्शन की सत्ता के महानायकों की गलबंहिंयों का शिकार होता... मेहनत और शोहरत को जनमत के लिए भुनाता... कीच उछालने की सुविधा को साहित्य समझता... जीवंतता और अद्वितीयता से सदा चिढ़ा-कुढ़ा और भिड़ा हुआ मुर्दा मनुष्य... इसे अपने दम पर निर्भय जीने वालों से सदा बैर रहा... वह भी उधार का और संगठित!

दरख्तों में से गुजरते हुए एक नए छोर पर उसे बैठने की अच्छी जगह मिल गई, जहां वह आराम से कुछ खा सके। सामने के टीले से एक झरना फिसल रहा था। उसने बैग खोला और नानी की दी हुई चीजें निकालीं...

जैसे ही उसने एक सैंडविच उठाया, उसके सिर के ऊपर संकोच भरी आवाज मंडराई-

‘‘मे आय सिट हेयर... कैन आय? अगर आपको बाधा न पहुंचे?’’

उसने सिर उठाया और देखती रह गई...



( बाकी और है अभी ... )

22 comments:

प्रज्ञा पांडेय said...

bahut achchha chal raha hai . ruchikar hai ..

मनोज कुमार said...

अगली कडी का इंतज़ार!

पारुल "पुखराज" said...

sukuun se padhungi...magar aap ki post dekhkar khushi hoti hai...itminan bhi

Chandratal se Apratyaksha said...

No comments...
Zero...
Thanx to the unknown.

Anonymous said...

Hazaaron saal nargis apni benoori pe rooti hai;
Bahut mushkil se hota hai chaman me deedewar paida.
Parde ke peechhe jo bhi ho, saamne jo aa raha hai, wo bahut khoobsoorat hai. Is khoobsoorati par zamaana jhoomega aur isko saamne laale waale hathon ko choomega. Let the LOVE flow and go to its peeks.
-A couple from Ooty

Chandratal se Apratyaksha said...

Jo mujhse kaha nahin gaya, wo Ooty ke couple ne kah diya.
I am kissing all the beautiful hands of the unknowns.

पारुल "पुखराज" said...

अच्छा तो अगला हिस्सा जल्दी जारी करें ...

अजेय said...

आहा.... तो आज कहोगी वह कठिन , कनकनी बात! कहो , कह ही डालो... इन बेहूदी पाबंदियों के बीचों बीच.....

आज मैं फक़त एक कान हूँ......

Anonymous said...

Who is the Real Writer?
Apratyaksha ji wants to know.
See the language of Ajey's comment. We phoned to Kullu and found that Ajey belongs a village called 17 miles near Manali. He is a welknown Poet.

Thanks Ajey. We love U for this rare and wonderful story. Is it a novel? And who is she? hats off to u both.
-Ooty ghoom kar jate huye ghar se bhage 2 premi, ghar ki talash me.

Anonymous said...

aapne puchha hai ki kisne likhi hogi yah kahani?
aapne Rohtang ke ispaar aur uspaar ko bhi ishara kiya hai. mai wahin ki hun.
ispaar 17 miles aur us paar Kelong me ek 'A' aur ek 'S' ko maine ate jate dekha hai. kshanika aur kavita rachte hain. magar yah bhi sach hai ki asli walon ko aaj tak koi nahi pahchan saka hai. sara media haar gaya hai. akhbaron aur tv par bahut aa chuka hai. ab to bas chupchap kahani padho ji aap.

Chandratal se Apratyaksha said...

Ok,Swati. Now go to Roerich Art Gallery at Naggar, near 15 miles. The youg Russian girl, Alena Adamkova, Ph.D in Bhartiya Darshan and Executive Director of Trust will tell you about their Master Maitreya Budha. Now ask Star News, what was told by 'SA', the friend of 'SB', in front of camera. They all are doing something new as Volunteers of Maitreya, in various fields. If, Pratyaksha ji is not the Writer of this story, then they or 'she' is! Yes, Swati, let us understand, what they want to say.

अजेय said...

# स्वाति,चन्द्रताल, तुम क्या मनाली रोह्ताँग लोकल साईट सीइंग गाईड्स हो? उन्हें कहने दो न जो कहना चाहते हैं.... शब्दों के पार जा कर? सदियों में यह संयोग बनता है कि कुछ ओठ बेताब् हो जाते हैं, एक बात कहने को..... और कुछ कान प्रस्तुत हो जाते है. वह कनकनी बात सुनने को.
....कम्बख्त फिर वही बेहूदी पाबन्दियाँ !

neera said...

