8/27/2007

स्याही और सोख्ता और बाँस की खपच्ची की कलम

घर में आजकल एक नया इजाफा हुआ है । दीवारों पर क्रेयॉन की चित्रकारी तो पुरानी बात थी । दाँत चिहारे चेहरे यकबयक किस दीवार से लपक जायें ऐसा बन्द डब्बे से किसी मुक्के की सी डरा देने वाली भंगिमा की अब तक आदत हो चली है फिर भी सरपराईज़ मिलता रहता है । खिडकियों का शीशा रंगों के जानदार छींटों से दमकता है । कभी दीया , कभी अचानक कोई चट बैंगनी फूल , कभी तैरती मछलियाँ , कभी दो चोटी वाली चौखुट दाँतों वाली कोई दुष्ट लडकी । कुछ भी हो सकता है । ये कुछ भी हो सकता है वाली सस्पेंस मज़ेदार चीज़ है । नाराजगी और गुस्से को ज़ाहिर करते हुये ,ये कुछ क्या है का सस्पेंस कौशल से छुपाना पडता है । कभी हँसी भी मुल्तवी करनी पडती है बाद के लिये जब बच्ची सामने न हो । हँस दिया तभी के तभी तब तो पूरा घर रंग जायेगा नहीं । रोका तो पूरा घर सूजा चेहरा लिये डोलती फिरेगी । हामी भर दी फिर घर गुलज़ार हो गया । चिलकती खिलकती हँसी फूल सी उगेगी यहाँ वहाँ ।

फिर घर तो घर ,बाहर तक भी रंग निकल निकल पडें ऐसी कयामत । लिफ्ट के पास , पार्किंग लॉट में ,कॉमन एरिया में , कहाँ कहाँ नहीं लाल नीली लकीरों में बच्ची के हाथ दीखते पडते हैं । पर इतना ही कम कहाँ था जो उसे स्याही और फाउंटेनपेन ला दिया । अब चादर पर , गद्दे पर , सोफे के कुशंस पर , फर्श पर चकत्ते चकत्ते । और तो और हथेलियों उँगलियों पर , नाक के कोरों पर , नाखुनों के नीचे , कभी माथे गाल पर । गरज़ ये कि स्याही सारा जहाँ स्याह किये हुये है । अभी उसी दिन की बात है ,किसी मेहमान को नीचे से विदा कर के दरवाज़े पर कॉलबेल बजाये इंतज़ार में खडे थे । आँखें के बराबरी के सतह पर महीन बारीक अक्षरों में कालबेल के ठीक नीचे खूबसूरत कैलीग्राफी । चोर तुरत पकड में आया । अभी पिछले हफ्ते आखिर कौन इस सनक के घोडे पर सवार था । लिफ्ट के दरवाज़े के पास चार अंक वाले नये सीखे गुणा भाग फूल पत्तियों के बीच , कार के पिछले शीशे पर हँसता सूरज और उडती एक टाँगों वाली चिडिया , फ्रिज़ के दरवाज़े पर भाप उडाती छुकछुक रेलगाडी और सिग्नेचर ट्यून की तरह हवा में काँपते लहराते नारियल के पेड । पूरा घर किसी ट्रॉपिकल द्वीप में बदल जाये उसके पहले गंभीरता से कोई कार्यवाई करनी पडेगी ऐसा निश्चय लिया गया है । मॉम के स्ट्रिकलैंड की याद आई । तो बच्ची को बुला कर उसकी क्लास ली जाय । ऐसी ली जाय कि उसके अंदर का कलाकार कागज़ों पर सिमट कर रह जाये । बडी जुगत लगानी थी ।

