10/07/2010

क़िस्साये मुख्तसर

(पिछले  भाग से आगे )

वे


उनका शरीर एक दूसरे में बैठ गया था , जैसे ऐसा ही होने को बना था । उनकी साँस एक सुकून में , एक गर्माहट में एक साथ चलती थी । जैसे बस यही घर था । जैसे पँछी शाम को नीड़ में लौटता हो , जैसे खेलता बच्चा माँ की गोद में ढुलक कर निढाल शाँत सो जाता हो ऐसे सुकून में उनका शरीर एक दूसरे में लिपट गया था । उनकी त्वचा ऐसे टकराती थी जैसे अपनी ही त्वचा हो , वे दोनों एक थे , ऐसे एक थे जैसे साँस भी एक होकर निकलती थी , कि जो हवा उनके बीच थी वो भी उनकी बाँटी हुई थी , कि उनका शरीर , उनके अंग प्रत्यंग सब साझे अंग थे । जीभ के कोर पर जो अनुभूति थी , उँगलियों के नाखून पर जो स्पर्श था , नाक के नुकीले कोने पर जो थरथराहट थी वो दोनों से होकर गुज़रती थी , जो एक महसूस करता था वही दूसरा भी और इस महसूस करने में भी वो एक थे । उन्हें शब्दों की ज़रूरत नहीं थी । उनके बीच किसी पुल की ज़रूरत नहीं थी । ये कोई आवेग नहीं था .. बस था उनका यों इस तरह एक होना ।

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जे

पी के साँवले बदन पर मेरे आँसू कैसे फैल गये थे । मेरी उँगलियों के नीचे उसकी हड्डियाँ कोमल पिघलती थीं । मैं और वो नदी की तरह बह रहे थे । अगर इस वक्त वो कुछ भी पूछती कहती मैं टूट कर बिखर जाता । अपने पौरुष में टूट जाता । उसे मैं कैसे बताता कि बस यही एकमात्र सच है । कैसे बताता कि मेरे सब शब्द बेकार हैं , कि सिर्फ वो है सिर्फ वो .. उसकी छाती पर पर मैंने अपनी उँगली से अपना नाम लिखा है ..कैसे बताता .. ...............................................................................................................

पी
उसके बदन में सिमटी हुई मैं हिलग रही थी । मेरे आँखों के कोने से मेरा प्यार बह रहा था । अपनी उँगलियों से उसकी छाती पर मैं उसका नाम लिख रही थी । उसे कुछ नहीं पता ,कुछ भी तो नहीं ..

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पी


आज उसने मेरे आधे स्केचेज़ लौटा दिये ।

नहीं ये उस मूड से बिलकुल अलहदा है जैसी मैं चाहता था

मैं बहस कर रही थी । वो मान नहीं रहा था । मैं गुस्से में निकल आई थी ।

बहुत देर तक सड़क पर निष्प्रयोजन चलती रही थी । शाम उतर रही थी । सड़क के दोनों ओर बत्तियाँ जगमगाने लगीं थीं । मुझे एक दूसरा अस्साईनमेंट मिला था जिसे छोड़ना नहीं चाहती थी । जे की किताब का काम खत्म होता तो इस पर शुरु करती लेकिन जे की किताब खत्म होने को दिखती नहीं लग रही थी ।

अभी तक जे ने कभी मेरी तारीफ नहीं की । बुरा नहीं है ये हाँ , इससे ज़्यादा उसने कभी कुछ कहा नहीं । और मैं जो इसकी आदी थी कि लोग सुपरलेटिव्स इस्तेमाल करते मेरे इलस्ट्रेशंज़ की .. मैं जे से ... व्हाई शुड आई टेक दिस शिट फॉम हिम ? व्हाई ?

डॉक्टर सूस की ग्रीन एग्स ऐंड हैम याद करो ..मे विल्सन प्रेस्टन के स्केचेज़ याद करो.. चार्ल्स डाना गिब्सन कुछ देखा है तुमने ? सीखो सीखो पी .. अपने को अलग हटा कर देखो .. कीप यॉर आईज़ ओपेन , वाईडेन यॉर सेन्सिबिलिटीज़


जॉन शेली के ब्लैक व्हाईट चिल्रेंस इल्लस्ट्रेशन देखे ? ये देखो .. किसी दराज़ से तुरत कोई फोलियो निकाल कर जे मेरी तरफ बढ़ाता .. ये देखो ..उसकी उँगलियाँ किसी दो चोटी वाली डस्टबिन उठाये हैरान लड़की , किसी गोल चश्मे वाले लड़के या किसी औरत के पीछे कटखने कुत्ते पर प्यार से फिरतीं ...

