9/30/2006

टोटल कन्फ़्यूज़न....कैसे खरीदें डिजिटल कैमरा

हम जब भी कहीं बाहर गये या फ़िर घर में ही कोई उत्सव हुआ , फ़ोटो खींचना उस अवसर का एक ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था । हमारे पास एक कैमेरा तो था , बहुत अच्छा पर वही पुराने ज़माने वाला , मतलब कलर रॉल खरीदो फ़िर फ़ोटो साफ़ कराओ । कई बार तो फ़ोटो खी‍चने के बाद महीनो रील साफ़ होने के लिये पड़ा रहता । फ़िर जब फ़ोटो स्टूडियो में डेवलप होने को दिया जाता तो अचानक से बड़ी बेकरारी हो जाती देखने की कि कैसे फ़ोटो आते हैं । फ़ोटो आता , कुछ दिन बार बार देखा जाता , खासकर उन फ़ोटोज़ को जिसमें हमारी शक्लें ठीकठाक नज़र आती ।फ़िर उनको सँभाल कर रख दिया जाता और हम भूल जाते उनके बारे में । बाद में कभी याद आने पर खोजा जाता और मर्फ़ी के शाश्वत नियम को एक बार फ़िर सही साबित करते हुये बाकी सब फ़ोटो मिल जाते उन खास फ़ोटोज़ के सिवा । धीरे धीरे हमारे पास बक्से भर फ़ोटोज़ जमा हो गये , सगाई , शादी से लेकर बच्चों के पैदा होने के बाद से लेकर हर छोटे बड़े पल का कोडक साक्षी । उन्हें सँभालना क्रमश: मुश्किल हुआ जा रहा था कि इसी बीच माँ ने एक पुलिंदा फ़ोटोज़ हमारे बचपन की हमें भेज दिया । इस तरह हमारी मुसीबत का इजाफ़ा हुआ चला जा रहा था ।

इधर हमने नोटिस किया कि अब हर किसी के पास डिजिटल कैमरा है । आसपास , बँधु पड़ोसी , भाई बहन , नाते रिश्तेदार , हर कोई डिजी कैमरा से लैस घूम रहा है । इन्स्टैंट फ़ोटो और हम अब भी उसी पुराने ज़माने में रिप वैन विंकल हुये घूम रहे हैं ।हमारे ऊपर सीवीयर
इन्फ़ीरीयोरिटी कॉम्प्ले़क्स का भूत सवार हो गया । हमने तय कर लिया है कि अब हम चोपड़ा , खोसला , मिश्राजी , राय जी , वगैरह वगैरह से पीछे क्यों रहें । हम भी खरीदेंगे एक डिजिटल कैमरा ।

तो यहीं से असली कहानी शुरु होती है जिसके लिये इतनी भूमिक बाँधी गई । तो भाईयों आपकी मदद की ज़रूरत है । बतायें कि एक बढिया (ऐडिक्वेट ?)डिजिटल कैमरा खरीदने के लिये क्या ध्यान में रखना ज़रूरी है । इन्टरनेट पर कैमरा पढ पढ कर टोटल कन्फ़्यूज़न का आलम है । कौन सा ब्रांड लिया जाय ? क्या फ़ीचर्स ध्यान में रखना चाहिये ? हमारी ज़रूरत सिर्फ़ घरेलू फ़ोटोज़ खींचनी है , हाँ ओप्टिकल ज़ूम शायद लेनी चाहिये । प्राईस रेंज , दस से पंद्रह (?)या फ़िर बीस । ये भी पता नहीं । अब समझ गये न कितने कन्फ़्यूज़्ड हैं हम ।

9/25/2006

धूप जनवरी की फूल दिसंबर के

प्रत्यक्षा अनूप संतोष
फुरसतिया जी ने जहाँ अपना लेख समाप्त किया था , मैं वहीं से आगे बढती हूँ । अनूप जी जितने अच्छे कवि हैं उससे बहुत ज्यादा अच्छे इंसान हैं । उनकी सहज सरल आत्मीयता कहीं गहरे छूती है । मेरा पहला परिचय उनसे ईकविता के माध्यम से हुआ था । उनकी ये कविता पढी और विस्मित रह गयी थी । ऐसा लगा जैसे कविता नहीं दो प्रेमियों की बातचीत किसी ने चुपके से सुना दी हो ।

अब समझ आया है मुझ को ,
हर फ़ूल में क्यों आ रही थी तेरी खुशबू ,
तितलिओं नें काम ये अच्छा किया है ।
और वो नदी जो
तुम्हारे गाँव से
मेरे घर तक आती है
सुना है
रात उस में खलबली थी
मछलियां आपस में कुछ बतिया रहीं थी
कुछ बात कह कर आप ही शरमा रहीं थी
क्या हुआ गर बात तुम जो कह न पाई
शब्द ही तो प्रेम की भाषा नहीं है ?


