1/30/2009

एक ऐसा प्यार भी ..

कुछ बेहद उदासी वाला गाना क्रून करना चाहती हूँ , नशे में डूब जाना चाहती हूँ । माई ब्लूबेरी नाईट्स । अँधेरे रौशन कमरों की गीली हँसी में फुसफुसाते शब्दों को छू लेना चाहती हूँ , उस धड़कते नब्ज़ को छू कर दुलरा लेना चाहती हूँ । गले तक कुछ भर आता है उसे छेड़ना नहीं चाहती , बस रुक जाना चाहती हूँ एक बार , तुम्हारे साथ ।

चलते चलते धुँध में खो जाना चाहती हूँ एक बार । और एक बार उस मीठे कूँये का पानी चख लेना चाहती हूँ । एक बार तुमसे बात करना चाहती हूँ बिना गुस्सा हुये और एक बार प्यार , सिर्फ एक बार । फिर एक बार नफरत । सही तरीके से नफरत , न एक आउंस कम न एक इंच ज़्यादा , भरपूर , पूरी ताकत से । और उसके बाद तुम्हें भूल जाना चाहती हूँ । और चाहती हूँ कि तुम मेरे पीछे पागल हो जाओ , मेरे बिना मर जाओ ..सिर्फ एक बार !

अगली ज़िंदगी अगली बार देखी जायेगी...फिर एक बार !

( मार्क शगाल के चाँदनी रात में प्रेमी युगल )

1/28/2009

मेरी यात्रा शुरु होती है अब ..

मेरा मन ऐसा क्यों हुआ ? जैसे दरवाज़े पर लटका भारी ताला ? और तुम्हारी
संगत के दिन ? ऐसे थे क्या कि धूप अब खत्म हुई सदा के लिये । मेरे दिन क्या ऐसे ही लाचार बेचारे थे ? अपाहिज़ ,जो तुम्हारी संगत के बिना एक पल धूप और रौशनी की तरफ चल न पायें ? उन दिनों का रंग माना चटक था , फिज़ाओं में खुशबू ऐसे घुली थी जैसे ज़ुबान पर हमेशा प्लम वाईन का स्वाद | मन में कोई जंगल पत्ते खोलता था , फुनगियाँ आसमान छूती सी थीं ..सही है वो दिन वैसे ही थे । फिर उनकी परछाई इतनी लम्बी क्यों पड़ी कि आज तक के दिन ठंडे , अँधेरे , बिना किसी ताप के हुये । किसी अच्छी चीज़ का बुरा कसैला आफ्टरटेस्ट ?

न ! मैंने स्वाद चखा और अब बस । बस । फिर इसके आगे दिन कुछ और होंगे । जीवन बहुत बड़ा है और तुम्हारा दुख ? दुख है लेकिन ऐसा तीखा नहीं कि पहाड़ों पर छाया सर्द हो गई हो । तुम्हारे साथ के दिन वो चाभी नहीं जो इस ताले को खोल दें । वो चाभी उस अल्बम में भी नहीं जिसके फोटो पीले पड़ गये हैं , उस पीलेपन में उन दिनों की रौशनी और खुशी कैद है । न चाभी उन यादों में है जिन्हें याद कर मैं हंसता तो हूँ पर छाती हुमहुम कर जाती है । पर ये हँसी भी उस तार की तरह है जिसके खिंचने पर अजीब ऐंठी हुई सी खुशी तड़क जाती है । किसी दोपहर में फर्श पर लेटे छत ताकते किसी दोस्त से , किसी पुराने दोस्त से बतियाने जैसा सुख । ऐसा है तुम्हें याद करना , सिर्फ ऐसा । न उससे ज़्यादा न उससे कम ।