इसी बीच बच्ची के पिता ने एक नया खेल और खेल दिया । बाँस की खपच्चियों वाला नुकीले नोक वाला जादूई कलम ला दिया उसके लिये । उसके निब को बारबार स्याही के बोतल में डुबा कर लिखने का चमत्कार । जितनी बार निब डुबाया जायेगा उतनी बार जीभ दाँतों से दबा कर पूरे पूरे मनोयोग से बून्द तक न छलके ऐसा एहतियात बरता जायेगा । फिर बिना गिराये स्याही कागज़ पर शक्ल लेगी स्कूल के बस्ते की , किताबों कॉपियों की , कलम दवात की , और उनके बीच सजा सजा कर लिखा जायेगा मोती अक्षरों में कोई ऐसा सूक्ति वाक्य जिसकी समझ अभी बच्ची को नहीं है । बच्ची को क्या कई बडों को भी नहीं है । लेकिन बच्ची को नहीं है ये क्षम्य है फिलहाल । लेकिन मेरी चिंता अभी उसके सूक्ति वाक्य के न समझने की नहीं है । मेरी चिंता उस स्याही के बोतल की ठेस लग कर हरहरा कर गिरने की है । तो जब तक बच्ची लिखती है मैं अपनी आँखें स्याही के बोतल पर गडाये रहती हूँ जैसे देखते रहने भर से उसके न गिरने को निश्चित कर रही हूँ । मेरे इस भोलेपन पर बच्ची के पिता कहते हैं , तुम सचमुच बच्ची हो । अब , बच्ची बच्ची है कि मैं बच्ची हूँ ? मुझे तो लगता है कि बच्ची के पिता बच्चे हैं । आप क्या कहते हैं ?

8/19/2007

केमोफ्लाज़्ड पतनशीलता

हम इक्क्सवीं सदी में भले ही आ गये हों मानसिकता अब भी कई कई मुद्दों पर किस पुरातन सदी की थ्रोबैक हो और कब कहाँ किस रूप में फूट पडे ये देखना भी एक लैब में किसी एक्स्पेरीमेंट के अनफोल्ड होने जैसा ही चमत्कृत कर देने वाला होता है । यहाँ चमत्कृत शब्द का कोई नेगेटिव कन्नोटेशन वाला शब्द नहीं सूझने के दुख में इसी शब्द से काम चला रही हूँ । मुद्दे कई हैं लेकिन सबसे तुरत ,बिना दिमागी कसरत के जो मुझे स्मरण हो आता है .. स्टीरियोटाईपिंग । इस औचक स्मरण के पीछे न तो हाथ है ज्ञानदत्त जी का और न शिल्पा शर्मा का और न उन तमाम ब्लॉगर साथियों का जिन्होंने ज्ञानदत्त जी के पोस्ट पर जाकर उनके तत्वज्ञान के समर्थन में स्माईलीज़ की फौज़ खडी कर दी।

तत्व ज्ञान तो सचमुच ज्ञान है लेकिन उसके ऊपर लिखे में जो छिपा भाव है उसपर एक बुद्ध मुस्कान तो फैलाई ही जा सकती है । ऐसा नहीं है कि मुझे परम ज्ञान की प्राप्ति हो गई है लेकिन पतनशीलता का ऐसा केमोफ्लाज़ ? मेरे विचार से हम सबों को इसी तरह का कोई न कोई टैगशब्द इज़ाद कर लेना चाहिये ( अज़दक जी इस टैग पर आपका पेटेंट तो नहीं ? हम भी इस्तेमाल कर लें ?) और जब कभी इच्छा हुई , उचित लगा तो फट से इस टैग की छतरी की सुरक्षा में बिना कुछ दो बार सोचे बेधडक छाप देना चाहिये । फिर देखते हैं कौन कहाँ पंगे ( फिर और कोई दूसरा उपयुक्त शब्द न सूझने की दयनीय दशा हो रही है , क्या करें अरविंद जी का थेसारस खरीद लें ? ) लेता है , कैसे कोई उत्तर प्रतिउत्तर पोस्ट लिखता है ।