तो कविता ऐसे भी की जा सकती है ये समझ में आया । ई कविता में कई जुगलबन्दियाँ चली , कविताओं का आदान प्रदान हुआ ।पत्राचार चलता रहा । फिर 2004 में उनसे मुलाकात हुई । लगा जैसे अपने ही किसी बेहद आत्मीय से मिल रहे हों । फिर इस साल रजनी जी से मुलाकात हुई । ईश्वर ने बडी सुघडता से इनकी जोडी बनाई है । दोनों एक दूसरे के पूरक । सहज आत्मीयता , सौम्य व्यहवहार जैसे छलक पडता था । अनूप जी और रजनी जी की कविताओं के फैन तो थे ही , मिलने के बाद उन दोनों की शख्सियत ने भी गहरी छाप छोडी । ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं ।

अनूप जी की ही वजह से हिमानी और विष्णु से भी परिचय हुआ । हिमानी का भी ब्लॉग शुरु होने वाला है । आप सब खुद उनके बिंदास शैली का और सुंदर कविताओं का आनंद उठायेंगे । विष्णु की हाज़िरजवाबी और हिमानी की मस्ती दोनों देखने वाली चीज़ है ।

16 सितंबर को अनूप जी लखनऊ से वापस आये । सुबह फोन पर बात हुई । हमारे परिसर में क्लब है और उसमें खासा बढिया औडिटोरियम । तो इसी औडी में हिन्दी पखवाडा के अवसर पर एक कवि सम्मेलन होने वाला था उस शाम जिसमें बशीर बद्र , उदयप्रतापसिंह , शैलेश लोढा , आशाकरण अटल , अरुण जेमिनी आने वाले थे । बशीर बद्र और उदय प्रताप सिंह का नाम सुनकर( हम कोई क्रेडिट ले नहीं सकते ;-( ) अनूप जी ने अपने बाकी कार्यक्रम रद्द किये और तय हुआ कि शाम हम मिलते हैं ।
शाम हुई । हॉल में अनूप जी , हिमानी ,संतोष और मैं काव्य रस का आसास्वादन कर रहे थे । इसी दौरान अरुण जेमिनी, जो मंच संचालन कर रहे थे , ने अनाउंस कर दिया कि अगर अनूप भार्गव आ गये हों तो मँच पर आ जायें । ( अब कहिये सेलीब्रिटी कौन है :-) ) पुष्प गुच्छों को ग्रहण करने के बाद अनूप जी मँच पर । हम तो आम जनता थे सो पिछली कतार में बैठे रहे । अंत में अनूप जी का भी काव्यपाठ हुआ । उन्होंने अपनी कविता सुनाई ।

कल रात एक अनहोनी बात हो गई

मैं तो जागता रहा खुद रात सो गई ।”

रात्रि भोजन , जो वहीं पर आयोजित था , के बाद हम बशीर बद्र साहब , जो वहीं परिसर में स्थित गेस्ट हाउस में ठहरे थे , से मिलने हम उनके कमरे की ओर चल पडे ( ये भी अनूप जी का ही कमाल था वरना हमें कौन पूछता )। रत्रि भोज के पहले मैंने और हिमानी ने उनकी किताब पर उनके औटोग्राफ लिये । किताब अनूप जी ही लाये थे ,” धूप जनवरी की ,फूल दिसम्बर के “ । मुझे डबल फायदा हुआ , बढिया किताब मिली और सोने पर सुहागा बशीर बद्र का औटोग्राफ भी । खैर , हम सब बद्र साहब से गुफ्तगू करते रहे , उनकी गज़लें , उनके शेर , हिन्दी में गज़ल , दुष्यंत कुमार की गज़लें ,उनकी पारिवारिक बातें और भी कई बातें । अनूप जी ने भी अपनी ये कविता सुनाई



रिश्तों को सीमाओं में नहीं बाँधा करते

उन्हें झूठी परिभाषाओं में नहीं ढाला करते
उडनें दो इन्हें उन्मुक्त पँछियों की तरह
बहती हुई नदी की तरह
तलाश करनें दो इन्हें सीमाएं
खुद ही ढूँढ लेंगे अपनी उपमाएं
होनें दो वही जो क्षण कहे
सीमा वही हो जो मन कहे



हिमानी ने अपना एक शेर..

