10/10/2009

शहर पार अजनबी .. एक मोंताज़ , चीन की दीवार

पत्थर के चौकोर टुकड़ों पर हाथ फिराते बार बार खुद को याद दिलाया , ये इतिहास का एक हिस्सा है और इसे छूते ही मैं उस समय से इस समय तक खिंचा तार हूँ । नीचे पेड़ों के झुरमुट से चमकते शीशे जैसा लाल रंग कौंधता है । लड़की अपनी आँखें मींचे हँसती है और बूढ़ी औरत बार बार इल्तज़ा करने पर भी अपना चेहरा नहीं उठाती । मैं कैमरा साधे इंतज़ार करती हूँ फिर थक कर उसके झुके चेहरे और गरदन पर पसीने की बून्द की तस्वीर खींच कर सुखी होती हूँ ।

उसने तुम्हारी बात नहीं समझी । ऐसा कह कर उसे कुछ मज़ा मिलता है । उसकी तरफ ध्यान न देते हुये मैं फिर भी औरत से पूछती हूँ , सुनो कौन कौन है तुम्हारे घर में ?

उस पच्चीस साल की लड़की से जैसे मैं पूछती रही थी उसके दोस्त के बारे में जो उसके साथ रहता था । उस लड़की से मैं सिर्फ एक बार मिली थी । उसने अपनी टूटी अंग्रेज़ी में मुझे अटक अटक कर बताया था अपने प्यार और अपने झगड़े की कहानी । मैं अमूमन इतनी जिज्ञासु नहीं होती । पर पराये देश में कई चीज़ें पीछे रह जाती हैं । एक तरीके की सौजन्यता भी । फिर शायद सब कुछ तुरत जान और कर लेने की ज़रूरत भी तो होती है । टाईम इज़ कॉम्प्रेस्ड । और उम्र के इस मोड़ पर हम कई फालतू चीज़ें ट्रिम करते चलते हैं । हू केयर्स अ डैम । जैसे ग्रेट वॉल वाईन पीना और ऑयस्टर्स खाना और चॉपस्टिक्स से मूँगफली न खा पाने की दुर्दशा में ऐलान करना कि गाईज़ आम गॉन्ना यूज़ माई फिंगर्स ।

लौटकर तस्वीरें देखते हैरान होती हूँ उस औरत पर जो उँगलियों से विक्टरी साईन बनाती हँसती है और कहती है इट वाज़ नो बिग डील । बिग डील तो होना ही चाहिये था । मैं ऐसी जगह खड़ी थी जो समय का रुका हुआ हिस्सा है । इस दीवार की नींव में कितने मजदूरों का खून है । उनकी आत्मा विचरती है यहाँ ? आँख मूंद कर ठीक यहीं खड़े खड़े मैं वहाँ पहुँच जाती हूँ , ठीक इसी जगह पर । बीम मी अप मिस्टर स्कॉटी ! ये कहकर मैं त्वचा सिहराने वाले एहसास से बेहूदे तरीके से निकल आने की जुगत करती हूँ । पत्थर के ठंडेपन या जाने किस और वजह से मेरी साँस तेज़ हो जाती है । मेरे पीछे सैनिकों की फौज है । उनके साँस का उच्छावास मेरे गर्दन को छू रहा है । मेरे रोंये खड़े हो जाते हैं । उस पत्थर के अँधेरे कमरे में रौशनी की एक दीवार है । नीचे दुकान में मिंग टोपी है , लम्बी चोटी वाली जिसे खरीदते खरीदते मैं रह गई । बदले में बीस युआन में एक चॉपस्टिक्स का सेट लिया और पच्चीस में गीशा वाला चोगा जिसे पहनते ही मैं गायब हो जाती हूँ ।

