8/09/2008

फोटो के बाहर ज़िंदगी

अकेलेपन का स्वाद भीगा सा है, चाय के ग्लास के रिम पर
ठिठकता है मुड़ता है बैठता है, दो पल फिर उदास भारी साँस लिये
कँधे सिकोड़े उठ बैठता है, निकोटीन से पीली पड़ी उँगलियों को
फूँकता है बारी बारी से, सरियाता है ऐशट्रे में
दो सिगरेट की टोंटियाँ आमने सामने, जैसे दो लोग बैठे करते हों बात
शीशे पर चोंच ठोकती चिड़िया मुस्कुराती है उसके बचकाने खेल पर
फड़फड़ा कर सुखाती है पँख
उलटे लटके छाते से गिरता है अनवरत पानी
फिर एक बून्द और एक !




रॉकिंग चेयर की छाया हिलती है । लम्बी होती है फिर बरामदे के अँधेरे से सटती । एक दबी हँसी गुम विलीन हो जाती है । कहीं से बासमती चावल के पकने की खुशबू तैरती आती है बेहिचक अंदर । कांसे के बर्तन में बढ़ता हरा बेल बनाता है कंट्रास्ट और खट से कैद हो जाता है फोटोफ्रेम में । दिन तारीख ईसवी सब दर्ज़ फोटो के पीछे । जैसे उसका खूबसूरत चेहरा डिफ्यूज़ होता है पीछे के बैकगाउंड में ।

काले स्लैक्स और ढीले सफेद टीशर्ट में घूमती दबे पाँव बिल्ली खींचती है तस्वीरें । चीज़ों को ज़रा इस ऐंगल , थोड़ा उधर । खट खट खट । अब हँसो , अब मुस्कुराओ , अब ज़रा संजीदा । बीच बीच मे चाय का प्याला , एक घूँट तेज़ ।
उसने ग्लास में दो उँगलियाँ नाप कर डाली थी कोन्याक । उसके पहले कुछ और भी । हल्का नशा था । मन डोलता था । उसकी चाय की चुस्की के जवाब में उमगता हुआ एक घूँट । बाद में आया था पैकेट । वो नहीं आई थी । उसने हैरान नाराज़गी से सोचा था । तो सिर्फ ऐसे ही कह दिया था कि खुद ले कर आऊँगी । मक्कार मक्कार । उसके भोले चेहरे के पीछे छुपी मक्कारी नहीं दिखी थी तब ?

पैकेट फिर कभी गुस्से में खुला नहीं । फिर जब इतना समय बीता कि गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया तब उत्कंठा नहीं बची । उस न बचने वाली उत्कंठा का स्वाद भी कसा है , अकेलेपन के स्वाद जैसा । उसके छोटे बालों की फुनगी पर टिका एक दूब का टुकड़ा जैसे ।


कुर्सी हिलती है । बाहर कितनी बारिश है । खिड़की के सिलपर दुबकी गौरैया कैद होती है फोटोफ्रेम में । कल के अखबार में छपेगी तस्वीर रंगीन छतरी लिये हँसते भीगते बच्चों के बगल में बारिश से बची दुबकी गौरैया की ।

12 comments:

आस्तीन का अजगर said...

तयशुदा सुखों में खुशी का हश्र अक्सर उतना अच्छा क्यों नहीं होता, जितना यकायक आ गये झोंकों की तरह के मौकों का होता है. पार्टियों में हंसते हुए चेहरों के मुंह जो कह रहे होते हैं, उन लोगों की आंखें उस बात की तसदीक क्यों नहीं करतीं.

Anil Pusadkar said...

baarish se bachi dubaki gauraiya............ bahut achhe

Arvind Mishra said...

अरे यह तो कुछ कर्नल रंजीत के जासूसी लहजे जैसा वातावरण सृजन कर रहा है !

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा चित्रण.

Unknown said...

..छाया आकार

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अच्छा शब्द-चित्र खींचा है।...बधाई।

पारुल "पुखराज" said...

पहला टुकड़े ने ही समां बाध दिया-अकेलेपन का स्वाद भीगा सा है--

राकेश जैन said...

bahut bandha hua bhav..

बालकिशन said...

बहुत उम्दा ..छाया आकार चित्रण.

अनूप शुक्ल said...

चाय के ग्लास के रिम पर ठिठकता है इस पर हम कुछ भी कहेंगे तो आप पोयटिक जस्टिस के नाम पर इधर-उधर कर देंगी। लिहाजा कह रहे हैं- बहुत दिन बाद लिखा , अच्छा लगा। ( हम ये कत्तई नहीं कह रहे हैं अच्छा लिखा वो तो आठ लोग कह ही चुके हैं। हम उनको मना भी तो नहीं कह रहे हैं जी! :) )

डॉ .अनुराग said...

फ़िर वही जादुई शब्द आकर ठहर गये ....आँख मीचकर भी इन्हे भीड़ में पहचाना जा सकता है..........शुक्रिया. सफ्हो को कुछ वक़्त देने के लिए

अनूप भार्गव said...

सुन्दर ....