किसी छोटी सी बात का सिरा कहाँ तक जाता है । उसने सिर्फ ये कहा था , लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में । उसकी आवाज़ में उदासी का बेहोश आलम था । जैसे अफीम के पिनक में कोई नशेड़ी । मैंने पूछना चाहा था , कौन सा दयार था जो उजड़ गया ? लेकिन पूछा नहीं था । सिर्फ कविताओं की पतली सी किताब उठा कर पढ़ना शुरु किया था । वो लगातर खिड़की से बाहर देखती रही । मैं हर तीन पंक्ति के बाद निगाह उठाकर उसे देख लेता । उसका थ्री फोर्थ चेहरा । आम के फांक सा चेहरा । बचपन में किताबों के मार्जिन पर ठीक ऐसा ही आम के फांक सा चेहरा बनाता था , खूब घने बरौनियों वाली आँखें और झुकती हुई लटों वाले बाल । वो सब टेढ़े मेढ़े प्रपोर्शन वाली औरतें , सब जीवित होंगी अब भी उन किताबों के मार्जिंस में । या शायद सब किसी कबाड़ी के दुकान के तहखाने में । उन्हीं किसी कबाड़ी की दुकान से ली थी मैंने कौड़ियों के मोल या शायद मुफ्त , हेमिंग्वे की द मूवेबल फीस्ट । किसी दोपहरी में सुगबुगाती खुशी से पन्नों को सूँघ कर शुरु किया था । कविता पढ़ना रोक कर बताना चाहता हूँ उसे ये सब । लेकिन वो आम फांक चेहरे से अब भी बाहर देख रही है । मैं चुपचाप उठ कर निकल जाता हूँ । वो मुझे रोकती नहीं है ।
मेरे पैरों की नीचे पत्तियाँ चुरमुराती हैं । एक औचक बवंडर का गोला उठता है , सड़कों को पागलपने में बुहारता है , सूखे जंगियाये पत्तों को एक उन्मादी पल भर के जुनून में ऊपर और ऊपर गोल गोल उठाता फिर धीरे से छोड़ देता है । मेरे हाथों में किताब भारी हैं । वो किताब जिन्हें मैं पहली बार नहीं पढूँगा । वो किताबें जिन्हें मैं कई कई बार पढ़ चुका हूँ । मेरे सबसे आत्मीय , मेरे सबसे अंतरंग । इन किताबों से मैं और जीवन जी लेता हूँ , वो सारे जो स्थिति शरीर के अवरोधों के गुलाम नहीं हैं । मैं समय और स्थान के परे हो जाता हूँ । मैं भाव और बोध के ऐसे स्तर पर पहुँच जाता हूँ जो मेरे वास्तविक परिस्थितियों से भिन्न हैं । मैं बेहतर मनुष्य हो जाना चहता हूँ , हो जाता हूँ । मैं उस सब ज्ञान , प्रज्ञा , विवेक का अधिकारी हो जाता हूँ जो मनुष्य ने आज तक अर्जित किया है । मैं वो पात्र हो जाता हूँ जहाँ सभ्यता अपनी अंजुरी से जीवन अनुभव भरती है । मैं एक मानव हो जाता हूँ , सबसे अलग , सबसे उच्च । पर सबके साथ । मैं ठीक उसी वक्त पूरी मानवजाति का प्रतिनिधि हो जाता हूँ । मैं संपूर्ण होता हूँ । एक साथ मैं अपने अंदर उतने जीवन इकट्ठा कर लेता हूँ , जितनी किताबें मैंने पढ़ी हैं । मैं किताबों से बेइंतहा प्यार करता हूँ । मैं एक साथ सौ लोग होता हूँ , सैकड़ों लोग होता हूँ । मैं स्त्री होता हूँ , बच्चा होता हूँ ,पुरुष होता हूँ । मैं कभी अफ्रीकी मसाई और कभी मोरक्कन बरबर होता हूँ , कभी औस्ट्रलियाई अरूंता , कभी रेडइंडियन नवाज़ो लड़ाका । मैं रेगिस्तान में प्यासा दौड़ता हूँ , कभी समन्दर के थपेड़ों से नमक कटे गालों को थामता हूँ । मैं सूली पर मरता हूँ , मैं भाले की नोक पर जीता हूँ । कितनी बार जिया और कितनी बार मरा ।
मैं ये सब उसे बताना चाहता हूँ ।
मैं बताना चाहता हूँ ..कोई दयार नहीं उजड़ता । मन में इतने लोग एक साथ वास करते हैं । फिर उजाड़पना कैसा । मैं उँगली पर रंग लगाकर शीशे रंगना चाहता हूँ और उसके चेहरे से उदासी पोंछ देना चाहता हूँ । मैं जीवन से टूटकर मोहब्बत करता हूँ । मैं रात दिन चलता हूँ । जंगलों के बीच , पानी पर , रेत पर , दलदल के पार । मेरे घुटने छिले हैं , मेरे पैर कड़े हैं । मेरे कँधे दर्द से झुके हैं , मेरे अंगूठे चोटिल ठेस खाये हुये हैं । फिर भी मैं चलता हूँ , इसलिये कि जीता हूँ ।
ये सब वो आमफांक चेहरा नहीं समझता । सिर्फ दर्द में डूबा रहता है । अपने छोटे से दर्द के पिंजरे में । मैं अपनी ऊँचाई में सिहरता हूँ फिर एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखता ।
वो अब भी खिड़की के बाहर देख रही है । उसकी उदासी धीरे धीरे निथर जाती है । जैसे पानी से थकान धो दिया गया हो । वो चीज़ों को रचाती बसाती है । फूल उगाती है और सूरज के निकलने पर अपनी आत्मा धो पोछ कर चमकाती है । कहती है , मैं वो औरत नहीं ...
(गोगां Ia Orana Maria (Hail Mary). 1891
फताड़ू के नबारुण
2 weeks ago
8 comments:
तारीफ़ के लिए मेरे पास शब्द नहीं है. गद्य रूप में है यह रचना पर रागात्मकता और काव्यात्मकता में कविताओं के भी पीछे छोड़ रही है. प्रकृति, परिवेशों और भावों का बड़ा ही सजीव चित्रण. बधाई इस सुन्दर लेख के लिए.
wow! unforgettable...
sunder abhivyakti,ek saan mein padh gaye pura.
कह दो इन हसरतो से कहीं और जा बसे ..:)
सब लोग तारीफ़ कर ही चुके हैं .....ultimate, superb
किताबों में चेहरे टटोलना और किताबी चेहरों को पढ़ना ..................
किसी तिलिस्म को सजीव करता प्रतीत होता है ,आपका स्वप्न -गीत .
सुंदर अभिव्यक्ति...
Beautiful....shabad,sangeet, portraits.....sab kuchh parha to kal tha aaj tak jee raha hoon....
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