मुझे खेत नहीं दिखते , मुझे किसान नहीं दिखते , मुझे छोटे घर नहीं दिखते । क्वायो में दोमंजिला मकान दिखते हैं , बोहाई में कुछ और छोटे लेकिन फिर भी वो दुनिया नहीं दिखती जिसे मैं आने के पहले देखती आई थी , जिसे देखने के लिये यहाँ तक आई थी । कोई किताब कोई सिनेमा कोई गीत का टुकड़ा , जाने क्या लेकिन शर्तिया ये नहीं । दीवार के चौकोर खिड़की से कोई काफिला धूल उड़ाता , घोड़े के खुर से टपटप नगाड़े बजाता नहीं दिखता । आँख बन्द कर लूँ फिर भी नहीं दिखता । दीवार के सफेद चूने लगे सतह पर सिर्फ ये लिखा दिखता है ..इट्स ऑल अबाउट डिसिप्लिन ।

सियाओ वेन चश्मे के पीछे से हँसती है और कहती है मेरी माँ ने मेरे लिये बहुत पैसे खर्च किये । वो मुझसे बहुत प्यार करती है । दीवार से लगे हम कुछ देर बैठते हैं । उस हवा में साँस लेते हैं जिस हवा में हज़ारों साल पहले मिंग और किन साम्राज्य के सैनिक मंगोल और माँचू आतताइयों के खिलाफ इन्हीं दीवार के झरोखों से पीठ टिकाये साँस रोके अपने हथियार थामे बैठते होंगे । दूसरे बच्चे के लिये पच्चीस साल पहले हज़ार युआन । अब कितना देना होता है के बेशर्म और ढीठ सवाल पर ताई यंगयो हँस पड़ती है , मालूम नहीं ।

सियाओ वेन मेरी तरफ सूखे फलों का पैकेट बढ़ाती है । उसका कामकाजी नाम अलिस है । जैसे मेई हुई का मरिया । मैं छोटा नोटबुक निकाल कर देवनागरी में उसका नाम लिखती हूँ । फिर अपना लिखवाती हूँ , उसकी भाषा में । मुझे मेरा नाम फूलों के गुच्छे की तरह दिखता है । हवा में हल्की खुनक है । मुझे विश्वास नहीं होता इस वक्त मैं यहाँ हूँ । लेकिन आश्चर्य , मेरे मन में हमेशा एक बहुत चौड़े और वृहत जगह की कल्पना थी , कुछ टूटी फूटी । और मालूम नहीं क्यों हमेशा ऐसा लगा कि ग्रेट वॉल पर साईकिल चलाता कोई चीनी बूढ़ा दिखेगा । लेकिन यहाँ साईकिल नहीं चलाई जा सकती । चढ़ाई तीखी है और सीढ़ियाँ ऊँची । अलबत्ता एक बूढ़ा धूप का चश्मा लगाये बैठा ज़रूर दिखता है । उसकी निगाह मुझ पर है । मेरे मुस्कुराने पर कोई जवाबी मुस्कान नहीं देता । मैं फिर भी मुस्कुराती हूँ । उसकी उम्र मुझे उदार बना देती है । ये अनजान जगह , सुबह की खुशगवार हवा ..सब ।

मैं रात को इस अनजान देश के अनजान शहर में , अनजान होटल के अकेले कमरे में बैठी नेट से कनेक्टेड हूँ , मेरी अपनी परिचित दुनिया । मेरे आसपास परिचित प्रिय आवाज़ें हैं । थके पाँव को गुनगुने पानी से धो देने जैसा और कभी कभी टियरिंग इंटेंस कट जैसे विकट चोट पर ठंडी रूई रखने जैसा , कभी लिनस के कंबल जैसा । खिड़की के बाहर दूसरी दुनिया है । ज़मीन पर पाँव रखकर मैं हिसाब करती हूँ कि अगर पैदल चला जाय तो एक सीध में चलते चलते कब तक यहाँ पहुँच पाती । ये वही मेरी ही ज़मीन तो है । सड़क के किनारे की धूल और पेड़ और पानी का स्वाद और लोगों की हँसी और उनकी तकलीफें और उनका जीवन । सब एक सा फिर भी कितना अलग । तियानजिन में सड़क के किनारे लगी दुकान में कान बाली के सिरे पर झूलते नन्हें जिराफ छूकर मैं बच्ची बन जाती हूँ । चिया अपने घर की बात सुनाती है । सास के टंटे और पति से कहा सुनी । बात बात में आँखें सिकोड़कर नाक मिचमिचाकर हँस देती है । मासूम खरगोश की मूँछें । उसे मेरे मुस्कुराने की वजह नहीं मालूम । कहती है इस सड़क बज़ार में अपने पति के साथ छोटी मोटी चीज़ें खरीदने आती है । एच एस बी सी बैंक की निकी लियु दिखती है , किसी के साथ है । पीछे से बच्ची सी दिखती है । बैंक में तेज़तर्रार अफसर लग रही थी ।