तू समझ न खुद को खुदा मेरा
ये भरम तेरा है मेरा नही
ये शफ़ा है मेरे इश्क की
जो तूने ऐसा समझ लिया

और मुझ खाकसार को भी मौका मिल गया । हाँ जी मैं ये मौका क्यों चूकती सो मैंने भी अपनी ये कविता सुना दी ।(अब झेलते रहें सब ;-) )

हिमानी का कैमरा ऐन वक्त पर जवाब दे गया और बशीर बद्र के साथ तस्वीर खिंचवाने का अरमान ,अरमान ही रह गया ।( अब इस वाकये का तस्वीरी प्रमाण नहीं है तो क्या , भाई लोग बिना तस्वीर के मानने से इंकार जो कर देते हैं , ऐसे शक्की मिजाज़ प्राणियों के लिये साक्षी स्वरूप अनूप और हिमानी हैं )

अगले दिन एक काव्य गोष्ठी का आयोजन अनूप जी ने हिमानी और विष्णु के साथ ‘ऐम्बियांस’ के ‘लगून क्लब ‘ में किया । यहाँ एकत्रित होने वालों में कुँअर बेचैन ,जगदीश व्योम, कमलेश भट्ट कमल , शास्त्री नित्य गोपाल कटारे , मोना कौशिक ( बल्गारिया से) रेणु आहूजा उमा माल्वीय , श्री गौड थे ।व्योम, गौड, कुँअरबेचैन, अनूप, भट्ट,कटारे,रेणु,मोना,हिमानी,उमा,प्रत्यक्षा काव्य चर्चा हुई , इंटरनेट पर हिन्दी का प्रचार , (अनूप जी ने बारहा कैसे इस्तेमाल करें का लाईव डेमो दिया ) हाइकू पर विशेष चर्चा ( चूंकि व्योमजी और भट्ट जी थे तो होना ही था )। हमसब ने एक दूसरे की तारीफ की ;-) कविता पाठ हुई ।( कटारे जी की संस्कृत में काव्यपाठ उल्लेखनीय रही ) और इन सब के बीच हिमानी के कुशल प्रबंधन में चाय , कॉफी और स्नैक्स का दौर चलता रहा । दोपहर के भोजन के बाद तस्वीरें ली गईं । जी हाँ फोटोज़् हैं , अभी दिखाते हैं । कुँअर बेचैन ने औटोग्राफ के साथ फ्री हैंड स्केचिंग की जो कि बेहद खूबसूरत थीं ।
कुँअर बेचैन

आगे की कहानी फिर आगे , तब तक बशीर बद्र की किताब “धूप जनवरी की , फूल दिसंबर के “ से कुछ पसंदीदा शेर

“अजीब शख्स है , नाराज़ होके हँसता है
मैं चाहता हूँ खफा हो तो वो खफा ही लगे”


“ वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे “


“ वो हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो”




9/13/2006

चाय की प्याली ..जुगलबन्दी

राकेशजी ने कहा चाय पुराण होनी चाहिये , तो लीजिये हाज़िर है चाय की प्याली । ये भी ई-कविता में चली थी कई दिन । आप भी चाय का लुत्फ उठाईये





बाँग घड़ी की,ट्रैफ़िक वेदर बच्चों का स्कूल
स्नो, बारिश धूप कार का और वेन का पूल
रिस्टवाच,पीडीऎ प्लानर सेलफोने और टाई
प्रेजेन्टेशन ओरियेन्टेशन मीटिंग सर पर आई
मिनी वेन ट्रक ट्रेक्टर ट्रेलर ट्रेफ़िक जाम हुआ सा
इन्टरस्टेट टौल रोड और बेक अप अच्छा खासा
हैश ब्राऊन काफ़ी बिस्किट और डोनट बेगल हाय
वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय

(राकेश खँडेलवाल )



हर सुबह
गर मयस्सर हो
एक चाय की प्याली
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा
और
एक ओस में भीगी
गुलाब की खिलती हुई कली
तो

सुबह के इन हसीं लम्हों में
मेरा पूरा दिन
मुक्कमल हो जाये
बस यूँ ही

(प्रत्यक्षा)



लेकिन है तकलीफ़ यही, हम किये कामना जाते हैं

पर उस सुखद भोर के पल से हम वंचित रह जाते हैं
यही त्रासदी, भाग-दौड़ है और दूरियाँ हाय
इसीलिये तो साथ न पी पाते सुबह की चाय

(राकेश)



बिना दूध की, दूध की, फीकी, चीनीवाली
जैसे भी हो, दीजिये भरी चाय की प्याली
भरी चाय की प्याली, बिस्कुट भी हों ट्रे में
जैसे लोचन मिलें नयनसुख को दो फ्री में
चुस्की ले-ले पियो अगर हो आधी खाली
जैसे साली कहलाये आधी घर वाली

(घनश्याम)



काली हरी और मिलती है जड़ी बूटियों वाली
पीच ,संतरा चैरी बैरी कई फ़्लवर वाली
कभी ट्वाईनिंग, अर्ल ग्रे तो कभी मिली जापानी
लिपटन,टिटली अमदाबादी मिलती हिन्दुस्तानी
पढ़ते अखबारों को लेकिन फ़ुरसत वाली हाय
वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय.