देखो ज़रा सी उठी भौं , ये देखो ये गोल होंठ ? एक्सप्रेशंज़ देखो .. एक पेन स्ट्रोक से ..बस एक पेन स्ट्रोक ..

जे की आवाज़ किसी अव्यक्त पैशन से गहरी हो जाती । मैं गुस्से से निकल कर उसकी आवाज़ के रौ इंटेंसिटी पर सवार ऐसी दुनिया में पहुँच जाती जहाँ अपनी सीमायें पार की जा सकती थीं ।

अपने में विश्वास रखो पी .. किसी के भी कहने पर मत जाओ

तुम्हारे भी ?

हाँ , मेरे भी .. उसका चेहरा संयत और आवाज़ शाँत होती


पार्क के बेंच पर बैठी मैं कुछ भी नहीं सोच रही थी । कल रात देखी वॉंग कार वाई की चुंगकिंग एक्स्प्रेस सोच रही थी । फे वॉंग की विस्फरित आँखों से झलकते प्यार की सोच रही थी । उस पुलिस वाले की सोच रही थी जिसकी दोस्त उसे छोड़ जाती है और वो दर्जनों टिन पाईन ऐप्ल्स खा जाता है । पाईन ऐपल टिन के एक्सपायरी डेट की तरह उसका प्यार भी एक्सपायरी डेट के साथ आया था ।


मैं सोचती हूँ केतकी ने क्यों छोड़ दिया जे को , या जे ने उसे ? केतकी का दिलकश चेहरा याद आता है । कैसे कोई उसे छोड़ सकता है , कैसे ? मैं याद करना चाहती हूँ एक एक बात जो जे ने बताया था केतकी के बारे में .. बुनना चाहती हूँ उन शब्दों और वाक्यों से कोई ऐसी चादर जिसे बिछाकर मैं देख लूँ कि उस पर लेटे दोनों कैसे लगते हैं , क्या बातें करते हैं ? उनके बीच क्या दिखता है ? प्यार जो खत्म हुआ ? प्यार जो स्वार्थ में बदल गया ? क्या क्या क्या ?

या जैसे मैंने नीश को जाने दिया बिना तकलीफ के ..सिर्फ ये जान लिया था कि ऐसा ही सही है और इस जानने में सिर्फ एक आदत का छूटना है बस , कि अब साँस छोटी लेनी है अब लम्बी गहरी । नीश और उसके बाद सुजोय । पर सुजोय के साथ तो कोई बँधन नहीं था । कोई कमिटमेंट भी नहीं । हम सिर्फ तूफान में बहते दो समुद्री जहाज़ थे , कुछ देर के लिये साथ चले थे , अपनी रौशनी की गर्माहट का सुकून दिया था , इस बात का सुकून दिया था कि और कोई भी है , बस ।

ओह ! जे .. बताओ मुझे ..कुछ भी ..


घर लौटते मैं अकेली थी एकदम अकेली ।

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जे

उसका चेहरा उसके भावों को दर्शाता है । के जैसे नहीं कि पता ही न चले कि क्या महसूस कर रही है । प्यार के अंतरंग पलों के चरम पर भी भावहीन ।

पी तुम्हारे आँसू का खारापन अब भी ज़ुबान की नोक पर चरपराता है । जब तुम नाराज़ होती हो , तुम्हारा साँवला चेहरा दहकता है । जब उदास होती हो , होंठों के कोने गिर जाते हैं । पी , मैं तुम्हें नाराज़ देख सकता हूँ , उदास नहीं ।

तुम किसी चोट खाये हिरण की तरह इधर उधर भागती हो , मैं सब्र से तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ , तुम आती नहीं मेरे पास ।


किताबों की सफाई करता हूँ । एक एक किताब प्यार से पोछता हूँ । ये स्टाईनबेक , के ने दिया था । ये कल्विनो मैंने उसे दिया था जो वो छोड़ गई । ये ब्रोदेल हमने साथ साथ खरीदा था । कुछ ग्राफिक नॉवेल्स हैं जिनके तर्ज़ पर कुछ बनाने की सोची थी कभी । के ने तंज़ किया था , तुम सिर्फ हवाई उपन्यास लिखो , सच में लिखना , ग्राफिक्स बनाना तुम्हारे बस का नहीं । मैंने गुस्से में उसके हाथ से क्रैग थॉमसन छीना था , किताब के साथ उसकी पतली वॉयल की कमीज़ भी फटकर मेरे हाथ आ गई थी । मेरे अंदर एक दूसरा उन्माद पनपा था । मैंने खींचा था उसे अपनी तरफ । ऐसे वहशी प्यार में उसे मज़ा मिलता था । ऐसे वहशी प्यार के बाद मुझे शर्मिंदगी महसूस होती थी ।