लेकिन उस खास पोस्ट पर ज्ञ जी ने कोई टैग नहीं लगाया । फिर भी उदारमना होकर हमने उसे पतनशील ही समझा । हमारी समझ में कोई कमी हो तो ज्ञानीजन गुणीजन हमें समझायें । वैसे यहाँ हम साफ कर दें कि ये पोस्ट हमने पतनशील ही लिखा है , माने फिलहाल उधार लिया है टैग अज़दक से । आगे जब सोच कर अपना टैग बना लेंगे तब तक के लिये । लेख लेकिन ठीक ठीक पतनशील भी नहीं है । हमारी अभी अभी आपलोगों के संगत में अप्रेंटिसशिप शुरु हुई है ।

चाहते तो थे कि लिखें गंभीरता और पूरी संजीदगी से उस सफर के विषय में जो शुरु होती है शून्य से और आती है शायद किसी सुदूर भविष्य में आधी ज़मीन तक , कुछ रौशनी की धुँधलाई परछाई दिखने लगी है लेकिन जहाँ अब भी एक ऐसा अबोला अनवरत युद्ध छिडा है जहाँ हर वक्त अपने को साबित करने की थका देने वाली लडाई से जूझ रही है औरत । जहाँ अब भी उसे अपने हक को पाने के लिये सुनना पडता है , हमने तुम्हें दिया , ये नहीं कि ये तुम्हारा ही तो था । जो होना था खुद ब खुद उसे कोई क्यों किसी को दे और क्यों औरत ले । लेना है तो खुद लेना है किसी के दिये से नहीं । इंच दर इंच ज़मीनी हकीकत से जूझती औरत ऐसे स्टिरियोटाईप्स को गीले कपडे सी झटकार देती है । मुद्दे और भी महत्त्वपूर्ण हैं । ये उनमें शायद सबसे पेरीफेरल । लेकिन बावज़ूद इसके जब भी , और ऐसा दिन भर में कई बार होता है , इसका सामना होता है तकलीफ होती है , लडाई और कितनी बाकी है इसका एहसास होता है ।

पर माफ करें पतनशीलता में ऐसी संजीदा विमर्श का क्या स्थान । कहा न , सीख ही रही हूँ अभी । अब ये मत कहियेगा , अरे ये औरतें कोई भी काम ठीक ठीक कैसे कर सकती हैं ? वैसे औरतों के विषय में कुछ तत्व बोध हम भी बाँच दें ?


औरत है तो बाहर का काम क्या करेगी , कर ही नहीं सकती

एक घर तक का काम ठीक ठीक नहीं संभलता इस औरत से

औरत दफ्तर आती है सिर्फ तफरीह के लिये

औरत है तो गाडी कैसे चलायेगी ,चला ही नहीं सकती

गलत पार्किंग है तो ज़रूर किसी औरत ने की है

औरत है तो पैर के नीचे दब के रहेगी , रहेगी कैसे नहीं

बच्चे बिगड गये सिर्फ इस औरत की वजह से

फॉर्म गलत भरा है ? ज़रूर किसी औरत ने भरा होगा

औरत है तो उसे त्याग करना ही होगा , होगा कैसे नहीं

औरत है तो उसे अधिकार नहीं अपने बारे में सोचने का , इतनी हिम्मत ?

औरत है तो औरत बन कर ही रहे ,

आखिर हमने इतनी ज़मीन दी है उसे आसमान तो नहीं दे दिया ? तय हम करेंगे कि हद कहाँ तक है ? हमने अपनी औरत को परमिट किया , आई हव अलाउड हर टू डू दिस.....

8/10/2007

छप छप छपाक

छप छप छपाक



कैसा मज़ा है
बचपन पानी धींगा मुश्ती
ठंडा ठंडा नीला पानी
उलटा तैरें , सीधा तैरें
डुबकी डुबकी
जल की रानी

मेंढक मछली कल कल पानी
उठा पटक और हँसती मस्ती
बून्दें बून्दें
पल भर जल भर
छप छप छप छप
जल की रानी

