उदास संगतों के बीच कोई सुर तलाशते हैं , खोजते हैं मायने सपनों के । झरते फूलों और गिरते पत्तों के सारंगी सुरबहार तान में , कोई विकल बेचैनी नये पत्ते की तरह फूटती है । काली बिल्ली एक बार घूम जाती है पूँछ उठाये । मैं अँधविश्वासी नहीं फिर भी रुकती हूँ , सोचती हूँ । देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
किसी रोज़ बारिश में भीगते देखा था
देखा था मिट्टी में पानी की धार
भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
पुरानी पोथियों में छुपी किसी
गोपन कथा के संकेत चिन्ह
जिनको बाँचते पहुँचेंगे
पकड़ लेंगे तुम्हारे सब अर्थ
तुम समझते थे तुम्हीं चालाक
हम भी सीखते हैं , पकड़ते हैं औज़ार
तलवार की तेज़ी सा, पैनी बुद्धि की कसम
एक दिन सब होगा हमारी पकड़ में
नीलगाय का झुँड तब आराम से विचरेगा , निर्द्वन्द
शब्द लटकेंगे रस भरे , लदी टहनियों से
पहुँच के पास
गप्प से मुँह में धर कर
कर लेंगे अंदर
और बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
मार्गरेट ऐटवुड की इन पंक्तियों को पढ़ते हुये
You fit into me
like a hook into an eye
A fish hook
An open eye
फताड़ू के नबारुण
2 weeks ago
16 comments:
प्रत्यक्षा जी इस पोस्ट को पढ़वाने के लिए । सुन्दर प्राकृतिक रचना के बीछ इंसान । धन्यवाद
kai din baad...lekin sundar post.
aur ye kali billi vahan bhee pahunch gai....?
एक लम्बे अरसे बाद आपकी रचना पढने को मिली ....मज़ा आ गया
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आप की कविता पढ़ना हमेशा सुखी या बैचेन कर जाता ह लेकिन गद्य से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं होती।
बहुत सुन्दर!!
देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
मैं भी होता हूं हैरान :)
क्या कहूँ ?जावेद अख्तर की नज़्म याद आती है ...घार में बैठा दरिंदा .....ठीक वैसी ही जैसे आपने बुनी .....
आमद अच्छी लगी वैसे .कहाँ गुम थी ?
शब्दों के पेंच और भाव की गहनता ऐसे बांधती है कि पढ़कर बहुत समय तक इनसे निकलना मुश्किल हो जाता है.....
लाजवाब !!
क्या बात इतने दिनों के बाद। पर जादू बरकरार है।
और बहेगा तब
हमारी मांस मज्जा रक्त में
शब्द अपने पूरे अर्थ में
फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
बहुत ही उम्दा।
बहुत बढिया ...
The mind games..:-)
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
वाह!
भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
छोड़ते थे अपनी जगह
कुछ शर्मिन्दगी से
बियाबान मैदान पर
विचरती जैसे कोई अकेली नीलगाय
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ ....प्रत्यक्षा जी ,
आपकी कविता के शिल्प ,बिम्बों और शब्दों के कोलाज का कोई जवाब नहीं .बधाई
हेमंत कुमार
ढिंन्चक कविता में अच्छा चित्रण है जी। बधाई।
बहुत सुन्दर जादुई कविता है।
घुघूती बासूती
trying to understand the magic of
a fish hook in open eyes.
वैसे क्या अच्छा लगेगा तब भी जब सब कुछ समझ में आ जायेगा?
क्या मन नहीं करेगा कि सब कुछ समझते हुए भी न समझने सा दिखाना
और मान लेना झट से ?
-देखती हूँ लोगों को बोलते बतियाते जीते और हैरान होती हूँ । हर पल हैरान ।
-भीगते शब्द थरथराते काँपते
निचोड़ते थे अर्थ
-फिर तुम कैसे बच पाओगे
कैसे कहोगे
मेरा ये मतलब तो नहीं था
bahut sundar..
Post a Comment