छुट्टी का दिन था । सुबह सवेरे ही हमने एलान कर दिया था ,'आज हमारे ऊपर अन्न्पूर्णा अवतरित हुई हैं । आज जो भी खाने की इच्छा हो माँगो, आज हमारे मुँह से तथास्तु ही निकलेगा ।'भाई लोग मौका क्यों चूकते । तुरत फ़रमाईश की फ़ेहरिस्त हमें थमा दी गई ।(बाकी के दिनों में तो उन्हें वही खाना होता है जो मैं अपने समय के हिसाब से पकाऊँ ) हर्षिल के लिये बनाना हनी पैनकेक , पाखी के लिये रोटी पित्ज़ा , संतोष के लिये बेसन के चीले । रसोई में प्रवेश करते ही हमारे दो हाथ चार हाथ में तब्दील हो गये ।वाकई अन्न्पूर्णा साक्षात हमारे शरीर में प्रवेश कर चुकीं थीं ।
ऐसा था कि सुबह ही संतोष ने ये कह कर कि आज मैं आराम करूँ और रसोई का कार्यभार वो संभालेंगे , मेरा मन प्रसन्न कर दिया था ।मैं भी अपने कुशल गृहिणि , आदर्श माँ और समर्पित पत्निहोने का मौका कैसे चूकती सो 'वर माँगो वत्स' मोड में आ गई । तीन लोगों के लिये तीन व्यंजन । पर मैं अपनी उदारता और सदाशयता से खुद अभिभोर थी । रसोई के शेल्फ़ में 'पाक कला के बेहतरीननमूने', '१०० प्रकार के अचार','माईक्रोवेव कुकिंग''तरला दलाल के साथ ' जैसी कई किताबें धूल खा रही थीं । उन पर झाड़न चलाई । सिमोन द बोवुआ और जरमेन ग्रीयर को दिमाग से आउट कियाऔर जुट गयी पैनकेक बनाने में ।संतोष को अखबार चैन से पढने छोड़ दिया । आज ये भी नियामत तुम्हारी ।
सुबह का काफ़ी बड़ा हिस्सा जो कि चैन से अखबार पढते , चाय पीते , बात करते बिताया जा सकता था वो अब रसोई की भेंट चढ रहा था ।
"अमूमन हम छुट्टियों के दिन
खूब बातें करते हैं ,
दो तीन दफ़े
चाय का दौर चलता है
फ़िर नाश्ता बनाने किचन में
बात अनवरत चलती है
कटे प्याज़ और भुने पनीर पर ,
सिंकते पराठे और टमाटर की कतली पर ,
नाश्ते की टेबल पर
काँटों और चम्मचों की खनखनाहट
और तश्तरियों और प्यालियों पर
फ़ैलती हुई
अलसाई छुट्टी की बातें
बेपरवाह बातें
अलमस्त बातें
कुछ गंभीर मसले भी
कभी कभार
पर ज्यादातर
अपनी बातें
हँसी की बातें
पसरे हुये दिन की
पसरी हुई बातें "
पर नाश्ते की टेबल पर बच्चों के चेहरे से तृप्ति और हाथों से शहद टपकता देख कर जो तृप्ति मुझे हुई उसको क्या बयान करें । बस सुबह बहुत अच्छा बीता । तब और भी ज्यादा जब बढिया नाश्ते के बाद संतोष ने खूब जानदार कॉफ़ी पिलाई ।