(राकेश खंडेलवाल)



जिह्वा खोज्रे वही बारबार
थोडा कसा चाय
जितने भी फ्लेवर्स गिना दिये हैं हाय
मुझे तो भाये वही फ्लावरी आरेंज चाय
वाशिंगटन की बात को छोडो
जब आओगे हिन्दुस्तान
तब पिलाएंगे तुम्हे हम
अपनी इंडिया वाली चाय

(प्रत्यक्षा)


भूल गया था सिलीगुड़ी की और असामी चाय
अदरक और इलायची वाली हिन्दुस्तानी हाय
येलो लेबल या रेड लेबल या पंसारी वाली
मिलती है या जो ढाबे पर साठ मील की प्याली
मिला आपका आज निमंत्रण, रह रह जी ललचाय
वाशिंगटन से दिल्ली जल्दी आऊं पीने चाय

(राकेश)




साठ मील की प्याली तो (;-))
मुझे न बनानी आये
गर आओगे आप तो मिलेगी
वही पत्ती वाली चाय

(प्रत्यक्षा)



इक कप में इक चम्मच पत्ती डालें, होती बीस मील की
तीन चम्मचें डालें पत्ती, सहज बनेगी साठ मील की
सफ़र हजारों मीलों का मैं तय करके यदि दिल्ली पहुँचूं
तब चाहूँगा मिले चाय कम से कम छह सौ साठ मील की.

(राकेश )



सुनो !
तुम जानती हो
मुझे चीनी की मनाही है
फ़िर
आज चाय में कितनी
चम्मच मिलाई है ?

मुस्कुराते हुए
जवाब आया,जानती हूँ प्राणनाथ
लेकिन आज हमारी
शादी की सालगिरह है,
घर में चीनी नहीं थी
चाय में बस
अपनी प्यार भरी
उँगली घुमाई है ।

(अनूप :-)



सीमित रहे चाय तक केवल
हम अपना क्या हाल बतायें
उसने मधुपूरित नजरों से
एक बार देखा था मुझको
बस तब से हर चीज मुझे
न जाने क्यों मीठी लगती है

(राकेश)



अब तो हमने शुरु कर दिया
ख्याली पुलाव पकाना
गर हों आप तैयार हमारी
कविताएँ सुनने को
छह सौ साठ मील तो छोडो
छह सौ टू दी पावर एक्स की चाय
हम सीख लें बनाना

(प्रत्यक्षा)


है यकीन चाय के संग अब हमें पकोड़े मिल जायेंगे

और आप निश्चिन्त रहें हम धैर्य साथ लेकर आयेंगे
हम न थकेंगे कविता सुनते, शायद आप सुनाते थक लें
चाय समोसे मिलें स्वयं ही श्रोता वहाँ चले आयेंगे

(राकेश )


चाय पर हो गर यूँ लम्बी बात खत में
तो घर पे आये मेहमान का क्या कहिये
यूँ नशा छाया है गर चाय के नाम से
तो जो पीते है इसे उनकी खुमारी का क्या कहिये

(मनोशी )



कविताएँ सुनने का क्यों किया रेट बढाय
अभी तो भाई सुनने का रेट सिर्फ है चाय
वो भी तब जब आपकी
भी सुन नी पडे हाय ;-))

(प्रत्यक्षा )



एक चाय के बदले सुनना एक गज़ल काफ़ी है
क्योंकि, सुना डायरी आपकी भरी हुई खासी है
इसीलिये आहिस्ता आहिस्ता बढ़ती है फ़रमाईश
अगर सुनायें आप न कुछ भी, सिर्फ़ चाय काफ़ी है.

(राकेश)


चलें, आपकी एक शर्त
ये भी मंजूर
पिलायेंगे आपको सिर्फ
चाय की एक प्याली
क्योंकि
हमारे पास तो है एक ही डायरी
आपकी तो सुना , पूरी दीवाने गालिब !

(प्रत्यक्षा)



माफ़ी पहले ही मांग ली जाये तो अच्छा है) अब जो ई-कविता में हो रहा है
होने दीजे
लेकिन गालिब को हिचकियाँ आ रही होंगी
उन्हें तो चैन से कब्र में
सोने दीजे .........