8/05/2007

चूडियों का डब्बा माने कसम कसम

मुन्नी से खाना खाया नहीं जा रहा । चौके के , मिट्टी से लीपे हुये जमीन पर बडे मोटे चूँटे टहल रहे हैं । पीढे पर मुन्नी फ्रॉक बचाये बैठी है । कहीं चूँटा चढ न जाये पैर पर , फ्रॉक पर । चढ जाये तो चीख चिल्ला कर , कूद कूद कर आसमान एक कर लेगी । ऐसा होता है तब गप्पू को खूब मज़ा आता है , मुन्नी से बेतरह दोस्ती और प्यार के बावज़ूद । मुन्नी का ध्यान खाने पर कम है चूँटों पर ज़्यादा है । थाली में चावल पर दाल की नदिया बह रही है । भिंडी का भुजिया इतना अच्छा लगता है फिर भी खाना खाया नहीं जा रहा । चाची के घर बस यही एक चीज़ खराब लगती है ,ये चौके में चूँटों की दौड । बाकी तो सब खूब बढिया है ।

आँगन में चाँपाकल पर नहाना , हुमच हुमच कर चाँपाकल चलाना , बगीचे में लीची के पेड पर बंदरों की तरह भरी दुपहरिया में सबकी आँख बचाकर खेल खेलना । गप्पू अपनी बहती पैंट सँभलता सँभालता किवाड के पार हुलक हुलक कर देखता है । इशारा करता है , आ जा बाहर । गप्पू की आँखें काले गोली जैसी चमकती हैं । उसके पैंट की पॉकेट में गोलियाँ खनखन खनकती हैं । खज़ाना है खज़ाना । वैसे ही जैसे मुन्नी के डब्बे में टूटी काँच की चूडियाँ । किसी दिन जब डब्बा भर जायेगा तब मुन्नी मोमबत्ती जलाकर उसकी लपट में टूटी चूडियाँ का सिरा पिघला कर जोडेगी । तब तक मुन्नी हर किसी से चूडियाँ माँगती चाँगती रहती है । कैसी तो ललचाई आँखों से फुआ और चाची अम्मा की चूडियाँ निहारती है , लाल पीली धानी सुनहरी ,अहा ।

चाची अम्मा ,फुआ , पडोस की औरतें सब दोपहर में बैठकर न जाने क्या बतियाती हैं । पापड , मखाने और आलू के चिप्स के साथ अदरक वाली चाय स्टील के कप में । मुन्नी का दिल मखाने पर आ जाता है । चुपके कोने में बैठ कर मखाने टूँगती है ,आँखें चिहारे गप्प सुनती है । तब गप्पू लाख दफे खिडकी से बाहर आने का इशारा करे , टस से मस नहीं होती । सुमित्रा ने जाने कैसे बच्चा गिरा दिया । औरतें सब मुँह पर हाथ धरे अफसोस करती हैं । मुन्नी सोचती है कहाँ गिरा दिया , कैसे गिरा दिया , सीढी से कि पलंग से । कैसे गिरा दिया चाची ? अरे ! कैसे पुरखिन सी बैठी है यहाँ बडों के बीच पाको मामा । जा भाग , खेल बाहर । मुन्नी ठिसुआई सी बाहर भाग पडती है ।ओह ,कैसे बडी हो जाये अभी के अभी ।

गप्पू अलग गुस्सा ,मेरे लिये चिप्स तो ले आती । कमरे में पँखा मरियल चाल चलता है । हनुमान जी वाला कैलेंडर हवा में फडफड करता है । दीवार पर कैलेंडर के टीन का कोना दोनों तरफ आधा चाँद बनाता है । हवा में डोलते हनुमान जी संजीवनी पर्वत उठाये ठीक मुन्नी की तरफ देखते हैं । अगले महीने के पन्ने पर माखन खाते कृष्ण कन्हैया हैं । मुन्नी को इंतज़ार है अगले महीने का जब हनुमान जी वाला पन्ना हटा कर कृष्ण जी वाला पन्ना सामने किया जायेगा । पर अगले महीने तक शायद मुन्नी वापस अपने घर चली जाय ।