इंद्रधनुषी रंग..चांदनी के फ्रेम में..

Snowa Borno said...

Ajey, Sach batao, Chaahe ye kahani Pratyaksha ne likhi hai ya Apratyaksha ne, kya isme mai vaise hi maujood nahin hoon, jaise mai tumhari kaviya 'Us kunwaari Jheel me jhanko' me thi? Kyo chali aati hoon mai har jazbaat me?
Tumhari sahchari Savita, aur bitiya Kshanika ko hamare pyar aur us ghaati ko pranaam.
Pyari Swati aur Chandra ji ke prem ke liye Pratyaksha ke blog ka aabhaar.

Anonymous said...

Blogger AK said...

Oye pratyaksha...
Tume wo jo likha tha na ki "kya baat karen? har baat kar chuke hote hain ham..." aisa kuchh tha.
Mujh me jaise kisi ki rooh utari aur boli :
"We have exchanged ourselves with our words and have become dead as words, as result. The moment I use a word, I convert myself into the word. We never know ourselves except the words we have given to us and to the world.

Let us think... Language is our first and last bondage?
Khud se kahte rahen ham ki Shabdon ka khoob istemaal karen, magar shabdon ki sharaarat aur badmaashiyon ko samajhte rahen.

Pichhle saal Snowa ne tumhen Kullu Valley ke sare Seb diye the; is baar mai tumhen Himalayas me aane waali taaza Barf ki pahli parat deta hoon.
Tumhara apratyaksh falega...
Ye jazba Chalega?

Sainny Ashesh

Anonymous said...

प्र्त्यक्शा जी क्या ये आप्ने लिखा है ?
आप के लिखे मे रस्सि पे चलने वाले जैसा सधेपन सा एह्सास होता है/

उस रस्सि पे चल्ने वलि कि " एकाग्रता " के कारन ही देख्नने(आप्को पडने) वाले मे सम्मोहन होता है /

....??????????.........!!!!!!!!!!!!

हीरामन कि तीसरी कसम खा ही लेति तो अच्चा होता /

CSCK said...

ये दिल और उनकी निगाहों के साये...का जिक्र आपने किया है । इसी पाये का एक और गाना भी यंहा आना चाहिये। वो है 'आप यूं फासलों से गुज़रते रहे,दिल से कदमों की आवाज़ आती रही..रात भर..
मुझे यकीन है ये आपका पसंदीदा गाना होगा...
विजय शर्मा

CSCK said...

सैन्नी अशेष के लिये: what expresses itself in language,we can not express by means of language--lugwig wittgenstein.
I am looking for you since long,since I read about u in 'pahal'reg himalaya..
....put a 'S' in front of a word,and instantly it becomes a 'sword'
vijay sharma

डॉ .अनुराग said...

...देखने और छूने के ढंग अर्थ को बदल देते हैं..

दिमागी तर्क चिल्लाते हैं, दिल की दस्तकें सहमी-सहमी पुकारती हैं...

एक चट्टान को दूसरी चट्टान चुनती ही नहीं... गुपचुप सुनती भी है।
ओए, माहणुओ... परमाणुओ... सुन रहे हो न? हम तुम्हें तंग तो नहीं कर रहे?


पेड़ों की घनी ओट में पहुंच कर भी उसे लगा, वह देखी जा रही है।



देर से आया हूँ.......चूँकि कुछ देर ठहरे बगैर इस रस्ते से गुजरना मुमकिन नहीं .... ओर देखिये कितने अर्थ दस्तक दे रहे है .....

Chandar said...

Neeche waale commentiye Dosto.
Anpa sir bachaao... Oopar koi annonymous phisal gaya hai. shabd bata rahen ki janaab theek kahte kahte galat ho gaye hain aur jate jate bata bhi rahe hain ki... mujhko yaaro maaf karna ...??????... !!!!! aisa kuchh. unhen sambaalo...

Chandar said...

Sorry... dhyaan se ab dekha. wo to tanee hui rassi par chal rahe the aur milestone padh rahe the... neeche pahuche ki nahin?

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

uff...