1/23/2009
चुंगकिंग एक्सप्रेस ?
सब चीज़ें एक्स्पायरी डेट के साथ आती हैं । प्यार , स्नेह , भरोसा , अंतरंगता , भोला सहज विश्वास ..सब । उम्र तक ! मैं कहती हूँ ।
तुम कहते हो ,चुंगकिंग एक्स्प्रेस का डायलॉग बोल रही हो ?
मैं लेकिन पाईनऐप्पल खाते नहीं मर सकती , मैं हँसती हूँ । मैं दुख में कुछ भी नहीं खाती ।
पाईनऐप्पल के सारे टिन जो मैं कल खरीद लाई थी उसका क्या करूँ अब ? ये अब हँसने वाली बात कहाँ रही । लेकिन सचमुच दुख में मैं कुछ भी नहीं खाती । फिर बिना एक्सापयरी डेट जाँचे , मैं सारे टिन गटर में फेंक देती हूँ । सड़क पर चलती औरत ठिठक कर देखती है , खराब है ? पूछती है ।
मेरे लिये , हाँ , मैं बुदबुदाती हूँ । बाहर बारिश झूमती है । गाड़ी के अंदर स्टिरियो पर बेगम अख्तर टूट कर गाती हैं
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया
मैं बेतहाशा हँसती हूँ । इसलिये कि मुझे रोना नहीं आता । शीशे के पार सब धुँधला है । सड़क नहीं दिखती , गटर नहीं दिखता , वो दुकान नहीं दिखती जहाँ से टिन खरीदा था , तुम भी नहीं दिखते और शायद उससे ज़रूरी , तुम मुझे नहीं देखते , वैसे जैसे मैं तुम्हें दिखना चाहती हूँ ।
तुम कुछ कहते हो लेकिन अब मैं नहीं सुनती । मैंने सारे पाईनऐप्पल टिन गटर में जो फेंक दिये ।
तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता
मैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती
तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है
मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ
तुम कहते हो मेरे पास आसमान है
मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है
तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम
मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ , सपने के पार का सच
बारिश थम गई है । तमाम लिखाई के बावज़ूद सच मुझे विदागीत लिखना नहीं आता । उसमें ग्रेस और डिग्निटी नहीं आती , उसमें निस्पृहता नहीं आती । मैं अब तक सड़क पर ठिठक कर देखती फिर आगे बढ़ जाती औरत नहीं बन पाई । मैं अब भी छोटी बच्ची हूँ जो बड़ों की दुनिया में जबरदस्ती घुस आई है ।
(किसी बारिश के रोज़ की खींची तस्वीर)
" बरखा रानी ..
ReplyDeleteजरा जम के बरसो .."
ताकि हमारी प्रत्यक्षा
ऐसा ही लिखती रहे
स स्नेह्,
- लावण्या
ना मेरा ब्लोग सुरक्षित है ना आपका, देखिये ना आपकी ही पोस्ट से कॉपी करके नीचे चेप रहे हैं,
ReplyDeleteशीशे के पार सब धुँधला है । सड़क नहीं दिखती , गटर नहीं दिखता
सड़क भले ही ना दिखे चलेगा लेकिन गटर जरूर दिखना चाहिये क्योंकि नगरपालिका वाले ज्यादातर को खुला छोड़ के रखते हैं
प्रत्यक्षा जी गीत गाने वाला तो हर दम गाता है। विदाई में भी बेताला नहीं होता।
ReplyDeleteतरुण .. हद है , ताला खुला भी ताला होता है , हमारे ताले को बेताला क्यों किया ? बाकी गटर शटर(ड) रहे बस..
ReplyDeleteदिनेशजी , सचमुच शुक्रिया
लावण्या दी ..आपका स्नेह है मुझपर
विदा गीत न लिख पाना पहचान होती है जुडाव को महसूस करते जाने की
ReplyDeleteहर उस चीज को महसूस करते जाने की जो कभी भी हमारे साथ थी या कभी भी रहेगी.