संतोष कई बार मज़ाक में मुझे छेड़ते हुये कहते हैं कि औरतों को बहलाना (इसे पढें ,बेवकूफ़ बनाना ) बड़ा आसान है । सिर्फ़ ये कह भर दो कि फ़लाँ काम , अलाँ काम ,मैं कर दूँगा फ़िर देखो कितनी तत्परता और प्यार से वे उसी काम को बिना शिकायत ,पूरा कर देती हैं । और तुर्रा ये कि खुश भी रहती हैं । मेरा जवाब होता है कि ये सच है । औरतों को खुश करना बड़ा आसान है । सिर्फ़ दो मीठे बोल ही तो चाहिये । पर ये भी हमेशा बिजली की तरह शॉर्ट सप्लाई में ही रहता है,न जाने क्यों । मेरा ये मानना है कि अगर जीवनसाथी को आपकी चिन्ता है तो वो ऐसा कोई काम कैसे कर सकता है जिससे आप को तकलीफ़ हो । आपकी तकलीफ़ और परेशानी उसे कैसे बरदाश्त हो सकती है ।ये बात दोनो तरफ़ लागू होती है । अगर एक दूसरे की चिन्ता में ईमानदारी हो तो उड़ चलें आसमान में ,पँख तो उड़ने के लिये ही हैं न ।जब घर साझा हो तो जिम्मेदारी भी साझी ही होगी ,चाहे घर की हो या बाहर की ।और जो पकती फ़सल काटेंगे उसको भी मिलबाँट कर ही खायेंगे ।
तो अभी मुझे आदेश हुआ है कि मैं लिखने पढने का काम करूँ । किचेन में खूब हँगामा मचा है । दोपहर का खाना पक रहा है ।कुछ जलने की भी बू आ रही है । तीन लोग मिलकर एक व्यंजन बनाने की कोशिश जो कर रहे हैं ।
फताड़ू के नबारुण
2 weeks ago
11 comments:
प्रत्यक्षा जी,
हमारे यहां तो छुट्टी वुट्टी नही है।
यहां हम काम कर कर के परेशान हैं और आप भी ना।
पराठे और टमाटर की कतली बोल कर भूख जगा दी ना आपने।
वैसे आपके विचार बहुत सुंदर और सुलझे हुए हैं हीं, संतोष जी को भी कुछ श्रेय जाता है।
जारी रखिये यह श्रंखला।
आशा हैं तिनो लोगो ने खाने योग्य बना लिया होगा.
:)
बहुत सही।आशा है आपका किचन सही सलामत बचा होगा।
संतोष साहब का सिद्धान्त हमारे यहाँ लागू नहीं होता, कभी कभार भूले चूके कह दिया कि आओ आज नाश्ता मैं बना दूँ, हो गई छुट्टी हमारी; मजाल है जो नाश्ता बनने तक रसोई में वापस कदम भी फ़िरकें। :)
लेकिन तीनों ने मिलकर बनाया क्या? :)
अब तो पढ़ कर भूख लग आई और बनाना तो खुद ही पड़ेगा.
आखिरकार आपको खाने को मिला क्या?
खाना खाने लायक निकला :-)चावल, दाल ,चटनी और आलू का भुजिया ।
ये और बात है कि रसोई की सफाई ने मेरा इतना समय ले लिया । उसके आधे समय में मैं पूरा खाना पका लेती । लेकिन फिर भी संतोष के हाथ का पका खाना ...यम्म
नमस्ते प्रत्यक्षा जी.. आज पहली बार आपके "ब्लाग घर " मे आये हैँ और मजे की बात है की आपकी छुट्टी है और हम सीधे आपके रसोइघर मेँ....
किचन में जो लिखी संतोष ने, वो एक कविता थी
सफ़ाई के बहाने तुम उसे कहते कहानी हो
अभी आगाज़ में हैं दाल चावल और ये भुजिया
तो अगली बार की बातें, कचौड़ी की जुबानी हो
राकेशजी , सही कहा आपने , वो तो वाकई कविता ही थी । :-)
रचना , आगे भी आयें हमारे घर । स्वागत है ।
सुबह, सुबह भूख लगा दी देसी खाने की आपने. चलो आमलेट ही खा लिया जाऐ. वैसे हमें तो तारीफ कर कर के मजदुर बनाया जाता है.
Post a Comment