(अनूप )

हाँ इसी बात पर एक वाकया याद आ गया , याद नहीं प्रत्यक्षा को भारत यात्रा के दौरान सुनाया था या नहीं । अभी पिछले वर्ष Philadelphia में एक Literary Conference
हुई थी , वहां सलमान अख्तर (जावेद अख्तर के छोटे भाइ और जाँ निसार अख्तर के सुपुत्र) से मिलना हुआ , ये किस्सा उन का सुनाया हुआ है । एक सज्जन जो उर्दु शायरी की थोडी बहुत
जानकारी रखते थे (कुछ Buzz Words भी सीख लिये थे) , सलमान जी के पास आये और कहनें लगे । जनाब आप तो इतनी बेहतरीन गज़ल लिखते हैं , रुबाई लिखते हैं , नज़्म भी
लिखते हैं , क्या बात है , हम तो आप के बहुत कदरदान हैं , ये बताइये कि आप का 'दीवान-ए-गालिब' कब छप रहा है ? आशा है इस Context में प्रत्यक्षा की कविता और अच्छी लगेगी और हाँ जिस सरलता सुगमता से 'राकेश जी' लिखते हैं , उस हिसाब से तो उन के अब तक कई 'दीवान-ए-गालिब' छप
जानें चाहियें. :-)




और क्योंकि बार बार क्षमा न माँगनी पड़े, इसलिये अभी के लिये और आगे की संभावनाओं के लिये मैं अग्रिम निवेदन कर रहा हूँ.

एक गज़ल की बात हुई थी आप डायरी तक जा पहुँचे
इसी तरह तो लोग उंगलियाँ थाम, पकड़ लेते हैं पहुंचे
दीवान-ए-गालिब तो बल्लीमाराँ से है लाल किले तक
उसे ढूँढने आप यहाँ अमरीका तक कैसे आ पहुंचे

हाँ वैसे जो पास डायरी, कितने मुक्तक? कितनी गज़लें?
और बतायें ये भी, कितनी उगा रखीं गीतों की फसलें ?
ताकि योजना बना सकें हम, कितना जगना कितना सोना
कितना सर को धुनना होगा, कितना रोलें कितना हंसलें

(राकेश )



maaf karen ..aaj kuchh font ki samasysa hai..isliye ye roman lipi

kahan le aayee aaj hamenye kambakht chai ki pyali
shuru shuru me aas jagi thhee
shrota ek yun milega
kavitayen , muktak sun lega
ab to asaar madhim lagte hain
sar dhun ne ki baat karte hain
ye haal aapka abhi hua hai
kavitaon ke baad kya hoga???

(pratyaksha)



फोंट्स विचारे हिन्दी के भी,
कविता पढ्‍ बेहोश हो गये
सहन न कर पाये वे जिसको,
हम तैयार हुए सुनने को
इसीलिये तो एक चाय की प्याली और पकोड़े माँगे
कुछ तो हमें चाहिये ऊर्जा, आखिर अपना सर धुनने को
रचनाओं का असर क्लोरोफ़ार्म सरीखा अभी दिख रहा
एनेस्थेशिया के प्रभाव को दूर करेगी केवल चाय
एक चाय पर एक गज़ल की, पूर्व सूचना इसीलिये तो
अगर शर्त मंज़ूर, आयेंगे, वरना ओके टाटा बाय
और क्षमा मैं पहले ही माँग चुका हूं.

(राकेश )



हम तो यूँ ही डूबे हुये हैं :-o
हमें और न डुबाईये
पहले तो ये फॉंट धोखा दे गई
अब आपकी बारी भी आ गई
ले देकर मिला था एक श्रोता
वो भी पतली गली से भाग निकला
अब आप व्यर्थ न घबडाईये

हमने अपनी कविता ,मुक्तक, छन्द
को कर दिया है तलाबन्द
अब आप बेधडक चले आईये
आकर अपने गीत सुनाते जाईये
चाय भी मिलेगी साठ मील की
साथ में नमकीन पकौडे और मिठाई

(प्रत्यक्षा :-)))



आप डूबेंगे रस में मेरे हमसुखन
तब ही कविता का आनंद आ पायेगा
एक डुबकी लगा करके मकरन्द में
छ्म्द थोड़ा अधिक मन को भा जायेगा
फ़ोंट्स तो पारखी मित्र ! कविता के हैं
जानते, किसे लेंगे आगोश में
कौन से काव्य के साथ मुस्कायेंगे
साथ में किसके आ पायेंगे

जोश में तालों में बंद करो मत तुम
कविता को और निखरने दो
श्रोता खुद ही मिल जायेंगे , मुक्तक को और संवरने दो
रसगुल्ले अन्नपूर्णा के, घंटेवाला के सेम-बीज
के साथ चाय की जमनाजी, अपने आँगन में बहने दो