कुछ दोस्तों ने कहा था कि वहाँ लोग हर वक्त चाय पीते हैं । मुझे सिर्फ कमरे में रखा चाय नसीब है । रिलिजियसली सुबह उठकर हरी चाय बनाकर पी रही हूँ । चाय पीते खिड़की से दिखता है यूनिवर्सिटी बिल्डिंग की चहलपहल । साईकिल वाली लेन में भीड़ है । मैं खिड़की से मुँह निकाल कर देखती हूँ देर तक । उस दिन किताबों के दुकान में कितनी किताबें थीं , अंग्रेज़ी सीखने वालीं । और मज़े की बात , एक तरफ मदाम क्यूरी का पोस्टर । फिर मुझे याद आता है चेयरमैन माओ की तस्वीर वाली टीशर्ट्स , दीवार के नीचे वाली छोटी दुकानों में , जहाँ औरत हँस कर कहती थी , सिर्फ एक डॉलर बस । मैंने नहीं ली थी वो टीशर्ट पर उस औरत के साथ एक फोटो ज़रूर खिंचवाई थी । उसने पूछा था , पाकिस्तानी ? मैंने कहा था इंडिया फिर हम सब हँस पड़े थे ।

बुद्ध भगवान की मूर्ति के आगे लोग अगरबत्ती जला रहे हैं । मंदिर के बाहर लोहे के बड़े कठौत में हाथ भर भर कर अगरबत्ती के गट्ठर । मैं फोटो खींचते सोचती हूँ , कैप्शन अच्छा बनेगा , प्रेईंग इन चाईना । चिया को धर्म और भगवान समझाने में कैसी दिक्कत हुई थी । कम्यूनिज़्म और धर्म और फ्री इकॉनॉमी । मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता । मॉल में चमकते दुकानों में ब्रांडेड सामान , स्टेट कंट्रोल , ओलम्पिक्स और बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर ..पिंगपॉंग बॉल की तरह हम वापस लौटते इन विषयों पर बहस करते हैं । चीन में रिलोकट की इटैलियन कंपनी की देखरेख करते फ्रेंच राष्‍ट्रीयता के अंतोआन से मैं पूछती हूँ , चीन छोड़ो अब अपने देश के हाल बताओ । थकेहारे दिनभर की घुमाई से क्लांत , हम धीरे धीरे धीमी आवाज़ में अलग शहरों की बात करते हैं , रहनसहन के खर्चे , ज़रूरतें , सोशल सेक्यूरिटीज़ , खानापीना , ट्रांसकॉंटिनेंटल फ्लाईट्स के उबाऊ समय के सदुपयोग , जेटलैग से बचने के तरीके ।