मेरे मन में तुमने खिड़की खोली थी , किसी और प्यारी दुनिया की झलक दिखाई थी , जब तक थी सुहानी थी । उसका सुहानापन, दिनों के किनारे पर जड़ी किरणें और सितारे थे । उसकी चमक अब भी है मेरे अंदर चमकती हुई लेकिन मैं सिर्फ तुम्हारे साथ के दिनों से खुद को सीमित कैसे कर लूँ ? दुनिया बड़ी है , बहुत बड़ी और जीवन नियामत है , एक बार मिली हुई नियामत । और हज़ार चीज़ें करनी हैं इस एक जनम में। तुमसे मोहब्बत की , टूट कर इश्क किया , मेरी आत्मा में नये रंग भरे । उन रंगों का वास्ता , अब मुझे कुछ और करना है । सामने हरा मैदान फैला है , सड़क कहीं दूर जाती है , कोई अपहचाना छोर कूल किनारा दिखता है । मैं यायावर होना चाहता हूँ , उस नीले आसमान की चमक मुझे खींचती है । मैं तुमसे प्यार करता हूँ, अब भी। इसलिये तुम्हारे बिना जीना चाहता हूँ । दुख तकलीफ में नहीं । खुशी से जीना चाहता हूँ । जैसे कोई बच्चा सुबह उठते ही किलकारी से नये भोर को बाँहें फैला कर गले लगाता है ..वैसे । तुम कहती थीं मेरे बिना तुम टूट जाओगे न । मेरा टूट जाना मेरे प्यार को साबित करता था ? तुम्हारे लिये ?

मैं हैरान हूँ । मैं जीता हूँ , साबुत हूँ । इसलिये कि एक समय मैंने प्यार किया , बेहद किया । इसलिये , अब तक जुड़ा हूँ । अब शायद तुमसे प्यार नहीं करता । शायद बहुत करता भी होऊँगा , अब भी । प्यार , तुमसे । या प्यार से । प्यार । शायद पागल हूँ कि सफेद कैनवस को रंगना चाहता हूँ उँगलियों से , रीम के रीम कागज़ भरना चाहता हूँ शब्दों से , कैनवस के जूते पहन किसी तंग गलियों में लोगों के चेहरे देखता , घरों की खिड़कियों से भीतर झाँकता , चलना चाहता हूँ , दुनिया के हर कोने का खाना चखना चाहता हूँ , धूप में बैठकर अपने पसंद के लोगों से जी भरकर बात करना चाहता हूँ , कितना कितना करना चाहता हूँ । मैं अपने मन का ताला अपनी चाभी से खोलना चाहता हूँ । मैं जीना चाहता हूँ , तुम्हारे बिना भी ..खुशी से उमगना चाहता हूँ । एक समय मैंने प्यार किया था इसलिये..इसलिये भी कि उस पार जाने के लिये दरवाज़ा मेरे ही अंदर है जो है अगर मैं देख सकूँ , अगर खोल सकूँ ..मेरी यात्रा शुरु होती है अब ..

(कार्तिये ब्रेसों की 1975 रोमानिया )

1/23/2009

चुंगकिंग एक्सप्रेस ?


सब चीज़ें एक्स्पायरी डेट के साथ आती हैं । प्यार , स्नेह , भरोसा , अंतरंगता , भोला सहज विश्वास ..सब । उम्र तक ! मैं कहती हूँ ।
तुम कहते हो ,चुंगकिंग एक्स्प्रेस का डायलॉग बोल रही हो ?

मैं लेकिन पाईनऐप्पल खाते नहीं मर सकती , मैं हँसती हूँ । मैं दुख में कुछ भी नहीं खाती ।

पाईनऐप्पल के सारे टिन जो मैं कल खरीद लाई थी उसका क्या करूँ अब ? ये अब हँसने वाली बात कहाँ रही । लेकिन सचमुच दुख में मैं कुछ भी नहीं खाती । फिर बिना एक्सापयरी डेट जाँचे , मैं सारे टिन गटर में फेंक देती हूँ । सड़क पर चलती औरत ठिठक कर देखती है , खराब है ? पूछती है ।
मेरे लिये , हाँ , मैं बुदबुदाती हूँ । बाहर बारिश झूमती है । गाड़ी के अंदर स्टिरियो पर बेगम अख्तर टूट कर गाती हैं