(राकेश)


और अंत में अभिनव शुक्ला जी ने कहीं सुनी/पढी हुई एक कविता भेजी थी

चाय का कमाल

चाय चुस्ती को जगाती है सदा
नींद , सुस्ती को भगाती है सदा
लक्षमण जी रात भर जागा किये
चाय पीते थे बिना नागा किये
एक दिन थी चाय मिल पायी नहीं
युद्धरत थे याद ही आयी नहीं
कई रातों के जागे थे ,सो गये
लोग ये समझे कि मूर्छित हो गये
वैद्यजी ने जो मँगाई थी दवा
पवनसुत लाये जिसे होकर हवा
चाय थी संजीवनी बूटी नहीं
सत्य मानो ये बात झूठी नहीं
द्रोणगिरि की स्थिति है अब जहाँ
चाय ही उत्पन्न होती है वहाँ

अनाम


9/08/2006

कुछ मेरे हिस्से की धूप .....जुगलबंदी

धूप पर कुछ कवितायें ...... राकेश खँडेलवाल , हिमानी भार्गव अनूप भार्गव और मेरी साथ में एक पेंटिंग भी

धूप के रंग



"रोशनी धुली धुली सी लगती है
स्वर्णमय गली गली लगती है
श्याम घन केश हटा दो मुख से
रूप की धूप भली लगती है "

(राकेश खँडेलवाल )


धूप के रंग में
उँगली डुबाकर
खींच दिया मैंने
तेरे होठों पर
वही उजली सी हँसी
हथेलियों पर तभी से
खिलता है रंग मेंहदी का
कैद हैं जब से
मेरे हाथों में
स्पर्श
तेरे होठों की हँसी का

(प्रत्यक्षा )



तेरी हँसी की शरारती खनक
ऐसी
जैसी
सरसों की बालियों की धनक
झरिया में छनती कनक
मकई की रोटी की महक
तंदूर की आग की धमक
अब समझी
क्यों चूल्हे पर बैठी
अपने आप ही
मुस्कुराती रहती हूँ मैं

(हिमानी भार्गव )



मैं भी अब समझ
जाता हूँ , तुम्हारा यूँ ही बेबात
मुस्कुरा देना
कभी आँखों से
तो कभी होंठों के
कोनों को ज़रा सा
दबा देना

मैं भी तो
यूँ ही , ऐसे ही
मुस्कुराता रहता हूँ
तुम्हारी धूप सी हँसी में
अपने हिस्से की धूप
देखा करता हूँ


(प्रत्यक्षा )



कब तक बन्द किये रखोगी
अपनी मुट्ठी में धूप को
ज़रा हथेली को खोलो
तो सवेरा हो


(अनूप भार्गव )



एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुंध के गांव में रास्ता ढ़ूंढ़ती
भोर से सान्झ तक थी दुपहरी रही
इसलिये मैने खोली हथेली नहीं
स्वप्न आँखों के सारे बिखर जायेंगे
लेके निशिगंध संवरे हुए फूल ये
रश्मियाँ चूम ऊषा की मर जायेंगे

( राकेश खँडेलवाल )



याद रखना
फिर मुझे
दोष न देना
अगर सवेरा हो जाये
धूप मुट्ठी से निकलकर
बहक जाये......

( प्रत्यक्षा ).



भूल गया था
तुम्हारी मुट्ठी में
धूप के साथ
मेरी उँगलियाँ भी कैद हैं
सवेरा ही रात के आलिंगन
की परिणिति भी होगा


(अनूप भार्गव )


तभी तो
हथेली पर
खुश्बू है धूप की
रात भर
तुम्हारी उँगलियाँ
कांपती हैं
उस अनजानी तपिश से.
अब मुझे जरूरत नहीं
चाँद की..

.(प्रत्यक्षा )



ऐसा लगा
तुमने मुझे धूप नहीं
मुट्ठी भर
विश्वास सौंप दिया हो
हर प्रश्न आसान
और
गंतव्य सहज
लगता है

(अनूप भार्गव )



अँजुरी में भर कर
तुम्हारा विश्वास

माथे पर लगाया
अरे !
कब इस माथे पर
सूरज का
टीका उग आया !!!

(प्रत्यक्षा )



उसी सूरज की
एक नन्ही सी
रश्मि किरण
मेरे ललाट पर
चमक जाती है
और मुझे
ज़िंदगी को जीने का
सलीका सिखा जाती है
अच्छा ही किया
जो तुमने मुट्ठी
खोल दी


(अनूप भार्गव )



मेरी आँखों में
ये चमकते हुए सितारे
शायदउसी किरण का
प्रतिबिम्ब हैं
और मैं इन्हें
मुट्ठी में समेट लेने
को फिर
आतुर हो उठा हूँ

(राकेश खँडेलवाल )



ये गजब न करना
ये मुट्ठी फिर
बंद न करना
ये रौशनी जो
फैल गयी थी
अब फिर
अँधेरा न करना....

