कमरे में धूप की नदी बहती थी ।
चित्तकबरा दौड़ता आता था। उसके बायें आँख पर एक काला पैच था। जैसे शैतान दिनरात किसी लड़ाई भिड़ाई से ब्लैक आई लेकर विजयी लौटा हो। आँख की चमक ऐसा ही बताती थी। धूप के उस नर्म टुकड़े में पहले लोटता फिर मिचमिची आँखों से उस रौशनी के गोल धब्बे का पीछा करता जो दीवार पर उड़ते पर्दों के खेल में ऊपर नीचे भागता फिरता काँपता सिहरता। फिर अपने झबरीले पूँछों के पीछे पड़ता मुड़ता दौड़ता गोल गोल अनगिनत चक्करों में । आहलाद की ऐसी आवाज़ उसके गले से लगातार निकलती । इस खेल में अंतत: हार कर पँजों पर सर टिका कर बैठ जाता । चित्तकबरे की आँख मुन्द जाती। उसकी गुलाबी सुबुक जीभ बाहर निकल जाती।
कमरे से आवाज़ आती है रटने की .. अ लो हमिंग ड्रोन .. द ट्रीटी ऑफ सॉलसेट एंड बसीन । बच्ची इतिहास रट रही है । चित्तकबरा आशाभरी याचना से एक बार बच्ची को देखता है फिर निराश आँख बन्द कर लेता है । औरत आती है चुपचाप गद्देदार कुर्सी पर बैठ जाती है । कुर्सी की बाँह का एक हिस्सा घिस कर महीन हो गया है। वहीं जहाँ औरत हरबार अपनी बाँह टिकाती है । लकड़ी के गोल फ्रेम में कसे वॉयल के कपड़े पर रेशमी धागे से औरत महीन नफीस कसीदाकारी करती है साटन स्टिच के फूल, लेज़ी डेज़ी पत्ते,क्रॉस स्टिच के बूटे, स्टेम स्टिच की शाखें... पूरी की पूरी बगिया कपड़े पर किसी जादू से जीवित होती जाती है । औरत के चेहरे पर एक स्थिर संतोष है , एक महीन खामोश मुस्कुराहट का आभास ।
कमरे में धूप की नदी बहती है।
बाहर दिन एक गर्माह्ट में बीतता है। छाँह में मजदूर औरतें रोटी खाती हैं थकी हारी। बच्चे भारी बस्ता लटकाये लौटते हैं स्कूल से। कैनवस के रुखड़े सरफेस पर मैं उँगली फिराती हूँ । चित्तकबरा बिलकुल वैसा ही बना है जैसा मैंने उसे देखा था ।