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया


मैं बेतहाशा हँसती हूँ । इसलिये कि मुझे रोना नहीं आता । शीशे के पार सब धुँधला है । सड़क नहीं दिखती , गटर नहीं दिखता , वो दुकान नहीं दिखती जहाँ से टिन खरीदा था , तुम भी नहीं दिखते और शायद उससे ज़रूरी , तुम मुझे नहीं देखते , वैसे जैसे मैं तुम्हें दिखना चाहती हूँ ।
तुम कुछ कहते हो लेकिन अब मैं नहीं सुनती । मैंने सारे पाईनऐप्पल टिन गटर में जो फेंक दिये ।

तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता
मैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती
तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है
मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ
तुम कहते हो मेरे पास आसमान है
मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है
तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम
मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ , सपने के पार का सच

बारिश थम गई है । तमाम लिखाई के बावज़ूद सच मुझे विदागीत लिखना नहीं आता । उसमें ग्रेस और डिग्निटी नहीं आती , उसमें निस्पृहता नहीं आती । मैं अब तक सड़क पर ठिठक कर देखती फिर आगे बढ़ जाती औरत नहीं बन पाई । मैं अब भी छोटी बच्ची हूँ जो बड़ों की दुनिया में जबरदस्ती घुस आई है ।

(किसी बारिश के रोज़ की खींची तस्वीर)

1/20/2009

एक दोपहर ..तुम यकीन नहीं करोगे

हम जब बात करते हैं हमारे बीच की हवा तैरती है , तरल । तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन कई बार मैंने देखी है मछलियाँ , छोटी नन्ही मुन्नी नारंगी मछलियाँ , तैरते हुये , लफ्ज़ों के बीच , डुबकी मारती , फट से ऊपर जाती, दायें बायें कैसी चपल बिजली सी । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं जवाब में मुस्कुराती हूँ , तुम्हारी बात पर नहीं । इसलिये कि कोई शैतान मछली अभी मेरे कान को छूती कुतरती गई है ।तितलियाँ भी उड़ती हैं कभी कभार । और कभी कभी खिड़कियों पर लटका परदा हवा में सरसराता है । हमारी कितनी बातें घुँघरुओं सी लटकी हैं उसके हेम से । मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है ।

तुम यकीन नहीं करोगे । दीवार पर जो छाया पड़ती है , जब धूप अंदर आती है , उसके भी तो निशान जज़्ब हैं हवा में । सिगरेट का धूँआ , तुम्हारे उँगलियों से उठकर मेरे चेहरे तक आते आते परदों पर ठिठक जाता है । मैं कहाँ हूँ पैसिव स्मोकर ? न तुम्हें नैग करती हूँ , छोड़ दो पीना । सिगरेट का धूँआ मुझे अच्छा लगता है । मैं मुस्कुराती हूँ । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं सचमुच नहीं सुन रही तुम्हारी बात । मैं खुशी में उमग रही हूँ । मैं अपने से बात कर रही हूँ । परदे के पीछे रौशनी झाँकती सिमटती है । उसके इस खेल में रोज़ की बेसिक चीज़ें एक नया अर्थ खोज लेती हैं , जैसे यही चीज़ें ज़रा सी रौशनी बदल जाने से किसी और दुनिया का वक्त हो गई हैं । तुम सचमुच यकीन नहीं करोगे

लेकिन कई बार मेरी छाती पर कुछ भारी हावी हो जाता है जो मुझे सेमल सा हल्का कर देता है । तब छोटी छोटी तकलीफें अँधेरे में दुबक जाती हैं । मेरा मन ऐसा हो जाता है जैसे मैं आकाशगंगा की सैर कर लूँ , दुनिया के सब रहस्य बूझ लूँ , पानी के भीतर , रेगिस्तान के वीरान फैलाव के परे , चट नंगे पहाड़ों के शिखर पर ..जाने कहाँ कहाँ अकेले खड़े किन्हीं आदिम मानवों की तरह प्राचीन रीति में सूर्य की तरफ चेहरा मोड़ कर उपासना कर लूँ ।

परदा हिलता है , रौशनी हँसती है , अँधेरा मुस्कुराता है । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन अब मैं सचमुच तुम्हारी बात सुन रही हूँ ।




(रौशनी और अँधेरे का खेल एक दोपहर)