बाहर भागते सड़क के पार पेड़ों की कतार है । इतनी सघन कि उनके पार की दुनिया नहीं दिखती । मुझे कभी पढ़े ,रूस की ज़ारीना कैथरीन का एक किस्सा याद आता है । वो जब महल से देहात की ओर निकलती थी , तमाम रास्ते नकली घर और पेड़ और खुशनुमा जीवन दिखाते कटआउट्स उसे दिखाये जाते , प्रजा कितनी समृद्ध है । मुझे ऐसा ही कुछ भास होता है । अंतोआन पेरिस की बात करता है जहाँ साल के छ आठ महीने रहता है । बाकी के दिन यहाँ और भारत के बीच शटल करता है । चिया से फ्रेंच में बात करता है और चिया फिर अपनी चीनी भाषा में ड्राईवर से । चिया ट्रांसलेटर है । उसकी फ्रेंच उसके अंग्रेज़ी से बेहतर है । मायूस होकर बताती है कि ट्रांसलेटर को अच्छी तनख्वाह नहीं मिलती । गाड़ी के अँधेरे में हम धीमी आवाज़ में बात करते हैं । मुझे लगता है ये सफर कहीं भी हो सकता है , किसी भी देश किसी भी काल में । मैं चाहती हूँ अब चुप हो जाऊँ । अँधेरे में आँख गड़ाकर खेत और पोखर देखूँ , लोगों को देखूँ , बत्तख और मुर्गियाँ देखूँ , चिया का घर देखूँ , उसकी रसोई में पकते खाने की भाप और खुशबू सूँघू , उसके नहानघर में मग्गे और बाल्टियों में भरा पानी अपने बदन पर उलीचूँ । आश्चर्य , पूरे शहर में एक भी जानवर नहीं देखा । कोई परिन्दा , गौरैया कौव्वा तक नहीं । अब लोगों को भी कहाँ ठीक से देखा । सिर्फ सड़क देखे , बड़ी बड़ी इमारतें देखीं , फ्लाईओवर्स का जाल देखा , शहर की आत्मा कहाँ देखी ? पर्ल बक की पियोनी और गुड अर्थ याद करते रहने का फायदा क्या हुआ ? मिंग वासेज़ और पेंटिंग और हँसते हुये बुद्ध । फिर और क्या ? होटल के कमरे में रात को मेई हुई का फोन आता है । मैं अचानक बेहद आत्मीय और तरल हो जाती हूँ । पीछे से उसके तीन साल की बच्ची के झिलमिल हँसने की आवाज़ आ रही है ।

सुबह की चाय मुँह में हल्का कसा स्वाद देती है । मैं सुबह से कमरे का मुआयना कर रही हूँ । कबर्ड में कपड़े के चप्पल के साथ साथ आईरनिंग बोर्ड और आईरन , छतरी और जूते साफ करने का ब्रश , बाथरोब । जाने क्या क्या दराज में , स्टेशनरी, पिंस स्टेपलर । मैं कमरा सहेजती हूँ , ये जानते हुये भी कि मेरे निकल जाने के बाद हाउसकीपींग वाली औरत कमरा साफ करेगी । उसका चौड़ा चेहरा मुझे देखकर मुस्कुराता है । कल ज्योवान्नी ने कहा था कि चीनी लोग विश्वास करने योग्य नहीं होते और ये कि उनके चेहरे से उनके भाव को भाँपना बेहद मुश्किल होता है । मुझे तो सबकी मुस्कान भली लगती है । फूटमसाज करने वाली लैन फेन का और दो छोकरे जो रात के ग्यारह बजे , पहले दिन चेक ईन करने के तुरत बाद मेरे कमरे में आकर मेरे लैपटॉप पर नेट का जुगाड़ कर गये थे , और मेरे बाबा आदम लैपटॉप को देखकर जिस तरह मैन्दरीन में कुछ कह कर हँसे थे कि मैं भी हँस पड़ी थी , पुराना खस्ताहाल लैपटॉप है न ! या फिर मेई हुई जिसने सेल फोन पर अपनी बेटी की तस्वीर दिखाई थी और इसरार किया था कि मैं भी उसे अपने परिवार की दिखाऊँ । या फिर किताबों के दुकान में मेरे पास युआन न होने पर उसने किसी मशहूर चीनी लेखक की बाईलिंगुअल चीनी अंग्रेज़ी किताब मेरे लिये खरीद देने की ज़िद की थी ।

यहाँ मुझे बार बार भारत में रहने वाले रॉबर्ट वॉंन्ग की भी याद आती है । वो मेरे बाल काटता है और चीनी है और हर बार मेरे पूछने पर हसरत से कहता है एक दिन ज़रूर चीन जाऊँगा , कैंटन, जहाँ से मेरे माता पिता सत्तरएक साल पहले भारत आये थे । हम कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं , शायद सब किसी वृत में गोल घूमने जैसा है ।

