1/20/2009

एक दोपहर ..तुम यकीन नहीं करोगे

हम जब बात करते हैं हमारे बीच की हवा तैरती है , तरल । तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन कई बार मैंने देखी है मछलियाँ , छोटी नन्ही मुन्नी नारंगी मछलियाँ , तैरते हुये , लफ्ज़ों के बीच , डुबकी मारती , फट से ऊपर जाती, दायें बायें कैसी चपल बिजली सी । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं जवाब में मुस्कुराती हूँ , तुम्हारी बात पर नहीं । इसलिये कि कोई शैतान मछली अभी मेरे कान को छूती कुतरती गई है ।तितलियाँ भी उड़ती हैं कभी कभार । और कभी कभी खिड़कियों पर लटका परदा हवा में सरसराता है । हमारी कितनी बातें घुँघरुओं सी लटकी हैं उसके हेम से । मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है ।

तुम यकीन नहीं करोगे । दीवार पर जो छाया पड़ती है , जब धूप अंदर आती है , उसके भी तो निशान जज़्ब हैं हवा में । सिगरेट का धूँआ , तुम्हारे उँगलियों से उठकर मेरे चेहरे तक आते आते परदों पर ठिठक जाता है । मैं कहाँ हूँ पैसिव स्मोकर ? न तुम्हें नैग करती हूँ , छोड़ दो पीना । सिगरेट का धूँआ मुझे अच्छा लगता है । मैं मुस्कुराती हूँ । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं सचमुच नहीं सुन रही तुम्हारी बात । मैं खुशी में उमग रही हूँ । मैं अपने से बात कर रही हूँ । परदे के पीछे रौशनी झाँकती सिमटती है । उसके इस खेल में रोज़ की बेसिक चीज़ें एक नया अर्थ खोज लेती हैं , जैसे यही चीज़ें ज़रा सी रौशनी बदल जाने से किसी और दुनिया का वक्त हो गई हैं । तुम सचमुच यकीन नहीं करोगे

लेकिन कई बार मेरी छाती पर कुछ भारी हावी हो जाता है जो मुझे सेमल सा हल्का कर देता है । तब छोटी छोटी तकलीफें अँधेरे में दुबक जाती हैं । मेरा मन ऐसा हो जाता है जैसे मैं आकाशगंगा की सैर कर लूँ , दुनिया के सब रहस्य बूझ लूँ , पानी के भीतर , रेगिस्तान के वीरान फैलाव के परे , चट नंगे पहाड़ों के शिखर पर ..जाने कहाँ कहाँ अकेले खड़े किन्हीं आदिम मानवों की तरह प्राचीन रीति में सूर्य की तरफ चेहरा मोड़ कर उपासना कर लूँ ।

परदा हिलता है , रौशनी हँसती है , अँधेरा मुस्कुराता है । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?

तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन अब मैं सचमुच तुम्हारी बात सुन रही हूँ ।




(रौशनी और अँधेरे का खेल एक दोपहर)

18 comments:

  1. प्रत्यक्षा, बेहद सुंडर...शब्दों का ऐसा ताना बाना कैसे बुन लेती हैं आप? कोई तुलना ही नहीं...

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  2. बहुत ही सुन्दर लिखती हैं आपकी हर बात दिल को छूती है...

    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    चाँद, बादल और शाम

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  3. सचमुच ...अच्‍छा है।

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  4. Anonymous11:21 am

    हम आप का लिखा नही पढ़ रहें हैं आप का देखा देख रहा हैं और महसूस किया महसूस कर रहे हैं
    यही तो हैं न शब्दों का जादू!

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  5. गुलज़ार की एक नज़्म याद आ गयी ...लेंड्सस्केप

    दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब
    एक जवाँ पेड़ के पास
    उम्र के दर्द लिए वक़्त मटियाला दोशाला ओढ़े
    बूढ़ा-सा पाम का इक पेड़, खड़ा है कब से
    सैकड़ों सालों की तन्हाई के बद
    झुक के कहता है जवाँ पेड़ से... ’यार!
    तन्हाई है ! कुछ बात करो !’



    एक दोपहर को भी आपने लफ्ज़ दे दिए गोया.....

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  6. शब्दों का ये जादू सिर चढकर बोलता है।

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  7. iss maahaul me basney ko jee karta hai

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  8. बहुत सुन्दर कलाकार हैं आप. बनाती हैं खूब सुन्दर से शब्द-चित्र.
    प्रविष्टि के लिये धन्यवाद.

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  9. Anonymous2:10 pm

    very nice...you have serious skill :)

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  10. prashansha karna chahati hun par shabda kaha se lau.n

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  11. अह्हा!! हवा में तैरती मछलियाँ-अद्भुत!!

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  12. दोपहर पर भी इतना सुंदर लिखा जा सकता है...!!!!

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  13. words! meaning! pictures, touches -everything multidimensional!
    Amazing!

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  14. bahut achchha likha hai.

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  15. कितना सुँदर लिखती हो प्रत्यक्षा ..
    - लावण्या

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  16. प्रशंसा के लिए शब्द कम हैं ..... काबिले तारीफ

    अनिल कान्त
    http://www.anilkant.blogspot.com/

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  17. अभी आपकी कहानी पढी ग्यानोदय मे।
    अद्भुत
    इस पोस्ट पर कभी आराम से टिप्पणी करुन्गा…रास्ता देख लिया है आता रहुन्गा।
    कभी फ़ुर्सत मे देखे मेरी कविताये
    http://asuvidha.blogspot.com
    पर

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