छोटे कमरे में चौकी के नीचे आम का ढेर है। बीजू और लंगडा । दिनभर गप्पू और मुन्नी आम चूसते हैं । गप्पू के मुँह पर आम खाने वाली फुँसी निकल गई है । हर साल ऐसा ही होता है । फुँसी और पेट खराब । पर गप्पू बाज नहीं आता । गर्मी भर सिर्फ आम पर जिन्दा रहता है । रेडियो पर दोपहर को पुराने गाने आते हैं । मुन्नी कभी कभी थम कर सुन लेती है । तब उसे लगता है कि अब बडी हो गई है । गाने तो ऐसे दीदी सुनती हैं । टिकुली साटे , फुग्गा बाँह की ब्लाउज़ पहने ,आँखों में काजल पाडे ।गाने सुनती हैं बाँहों पर सिर धरे और पता नहीं किस बात पर धीमे धीमे मुस्कुराती हैं । मुन्नी उनको ध्यान से देखती है । आईने के सामने कभी कभी उनके दुपट्टे को ओढे उनके जैसे ही मुस्कुराने की कोशिश करती है । दीदी ठीक मीनाकुमारी मधुबाला लगती हैं । मुन्नी भी बडी होकर उनके जैसे ही लगेगी । लगेगी लगेगी जरूर लगेगी ।

पर पहले उस पाजी गप्पू को ठीक करना है । रुसफुल कर जाने कहाँ बैठा है । मुन्नी ओढनी फेंक गप्पू की खोज में निकलती है । जरूर आम वाली कोठरी में पुआल पर बैठा आम चूसता होगा । बदमाश छोकरा कहीं का । दिनभर खाने की फिराक में रहता है । सचमुच गप्पू बैठा आम चूस रहा है । रस की धार कुहनी तक बह रही है । होंठों से बहकर ठोडी तक भी । गप्पू है तो सिर्फ साल भर छोटा पर मुन्नी को लगता है वो गप्पू से खूब बडी हो गई है खूब ।

दीदी के ब्याह के बाद शहर लौटते मुन्नी का चूडियों का डब्बा वहीं छूट जाता है । उफ्फ कितनी मुश्किल से जमा किया था । दिल पर जैसे हज़ार घाव हो जाते हैं । आँखों के आगे दिनरात वही तरह तरह की रंगीन चूडियाँ नाचती हैं । कैसा दिल तोड देने वाली हालत है मुन्नी की । दीदी के घर छोड ससुराल जाने की पीर से भी कहीं ज्यादा दुख देने वाली बात । मीठू सुग्गा तक मुन्नी को देख पुकारना छोड चुका है । हरी मिर्च और फूले हुये चने देने के बाद भी मुन्नी को गोल आँखों से तकता है । पिछले साल टॉमी के भाग जाने का भी इतना दुख नहीं हुआ था । अम्मा लाल पर सुनहरे लहरिया वाला गोल चिपटा बिस्कुट का डब्बा निकालती हैं । मामा लाये थे बिदेस से बिस्कुट । वही डब्बा है । अपनी सबसे सुंदर सुनहरे काम वाली गुलाबी चूडियाँ और लहटी निकाल कर डब्बे में डाल मुन्नी को पकडाती हैं । डब्बे को पकड कर मुन्नी को इतनी खुशी मिलती है ,इतनी । कोई खोई चीज़ जैसे फिर से मिल गई हो । मुन्नी अभी बडी नहीं होना चाहती । चूडियों के टुकडे वाली खुशी छोडनी हो तो बिलकुल भी नहीं । मुन्नी ने तय कर लिया है जब तक ये वाला डब्बा भर न जाये , जब तक चूडियों को जोड कर खूब खूब लंबा इन्द्रधनुष के रंगों वाला झालर न बना लिया जाय तब तक उसे बडे नहीं होना है , बिलकुल भी नहीं । ये तो बात पक्की रही , गले पर अँगूठे और तर्जनी रख उम्र भर की कसम खाने जैसी पक्की बात ।