(प्रत्यक्षा )

9/05/2006

सेकरेड हार्ट ...निर्मल हृदय

आज मैं शिक्षक दिवस पर किसी एक शिक्षक या शिक्षिका को याद नहीं कर रही । वैसे पूरे अध्ययनकाल में ऐसे कई शिक्षक मिले जिनका बहुत प्रभाव रहा जीवनमूल्यों पर । आज मैं याद कर रही हूँ अपने स्कूल को ।

पढाई की शुरुआत मेरी डालटनगंज में हुई । पहली कक्षा की पढाई वहीं के एक स्कूल "आनंदमार्ग" में हुई । वहाँ का कुछ भी याद नहीं बस ये कि कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम था जिसमें मुझे एक विशाल कागज के कमल के फूल के अंदर से निकलना था और उस फूल का गुलाबी रंग मेरे उजले कपडों पर लग गया था । उसके बाद हम राँची चले आये और कक्षा दो से लेकर दसवीं तक खूँटी के पास सेकरेड हार्ट स्कूल में पढते रहे । स्कूल बेहद सुन्दर था । राँची के HEC इलाके से खूँटी की ओर एक गाँव था हुलहुंडू , ये स्कूल वहीं पर एक विशाल कैम्पस में "आवर लेडी फातिमा , सिस्टर्स ऑफ चैरिटी " द्वारा चलाया जाता था । स्कूल के अलावा चर्च और एक डिस्पेंसरी भी था जो वहाँ के आदिवासियों के लिये चलाया जाता था ।
फलों के बगीचे , खेत , एक ओर डिस्पेंसरी , एक और छोटा स्कूल गाँव की लडकियों के लिये सेंट जोसेफ और लडकों के लिये सेंट जॉन, बीच में नन्स के रहने का हॉस्टल , हॉस्टल में एक छोटा चैपेल ,कुछ दूरी पर बडा चर्च । सारी इमारतें लाल ईंट की सफेद धारी वाली । स्कूल के ठीक सामने जहाँ असेम्बली होती थी वहाँ खूब चौडी घुमावदार सीढी थी , बहुत ऊँची नहीं । इसके ठीक ऊपर मरियम की शिशु यिशू मसीह को गोद में लिये एक बडी सी मूर्ति ।


असेम्बली के समय इसी सीढी की लैंडिंग पर मदर सुपीरीयर हिल्डेगार्ड ( ये बेल्जियन थीं ) और प्रिसीपल, सिस्टर रोज़ेलिन खडी होतीं । बाकी सब टीचर्स सीढी के नीचे एक कतार से । सामने खूब बडा मैदान आम के पेडों से घिरा हुआ चौकोर टुकडा , जिसके अंत में एक समरहाउस था ( यहाँ हमारी सिक्रेट सेवेन तर्ज़ पर खुफिया मीटिंग्स होती दोपहर के खाने के बाद बचे थोडे समय में )। हर पेड के नीचे बैठने की सीमेंट की बेंच , जहाँ हम बैठकर अपना टिफिन खाते थे । सीढियों के एक तरफ एक बडा सा फव्वारा था जिसे चारों ओर पत्थर से बना एक गोल घेरा था जिसमें नल लगे हुये थे ढेर सारे । टिफिन खाने के बाद इन्हीं नलों से हम चुल्लु कर के पानी पीते थे । कक्षाओं के सामने चौडे चमकते हुये बरामदे थे जिनकी पत्थरों की रेलिंग के ऊपरी हिस्से में मिट्टी डालकर छोटे छोटे पौधे लगाये हुये थे , छोटे बैंगनी फूल शायद ट्वेल्व ओ क्लॉक फ्लावर जो बारह बजे के बाद मुर्झाने लगते थे ।

बरामदे और कक्षाओं के चमकते फर्श से याद आया उर्सुला और गोदलीपा दीदी को जो सफाई करती थीं । उर्सुला दीदी छोटी , नाटी , घुंघराले बालों वाली खूब हंसमुख आदिवासी महिला थी । गोदलीपा दीदी , लम्बी , पतली , तुरत नाराज़ होने वाली । कुछ गिरा देख कर बिगड जाती ।