1/16/2009

उन सारी नियामतों के नाम

मैं उसे चिड़िया बुलाती हूँ। मेरी अवाज़ एक धीमी फुसफुसाहट है साँस जैसी, और
चिड़िया हँसती है लगातार। बेतहाशा। फिर नरमी से कहती है। अब सपने देखो।

समन्दर कहते मैं आहलादित होती हूँ। समन्दर समन्दर। लहरों का गर्जन मेरी शिराओं में गूँजता है। वहाँ जहाँ ज़मीन नहीं। मछलियाँ हैं। नमक है। सीगल भी हैं शायद और फेन। और। और पुराने जंगी जहाज़। कोलम्बस का बेड़ा। खतरा। बहुत सा रोमाँच। तेज़ थपेड़ों में उड़ते बाल , गालों पर नमक की तुर्शी , ज़िन्दगी। मैं थोड़ा सा मर जाती हूँ। मैं बहुत सा जी जाती हूँ।

किताब के पन्नों के बीच वो नक्शा। पेंचदार, गूढ़। कुछ पीला पड़ा। घुमंतु बंजारा रुककर साँस लेता खाता है पनीर का सूखा टुकड़ा पीता है घूँट भर कोई सस्ती शराब। आस्तीन से मुँह पोछता, नक्शे को समेटता चल पड़ता है मेरे सपने के बीच से ही अचानक।
समन्दर की छोटी सी लहर छूती है मेरे पैर को। चिड़िया मेरे बाल को। मेरा मन मुझे।

मैं उसे चिड़िया बुलाती हूँ। समन्दर कहते मैं आहलादित होती हूँ। रात भर नक्शे की महीन बारीक रेखाओं पर बनते हैं निशान , उँगलियों के, समन्दर आसमान रेत के , बवंडर चक्रवात के , छनती हुई रौशनी और झरते हुये अँधकार के , धूँये और सब्ज़ खुशबू के , होंठों पर नफीस स्वाद के , जीवन की सबसे बढ़िया चीज़ों के , उन सारी नियामतों के निशान , तमाम नियामतों के ..

अँधेरों के बावज़ूद ..बावज़ूद बावज़ूद

नसों के भीतर तब चाँद उतरता है , पत्थरों पर मूंगों पर , छतनार पत्तियों पर । कहते हैं कोई पूर्वज पागल जुनूनी यायावर रहा था। लहरों में जीया था , वहीं मरा था।





( तस्वीरें वागातोर , गोआ में ली गईं, एक शाम )

1/15/2009

ज़ायके का दिन

रेस्तरां में एक दिन ....









(चार पाँच महीने पहले खींची गई तस्वीरें )

1/13/2009

दरवाज़े के पार ?



( इरानी फिल्म निर्देशक अब्बास कियारोस्तामी , उन पहाड़ियों पर जहाँ उनकी फिल्म टेस्ट ऑफ चेरी शूट की गई थी )

1/03/2009

अब जंगली हरियाले तोते शोर मचाते नहीं उतरते आम के पेड़ों पर

आम के बगीचे के पास रास्ता पक कर धूसर हो गया है , घास ऐसे उड़ गई है जैसे अब इस पत्थर से सख्त ज़मीन पर कोई दूब उगेगा नहीं । लोगों के पैरों की चाप ने ऐसी गत कर दी है । जब उस ज़माने में दीवार मज़बूत थी तब परिंदा नहीं फटकता था बगीचे में । बगल वाले बरामदे में खटिया पर बैठे ईया यही देखतीं है । चाय का गिलास तक उठाते हाथ काँपते हैं अब । सब त्वचा झिंगुर कर सिकुड़ गई है , बाल सन से सफेद । तब हरियाले तोतों का झुँड पेड़ की फुनगी पर आ बैठता था । जंगली तोते । सुनहरे पिंजरे में कैद मीठू राम कैसा शोर मचाता था तब । कैसे पँख फड़फड़ाता था बेचैन अकुलाहट में कि डर में ?

