6/30/2008

कोई अंत कहाँ था

घोड़ा सरपट दौड़ता , बेसुध , उसके फैले नथुनों से गरम भाप निकलती , महीन छोटे बुलबुले थकान के , लगाम से कसे जबड़े पर माँसपेशियाँ तिड़क जातीं । उसके अयाल हवा में लहराते , उसके खुर कब धरती पर पड़ते कब उठ जाते , धूल गर्द गुबार के चादर के पीछे घोड़ा दौड़ता सरपट । जान लगाये , छाती धौंके । बदन के रेशे पानी में उठते लहर से लहराते । और सवार ? सवार को होश कहाँ था ?

दर्द से चूर , थकान से मदहोश गाफिल , किस बात की खबर । बस इतनी भर की एक साँस बाद दूसरी आ जाये और छाती धड़कती रहे , सँभाल ले इन वहशी साँसों को । अब उसे इतना तक पता न था कि ऐसी धड़धड़ाती धड़कन उसकी थी कि गाल घोड़े के गर्दन से सटाये घोड़े के बेतहाशा हाँफ की खबर उस तक पहुँचाता था । जैसे अब जाकर उसके और घोड़े के शरीर का सुर एक था । थकन की डोर से बँधा , एक लय के साथ उपर उठता नीचे गिरता । सवार का शरीर नम था । घोड़े का शरीर और ज़्यादा नम था । डर एक धड़कन थी , पसीने में मिली जुली , खट्टी , तीखी । सवार घोड़े पर सवार था । डर सवार पर सवार था । पीछे बगूला उठता था । पीछे हाहाकार मचता था । आगे न जाने क्या था । इस घमासान युद्ध का कोई अंत ? कहाँ था ?

9 comments:

आलोक साहिल said...

बहुत ही सही मर्मों से सजी आपकी रचना.
अंत............
बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

A moment in time,
captured brilliantly !
wonderful ...

डॉ .अनुराग said...

डर एक धड़कन थी , पसीने में मिली जुली , खट्टी , तीखी

fir vahi shabd....
कभी सोचा नही था की कोई लिखने वाला इस विषय पर भी लिखेगा....पड़कर कुछ याद आया...आपको मेल करूँगा...

कुश said...

उम्दा चित्रण.. बहुत खूब

Prabhakar Pandey said...

उम्दा लेखन। सुंदरतम।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन शब्द चित्रण भावों का.

Arvind Mishra said...

एक मकबूल फिदा के घोडे कुछ कहते हैं और यहाँ भी घोडे कुछ कह रहे हैं -मेरे लिए तो अमूर्त सा !मगर शब्द चित्रण गजब का है as asual...

सुशील छौक्कर said...

भावो का क्या सुन्दर चित्रण किया है आपने। बहुत खूब।

श्रद्धा जैन said...

socha nahi ki tha ki koi is vishay ko bhi is nazriye se dekh kar
apne sabdon se is tarah likh dega
aap bahut achha likhti hain