तियानजिन के चीनी रेस्तरां में बड़े टैंक में तैरते ओक्टोपस और क्रैब्स और मछलियाँ पसंद करते , मेरे सहकर्मी की , जो वोकल वेजीटेरियन है , दिक्कत साफ दिखती है । उसे पूरे देश में खाने की महक ने परेशान कर रखा है । मुझे इस नई जगह में खाना भी एक नई दुनिया तलाशने का सा रोमाँच दे रहा है । पानीदार सूप में ताज़ी हरी सब्जियाँ मुझे खुशी से भर देती हैं । मैं उस सहकर्मी को समझाती हूँ , शायद इन लोगों को हमारे यहाँ के गरम मसाले की खुशबू जान मार देती हो । वो अपनी बात पर अड़ा है । मैं उसे अनसुना करते एक साबुत भाप से पकाई मछली का आनंद लेती हूँ , चॉपस्टिक की बजाय काँटा चम्मच माँगने पर काफी देर बाद एक सूप पीने वाले चम्मच के जुगाड़ होने के इंतज़ार में लू सिन से सीखती हूँ चॉप स्टिक पकड़ने की अदायें । कुछ कुछ उसी तरह जैसे बचपन में सीखा था नाईफ फोर्क के एटीकेट और पाया था कि चाहे उनसे खाना कितना सॉफिस्टिकेटेड लगे उँगलियों से खाना हमेशा ज़ायके को दुगुना करता है । कई बार लगता है हमारे भीतर वे चीज़ जिनसे हम जीवन के किन्ही स्टेज पर विद्रोह करते रहे हों , नकारते रहे हों , वही सब अपना प्रतिशोध, वक्त आने पर, हमारे व्यक्तित्व पर हावी होकर लेती हैं । मैं उँगलियों से भुट्टे के दाने एक एक करके मुँह में डालती हूँ । बचपन में ठेले के सामने खड़े होकर आग में पके भुट्टे पर नीबू और काली नमक लगाकर खाने का सुख जैसे फिर से मुँह में भर जाता है । मैं एक ही समय में दो जगहों पर हो जाती हूँ , दो वक्त पर भी । आँख बन्द किया तो बचपन में । और ऐसे स्मृति को पकड़ कर जैसे इस समय को एक संदर्भ देना चाहती हूँ । अपने को ज़मीन देती हूँ और एक आह्लाद से भर उठती हूँ । ये पक्का उस ग्रेट वॉल वाईन का असर तो नहीं ही है ।

साईकिल चलाते लोग, साफ सुथरी चौड़ी सड़कें , इमारतें , हाईहे नदी के किनारे , शहर के वो हिस्से जहाँ इटैलियन और जर्मन , फ्रेंच , बेल्जियन ऑक्यूपेशन के प्रभाव दिखते हैं , सुन्दर बंगले .. मैं फोटो खींचती हूँ लगातार । लोगों के चेहरे , दूर से पास से , हँसते , भौंचक , जिज्ञासु , बच्चे , बूढ़ी औरतें , रेस्तराँ के मेज़ पर चॉपस्टिक्स और खाने से भरे बोल का संयोजन , कमरे में फल , वास में बैम्बू शूट्स , बाथरूम में कतार से रखे बाथफोम्स .. तस्वीरें वैसी ही आती हैं जैसे कहीं की भी खींची गई तस्वीरें .. सचमुच जो मुझे दिखा था ..कितना कितना सुंदर ..उनका रंग , उनका आकार , उनकी गहराई , उनका परिपेक्ष्य .. फोटो पर अचानक कई बार उनका जादू जैसे गायब हो जाता है । सब महज़ फोटोज़ ही रह जाते हैं ..लैपटॉप स्क्रीन पर चमकते रंगीन दस्तावेज़ ..कहीं के भी हो सकते हैं .. सिर्फ मैं जो उनको देखती हूँ तो सिर्फ तस्वीर में दर्ज़ चीज़ें ही नहीं , उनके साथ उस समय का तत्व , खुशबू , त्वचा पर हवा की छुअन . जीभ पर किसी शब्द का स्वाद , होंठों पर किसी हँसी की स्मृति , सब हरहरा कर टूटकर झम्म से कूद जाते हैं .. उस जगह का जादू , मेरा जादू । शायद सिर्फ मेरी स्मृति का भ्रम !


