4/22/2008

पेंटिंग के पीछे




कमरे में धूप की नदी बहती थी ।

चित्तकबरा दौड़ता आता था। उसके बायें आँख पर एक काला पैच था। जैसे शैतान दिनरात किसी लड़ाई भिड़ाई से ब्लैक आई लेकर विजयी लौटा हो। आँख की चमक ऐसा ही बताती थी। धूप के उस नर्म टुकड़े में पहले लोटता फिर मिचमिची आँखों से उस रौशनी के गोल धब्बे का पीछा करता जो दीवार पर उड़ते पर्दों के खेल में ऊपर नीचे भागता फिरता काँपता सिहरता। फिर अपने झबरीले पूँछों के पीछे पड़ता मुड़ता दौड़ता गोल गोल अनगिनत चक्करों में । आहलाद की ऐसी आवाज़ उसके गले से लगातार निकलती । इस खेल में अंतत: हार कर पँजों पर सर टिका कर बैठ जाता । चित्तकबरे की आँख मुन्द जाती। उसकी गुलाबी सुबुक जीभ बाहर निकल जाती।

कमरे से आवाज़ आती है रटने की .. अ लो हमिंग ड्रोन .. द ट्रीटी ऑफ सॉलसेट एंड बसीन । बच्ची इतिहास रट रही है । चित्तकबरा आशाभरी याचना से एक बार बच्ची को देखता है फिर निराश आँख बन्द कर लेता है । औरत आती है चुपचाप गद्देदार कुर्सी पर बैठ जाती है । कुर्सी की बाँह का एक हिस्सा घिस कर महीन हो गया है। वहीं जहाँ औरत हरबार अपनी बाँह टिकाती है । लकड़ी के गोल फ्रेम में कसे वॉयल के कपड़े पर रेशमी धागे से औरत महीन नफीस कसीदाकारी करती है साटन स्टिच के फूल, लेज़ी डेज़ी पत्ते,क्रॉस स्टिच के बूटे, स्टेम स्टिच की शाखें... पूरी की पूरी बगिया कपड़े पर किसी जादू से जीवित होती जाती है । औरत के चेहरे पर एक स्थिर संतोष है , एक महीन खामोश मुस्कुराहट का आभास ।

कमरे में धूप की नदी बहती है।

बाहर दिन एक गर्माह्ट में बीतता है। छाँह में मजदूर औरतें रोटी खाती हैं थकी हारी। बच्चे भारी बस्ता लटकाये लौटते हैं स्कूल से। कैनवस के रुखड़े सरफेस पर मैं उँगली फिराती हूँ । चित्तकबरा बिलकुल वैसा ही बना है जैसा मैंने उसे देखा था ।

12 comments:

Prabhakar Pandey said...

सारगर्भित रचना। अच्छी लगी।

Anonymous said...

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पारुल "पुखराज" said...

vaah!

अनूप शुक्ल said...

कमरे में धूप की नदी बह रही है। ब्लाग समुद्र में समा रही है। अच्छा है।

VIMAL VERMA said...

एक फ़िल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र गया क्या बात है...छोटे छोटे सीन शब्दों से अटखेलियाँ करती आपकी लेखनी.. मस्त है भाई....

डॉ .अनुराग said...

ओह प्र्ताय्क्षा
तुम्हारा अंदाज निराला है ....जैसे एक लम्बी नज्म पढी हो मैंने......

Anonymous said...

प्रत्यक्षा जी,ये शब्दों के ताने बने भी अजीब होते हैं,कभी हम कविता कर रहे होते हैं तो लगता है मानो हम कोई कहानी पढ़ रहे हैं,और कभी जब कुछ गद्यात्मक पढ़ रहे होते हैं तो बरबस ह्रदय में हलचल मचने लगती है,शब्दों की हाला मदहोश कर जाती है,कुछ ऐसा ही अहसास हुआ,आज...
आलोक सिंह "साहिल "

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब। पसंद आई बात । भर दुपहरिया कमरे में घुस आए धूप के नश्तर पर कालेज जीवन में हमने भी एक कविता लिखी थी।

Anonymous said...

प्रत्यक्षा , पिताजी के अवसान की दुखद खबर पढ़ी। हार्दिक सम्वेदना ग्रहण करें ।

Unknown said...

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edgar dantas
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pallavi trivedi said...

आज पहली बार आपको पढा....बहुत ही खूबसूरत ख़याल हैं...अच्छा लगा पढ़कर.

Unknown said...

angreji me hindi likh raha hoon,samjh lijiyega
Aap seced heart ki chhatra par hindi me achhi pakar hai,baton me kabhi aisa aehsas kabhi nahi hua ki aap itni khoobsoorat aur pyari hindi likhti hain.
likhti rahiye hum padte rahenge.

ek purana ??????