मेरे अंदर का आदमी ज़रा ज़रा मर जाता था । के के साथ रहना अपने अंदर के आदमी को शनै: शनै: मरते देखना था । मैं मरना नहीं चाहता था , मैं अपनी पूरे आदमियत में जीना चाहता था ।

पी ..मुझे फोन करो ..मैं इंतज़ार कर रहा हूँ । मैं पहल कर तुम्हें दूर कर दूँगा क्या ? मैं तुम्हें पोज़ेस करके मारना नहीं चाहता , मैं तुम्हें उड़ते देखना चाहता हूँ ।

रात तीन बजे तक जगा रहा । किसी सेमिनार की तैयारी करनी थी नहीं की । पिछले दराज़ से स्टेडलर लुमोग्राफ पेंसिल्स निकाले , चारकोल निकाला , कुछ पीले पड़े हैंडमेड कागज़ निकाले । आड़े तिरछे लकीरें खींचता हाथ साधता रहा । लेटी हुई औरत के बदन की तस्वीर बनाई , पीछे से उसके रीढ़ की हड्डियों की लम्बी गहरी लाईन खींची , उसके नितम्ब के गोलाई के मादक कर्व को एक सधे हाथ बहते हुये रेखा में खींचते रुक गया ।

नीना सिमोन आई वॉंट सम शुगर इन माई बोल गा रही थी । उसकी आवाज़ की थरथराहट मुझे अंदर से भिगा रही थी । ब्लू ब्लूज़ !


इस माया का अंत कहाँ है आखिर ?

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पी

तीन दिन हुये । उसने फोन नहीं किया , न मिलने आया । मैं हवा में टँगी हूँ ।

अंदर ही अंदर कुछ रिसता है , छाती के अंदर , शिराओं में , नब्ज़ के भीतर , त्वचा के भीतरी सतह पर । बारिश होती है लगातार । मैं काम में जी लगाना चाहती हूँ । सब स्केचेज़ आड़े तिरछे बनते हैं । बालों में खूब सारा तेल लगाकर पीछे समेट कर बाँध लेती हूँ । अपने आप को भी कस कर समेट लेना चाहती हूँ । नहीं मैं फोन नहीं करूँगी । अगले ही पल हाथ फोन पर जाता है । सोचती हूँ ऐसे बेकार छलना का ऐसे वाहियात इगो का क्या करना । क्या करना जब इतना जीवन निकल गया , और भी ऐसे ही क्यों निकालना । सोचा था कि उम्र बढ़ती है तो साथ साथ मन बढ़ता है । अब पाती हूँ कि उम्र बढ़ती है मन घटता है । मान मनौव्वल में समय ज़ाया करना बेवकूफी है ।

मुझे पता नहीं उसकी खोज मेरे लिये है या नहीं । मैं एकबार उससे पूछना चाहती हूँ , मुझे खोजोगे ?

मेरे पूछने में और उसके खोजने में इतना फासला क्यों है ? कागज़ निकालकर पेन से कुछ लाईंस घसीटती हूँ .....

मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी , खुद को झुठला रही थी , फिर भी बार बार फरेब खा रही थी । तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे , आईने में खुद को देखते खड़े थे । तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी , लाचारी में खुद को गला रही थी , अपनी तकलीफ का हार बना रही थी । तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी । भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी , देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ...

मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ , आसमान ज़मीन में खो जाऊँ , सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ , फिर याद आता है , कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है । मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो । मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ । पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ । फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..

किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है । कहीं बारिश होती है । यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है । जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है । रात में भी धूप चिलकती है । किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे , कब तक ?

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वे

कल पढ़ा था उसने साईनाथ का एक चैप्टर , एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने , किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत , और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की , फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म , शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजते रहे थे कोई इंडियन कनेक्शन । और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी वो सोचते हैं ..इतना क्यों सोचते हैं पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?

(जारी...)
 
(ऊपर फोटो पिछले साल इंटरलाकेन से लौटते हुये ली हुई  )

4 comments:

अनिल कान्त said...

बेसब्री बढ़ रही है हौले-हौले ....आगे के लिए

Anonymous said...

the foto ,the narration ,the words,the continuity..
the whole post is a SUPERLATIVE!

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति, भावों की नक्काशी।

neera said...

Relationships are complex - your fingers seem to mutate their DNA...