10/01/2007

सूरजमुखी का पीला स्वाद

हर बार शब्द निकलते हैं अर्थ को तलाशते बौराये निपट उदास खोज में। मैं सुनती हूँ खुद को भी दम साधे , चौकन्ना सतर्क ,बजती है आवाज़ लौट लौट आती है बिना छूये हुये किसी हवा तक को भी । अंदर गिरता है बून्द बून्द पानी। कोर्स की किताबें , स्टैलेकटाईट्स और स्टैलेगमाईट्स , बर्फ की पिघलती शिला रिसती है ठंडे सन्नाटे में। ऐसा कैसा मौन , इस शोर में भी ? या फिर रात के अँधेरे में बाथरूम के टपकते नल जैसा, उचटती है नींद, बेखटके देखती है आँखें चीर कर गाढ़े काले अँधकार में चमकती बिल्ली आँखें, कुछ रेंग जाता बचपन का भूला डर? खिड़की से झाँक जाता है एक बार और। और पाती हूँ अपने को कहते हुये किससे ?शायद खुद से बस एक बार और ?

डर का भी एक स्वाद होता है , लटपटायी जीभ पर फुसफुसाता कोंचता स्वाद जो याद रहता है बरसों डर के न होने पर भी । जिसका इंतज़ार करता है मन कैसी सिहरती उत्सुकता से , पैर बढ़ाते ही झट से पीछे खींच लेने का कौतुक खेल ? आगे पीछे पटरी पर दौड़ती है रेल , बोलते हैं झिंगुर बाहर की बरसात में , निकल पड़ते हैं यायावर , मन के ही सही , उतरती है सड़क किसी बियाबान खोह में नीम गुम अँधेरे के । बीतती है रात एक बार और । सुरंग के पार उगता है दिन सूरजमुखी सा । अँधेरे डर के बाद सुलगते दिन का स्वाद , बस एक बार और ।

(वॉन गॉग के सूरजमुखी के फूलों को याद करते हुये )

5 comments:

Ashish Maharishi said...

sahi kahaa..

Anonymous said...

हम अक्सर उस सूरजमुखी की क्यारी के पास जाते हैं.(जो गुड़गांवमें ही है इसलिये करीब है).देखते है मुस्कुराते हुए उसे.पाते हैं कुछ नये शब्दों का स्वाद.अक्सर कोशिश भी करते हैं बोल ही दें मन की बात.बोलते भी हैं कभी कभी. सुनी भी जाती होगी शायद वो आवाज.कभी कभी सूरजमुखी को देखा है अपने द्वारे भी...सूरज को प्रोत्साहित करने के अलावा कुछ और भी करने होते हैं ना काम..लेकिन जब हाशिये पे खुद को नहीं पाते हैं..तो लगता है कहीं कुछ कमी रह गयी... अभी और करनी होगी मेहनत...और अच्छा उगना होगा उन सितारों की तरह जो हासिये पर हैं...चलें मेहनत जारी रखते हैं..क्या पता नसीब अच्छा ही हो....

Udan Tashtari said...

शब्दों के माध्यम से बड़ी सुन्दरता और शिद्दत से याद किया है वॉन गॉग के सूरजमुखी को.

बढ़िया.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा है। सुंदर चित्रण!

Anonymous said...

hi.

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