11/10/2007

लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की तलाश

कल वो अमेरिका से वर्षों बाद दीवाली पर पटना पहुँचे । बचपन शिवपुरी , चित्तकोहड़ा के आसपास बीता । घूमते रहे गलियों में , बाज़ार में । खोज खाजकर घर ढूँढ निकाला । जो देखना चाहते थे नहीं दिखा , जो दिख रहा था आँखें उसे देख नहीं पा रही थीं । अपनी व्याकुलता की कथा सुनाते रहे । लास वेगास के चकमक रास्तों में चित्तकोहड़ा की धूल भरी गलियों को तलाशते हैं । कैसे बतायें क्या ढूँढते हैं क्या आँखें साफ शफ्फाक देखती हैं । जब चिकनी सड़कों पर लम्बी गाड़ियाँ फिसलती हैं , मन लौटता है उस गली जो अब सिर्फ स्मृति में महफूज़ है । उनकी बेकली शब्दों को पार कर उफन रही थी । कसीनो की जगमग , रौशनी और चकमक । छोटे दुकानों पर आलू और चावल की बोरियाँ , दस साल और बुढ़ा गया वही नाख्रुस टेलरमास्टर , एक एक कपड़े के लिये कितना दौड़ाता था , आज देख पहचान कैसा खुश हो गया । भिनभिनाती मक्खियों के ढ़ेर , बजबजाती नालियों से सजी धूल भरी सड़क , सड़क के बीचोबीच पगुराती गाय , औटो ,रिक्शे की गजर मजर । आह यही है होमकमिंग । मोहल्ले का सबसे शानदार घर अरे उसी आनंद का , पढ़ता था जो एक साल आगे , उफ्फ कैसा जर्जर हुआ आज । एक गुस्सा कौंधा । क्यों नहीं सब वैसा ही रहा जैसा मन में साबित साबुत है । कैसी दुखदायी टीस । क्या छूट गया पीछे क्या मिलेगा आगे । छोटे छोटे टूटे वाक्य । वही क्लीशेड इमोशंस । बार बार उस अजब से दुख को पकड़ लेने की नाकाम कोशिश में अटके शब्द । आवाज़ में अजीब हैरानी । कुछ न समझ आने जैसी गज़ब सी बात ।


क्यों हम हमेशा एक तलाश के गुलाम होते हैं । भौगोलिक दूरी को तो कभी पाट भी लेते हैं , समय की दूरी का क्या करें ? कैसे लौटें , कुछ दिन पहले , कुछ महीने पहले , पिछले साल , पिछले कई बरस ? हाय ! मन इतनी चीज़ों को क्यों सहेज रखता है । कोई ब्लैकहोल , कोई ट्रैश बिन कहाँ है जहाँ ये स्मृतियाँ गड़प से बिला जायें ?

एक उम्र पर आकर शायद हम सिर्फ पीछे लौटते रहते हैं । जितना हम वर्तमान में जीते हैं उतना ही अतीत में लौटते हैं । बढती उम्र के साथ ये लौटना डाईरेक्टली प्रोपोर्शनल होता है । मेरे शब्द भी ऐसे ही टूटे फूटे से थे । उनकी हाँ में हामी भरते । हम साथ साथ चित्तकोहड़ा बज़ार जो घूम रहे थे , घूम घूम कर चकित हो रहे थे । अरे ! अब भी बिलकुल वही का वही ? नहीं ? हमारे आहलाद के पीछे पीछे कंठ में एक रुलाई वाली टीस ,मैं भी हूँ , जैसा कुछ याद दिला रही थी । मुझे भी पटना लौटे चार साल बीत चले हैं ।

7 comments:

मीनाक्षी said...

प्रत्यक्षा जी , आपके लेखन को वर्णात्मक कहूँ या चित्रात्मक, दोनो ही घुल मिल जाते हैं...
"एक उम्र पर आकर शायद हम सिर्फ पीछे लौटते रहते हैं ----प्रोपोर्शनल होता है" आपने सच कहा.

अनूप शुक्ल said...

कोई ब्लैकहोल , कोई ट्रैश बिन कहाँ है जहाँ ये स्मृतियाँ गड़प से बिला जायें ? सुन्दर।

अभय तिवारी said...

हमेशा की तरह .. बोलता हुआ चित्र..

नीरज गोस्वामी said...

वाह.... बहुत बढिया लिखा है आपने. सार गर्भित बात.
बधाई
नीरज

पुनीत ओमर said...

"जितना हम वर्तमान में जीते हैं उतना ही अतीत में लौटते हैं । बढती उम्र के साथ ये लौटना डाईरेक्टली प्रोपोर्शनल होता है ।"

सोचने को विवश करती है ये पंक्ति.

alexander said...

what can i say....main to bilkul padhte -padhte "hyptonise" sa ho gaya.i use to think ki hindi literature is sirf bare-bare lekhakon ke pass hi jinda bacha hai...but not it still safe in hands of people like you.really all of your post has given me...intense pleasure.

Manish Kumar said...

बढ़िया लगी आपकी पोस्ट। पुराने दिनों को अपनी फ्रेम में फिक्सड साबुत की उम्मीद रखना तो मृग मरीचिका ही है।
पटना हाईस्कूल या फिर गर्दनीबाग की ओर जाना होता था तो ये चितकोहड़ा बीच में आता था। पता नहीं इसका ये नाम कैसे पड़ा ?