मोर पँख से रंग सजे थे
नभ नीला भी गाता था
पलकों पर सपनों सा तिरता
एक ख्याल सो जाता था
नींद भटकती रात की गलियाँ
सूरज भोर जगाता था
अँधकार की चादर मोडे
दिवस काम को जाता था
तब मैं याद तुम्हारी लेकर
मन ही मन में गुनती थी
इंतज़ार के इक इक पल में
तेरी याद के मोती चुनती थी
सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी
सपनो की भर घूँट की प्याली
मन मलंग बन उडती थी
याद को तेरी फिर सिरहाने रख
चैन की नींद सो जाती थी
लोकधर्म को नमाज़ अदा करने को तड़पता फिल्मकार
5 days ago
3 comments:
काफी अरसे के बाद पूरी कविता पढने को मिली.कविता तो बहुत अच्छी लगी
लेकिन खासकर ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं:-
सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी
ऐसे ही बढिया-बढिया लिखती रहें.
very nice poem. Easy to read, easy to comprehend, pleasing to the mind and easy to praise.
सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी
bahut khoob Prtyaksha ji!
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