आपकी पोस्ट से कॉपी करने का तरीका यह होता है कि कमेन्ट देने के लिए क्लिक करें और फ़िर उसमे शो ओरिजनल पोस्ट पर क्लिक करने पर आपकी पोस्ट वहीँ आ जाती है और फ़िर मजे से कॉपी करते रहें
इससे बचने का तरीका शायद यह है कि कमेन्ट फॉर्म पोस्ट के नीचे एम्बेडेड वाला आप्शन ओके करलें इससे कमेन्ट के लिए नया बॉक्स नही खुलेगा और उसी पेज पर कमेन्ट देने से शो ओरिजनल पोस्ट का आप्शन नही आएगा.
रौशन ...ये अच्छा बताया आपने.. शुक्रिया ..वैसे ताला खेल खेल में लगाया था ..फिर भी :-)
ReplyDeleteबारिशो में बेगम अख्तर अगर गाड़ी में टूटे .तो जिंदगी जैसे वापस रिचार्ज हो जाती है....पर इन दिनों बारिशे भी टूट कर नही होती ....मीर तकी मीर साहब फरमाते है
ReplyDeleteमीर' दरिया है, सुने शेर ज़बानी उस की
अल्लाह अल्लाह रे तबियत की रवानी उस की
वैसे हमने कोशिश की रोशन के तरीके से ताला खोलने की ....मुआ ये भी बेवफा निकला ....
क्या कहूँ कुछ कहने से पहले दुबारा पढने का मन करता है मैं क्या करुँ? अद्भुत लिखा .....।
ReplyDeleteऔर हाँ बचपन में सुना था कि जहाँ ताला होता है वही चोरी होती है।
मैं बेतहाशा हँसती हूँ । इसलिये कि मुझे रोना नहीं आता ।..bahut acchha hai ye
ReplyDeleteतुम अभी भी छोटी बच्ची हो!
ReplyDeleteतभी तो पाइनएप्पल गटर में फेंक देती हो
और मासूम बन बड़ों को हँरा करती हो!:-)
कल एक बुजुर्ग कानपुर के एक गटर में गिरकर मर गये। उसमें गिरे होते जिसमें पाइनएप्पिल के डिब्बे फ़ेंके गये तो शायद बच जाते!
ReplyDeletebahut achchha likha apne.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी.इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
ReplyDeleteमुझे हमेशा आपके पोस्ट पढ़ कर लगता है कि ये तो मैं ही लिख रही हूँ, या मेरे ही मन की बात...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखती हैं आप प्रत्यक्षा...
मैं सपने नही देखती ...मैं सच देखती हो ....सपनो से परे ....
ReplyDeleteअच्छा लिखती हैं आप
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Pratyaksha ji,
ReplyDeleteApka ye lekh ..shbdachitra ..jo bhee kah len bahut hee kavyatmak hai.sath hee apke blog par lagayee gayee photo kafee abhivyaktipoorna hain.badhai.
HemantKumar
तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता
ReplyDeleteमैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती
तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है
मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ
तुम कहते हो मेरे पास आसमान है
मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है
तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम
मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ , सपने के पार का सच
............................सच तो यह है कि बहुत ही अद्भुत लिखते हो आप...........कुछ अटपटी बातें भी कुछ इस अंदाज से आपकी रचना में आती हैं.........कि वो भी इक मुकम्मल पंक्ति बन जाती है....ज्यादा तो कहूँ...आप सोचोगी कि झूठमूठ ही आपको फुला रहा हूँ......सच तो यह कि मैं ख़ुद ही फूल कर कुप्पा होता जा रहा हूँ....!!
तुम भी नहीं दिखते और शायद उससे ज़रूरी , तुम मुझे नहीं देखते , वैसे जैसे मैं तुम्हें दिखना चाहती हूँ ।
ReplyDeleteManoshi ji ke vipareet mujhe hamesha aap ki post padhne ke baad lgata hai, ki mai kyo aisa nahi likh paati...!
तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता
ReplyDeleteमैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती
तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है
मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ
तुम कहते हो मेरे पास आसमान है
मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है
तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम
मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ , सपने के पार का सच
क्या विरोधाभास है?
बहुत सुंदर विरोधाभास का प्रयोग।
आभार