कक्षा में खूब बडी खिडकियाँ दो ओर । बरामदे वाली खिडकियों के नीचे कबर्डस , बैग रखने के लिये । कक्षा में घुसते ही हमें अपनी किताबें बैग से निकालकर डेस्क में जमा लेना होता । अंतिम काम ,कक्षा शाम को समाप्त होने पर ,बैग पैक करना होता । ब्लैकबोर्ड के ऊपर ईसा मसीह की सलीब पर लटकी छोटी मूर्ति हर क्लास में ।मिशनरी स्कूल में पढने का ये फायदा हुआ कि क्रिश्चियन धर्म के बारे में बहुत कुछ पता चला । कई बार फ्री पीरीयड में सिस्टर सुशीला बाईबल की कहानियाँ किसी किताब से पढकर सुनातीं ।क्रिश्चियन लडकियाँ जब कैटेकिस्म के लिये जातीं तब हमारी मॉरल साईंस की क्लास लगती । कक्षाओं की ईमारत के बगल में एक ऑडिटोरियम था । स्टेज पर ग्रीनरूम को छुपाने के लिये कैनवस के विशाल छत को छूते दोनों ओर ,तीन तीन पेंटिग्स, जो नाटक मंचन के समय नेपथ्य का दृश्य बन जाते । उन विशाल कैंवस पर लहराते नारियल के पेड , पीछे दीवार पर सूर्यास्त का पेंटेड चित्र अब तक मन में ताज़ा हैं ।

मिशनरी स्कूल के फायदे नुकसान पर बहुत बहस हो सकती है पर मुझे लगता है कि कई ऐसी चीज़ें अपने में आत्मसात की जो सिस्टर्स की देन है । नैतिक मूल्य ,सही गलत की समझ , एक मूलभूत नैतिक आधार , ये भी उन्ही नन्स की देन है । एक और चीज़ जो ध्यान में आती है वो ये कि मदर हमेशा लंच के समय सामने वाले मैदान में चक्कर लगातीं और गिरी हुई कोई भी चीज़ उठाकर बिना हमलोगों को डाँटे कूडेदान में डालती जातीं । तब हम हँसते , खुसुर फुसुर करते । अब मजाल है कि कभी कोई चीज़ मैं सडक पर ऐसे ही फेंक दूँ । कूडेदान तलाशती हूँ । कई बार तो वापस घर तक भी लेकर आई हूँ अगर कोई सही जगह नहीं दिखाई दी है फेंकने के लिये । बच्चे अभी कुडबुडाते हैं मेरी इस आदत पर , डाँट भी सुन जाते हैं ऐसे ही कभी कुछ इधर उधर फेंक देने पर । पर शायद बडे होने पर सफाई उनकी आदत में शुमार हो जाये । मदर का वात्सल्य से भरा चेहरा मुझे याद आता है । मेरे बच्चों के मैं याद आऊँगी ।

सिस्टर्स की एक और बात जो मुझे अब भी कहीं गहरे छूती है वो ये कि उन्हें अपने बहुत से छात्र हमेशा याद रहे । मेरा छोटा भाई अभिषेक कक्षा 1 तक सेकरेड हार्ट में पढा ।उसके बाद सेंट ज़ेवियर और फिर नेतरहाट चला गया । ICSE के बाद एक दिन जब मैं अपनी स्कूल लीवींग सर्टिफिकेट लेने गई तो सिस्टर टेस्सा जिन्हे प्रिंसिपल के तौर पर स्कूल में आये सिर्फ साल भर हुआ था , उन्होंने मेरे भविष्य की योजनायें पूछने के बाद अचानक पूछा कि अभिषेक कैसा है ? मैं हैरान । इन्हें मेरे भाई के बारे में कैसे पता जिसे स्कूल छोडे अरसा बीता , जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा । मेरे हैरान चेहरे को देखकर सिस्टर टेस्सा हँसी थीं फिर कहा था कि कुछ दिन पहले सिस्टर साईमन उन्हें मिली थी जिन्होंने मेरे भाई को पढाया था । मैं भाई को हँसी से कहती कि मेरे वजह से उसे भी याद रखा गया
( मैं पढाई में हमेशा अव्वल रही और ICSE में मेरिट सर्टिफिकेट शिक्षा मंत्रालय , भारत सरकार से भी मिला ) खैर , बात जो भी रही हो सिस्टर्स की छात्रों के प्रति प्रतिबद्धता का ये जीता जागता उदाहरण है ।

स्कूल छूटे अरसा बीता , युग बीता । फिर भी आँखों के सामने लाल ईंटॉं की इमारत , सिस्टर्स , शिक्षिकायें सब ऐसे याद आते हैं जैसे कल की ही बात हो ।

एक वाटर कलर फूलों का बहुत पहले बनाया हुआ

बैंगनी फूल