पिछवाड़े वाली खपड़ैल छप्पर अब आधी ढह चुकी । जंगली घास और झाड़ उग आये हैं । पिछली बरसात तो एक करैत निकल गया था शाम को । पेट्रोमैक्स की रौशनी में डंडों से उसका हाँका गया था । फिर दीना उसका कुचला निर्जीव शरीर पतली लम्बी छड़ी पर लटकाये सबको दिखाता फिरा था ।
बड़ा ज़हरवाला साँप था हुज़ूर , उसकी काली आँखें चमकीं थीं । कितने दिनों तक , अरे वही दिन जब करैत मारा था , के संदर्भ से बात करता रहा था दीना ।

आँगन के छोर पर चाँपाकल वाला चबूतरा भी टूट चला । जब से पानी का नल लग गया , उसकी पूछ कम गई । अब कभी चलता भी है तो कैसा लोहराईन , गंदला भूरा पानी निकलता है । पाईप में जंग लग गया होगा जरूर । बच्चे कभी हो हल्ला करते हुमच हुमच कर चलाते हैं तब छेहर सी पानी की मरियल धार निकलती है । चबूतरे के टूटे कोने पर पुदीने की बेल कैसे लहक कर फैली है और उसके एक ओर मेंहदी की झाड़ । पिंकी जब तब कटोरी भर पत्ता सिलौट पर पीस कर जिस तिस को पकड़ कर मनोयोग से हथेली पर अठन्नी जैसा गोला और तीनपत्तिया फूल काढ़ती है । बीस साल की दुबली पतली मैट्रिक पास पिंकी जिसको पिछले छह महीने से ससुराल वाले नैहर ठेल आये हैं । दोपहर को सर झुका कर सरसों के झोल वाली मछली पकाती है , मूड़ी तलती है । जब तक मछली सरसों तेल में तलता है , पीढ़े पर बैठी , घुटनों पर बाँह धरे , लकड़ी के आग को देखते जाने क्या क्या सोचती है ।

अम्मा कहती हैं , लम्बी साँस भरकर , सिलाई स्कूल में नाम लिखा दें ? इस साल बरसात के पहले छत भी छवाना है , नया छाता खरीदना है , मिंटू के स्कूल का फीस भरना है , बाबुजी के लिये नया प्रिंसकोट बनवाना है , और और पिंकी के ससुराल भी तो जाना चाहिये न एक बार ? आखिर कोई कारण तो बताये ? ऐसे बेबात लड़की को छोड़ देता है क्या ? किसी अंदेशे से उनकी छाती धौंक जाती है , हथेलियाँ ठंडी हो जाती हैं । बाबुजी अचानक अलगनी से लटका बंडी उतारकर पहनते हैं और बिना कुछ बोले निकल जाते हैं । अब जाने कब लौटेंगे । जब से सस्पेंड हुये हैं तब से एकदम चुप्पा हो गये हैं ।


ईया झुकी कमर को सहारा देतीं खटिया से उठती हैं । निहुर कर अपनी कोठरी में घुसती हैं । बाहर की चकचक धूप के बाद आँख एकदम अँधिया जाती है ..अंदर ठंडा अँधेरा है , बांस की अलगनी पर कथरी और चादर मोड़ कर लटका है , चौकी के बगल में थूकदान और हुक्का , चीकट तकिये के ऊपर पूरी बाँही का ब्लाउज़ और किनारी वाली धोती , सीट कर चपोत कर तहाया हुआ । भूख लग गई है । पुकारती हैं , पिंकी पिंकी ..


सामने एक तस्वीर टंगी है फ्रेम में । घर के मालिक शेरवानी अचकन पहने , सर पर टोपी धारे कुर्सी पर बैठे हैं , दोनों हाथ नक्काशीदार छड़ी की मूठ पर टिकाये । बगल में ईया , तब की तीस साल की , सीधा पल्ला साड़ी और बालों की काकुलपत्ती के बीच शरमाती हँसती आँखों से सामने देखतीं और पैर के पास दो गदबद बच्चे और किनारे एक अदद झबरीला कुत्ता । पीछे डाकबंगला नुमा विशाल घर के सामने का हिस्सा पीछे के बैकग़ाउंड में घुलता फ्रीज़ होता है ।


अब जंगली हरियाले तोते शोर मचाते नहीं उतरते आम के पेड़ों पर ।