टीवी पर कोई चीनी गाना बज रहा है और मैं सोचती हूँ मैं कहीं की भी हो सकती हूँ या शायद कहीं की भी नहीं । और ये कि कल्पना में कोई जगह इतनी रूमानी और रहस्य भरी कैसे होती है । और ये भी कि सच भी कितना अलग होता , अलग किस्म की रूमानियत और जादू भरी दुनिया लेकिन कल्पना से कितनी दूर फिर भी कितना सच्चा सुंदर और भरपूर । ईट रियली इज़ अ बिग बिग डील !

किसी भी नई जगह को देखने का सबसे बड़ा फायदा सिर्फ ये होता है कि हम अपने आप को नये स्पेस में रख कर देख पाते हैं । आप जगह नहीं देखते , जगह आपको देखती है और आप खुद को । आईने के सामने सफेद बाथरोब पहने मेरा चेहरा मेरा नहीं लगता ।




प्रतिलिपि से साभार

13 comments:

डॉ .अनुराग said...

या यूं कहे की किसी नयी जगह को देखने के बाद ...आप दुनिया को समझने में अपनी समझ को बढाते है ....ओर दिमाग के कोने में कोई न कोई नयी बात जमा करके रखते है ....
एक ओर कोलाज़ !!!

स्वप्नदर्शी said...

nice
The way you write is a big big deal.

Anonymous said...

हम पढ़ते हैं साहीत्य केे अन्तरिक्ष का ज्वाजल्यमान नक्षत्र-प्रत्यक्षा जी को---प्रत्यक्षा जी वर्णन करती हैं अन्तरिक्ष से दिखने वाली एक मात्र मानव कृति -चीन की दीवार का !! .कभी कभी लगता है की हर प्रत्यक्षा-अप्रत्यक्ष चीज़ को वर्णित करने के लिए आपके पास इतने शब्द हैं की यदि उन सब शब्दों को एक लाइन में बैठा दिया जाये तो शायद चीन की दीवार भी छोटी पद जायेगी.
P.S. she wouldn't have cared a damn....but few fans do

Anonymous said...

Pratyaksha ji,
you have informed your sunsign to be SCORPIO,but the way you write i guess you must be more on LIBRA side i.e.must be on the cusp.The sure way to identify a female LIBRAN is that her smile can light a thousand candles.
regards,
P.S.वो शायद रत्ती भर भी फ़िक्र न करती....लेकिन कुछ प्रशंसक हैं.

Rakesh Mathur said...

is deewaar ka nirmaan pardesiyo ko door rakhne ke liye kiyaa gayaa thaa ab is deewaar ke kaaraan pardesee lakho ki tadaaad mei.n Cheen ki or khichei chalei aate hai.n

jeevan ki yeh kaisee vidambanaa hai.

neera said...

दीवार पर पड़ते कदमो से इतिहास और आधुनिकता की गूंजती पुकार और आँखों ने दीवार के पत्थरों को छु लिया हो जैसे...

गौतम राजऋषि said...

"उम्र के इस मोड़ पर हम कई फालतू चीज़ें ट्रिम करते चलते हैं"

आज दिनों बाद आपके शब्दों की हसीन रंगों को देखने आया। चमक बढ़ती ही जा रही है इन रंगों की।

... कल रात गये हिचकियां तो नहीं हुईं आपको?

अखिलेश शुक्ल said...

प्रत्यक्षा जी
आपकी कहानियां मैंने पढ़ी हैं। उन्होंने बहुत प्रभवित किया खासकर ‘दिलनवाज तुम बहुत अच्छी हो’ जो वसुधा के कहानी विशेषांक मैं प्रकाशित हुई है। आप मेंरे ब्लाग पर साहित्यिक पत्रिकाओं की समीक्षा अवश्य ही पढ़े व सुधार के लिए अपने सुझाव देा।
अखिलेश् शुक्ल्
http://katha-chakra.blogspot.com

M VERMA said...

जन्म दिन की बधाई

RAJNISH PARIHAR said...

आप को जन्मदिन की दिल से बधाई!मेरी शुभकामनायें!!!!

chandan said...

thank u mam!

BAD FAITH said...

किसी भी नई जगह को देखने का सबसे बड़ा फायदा सिर्फ ये होता है कि हम अपने आप को नये स्पेस में रख कर देख पाते हैं । आप जगह नहीं देखते , जगह आपको देखती है और आप खुद को. ये एक सच्चाई है.

Unknown said...

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